आचार्य जी के प्रश्नों का समाधान कौन करता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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आचार्य जी के प्रश्नों का समाधान कौन करता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न यह है कि क्या आपके मन में भी प्रश्न उठते हैं। अगर उठते हैं तो उनका उत्तर आप कहाँ खोजते हैं?

आचार्य प्रशांत: बेटा आपके मन में जितने उठते होंगे उससे कई गुना ज़्यादा। और आप अपने प्रश्नों के जितने उलझे हुए जवाब अपनेआप को देते होंगे, मैं उससे कहीं ज़्यादा उलझे हुए जवाब अपनेआप को देता हूँ। अन्तर बस ये है कि मैं वो सारे उलझे हुए जवाब पहले ही अपनेआप को ही दे लेता हूँ। अन्तर बस इतना है कि मेरे सारे उलझाव मेरी अपनी कचड़े की टोकरी में ही चले जाते हैं। तो फिर वो किसी और के सामने नहीं आते। मैं वो रसोइया नहीं हूँ, जो अधपका व्यंजन परोस दूँ। इतनी ईमानदारी तो रखनी चाहिए न? जिसको परोस रहे हो, जिसका सत्कार कर रहे हो उसके प्रति।

प्रश्न-ही-प्रश्न चलते हैं। क्यों नहीं चलेंगे? और फिर जितने तरीके हो सकते हैं उत्तर पाने के, सब तरीके आज़माये भी जाते हैं। जब आपसे कह रहा हूँ कि विशेषज्ञों से पूछो, तो यूँही नहीं कह रहा हूँ। मन और जीवन के जो विशेषज्ञ हुए हैं, उनके पावों में जाकर बैठा हूँ। खेद की बात ये है कि वैसा कोई जीवित है नहीं। या मिला नहीं। तो मुझे बस इतनी ही सुविधा थी कि जो हो गये अतीत में, उनके शब्दों के पास जाकर बैठ जाऊँ, उनकी वाणी सुन लूँ, उनके ग्रन्थ पढ़ लूँ। वो मैंने करा है, इसीलिए आपसे बड़े अधिकार और बड़े विश्वास के साथ कहता हूँ कि आप भी करिए।

वो मैंने करा ही नहीं है, वो मैं आज भी करता हूँ। एक समय था, कॉलेजी ज़िन्दगी में, उसके बाद भी, जब क्रिकेट, टेनिस खूब देखता था। फ़िल्में भी हो जाती थीं, अब वो सब बहुत कम है। तो मुझे अगर कभी कुछ देखना होता है तो क्या देखता हूँ? मुझे भी अगर अपना थोड़ा मनोरंजन करना होता है, जो वास्तव में मनोशुद्धि होती है, तो कैसे करता हूँ? मैं उन्हीं के पास जाता हूँ, जिनके पास मैं आपको भेजता हूँ।

अभी तीन-चार दिन पहले की बात है, रात में अनमोल कमरे में था। मैंने ज़िद करके कहा, मैंने कहा, ‘श्लोक महल्ला नोवा, गुरु तेग बहादुर साहब का लूप में लगाओ, लूप में। ये रुकना नहीं चाहिए।’ वो बोला, ‘लूप में लगाने का कोई तरीका नहीं।’ मैंने कहा, ‘नहीं, देखो कैसे लगेगा।’ फिर कैसे लगा था? फिर कहीं से कुछ कॉपी करके, पेन ड्राइव में लगाकर, उसने उसको लूप में लगाया। मैंने कहा, ‘ये धाराप्रवाह बजना चाहिए। छ: घंटे-आठ घंटे चलने दो। यही अमृत है। यही वो पोषण है, जो आपके दिल को चाहिए। वो पोषण नहीं मिलेगा तो भीतर कुछ सूख जाएगा, कुपोषित हो जाएगा। जैसे शरीर के लिए ज़रूरी होता है न-दाल चावल, विटामिन, प्रोटीन, आप ये सब गिनते भी हो, कितनी कैलोरी हो गयी आज की, वैसे ही भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, उसे भी पोषण चाहिए होता है। और उसको दाल-चावल से पोषण नहीं मिलता।

आप बाहर से कितना भी खा-पी लो, भीतर का जो सूक्ष्म शरीर है, जिसको मन कहते हैं, वो तड़पता ही रहता है, क्योंकि ये खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, ये उसको तृप्त नहीं कर पाते। उसको तो तृप्त करती है ऋषियों की वाणी, सन्तों के गीत, ज्ञानियों के वचन, यही। और ये अगर आप अपनेआप को नहीं दे रहे हैं, तो भीतर से आप बड़े शुष्क रहेंगे। रोगी, मुरझाये हुए। ऊपर-ऊपर से आपका शरीर हो सकता है बड़ा तन्दरुस्त दिखे, बिलकुल हो सकता है आप पहलवान हों। एकदम पहलवान हैं। सब करते हैं। खेलते हैं, दौड़ लगाते हैं, जिम जाते हैं, बीस साल से हठयोग कर रहे हैं, आसन लगाते हैं। बाहर-बाहर से बड़े तन्दरुस्त हैं। पर भीतर अगर वो आर्ष वचन नहीं पहुँच रहे हैं, तो भीतर से आपकी हालत किसी कुपोषित बच्चे जैसी रहेगी। बाहर से पहलवान और भीतर से एक सूखा हुआ बच्चा।

ये हालत अधिकांश पाश्चात्य जगत की है। आप यूरोप जाएँ, अमेरिका जाएँ। वहाँ के औसत आदमी का वज़न, किसी औसत भारतीय के वज़न से कम-से-कम दस किलो ज़्यादा होता है। और वहाँ के औसत व्यक्ति की ऊँचाई, औसत भारतीय की ऊँचाई से कुछ नहीं तो दो-तीन इंच तो ज़्यादा होती ही है। औसत आयु भी उन्हीं की ज़्यादा होती है। आम हिन्दुस्तानी अगर अब बहत्तर-पिचहत्तर वर्ष जीता है, तो आम अमरीकन बयासी-पिच्चासी वर्ष जीता है। शरीर उनका बड़ा हो गया है। पर भीतर से बहुत मुरझाये रहते हैं। बहुत छोटे-छोटे।

भारत का किस्सा उलट रहा है। यहाँ जब विदेशी आते थे, तो उनको कुछ भी आकर्षक चीज़ नहीं मिलती थी। अगर स्मृति साथ दे रही है तो शायद बाबरनामा में उल्लिखित है। बाबर ने जब फ़तह किया दिल्ली को, तो उसको अफ़गानिस्तान की याद बहुत सताती थी। वो कहता था जिस तरीक़े के तरबूज़-खरबूज़ वहाँ होते थे, जैसे मेवे वहाँ होते थे, यहाँ होते ही नहीं। और कहता था यहाँ के लोग भी कैसे छोटे-छोटे से हैं, और सुन्दर नहीं दिखते। ऐसा ही अंग्रेजों का भी कहना था। वो कहते थे, ‘ये हिन्दुस्तानी, भूरे लोग। कन्धे इनके चौड़े नहीं होते। कद-काठी के कमज़ोर। बहुत इनको दुनिया की जानकारी भी नहीं है।’ देखो न, देसी चना देखो और काबुली चना देखो। यही बाबर ने कहा कि कहाँ काबुल मेरा और कहाँ ये! कहाँ फँस गया! वो बहुत परेशान रहता था कि मुझे वापस लौटना है, यहाँ रुकना ही नहीं है।

देसी गुलाब देखा है? और विदेशी गुलाब देखा है? अन्तर बस ये है कि देसी गुलाब छोटा सा होता है पर खुशबू देता है। देता है या नहीं देता है? वो ज़्यादा ज़रूरी है शायद? नहीं? इसीलिए शायद जब तुम देवमूर्ति पर माला चढ़ाते हो, तो वो देसी गुलाब की होती है। विदेशी गुलाब तो ये बढ़िया भक्का खिलता है। और कई कई रंगों के होते हैं। देसी अपना वही एक गुलाबी। और वो झड़ भी जल्दी जाता है। कमज़ोर भी होता है।

तो ये दो अलग-अलग तल हैं जीने के; एक बाहरी, जहाँ बात शरीर की होती है, जहाँ बात धन की होती है, जहाँ बात ताक़त की होती है। उसका खयाल रखा जाना भी ज़रूरी है, भई। खाना पीना ठीक रखो। और रूपये-पैसे से भी आदमी को ठीक होना चाहिए। इतना तो होना चाहिए कि हाथ न फ़ैलाने पड़ें इधर-उधर। तो उस तल की देखभाल ज़रूरी है निश्चित रूप से। पर जानने वाले हमें कह गये हैं कि उस बाहरी तल का खयाल तो रखो, उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है भीतरी तल। भीतरी पोषण अपनेआप को देते रहना है।

हिन्दुस्तान ने यही करा है। बाहर का ज़रा कम खयाल रखा है, भीतर का ज़्यादा खयाल रखा है। हालाँकि अब स्थितियाँ उलटने लगी हैं। अब वैसा बहुत नहीं है। तुम सन्तों की मूर्तियाँ देखो या चित्र वगैरह देखो, तो उनका व्यक्तित्व कैसा दिखता है? शानदार, जानदार? बोलो। वो कैसे होते हैं? ऐसे ही सूखे, हाड़ जैसे बैठे हुए हैं। पर बातें देखो उनकी। गाँधी जी थे, दिखते कैसे थे? बहुत खूबसूरत थे? बहुत बलिष्ठ थे? हृतिक रोशन थे बिलकुल? पर भीतर उनके जो सूक्ष्मता थी, उसमें कुछ बात थी। उसमें महानता थी। उसका खयाल रखिए।

आप शरीर भर नहीं हैं। ये आप जानते हैं, अच्छी तरह जानते हैं। मैं आत्मा की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं मन की बात कर रहा हूँ। मन तो है न? आत्मा से इनकार कर दीजिए कोई बात नहीं। पर मन तो है या मन भी नहीं है? मन है न? तो उस मन को पोषण देना पड़ता है। जैसे शरीर को पोषण देते हैं, वैसे ही मन को पोषण दीजिए। और वो पोषण एक ही जगह से मिलेगा। और कोई जगह नहीं है। फ़िल्म देखने से मन को पोषण नहीं मिल जाना है। मैच देखने से नहीं मिल जाना है। धमाचौकड़ी मचाने से, गुलाटी मारने से मन को पोषण नहीं मिल जाना है। पार्टी करने से मन को पोषण नहीं मिल जाना है। खरीददारी, शॉपिंग करने से भी नहीं मिल जाना है। जहाँ मिलना है, वहाँ जाइए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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