आप भी खा रहे हैं ऐसे धोखे? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2021)

Acharya Prashant

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आप भी खा रहे हैं ऐसे धोखे? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2021)

प्रश्नकर्ता: सत्य और अध्यात्म की बात पर। व्हाट इस द डिफरेंस बिटवीन बींग स्पिरिचुअल एंड हैविंग अ स्पिरिचुअल एक्सपीरिएंस (आध्यात्मिक होने में और आध्यात्मिक अनुभव होने में क्या अंतर है) ?

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिक अनुभव जैसा कुछ नहीं होता। आप अगर आध्यात्मिक हैं तो आपके सब अनुभवों में एक सच्चाई होगी। तो आप उसको कह सकते हैं कि चूँकि मैं आध्यात्मिक व्यक्ति हूँ, तो इसीलिए मुझे जो कुछ भी अनुभूत होता है मैं उसे गहराई से जान लेता हूँ। तो फिर सभी अनुभव आध्यात्मिक हैं।

पर हम जिस अर्थ में कहते हैं आध्यात्मिक अनुभव, वो अर्थ बहुत ही व्यर्थ है। हम कहते हैं कि हूँ तो मैं साधारण सा आदमी, लेकिन मेरे सामने एक विशेष मौका आया, और तब मुझे एक विशेष आध्यात्मिक अनुभव हुआ। मैं वही हूँ जो मैं हूँ, लेकिन मुझे एक विशेष आध्यात्मिक अनुभव हो गया। ये वैसी सी बात है कि मैं तो फटीचर आदमी हूँ लेकिन मेरी लॉटरी लग गई।

ऐसे नहीं होता, ये सब संयोग अध्यात्म में नहीं चलते। आपने सुना होगा कि मैं जा रहा था, जा रहा था, उन पहाड़ों पर जा रहा था, तभी सूरज ढलने लगा और मेरे सामने एक झरना आ गया, और मैं उस झरने पर थोड़ी देर के लिए रुक गया। और फिर मैं पानी पीकर वहीं बैठ गया, और एक टक धार को देखने लगा और तभी मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे फलाने देवता आसमान से मेरे ऊपर पुष्प वर्षा करने लग गए। तो ये आध्यात्मिक अनुभव हो गया।

या ‘मुझे ऐसा प्रतीत होने लग गया कि मैं खुद भी झरने का पानी हूँ। मैं अपने शरीर से बाहर निकल करके झरने का पानी बन गया और मैं झरने के साथ-साथ बहने लग गया और फिर मुझे पता चला कि जीवन भी तो एक बहाव ही है। और ये देखिए इस तरह से मुझे एक प्रगाढ़ आध्यात्मिक अनुभव हुआ। लोग बोलते हैं न प्रोफाउन्ड स्पिरिचुअल एक्सपीरिएंस।

ये खुद को बुद्धू बनाने वाली बात है, एकदम मूर्खतापूर्ण बात है कि मैं गया, वहाँ सामने गुरु जी बैठे हुए थे और मैं उनके सामने बैठा और बस उन्होंने मुझे एक दृष्टि देखा और उनके देखने भर से मुझे समाधि लग गई। तो ये मुझे, देखिए, कितना प्रगाढ़ आध्यात्मिक अनुभव हुआ है। ये बिल्कुल एकदम बेवकूफी की बात है।

ये हम अपनेआप को बहला रहे हैं कि मेरे साथ भी तो देखो कुछ खास हो सकता है न। आदमी तो मैं आम हूँ, लेकिन देखो मेरे साथ भी कुछ खास हो गया, मेरी लॉटरी लग गई। नहीं लगती, नहीं लग सकती। ऐसे नहीं होगा। आपने अगर अपना पूरा जीवन ही सही जिया है, आपने अगर सही जीवन जीने का मूल्य चुकाया है, आपका इरादा पक्का है कि झूठ पर नहीं चलना, तो फिर होता है आपको आध्यात्मिक अनुभव। और वो कोई विशेष अनुभव नहीं होता, फिर आपके सब अनुभवों में अध्यात्म होता है।

अनुभवों में अध्यात्म होने का अर्थ क्या है?

अध्यात्म का अर्थ होता है स्वयं को सही-सही जानना। अधि+आत्म; अधि माने ज़्यादा, आत्म माने स्वयं, मैं। स्वयं को और ठीक से जानना। अपने बारे में भूल में, भ्रम, गलतफहमी में न रहना, यही अध्यात्म है।

तो फिर मैं जो कुछ भी कर रहा होता हूँ, मैं उसमें अपने भीतर बैठी माया का खेल देख पाता हूँ क्योंकि अब मैं स्वयं को जान गया हूँ। फिर मेरे लिए हर अनुभव आध्यात्मिक है। चाहे मैं पानी पी रहा हूँ, चाहे मैं चल रहा हूँ, चाहे मैं लेटा हूँ, सो रहा हूँ, सड़क पार कर रहा हूँ, गाड़ी चला रहा हूँ, खाना खा रहा हूँ। मैं कुछ भी कर रहा हूँ, मेरा हर अनुभव आध्यात्मिक है। तो या तो सब अनुभव आध्यात्मिक होंगे या कोई नहीं। ये बीच में अचानक, संयोगवश कोई ईश अनुकंपा नहीं हो जाने वाली है। अनुकंपा का भी पात्र बनना पड़ता है। और जब पात्रता आ जाती है तो सब अनुभवों में अध्यात्म आ जाता है। ये बीच-बीच में अचानक कहीं कुछ झरना नहीं फूट पड़ता।

तो ये बड़ा ठगी का व्यापार है। तथाकथित साधक एक-दूसरे से मिलते हैं और पूछते ही यही हैं कि सो व्हाट आल हैव यू एक्सपीरिएंस्ड (तो आपने क्या अनुभव किया) ? और फिर जो वहाँ पर लम्बी-लम्बी फेंकने की प्रतिस्पर्धा चलती है कि पूछिए मत। कोई बताता है कि वो हाथी जा रहा था और वो हाथी में मैंने देवता को देख लिया। कोई कुछ बताता है, कोई कहता है मेरे भीतर से अग्नि उठी, किसी के भीतर चक्र इत्यादि खुल गए। ज़्यादातर लोगों का ये तो होता ही होता है कि मैं अपने शरीर से बाहर निकल के कोलंबो चला गया। कोलंबो से मुझे लगा कि वहाँ सिडनी में मैच चल रहा है तो मैच देख आता हूँ तो मैं उड़के सिडनी चला गया, ये सब। हमें सबसे ज़्यादा मज़ा अपने-आपको ही बुद्धू बनाने में आता है।

प्र: माफ़ कीजिएगा, मैं आपको बीच में इंटरप्ट (रुकावट) कर रही हूँ, सॉरी। पिछले तीन-चार सालों में, ये सेंसेशनल (संवेदनात्मक) बात बिल्कुल नहीं है, क्योंकि वो मेरा कोर (अन्तर्भाग) है ही नहीं।

मेरे साथ, अब आप वही वाली बात है, कि आप बोलेंगे ये, आई हैव एक्सपीरिएंस्ड (मैंने अनुभव किया है) , टू-टू-थ्री टाइम्स (दो से तीन बार) हो चुका है, और चाहती नहीं थी। मैं…..पढ़ रही थी। और बीस साल की उम्र से कोशिश करती थी क्योंकि आप जब इस मार्ग में होते हैं कोशिश करते हैं कि कुछ शायद बैठ के हो जाए। बीस साल से कुछ होता नहीं था। आँख बंद करे रहती थी, बिल्कुल कॉन्सेंनट्रेशन (एकाग्रता) नहीं। कोशिश जारी रहती थी; फेल (विफल) । तो….. पढ़ रही थी।

एक बहुत पॉइग्नेंट (मार्मिक) लाइन (पंक्ति) थी, सॉरी मुझे याद नहीं है। छ: सात साल पहले की बात है। सो आई वाज़ वेरी ड्रॉन बाई दैट लाइन (मैं उस पंक्ति से बहुत आकर्षित हुई) , क्योंकि वो मेडिटेशन (ध्यान) , क्योंकि इतना हौआ बना के रखते हैं सब-के-सब, कि मोस्टली (अधिकतर) बोला जाता है ऐसे बैठो, वैसे बैठो। बहुत रूल्स-रेग्युलेशन (नियम और विनियम) होते हैं, उसी में आधे तो आप वैसे ही हार जाते हैं कि एलाइन्मेंट (संरेखण) दिस एंड दैट (यह और वह) , ब्रेथवर्क (श्वास क्रिया) । बहुत कुछ होता है। तो डिस्ट्रैक्शन (विकर्षण) ऑलरेडी (पहले से ही) इतने हैं कि जो करने जा रहे हो वो कैसे हो। फेल हमेशा रहता था।

कई बार ऐसा ज़रूर होता था कि आप योग निद्रा वाली बात है कि योग गाइडेड (निर्देशित) हो रहा है तो आप खुद ही फिर लूज़ (शिथिल) कर रहे हैं अपने-आपको उसमें। बट यू वोन्ट बिलीव (लेकिन आप विश्वास नहीं करेंगे) , ये मैं आपको कॉन्ट्राडिक्ट कर रही हूँ कि बिल्कुल सेंसेशनल बात नहीं है। आई हैव हैड दीज़ एक्सपीरिएंसेस (मुझे ये अनुभव हुए हैं) और मेरा ये सवाल भी था, मैं आपसे पूछना चाहती थी क्योंकि मैं जानती थी कि आप बहुत वेहेमेंटली इसको कि ये मनगढ़ंत बातें अपने-आपको, यू नो, गेट ओवर इट। गेट ओवर योर लिटिल सेल्फ , बाहर आओ।

हाउ डू आई एक्सप्लेन व्हाट हैपन्ड विद मी (मैं कैसे समझाऊँ कि मेरे साथ क्या हुआ) क्योंकि ये बहुत इनएक्सप्लिकेबल (अकथनीय) और बहुत, यू नो अनडिसक्राइबेबल (अवर्णीनीय) था मेरे लिए और मैं बैठी हूँ और लिट्रली (वस्तुतः) ये जो बोल रहे हैं कि बॉडी उड़ गई तो नथिंग लाइक दैट (ऐसा कुछ भी नहीं) । बट आई एम गोइंग टू टेल यू दैट आई लिट्रली सैट (लेकिन मैं आपको यह बताने जा रही हूंँ कि मैं सचमुच बैठ गई थी) क्योंकि …… पढ़के ही निकली थी तो और भी ज़्यादा था कि अरे एक्ज़ैक्टली (बिल्कुल) वही बोल रहे हैं जो कि यू नो, इट आलरेडी हैज़ हैपन्ड (आपको पता है, कि यह पहले ही हो चुका है) । सो हाउ डू यू एक्सप्लेन दोज़ वन ऑफ केसेस बिकाॅज़ इट हैज़ हैपन्ड विद मी (तो आप उन मामलों में से एक को कैसे समझाऍंगे क्योंकि यह मेरे साथ पहले ही हो चुका है)। ऐन्ड फाॅर मी (और मेरे लिए) …..

आचार्य: यही एक्सप्लेनेशन (स्पष्टीकरण) है। इट हैज़ हैपन्ड विद यू (यह आपके साथ हुआ है) । बस हो गया।

प्र: ऐसा नहीं था कि आई सटार्टेड यू नो (मैंने शुरू किया,आपको पता है) , मैंने अपनी पूरी दुनिया रोक दी। और बैठ के मैं वंडर (सोचने) करने लगी। आई वेंट ऑन माई वर्क (मैं अपने काम पर गई) । बट इट वाॅज़ ऑलवेज़ अ वेरी (लेकिन यह हमेशा एक बहुत) .....

आचार्य: फिर समझिये।

प्र: जी

आचार्य: इट हैपन्ड विद? (ये किसके साथ हुआ?)

प्र: मी। (मेरे साथ)

आचार्य: मी। और आप कौन हैं?

प्र: मैं चदाक्षा (प्रश्नकर्ता का नाम) हूँ।

आचार्य: आपके साथ कुछ भी हो सकता है। आपमें क्या कोई मौलिकता है? आपके साथ तो कुछ भी हो सकता है न। आप जिस किताब का नाम ले रही हैं, वो भरी ही हुई है इस तरीके के किस्सों से तो इसमें अब आश्चर्य क्या कि वो पढ़के आपके साथ भी ये सब होने लग जाए।

प्र: उससे पहले हो गया था और जो उन्होंने बताया, दैट इज़ कोराॅबोरेटिंग (यह पुष्टि कर रहा है) …..

आचार्य: उससे पहले हो गया था। उससे पहले आप वही थी न जो उस किताब की ओर जा रही थीं?

प्र: जी।

आचार्य: उस किताब की ओर आप अचानक तो नहीं चल पड़ी थी?

प्र: अच्छा, दैट, हाँ।

आचार्य: समझिए बात को। आप कौन हैं? जो एक खास किताब की ओर आकर्षित हो रहा है। आप क्यों आकर्षित हो रही हैं? ऐसा तो नहीं है आप उस किताब के बारे में कुछ नहीं जानती? उसमें जो मसाला है, वो मसाला आप पहले ही कहीं से पा चुकी हैं और और पाने की आपकी इच्छा है इसीलिए तो आप उसकी ओर जा रही हैं। आप उस मसाले से पहले ही कंडीशंड (संस्कारित) हैं। तो आपको वही सब कुछ तो होगा जो वहाँ लिखा हुआ है। वहाँ वो सब न हो तो फिर उसमें आकर्षण ही कितना बचेगा?

मैं यहाँ बैठा हूँ बम्बई में, मैं उड़के लंदन पहुँच गया। मैं ये कर रहा हूँ, मैं वो कर रहा हूँ। ये सब आपके साथ हो रहा है। आपके साथ कुछ भी हो सकता है। बात बस यह है न वो आपके साथ हो रहा है, आप हैं ही कौन?

एक पागल आदमी को सोचिए, वो पागलखाने में होता है, उसके साथ क्या-क्या हो रहा होता है और आप बाहर खड़ी हैं, आप देख रही हैं, कह रही हैं ये देखो। वो क्या-क्या बोल रहा होता है? क्या बोल रहा होता है?

प्र: आप डेनाइ (इनकार) कैसे करेंगे कि कुछ तो ऑथेंटिक एक्सपीरिएंसेस (प्रामाणिक अनुभव) क्योंकि…..

आचार्य: आप डेनाइ इसलिए नहीं कर पा रहे क्योंकि आप स्वयं को डेनाइ नहीं कर पा रहीं। अहंकार बहुत है न। एक्सपीरिएंस को नहीं डेनाइ करना है एक्सपीरिएंसर (भोक्ता) को डेनाइ करना है। मेरे साथ ही तो हुआ है, मैं हूँ ही कौन? पर चूँकि आप अपने आपको सत्य मानती हैं इसलिए अपने अनुभवों को भी सत्य मानती हैं।

प्र: अगर ये मेरे साथ हुआ है, नॉट जस्ट वन्स (सिर्फ़ एक बार नहीं) , चार-पाँच बार तो बेसिकली (मूलतः) वही है नेति-नेति करते जाइए।

आचार्य: अपनी, अनुभवों की नहीं।

प्र: अपनी, अपनी।

आचार्य: मेरे साथ तो कुछ भी हो सकता है। और मज़ेदार बात बताऊँ? आप अपनी नेति-नेति अगर कर रही होतीं तो आपको ये सब अनुभव होता ही नहीं। चूँकि हम अपने अहंकार में होते हैं इसीलिए हमें ऐसा माल मसाला, ऐसी सामग्री बहुत आकर्षित करती है, जो सच्चाई के नाम पर अहंकार को ही प्रोत्साहित करती है।

प्र: लेकिन ….. कोई रास्ते के पडेस्ट्रियन (पैदल यात्री) योगी तो नहीं हैं।

आचार्य: उनसे भी ज़्यादा घटिया हैं।

प्र: रियली (सचमुच) ? ये रेवोल्यूशन (क्रांति) है मेरे लिए। ये मेरे लिए रयूवोल्यूशन है।

आचार्य: रास्ते का योगी बहुत लोगों को नुकसान पहुँचा ही नहीं पाता। रास्ते का योगी कितनों को नुकसान पहुँचा लेगा अगर वो बहुत धूर्त भी है तो एक को, दो को, पाँच को। पचासों-करोड़ों लोगों को अगर किसी ने बर्बाद करा हो।

प्र: तो आप बोल रहे हैं ऑलरेडी (पहले से ही) भ्रमित जो हमारी काॅन्शियसनेस (चेतना) है उसको और भी ज़्यादा…..

आचार्य: आप भ्रमित हो। आप भ्रमित हो इसीलिए तो आप इस तरह की सामग्री की ओर आकर्षित हुए।नहीं तो आप आकर्षित होते ही नहीं।

मेरे सामने भी ये आई थी और तब मैं बिल्कुल टीनेजर ही था। और ऐसे (हाथ से फेंकने का इशारा करते हुए) उठाकर फेंक दी थी मैंने। और मज़ेदार बात ये है कि जो मेरे ही बैच का मेरा जूनियर था, मैं आई.आई.टी. में था, जो मेरे पास ये ले के आया था किताब, वो आज एक और ऐसे ही पाखंडी बाबा का परम-शिष्य है। तो वो कहानी तबसे चल रही है उसकी। तब भी वो जिनके साथ था वो हवा में छलांगे मारा करते थे, अभी वो जिनके साथ है वो हवा में सांप उड़ाया करते हैं।

प्र: वाह, ये रेवोल्यूशन है मेरे लिए,जो आपने…..

आचार्य: रेवोल्यूशन कुछ नहीं है। आपको ऐसा भी नहीं है कि वो किताब बहुत भा गई है। आप दो कौड़ी की कीमत नहीं देती उस किताब को अगर वो किताब इतनी…..

प्र: डिस्कवरी (खोज) के…..

आचार्य: कुछ नहीं है, उसमें जो कुछ लिखा है, आपको उससे कुछ मतलब नहीं है। आपको बस इस बात से मतलब है कि राह चलता योगी नहीं है, क्यों? क्योंकि वो किताब बहुत बिक चुकी है, क्योंकि नाम देश-विदेश में फैल चुका है। उस किताब का नाम नहीं होता, वो किताब आपको अच्छी ही नहीं लगती। वो किताब आपको सिर्फ इसलिए अच्छी लगी है क्योंकि आपको नामचीन लोग अच्छे लगते हैं।

जो भी कोई *सेलीब्रेटे*ड (मशहूर) है, वेल-नोन (विख्यात) है, फेमस (प्रसिद्ध) है, अच्छा लगने लग जाता है। क्योंकि ये ताकत है न उसकी। दुनिया में देखो उसकी ताकत है, तो हमें अच्छे लगने लग जाते हैं लोग।

उसी किताब का नाम बदल के आपके सामने रख दी जाए, वही सामग्री, बिल्कुल वही सामग्री, बस उसका कवर पेज (आवरण पृष्ठ) बदल के रख दिया जाए, आप उसकी ओर मुड़कर देखेंगी नहीं।

और ये बात फिर सिर्फ किताब के चयन पर लागू नहीं होती, ये बात इस पर भी लागू होती है कि हमें पॉलिटिशियन (राजनीतिज्ञ) कौन-सा पसंद है, हमें लाइफ पार्टनर (जीवनसाथी) कौन-सा पसंद है। हम किसी भी चीज़ की सच्चाई कहाँ जानना चाहते हैं? हम तो बस ये जानना चाहते हैं कि वो प्रसिद्ध कितना है, उसमें ताकत कितनी है? संसार में उसे कितने लोग जानते हैं, उसके मुरीद कितने हैं, उसके सेंटर्स (केन्द्र) कितने हैं, उसके पीछे चलने वाले कितने हैं? बस इन्हीं सब चीज़ों पे अपने निर्णय करते हैं, और धोखा खाते हैं।

प्र: तो क्या स्वप्न और ड्रीम्स को भी आप उसी कैटेगरी (श्रेणी) में जैसे 'कार्ल यंग' और 'सिगमंड फ्रायड' ये सब जो रहे हैं, तो आप उसी…..

आचार्य: हाँ, उनकी बात बिल्कुल सही रही है, यंग की, फ्रायड की, एकदम। लेकिन मैं थोड़ी सी उनसे अलग बात कहता हूँ। मैं कहता हूँ सपनों में इतना घुसकर देखने की ज़रूरत नहीं है। आपने सपनों में घुसकर के जो भी पाया, वो बिल्कुल ठीक पाया। लेकिन वो पाने के लिए, उस खोज के लिए, सपनों का बहुत विश्लेषण करने की ज़रूरत थी नहीं।

प्र: एक घटित कुछ घटना हो गई। टेक इट एज़ लाइफ (इसे जीवन के रूप में लें) , आप बोल रहे हैं।

आचार्य: अरे ज़िंदगी का ही विश्लेषण कर लो वही बात पता चल जाती है। आप सपनों में घुसकर यही देख रहे हैं न कि दिमाग की जो गहरी तहें हैं और जो अंतर्जगत के तह खाने हैं उनमें क्या बैठा हुआ है, यही तो देख रहे हैं न? हाँ वो जो वहाँ बैठा हुआ है, वो जागृत अवस्था में भी अपना नाच दिखाता रहता है।

तो कोई अपनी ड्रीम्स रीकलेक्ट (स्वप्न स्मरण) करके आपको बताए और फिर आप उसका इंटरप्रिटेशन (व्याख्या) या एनालिसिस (विश्लेषण) करो। ठीक है, अच्छी बात है, कर सकते हैं। लेकिन ज़रूरत नहीं है बहुत ज़्यादा। आपका ही मन था न, आप ही थे न जो सपने ले रहे थे, और आप ही हो जो सपने लेने के बाद जग गए हो। तो वो जो कुछ आपके सपनों में आ रहा था, वो जगने के बाद भी आपके बोल चाल, व्यवहार, रिश्तों, गतिविधियों, कर्मों में आएगा। अगर आप गौर से देख सके तो आपको जागते हुए ही दिख जाएगा। सपनों का बहुत विश्लेषण करने की ज़रूरत नहीं है।

द सबकाॅन्शियस हार्डली रिमेंस सब-काॅन्शियस। इट सीप्स इंटू द काॅन्शियस इगो एंड प्लेज़ इटसेल्फ आउट (अवचेतन शायद ही अवचेतन रहता है। यह सचेत अहंकार में रिसता है और खुद को बाहर खेलता है) ।

जैसे होता है न कई बार कि सीलन होती है घर के नीचे की ज़मीन में, वो नीचे ही थोड़ी रहती है। धीरे-धीरे क्या करती है सीलन? वो ऐसे दीवारों पर नीचे से आने लग जाती है। घर के नीचे क्या है, तहखाने में क्या है? वो सिर्फ तहखाने में नहीं रहता। अगर आप ऊपर वाली मंज़िलों को भी ध्यान से देखें तो आपको पता लगने लग जाता है।

प्र: तो इगो या मान लीजिए उसी का एक फॉर्म (रूप) ईर्ष्या क्या है, कैसे आप इसको?

आचार्य: ईर्ष्या बहुत अच्छी चीज़ है अगर हम समझ जाएँ ईर्ष्या क्या है। हमें पता है कि हम ठीक नहीं है। लेकिन हमें ये नहीं पता है कि ठीक होना माने क्या? ये तो पता है हम ठीक नहीं है। तो कोई जो हमें लगता है कि ठीक है। उसको देखकर हममें एक रोष भाव, एक द्वेष भाव उठता है, उसको ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या भी ले दे करके, सच्चाई को पाने की, और शांत हो जाने की हमारी कोशिशों का ही विकृत रूप है।

मुझे बेहतर होना है पर मैं बेहतर हो नहीं सकता, क्यों? क्योंकि मैं जानता ही नहीं कि बेहतर होना कहते किसको है। मैं जानता होता तो मैं बेहतर हो गया होता। पर मुझे कुछ-कुछ अनुमान है या मान्यता है, कल्पना है कि इस चीज़ को बेहतरी कहते हैं। अब वो बेहतरी मुझे उसमें दिखाई दी। तो मेरे भीतर से एक ऊर्जा का उबाल उठा और वो उबाल द्वेष मूलक है। उसमें एक रेसेंटमेंट (क्रोध) है, वो क्या कह रहा है। वो कह रहा है जो उसको मिला है वो मुझे क्यों नहीं। क्यों? क्योंकि वो मुझे चाहिए था। एक तरह से ईर्ष्या प्रेम की विकृत अभिव्यक्ति है। प्रेम नहीं बन पाई वो चीज़, स्पष्टता नहीं बन पाई तो ईर्ष्या बन जाती है। तो ईर्ष्या बहुत अच्छी चीज़ हो सकती है अगर हम उसको एक सही दिशा दे सकें, चैनेलाइज़ कर सके तो।

जब कोई पूछता था मुझसे कि ईर्ष्या बहुत है, जेलेसी बहुत है, क्या करना है? मैं बोलता था सही लोगों से ईर्ष्या करो न। अंटू बंटू से ईर्ष्या करे तो बहुत बढ़ेगा तो अधिक-से-अधिक बंटू बन जाएगा। अंटू बंटू बन गया, इससे कुछ बदला तो नहीं। ईर्ष्या करनी है तो कृष्ण से करो, बुद्ध से करो। ऐसों से ईर्ष्या करो जो तुमसे वाकई बहुत आगे के हैं। फिर उनसे ईर्ष्या करो, होड़ करो, प्रतिस्पर्धा करो, ये अच्छी बात है।

प्र: तो ईर्ष्या, इनर्शिया (जड़ता) ये सब कहीं न कहीं एक ही कैटेगरी (श्रेणी) है क्या?

आचार्य: सब कुछ एक ही कैटेगरी है।

प्र: एक ही है, बस अलग-अलग नाम हैं।

आचार्य: सब कुछ। क्यों कैटेगरी एक, क्योंकि हमारे लिए। पूछना भूला मत करिए, फॉर हूम, किसके लिए?

प्र: किसके लिए।

आचार्य: आपको अगर ईर्ष्या हो रही है तो आपको हो रही है। ठीक है न? अहंकार आपका है। अपने-आपको मत भूलिए, यही अध्यात्म है। जो कुछ भी है वो आपके लिए है। जो कुछ भी है वो आपके लिए है।

बड़ा भारी भूकंप आया। भूकंप-भूकंप की बात मत करते रहिए। किसके लिए आया? मेरे लिए आया। अब कुछ बदलाव हो सकता है। क्योंकि इसमें फिर बड़ा सशक्तिकरण है, एम्पावरमेन्ट है। अगर भूकंप वास्तव में नहीं आया था, मेरे लिए ही आया था, क्योंकि मैं ही कह रहा हूँ आया था, मेरा ही अनुभव है। दूसरे भी कह रहे होंगे है, लेकिन दूसरे कह रहे हैं ये भी मेरा ही अनुभव है।

दूसरों को भी भूकंप को प्रमाणित करते हुए मैं ही देख रहा हूँ। सब कुछ मेरा ही अनुभव है। तो माने भूकंप अपने आप में कोई चीज़ नहीं है। भूकंप मेरे अनुभव की चीज़ है। और अगर भूकंप ऐसी चीज़ है जो मेरे अनुभव में बड़ी दुःखदायी है। और है मेरे ही अनुभव की। तो क्या मैं उस दुःख को बदल नहीं सकता, पलट नहीं सकता। दुःख मतलब भूकंप में नहीं है, दुःख मेरे?

प्र: अंदर है।

आचार्य: अनुभव में है।

प्र: अनुभव में है।

आचार्य: और मेरा अनुभव मेरे लिए है मात्र, जो मुझे अनुभव हो रहा है वो आपको नहीं हो सकता। तो माने मेरा दुःख एक बहुत विशिष्ट और बहुत व्यक्तिगत चीज़ है। इसका मतलब मेरा उसपे अधिकार है, हक़ है। कुछ शक्ति मिली न अब?

तो दुःख अपने आपमें कोई ऑब्जेक्टिव (वस्तुगत) चीज़ नहीं है, कोई इंडिपेंडेंट, स्वतंत्र घटना नहीं है वो। वो मेरी अनुभूति की बात है। और मेरी अनुभूति माने मैं, अहं। अगर मुझे अनुभव हो रहा है तो मैं उसका कुछ उपाय भी कर सकता हूँ। उसको रोक सकता हूँ, उसको तोड़ सकता हूँ। उसको नहीं भी अनुभव कर सकता हूँ। ये अध्यात्म है।

हमारी आँखें हमें एक ऑब्जेक्टिव इल्यूज़न (उद्देश्य भ्रम) देती हैं। हम कहते हैं ये गिलास है। अध्यात्म कहता है खुद को हमेशा याद रखो। ये गिलास है नहीं, ये मेरे लिए गिलास है। ये मेरे लिए गिलास है।

प्र: बात वहीं खत्म है।

आचार्य: बात अब यहाँ से शुरू होती है और बहुत दूर तक जा सकती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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