प्रश्न: आचार्य जी, क्या अध्यात्म और गृहस्थ जीवन को साथ चलाना सम्भव है?
आचार्य प्रशांत: दोनों को अलग कैसे चला लेते हो? कह रहे हैं गृहस्थ जीवन और अध्यात्म को साथ कैसे चला लेते हैं। मुझे बड़ी उत्सुकता है जानने की कि वो गृहस्थी कैसी होगी जिसमें अध्यात्म नहीं है। दोनों को अलग चला कैसे लेते हो? बड़े होसले और जीवट वाले इंसान हो अगर अध्यात्म हीन गृहस्थी चला ले रहे हो। रोज़ पटाखे बजते होंगे, बड़े नज़ारे होते होंगे। बिना अध्यात्म की गृहस्थी कैसी होती है? कैसी होती है?
प्रश्न को बदलना नहीं चाहिए क्या? कि बिना अध्यात्म की गृहस्थी में इतना दुख है ये मैंने आज-तक क्यों किया। प्रश्न अपने ऊपर होना चाहिए न कि जो असम्भव था वो मैंने करके कैसे दिखा दिया। प्रश्न आपका ऐसे ही है कि जैसे कहो कि क्या गाड़ी चलाना और ऑंखें खोलकर रखना एक साथ हो सकता है? कि आचार्य जी, क्या ये दोनों विपरीत काम, जो सिर्फ़ अगल-अलग नहीं हैं बल्कि विपरीत हैं, एक साथ साधे जा सकते हैं कि गाड़ी भी चलाऍं और ऑंखें भी खोलकर रखें।
तो आचार्य जी को तो यही पूछना पड़ेगा न कि महानुभाव आज-तक आपने बिना ऑंखें खोले गाड़ी चला कैसे ली, बहुत पटाखें बजे होंगे? गृहस्थी गाड़ी है, अध्यात्म ऑंखें। ये विपरीत हैं एक-दूसरे के या एक-दूसरे के बिना चल ही नहीं सकते? ये कहना भी मेरा बिलकुल ठीक नहीं है कि एक-दूसरे के बिना नहीं चल सकते। गृहस्थी नहीं चल सकती बिना अध्यात्म के, अध्यात्म तो अपनी टाॅंगों पर खुद चलता है, उसे कोई और नहीं चाहिए। बिना ऑंख खोले गाड़ी कैसे चलायी आज-तक?
प्रश्नकर्ता: अभी तक तो अच्छी ही चल रही है।
आचार्य: अगर अच्छी ही चल रही है तो फिर क्यों कहते हो कि अध्यात्म भी साथ में चलाना है। मानो न कि आइडिया (विचार) है और वो बहुत दुखदायी आइडिया है। सबसे पहले तो स्वीकार करो कि जिस तरीके से आज-तक गृहस्थी चलायी उसमें बहुत दुख है, इसीलिए आज ये प्रश्न करना पड़ रहा है कि आचार्य जी दोनों को साथ कैसे चलाऍं?
प्र: आचार्य जी, मैं इसलिए नहीं चाह रहा कि गृहस्थी और अध्यात्म साथ चलें क्योंकि मैं अपनी गृहस्थी से दुखी हूॅं, बल्कि मैं अपनी से काफ़ी खुश हूॅं। मेरा सवाल इसलिए था क्योंकि मेरी रुचि है अध्यात्म में।
आचार्य: तो गृहस्थी की बात क्यों करी?
प्र: क्योंकि हर जगह यही सुना है कि गृहस्थी और अध्यात्म साथ-साथ नहीं चल सकते।
आचार्य: तुमने गृहस्थी कि बात क्यों करी? कि क्या गृहस्थी और अध्यात्म एक साथ चल सकते हैं? तुमने ये तो नहीं पूछा न कि क्या क्रिकेट और अध्यात्म एक साथ चल सकते हैं, ये भी नहीं पूछा कि क्या पंखा और अध्यात्म एक साथ चल सकते हैं, कैमरा और अध्यात्म एक साथ चल सकते हैं। अगर इतने ही प्रसन्न हो अपने गृहस्थी से तो ये रिश्ता कहाॅं से जोड़ा कि क्या गृहस्थी और अध्यात्म एक साथ चल सकते हैं?
निश्चित रूप से कहीं तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि अध्यात्म जिधर को ले जाता है गृहस्थी तुम्हें रोक रही है, अध्यात्म यदि मुक्ति है तो गृहस्थ बन्धन है। निश्चित रूप से ऐसी कोई धारणा है, तभी तो ये प्रश्न कर रहे हो न। अपने ही प्रश्न में प्रवेश करो। और यदि गृहस्थी में जैसा कह रहो हो कि मोर दैन हैपी (काफ़ी ज़्यादा खुश) हो, तो अध्यात्म लेकर करोगे क्या? जब सब ठीक ही चल रहा है तो अध्यात्म किस लिए चाहिए, अध्यात्म तो है ही सिर्फ़ उन बेचारों के लिए जिन्हें दिखाई दे जाए कि कुछ गड़बड़ चल रहा है। अगर सब ठीक चल रहा है, तुम मोर दैन हैपी (काफ़ी ज़्यादा खुश) हो तो मोर दैन हैपी रहो न। क्यों अपनी हैप्पीनेस (खुशहाली) पर बट्टा लगवाते हो।
प्र: ठीक है आचार्य जी, फिर उसी में लगे रहेंगे?
आचार्य: बस, उसी में लगे रहो। इस बात और इस उत्तर से एक को सीख मिली हो न मिली हो, औरों को पता चल जाता है कि कैसे हम होते हैं, कैसा मन होता है, क्या हम दबाना चाहते हैं, क्या हम छिपाना चाहते हैं। सामने आओ, तीन दिन का मौका है, और साफ़ बताओ। अध्यात्म कोई हॉबी (शौक), पैसन (जुनून), इन्ट्रेस्ट (रुचि) नहीं है, दवाई है। और दवाई सिर्फ़ किसको दी जा सकती है?
श्रोतागण: जो बीमार है।
आचार्य: जो बीमार है, नहीं, बीमार तो सभी हैं। जो ईमानदार है, और बोल रहा है, हाॅं, मैं बीमार हूॅं। बीमार तो हो ही, ईमानदार नहीं हो। दवाई सिर्फ़ उसको दी जा सकती है जो?
श्रोतागण: ईमानदार है।
आचार्य: ईमानदार है। बीमारी कोई मापदंड नहीं है। बीमार तो सभी हैं। इतनी ईमानदारी कम लोगों में होती है कि मान लें कि हाॅं, मैंने बीमारी का जीवन जिया है। क्योंकि वो मानना अहम् को बहुत अखरता है। मानना पड़ेगा मेरे निर्णय गलत रहे, मानना पड़ेगा कि मैं झूठे सुख का ढिंढोरा पीट रहा हूॅं। मानना पड़ेगा कि आज-तक का जीवन गलत जगह निवेशत रहा। मानना पड़ेगा कि सम्बन्धों में, प्रेम में खोखलापन है, और ये सब बातें बड़ी कचोटती हैं। तो कौन माने? तो चिकित्सक के सामने भी बैठे हो तो कह दो कि हम तो यूॅंही टहलते हुए आ गये, बीमार थोड़ी हैं। हम तो बस देखने आ गये कि बाकी बीमारों का क्या हाल है। ‘हाॅं, भाई! आप लोग ठीक हैं? नहीं मैं? मैं तो मोर दैन हैपी (काफ़ी ज़्यादा खुश)।’ आपको क्या लग रहा है वो दो कौड़ी की बात होती है। आपको क्या लग रहा है आपको अगर उसी में जीना हैं तो अध्यात्म आपके लिए नहीं है।
अध्यात्म कि शुरुआत तब होती है जब आप ये स्वीकार करें कि आपको जो लग रहा है, उसके मूल में भ्रम बैठा है। जो उसकी तहकीकात करे, जो उसकी जिज्ञासा करे उसके लिए है अध्यात्म। अन्यथा सिद्धान्त की बातों के लिए नहीं होता कि क्या गृहस्थी और अध्यात्म साथ चल सकते हैं? किसकी गृहस्थी? मेरी गृहस्थी। तो अपनी गृहस्थी का हाल बताओ न बेटा। तुम ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर सी स्क्वायर थोड़ी कर रहे हो कि वहाॅं पर जो त्रिभुज है मैं उसकी बात कर रहा हूॅं, तुम अपने दिल कि बात कर रहे हो। कि जैसे कोई चिकित्सक के आगे आकर बोले, ‘अगर किसी को मलेरिया हो तो वो क्या करे?’ अरे! किसको? नहीं, किसी को।
यहाॅं बैठे हैं डॉक्टर साहब (इशारा करते हुए), कोई आये मरीज़, और कहे कि (इशारा करते हुए), और ये बात सब पर लागू हो रही है। समाधान चाहते हैं तो बात बताइए। आत्मरक्षा का बहुत अगर शौक हो तो टहलकर आइए। इस तरह कि बात अध्यात्म में नहीं चलती कि मेरी दृष्टि, आप कि दृष्टि। गुरु से ये सब बातें करनी हैं तो जाओ कोई ट्रेन (रेलगाड़ी) का कम्पार्टमेन्ट (डिब्बा) खोजो जहाॅं पर कोई उथली बहस चल रही हो, उसमें शिरकत करो। कि तुम किसको बोट दोगे, मैं किसको बोट दूॅंगा। वहाॅं पर ये सब चलता है, क्लैस आफ अपीनियन्स (विचारों का टकराना)। ये बातें अध्यात्म में गुरु के सामने नहीं की जाती हैं।
प्र२: आचार्य जी, ये कैसे मानें कि कुछ गलत है हमारे जीवन में?
आचार्य: या तो कोई विचित्र संयोग हो, मालिक कि कृपा से। तो अचानक अहसास हो जाए कि कुछ गलत है या व्यक्ति स्वयं निर्णय करके चैतन्य तरीके से अपनेआप को एक अलग माहौल दे, ऐसी संगति दे जिसमें ज़्यादा संवेदनशील लोग हों। तो उसको पता चले कि अरे ऐसे भी जिया जा सकता है क्या? इनके अलावा विधि तो कोई नहीं है। ये प्रश्न बहुत बार आता है कि विधि क्या है? सबसे बड़ी विधि जो है वो दुख स्वयं है। और अगर वो विधि असफल हो गयी फिर बड़ा मुश्किल है।
भई, आपके चोट लगती है तो आप तत्काल क्या करते हो? कुछ उपाय, कुछ उपचार चाहते हो न? जिस जगह चोट लगी उसको पकड़ लेते। अगर आपका प्रतिरक्षा तन्त्र ही चोट के समर्थन में खड़ा हो जाए, तो अब क्या होगा? या तो चोट के समर्थन में खड़ा हो जाए, या वो चोट के प्रति निर्पेक्ष हो जाए। कि चोट लग भी रही है तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तो अब कट गया आपका हाथ, खून निकल रहा है, खून जमेगा ही नहीं। सीधा नतीजा मृत्यु।
शरीर को पहले मानना पड़ेगा न कि कुछ गलत हुआ है। जब मानेगा कुछ गलत हुआ है तो वहाॅं पर सेल्स (कोशिका) फिर तेजी से आगे बढ़ेंगी, क्लाॅट (थक्का) बनाऍंगी, कोई रक्षा के लिए कुछ उपाय करेंगी। अगर तन्त्र ही ऐसा हो जाए कि वो स्वीकार ही करना बन्द कर दे कि कुछ गलत हुआ है।
श्रोतागण: उसी समय मृत्यु हो जाएगी उसकी।
आचार्य: फिर क्या होगा?