प्रश्नकर्ता: सर मेरा सवाल आपसे ये है कि अच्छा आदमी कौन है?
आचार्य प्रशांत: सबसे अच्छे आदमी तुम हो।
तुम्हारा सवाल कि, "अच्छा आदमी कौन है?" अभी मैंने कहा तुमसे कि डूबो ज़िन्दगी में। कहा था? जीवन ठीक अभी है और ठीक अभी जीवन के अवसर का उपयोग किसने किया? सवाल किसने पूछा? सवाल तुम ने पूछा।
जो जीवन को जिए वही अच्छा आदमी है। और जीवन को जो मुर्दों की भाँति काट दे वही बेकार आदमी है। जीवन एक अवसर है, कह सकते हो एक पार्टी है। जो उसमें शामिल हो ले, जो उसमें डूब ले, वही अच्छा। और जो उससे कटा-कटा सा, अनमना सा बिता दे, वही बेकार, वही मूर्ख।
पर मुझे पता है कि तुम्हारी नज़र में अच्छे और बुरे की दूसरी अवधारणाएँ हैं। तुम सोचते हो कि अच्छा वो जो कुछ नैतिक नियमों का पालन करता है। और तुम सोचते हो कि बुरा वो जो उन नियमों को तोड़ देता है।
तुम सोचते हो अच्छा वो है जो दूसरों कि मदद कर दे। सच बोलता हो, गाली-गलौच ना करता हो। और इस तरह की दो-चार बातें और। वो सब बिलकुल भूल जाओ। ये बात ध्यान रखना कि ये सवाल पूछने के लिए तुम्हें ध्यान से देखना पड़ा कि क्या सवाल है जो मन में है और जो पूछने काबिल है; ध्यान। इसका नाम क्या है? ध्यान। तुमने ध्यान से अपने आप को देखा, ये सवाल जो पूछा गया ये छोटी चीज़ नहीं है। इसकी पूरी प्रक्रिया को देखो। सबसे पहले तो तुमने ध्यान से देखा कि, "क्या है जो मैं पूछ सकता हूँ?" दूसरी बात कि तुमने निडरता से खड़े होकर वो सवाल पूछ भी लिया। हम में कुछ लोग होंगे जो ध्यान से देख भी नहीं पाए होंगे कि, "क्या है जो मेरी ज़िन्दगी में पूछने लायक है?" और बहुत सारे ऐसे हैं जिन्होंने सवाल लिख तो लिए हैं पर डरे हुए हैं, उठ करके पूछ नहीं पा रहे। सवाल सब के ही पास हैं न? जब मैंने पुछा था कि, "कितने लोगों के पास सवाल हैं?" सब के पास सवाल हैं। पूछा अभी किसने तुरंत? तुम ने पूछा।
तो अच्छे आदमी के बस यही दो लक्षण। पहला - ध्यान, और दूसरा - उस ध्यान से निकला हुआ निडर कर्म। अच्छे आदमी के बस यही दो लक्षण। पहला - ध्यान; ध्यान कहाँ होता है? ध्यान मन में। ध्यान कहाँ है? मन में। ध्यान से देख रहा हूँ। कम्पलीट अटेंशन (पूर्ण ध्यान)। और उसी का मतलब है डूब जाना। कम्पलीट इमर्शन (पूरी तरह डूब जाना)।
पहली बात; ध्यान और दूसरी बात कि मन में जो ध्यान है वो फिर सांसारिक रूप से संसार में कर्म भी बने। ऐसा ना हो कि कर्म बनते-बनते बीच में दूसरी बाधाएँ आ गईं, डर आ गया, संकोच आ गया, दुविधाएँ आ गईं। सोचना शुरू कर दिया कि और लोग क्या बोलेंगे। तो ध्यान से मैं जानूँ और जो जानूँ उस पर चलूँ। क्या बोली दो बातें?
पहली बात ध्यान से जानूँ और दूसरी जो जानूँ उस पर चलूँ भी। और पहली और दूसरी जुड़ी हुई हैं। अगर ध्यान में गहराई है, अगर ठीक-ठीक जाना है तो उस पर चलोगे ही। अक्सर चल वो ही नहीं पाते जिन्होंने जाना ही नहीं है। अगर तुम्हें पक्का है कि जो मेरा सवाल है, वो महत्त्वपूर्ण है पूछा जाना ही चाहिए तो तुम पूछ ही लोगे। अगर पक्का है तुम्हें कि तुम्हारा सवाल महत्त्वपूर्ण है तो तुम कहोगे कि "जो हँसे, मैं पूछूँगा।"
"मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है ध्यान से जानना, ध्यान से देखना और फ़िर जो समझ में आया उस पर अमल भी करना।" उस पर क्या करना? अमल भी करना। बस यही अच्छे आदमी के लक्षण हैं।
बाकी सारी नैतिकता भुला दो। भूल जाओ कि जो दूसरों की मदद करे वो अच्छा आदमी है, ये सारी बातें पीछे छोड़ दो। कोई भी स्थिति हो उसमें होश कायम रखो। पहला लक्षण अच्छे आदमी का; होश कायम रहे, बेहोशी नहीं। यही ध्यान है और दूसरी बात कि उस होश के फलस्वरूप जो उचित है वो हो। वो बाधित ना होने देना। क्योंकि होने और करने में ज़रा सा अन्तर तो होता ही है। बित्ते भर का फासला हमेशा होता है जानने में और उसको अमल करने में, उसे कर्म में उतारने में एक हलकी सी दूरी होती है। और हम में से अधिकतर लोग उस दूरी को पार नहीं कर पाते। जान भी जाते हैं तो उसे कर्म में नहीं उतार पाते। ऐसा देखा है कि नहीं? कि, "जानता तो हूँ पर कर नहीं पाता।" ऐसा देखा है न? उससे भी बचना है। जानने में पूरी गहराई और जो जाना उस पर निडरता से निःसंकोच अमल। बस यही है अच्छा आदमी।
अच्छा आदमी कौन है, इस बारे में जो कहा गया उस बारे में और जानना है। देखो, दो तरीके से अच्छे और बुरे का निर्धारण हो सकता है। पहला ये कि बचपन से ही हमें बता दिया गया है क्या अच्छा और क्या बुरा। सबको पता है कि झूठ बोलना बुरा है, पढ़ाई में मन लगाना अच्छा है, दूसरों को सताना बुरा है। बड़ों को आदर देना अच्छा है। ये सारी बातें बाहर से आई हैं और समय, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलती भी रहती हैं। आज एक देश में जो अच्छा है, दूसरे देश में वही चीज़ बुरी मानी जाती है। एक देश में जो बात वैध है, दूसरे देश में बिलकुल अवैध है। और देशों को छोड़ दो, कुछ प्रांतों में जो चीज़ ठीक है क़ानून की नज़र में, दूसरे प्रांत में वही चीज़ ग़लत है। एक धर्म में जो चीज़ अच्छी मानी जाती है, दूसरे धर्म में वही बात बिलकुल बुरी मानी जाती है। एक घर में जो बुरा माना जाता है, दूसरे घर में वो बुरा नहीं माना जाता है। ये अच्छे और बुरे बाहर से आए हैं और ये बदलते रहेंगे।
तुम्हारे सीनियर्स से बात कर रहा था, पिछले साल की बात है। तो मैंने उन्हें कहा कि तुम्हारे ही देश में और देश के इसी इलाके में आज से सिर्फ कुछ सौ साल पहले तक सती की प्रथा बिलकुल अच्छी मानी जाती थी। अच्छी ही नहीं मानी जाती थी, जो औरत पति के साथ जल मरे उसे देवी माना जाता था मंदिर भी बना दिए जाते थे उसके लिए। वो बात आज भारत में अपराध है। कानूनी रूप से अपराध है। और कानूनी रूप से जो है, सो है, तुममें से कितने लोग हो जो उसको सही समझोगे? कितनी लडकियाँ हैं जो सही समझेंगी कि, "जब पति की चिता जल रही होगी तो हम भी कूदेंगे उसमें, यही अच्छा है"? तो ये अच्छे-बुरे बदलते रहते हैं।
जो भी अच्छा-बुरा बाहर से आएगा, उसमे कोई दम नहीं होगा। वो लगातार बदलता रहेगा। और वो तुम्हारा अपना भी नहीं होगा। पहली बात कि लगातार बदलता रहेगा और दूसरी बात कि तुम उस पर चल भी नहीं पाओगे।
हर बच्चे को सिखा दिया जाता है कि सच बोलो, झूठ मत बोलो पर फिर भी दुनिया झूठों से भरी हुई है। हर बच्चे को बताया जाता है कि हिंसा ग़लत है लेकिन फिर भी दुनिया हिंसक लोगों से भरी हुई है। तो जब भी सच-झूठ के पैमाने तुम्हें बाहर से थमा दिए जाएँगे, पहली बात कि उनमे दम नहीं होगा, वो लगातार बदलते रहेंगे और दूसरी बात कि तुम उन पर चल भी नहीं पाओगे। उन पर अमल भी नहीं कर पाओगे क्योंकि वो तुम्हारे अपने नहीं हैं। ये सच और झूठ वो हैं जो बाहर से आ रहे हैं। ये उचित-अनुचित वो हैं, ये अच्छे-बुरे वो हैं जो बाहर से आ रहे हैं। इनमें कोई दम नहीं है। ये तुम्हारी अपनी चेतना से नहीं आए हैं।
एक दूसरा तरीका भी होता है ये जानने का कि क्या अच्छा है क्या बुरा। वो असली तरीका होता है। वो दूसरा तरीका वही है जो मैंने तुमसे बोला था - ध्यान का। मेरे पास अपनी समझ है, अपनी आँखें हैं, मैं देखूँगा, मैं समझूँगा। और फ़िर उस समझ के फलस्वरूप जो ठीक लगेगा वही करूँगा, वही अच्छा है। होश में जो किया जाए वही अछा है, और बेहोशी में जो किया जाए वही बुरा है। ये दूसरा तरीका है।
पहला तरीका है अच्छे-बुरे का कि, "मुझे जो दूसरों ने बता दिया अच्छा है, मैंने मान लिया अच्छा है। मुझे जो दूसरों ने बता दिया बुरा है, मैंने मान लिया बुरा है।" ये पहला तरीका है ज़िन्दगी जीने का। और दूसरा तरीका है कि, "मैं अपनी नज़र से देखूँगा, और होश में मुझे जो बात समझ में आती है वही करूँगा, यही अछा है। और जब कभी मैं बेहोश हो जाऊँ और अपनी जानी बात पर अमल ना करूँ तो वही बुरा है। आई बात समझ में?