प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, अभी जैसा आपने बताया कि आप एक वुमन (महिला) होने से पहले एक कॉन्शियसनेस (चेतना) हैं, तो ये बात मेरे दिमाग में बैठ गयी है। मेरे मन में बहुत शुरू से ही चीज़ें आती थीं कि घर में खाना हम ही क्यों बनायें हमारे हसबैंड (पति) क्यों नहीं बना सकते। ऐसा है कि हम शुरू से ही देखते आये हैं कि घर में या फिर अपने इन लॉज़ (ससुराल वालों) के यहाँ जो घर का काम करती हैं वो औरतें ही करती हैं और अगर औरतें जॉब भी कर रही हैं तब भी घर की सारी रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ (ज़िम्मेदारियॉं) उनकी ही होती है। मेरे साथ भी ऐसा ही था, मैं जॉब करती थी और सारी घर की रिस्पॉन्सिबिलिटी (ज़िम्मेदारी) भी मेरी ही थी। जॉब मैंने इसलिए छोड़ा क्योंकि मुझे बर्डन (बोझ) लगता था।
मुझे बाहर का भी करना पड़ता था और घर का भी करना पड़ता था। मैंने चार साल पहले जॉब छोड़ी है — तो मेरे अन्दर एक बहुत ज़्यादा अजीब सा डिप्रेशन (अवसाद) आ गया है, फिर मैंने आपके वीडियोज़ देखना शुरू किये तो मुझे समझ में आया कि शायद मेरे डिप्रेशन का एक ही कारण है, क्योंकि मैं कुछ भी सार्थक काम नहीं कर रही।
तो फिर उसके बाद मुझे लगने लगा कि मुझे कुछ तो ऐसा करना चाहिए जिससे मेरा जीवन अर्थपूर्ण हो। ऐसा लगे कि हाँ, मैंने कुछ तो किया! और असल में मुझे ऐसा लगता है कि परेशानी जॉब की भी नहीं है क्योंकि जॉब तो मैं कर ही रही थी चार साल पहले तक, लेकिन हैप्पीनेस (ख़ुशहाली) तो तब भी नहीं थी।
तो मुझे ऐसा लगता है कि परेशानी जो है वो एक केज (क़ैद) की है, जो एक सिस्टम (प्रक्रिया) है, उसकी है। उसमें, घर में आपको ये करना है, आपको ये कहना है, आपको ये करना है फिर एडिशनल रिस्पाॅन्सिबिलिटीज़ (ज़िम्मेदारी)। बहुत ऐसे इंसीडेंट्स (घटनाऍं) हुए हैं जहाँ पर मुझे सुनना पड़ा है कि आपका कोई कॉन्ट्रीब्यूशन (सहयोग) नहीं है घर में और आप कुछ भी नहीं कर रहे हो, आप यूज़लेस (व्यर्थ) हो और बहुत ज़्यादा फ़ील (एहसास) होने लगा है। आइ कैन डू इट (मैं कर सकती हूँ) मैं अपना कर सकती हूँ तो फिर मैं क्यों सुनूॅं?
आचार्य प्रशांत: देखिए, कुछ बहुत मूलभूत बातें हम समझते हैं, अगर आपसे कहा जाए कि दुनिया के लोग कैसे हैं, स्वार्थी या निस्वार्थ? दो में एक चुनिए! ठीक है? कि अधिकांशतः बहुमत में आप किसको पाते हैं, स्वार्थी लोग हैं या निस्वार्थ हैं, तो आप क्या बोलोगे तत्काल?
प्र: स्वार्थी!
आचार्य: तो जब दुनिया के लोग वैसे हैं, तो हमारे घर-परिवार के लोग भी तो वैसे ही हैं न, दुनिया उन्हीं से तो बनी है! तो ऐसी फिर गलतफ़हमी पालने से कोई लाभ है क्या कि दुनिया में तो सब स्वार्थी हैं लेकिन मेरा ही घर विशेष है और यहाँ सब दूध के धुले, निस्वार्थ लोग हैं, ऐसा तो नहीं होगा न? दुनिया में अगर सब स्वार्थी हैं या अधिकांश लोग स्वार्थी हैं तो कोई अगर किसी को सौ रुपये भी देगा, सौ रुपये भी देगा तो किसी मतलब से ही देगा न? हाँ या न?
ऐसे ही तो नहीं! हम भीख भी देते हैं तो ये सोचकर कि इससे हमें पुण्य मिल जाएगा, है न? कोई किसी को सौ रुपए भी देगा तो किसी स्वार्थ से ही देगा! ये बात महिलाओं को समझ में क्यों नहीं आती है कि कोई भी अगर किसी को सौ रुपये भी देगा तो स्वार्थ से देगा?
मैं लूप में घुमाना चाहता हूँ इस बात को सुनिए, सौ बार सुनिए! कोई अगर किसी को सौ रूपये भी देगा तो स्वार्थ से देगा!
समझ में आ रहा है मैं क्या कह रहा हूँ?
आपको क्यों लगता है कि आप घर पर बैठी हुई हैं, कमा कोई और रहा है तो आपको यूँही दे रहा है? भूलिएगा नहीं, संसार के लोग प्रेम से नहीं स्वार्थ से चलते हैं और दुनिया के लोग प्रेमी नहीं हैं ये भी आप तत्काल मान लेंगी, लेकिन अपने-अपने पारिवारिक सम्बन्धों में सबको ये लगता है कि मेरे यहाँ तो प्रेम-ही-प्रेम का सावन है, बरस रहा है! सौ रुपये भी स्वार्थ में दिये जाते हैं तो अगर दस हज़ार ले रहे हो किसी से या पचास हज़ार ले रहे हो और लाख रुपये ले रहे हो किसी से महीने का, तो वो निस्वार्थ देगा क्या? बस ख़त्म बात! बस, वही है, ‘छन से टूटा एक सपना!’
सबको ये लगता है, ‘नहीं, पर मेरा तो लव अफ़ेयर (प्रेम सम्बन्ध) है न, वो मुझसे बहुत प्रेम करते हैं वो मुझे स्वार्थ के लिए नहीं देते हैं, वो मुझे प्रेम के लिए देते हैं। अब ये होता है जब हम तथ्यों से सम्पर्क में नहीं रहते हैं।
और महिलाओं में एक भावनात्मक, रोमैंटिक हवा महल खड़ा कर लेने की वृत्ति थोड़ी ज़्यादा होती है। भावनाओं में इतनी जीती हैं कि तथ्यों से एकदम दूर हो जाती हैं, हकीक़त क्या है उन्हें नहीं पता होता। वो पतिदेव जो दफ़्तर में अपने भाई का भी काम न करे बिना घूस लिये, ग़रीब का भी खून निचोड़ ले बिना घूस लिये उसका काम न करे, वो घर में आकर निस्वार्थ हो जाता होगा, प्रेमी बन जाता होगा? बोलो!
तो आपको दिखता क्यों नहीं है कि ये जो आप घर में बिना कमाये बैठ जाती हैं ये कहीं-न-कहीं कोई बारगेन ही चल रही होगी, नहीं तो कोई आपको ऐसे नहीं पालने वाला। कुछ तो वो आपसे वसूल रहा होगा और जो वसूल रहा है वो बहुत ख़तरनाक है, वो आत्मा वसूल रहा है सीधे।
तन वसूल रहा होता चलो ठीक है झेल लेते तन का सौदा था, मन भी छीन रहा होता तो भी चलो किसी तरीक़े से दिल पर हाथ रखकर झेल लेते, वो आत्मा वसूल रहा है! और वो अपनी जगह कह रहा है कि जायज़ है उसका ऐसा करना।
वो कह रहा है, ‘इतना सारा पैसा, ये मैंने इतना आलीशान घर बनवाया है मैं तो इसमें कम ही रहता हूँ, ऐसे घर का किराया ही महीने का लाख रुपये हो! और मैं तो इसमें रहता नहीं, बनवाया भी मैंने है और बिना किराये के इसमें… लेकिन अब जब रोमेंटिक मकड़जाल बुन रखा हो तो सच्चाई दिखाई नहीं देती। फिर लगता है कि आइ एम द लेडी ऑफ़ द हाउस (मैं इस घर की मालकिन हूँ), आइ एम द क्वीन ऑफ़ दिस प्रॉपर्टी (मैं इस जजायदाद की रानी हूँ)। काहे की क्वीन (रानी), तुम्हारा क्या है उसमें? तुम्हारा क्या है?
और यही बात जब मैं बोल देता हूँ तो जो पूरा पुरुष वर्ग है वो बिलकुल एकदम कुपित हो जाता है मुझ पर! कहता है, ‘ये महिलाओं को भड़का रहे हैं।’ भाई पुरुषों! तुमने अपनी ज़िन्दगी भी तो नर्क कर रखी है न व्यर्थ कमा-कमाकर, कमा-कमाकर! तुम अपना भी तो देखो कैसे तुम्हारी पीठ टूटी जा रही है कमा-कमाकर, कमा-कमाकर पाँच लोगों के लिए! तुम्हें नहीं दिख रहा?
तुम सोच रहे हो कि मैं तुमसे दुश्मनी की बात कर रहा हूँ, दुश्मनी की बात नहीं कर रहा, मैं तुम्हारा बोझ हल्का करने की बात कर रहा हूँ! तुमने एक को घर में रख दिया है मूरत बनाकर के, वो कुछ नहीं करती या वो जो करती भी है चलो वो तुम जानते हो कि उसका आर्थिक मूल्य कितना है। और तुम पच्चीस साल के जिस दिन हुए थे उस दिन से तुमने अपनी कमर तुड़वा ली है कमा-कमाकर, कमा-कमाकर — दिन भर धूप में फिरते हो कमाने के लिए।
कौन-कौन से पापड़ तुम नहीं बेलते कमाने के लिए? पुरुषों से कह रहा हूँ! वही लड़का जो अपनी निजी ज़िन्दगी में एक साधारण से कमरे में मस्त रहा करता था जब तक शादी नहीं हुई थी, साधारण सा कमरा लेता था उसमें अपना मस्त रहता था, वही अचानक ज़िम्मेदार बन जाता है लाखों कमाने का जिस दिन ब्याह कर लेता है! किसके लिए कमाना पड़ रहा है भाई इतना तुझे?
तू ख़ुद तो एक साधारण ज़िन्दगी में भी कितना मस्त था, जो चीज़ें तुझे ख़ुशी देती थीं वो तो दूसरी थीं। तुझे ख़ुशी देता था यारों के साथ मटरगश्ती करना, शनिवार रात को इधर-उधर गये कहीं जाकर के बैठ गये अपना खाया-पिया ये सब चीज़ें थी जिसमें तू आनन्दित रहता था, ठीक? तेरे ऊपर ये बोझ नहीं था कि भाई कम-से-कम इतना रुपया, इतने लाख तो घर पर लाकर रखने-ही-रखने हैं! और अब देख तूने अपने ऊपर कितने बोझ कर लिये हैं और बिलकुल कमर तुड़वा ली शक़्ल देख कैसी हो गयी तेरी! शादी के चार साल के अन्दर-अन्दर बुढ़ा गया है तू! शक़्ल ही बदल जाती है शादी के पाँचवे साल, वो ज़िम्मेदारी ऐसी चढ़ती है न, वो ज़िम्मेदार पुरुष बन जाता है! बाल ऐसे ही थोड़ी उड़ते हैं पुरुषों के, गंजे हो जाते हैं बिलकुल! ये हँस रहे हैं देखो! (एक श्रोता की ओर इशारा)
तो ये जो रिश्ता है इसमें दोनों मारे जा रहे हैं, स्त्री और पुरुष दोनों मारे जा रहे हैं! इसमें मैं कहता हूँ, न कोई शोषक है न कोई शोषित है, इसमें तो दोनों का ही शोषण हो रहा है स्त्री का भी पुरुष का भी, दोनों का शोषण हो रहा है। एक बार उसका लिंग हटाकर के उसको देखो, वो पच्चीस साल या पैंतीस साल या पैंतालीस साल का एक व्यक्ति है, वो जो महिला है वो भी तो एक व्यक्ति है न? तुमने एक व्यक्ति को घर में रखा हुआ है बस! वो क्या करता है? वो घर में रहता है और कोई पुरुष भी ऐसे ही घर में रह रहा होता तो?
जी नहीं सकता था, उसकी जान ले लेते! कहते, नाकारा!
और वो भी एक व्यक्ति है, वो बस घर में क्या करती है वो है घर में और अब तो आर्थिक सम्पन्नता आती जा रही है। अगर आप थोड़ा सा उच्च मध्यम वर्ग की तरफ़ जाएँ, तो वो जो व्यक्ति है पैंतालीस साल का, जो कि एक महिला भी है, वो घर में ज़्यादा कुछ अब करता भी नहीं है, आर्थिक सम्पन्नता के बाद क्या करता है, अभी घर में दो नौकर, दो बाइयाँ लगी हुई हैं, एक कुक (रसोइयॉं भी लगा हुआ है। वो क्या करता है घर में वो व्यक्ति? कुछ भी नहीं करता वो व्यक्ति घर में। एक व्यक्ति है — ख़ौफ़ देखो, ख़ौफ़! लेट द टेरर सिंक इन (भय को अन्दर तक महसूस करें!) एक व्यक्ति है जो पैंतीस-पैंतालीस साल का है वो घर में रहता है और कुछ भी नहीं करता और दुनिया भर के भोग विलास उसको उपलब्ध हैं।
वो जो बाहर कमा रहा है, वो जितनी कमाई है वो घर में लाकर रख रहा है इसी व्यक्ति के लिए जो घर में बैठा है। ये टेरर है न? तो इस पूरे स्पेक्ट्रम में तुम जिधर देखो उधर टेरर-ही-टेरर है, हॉरर-ही-हॉरर है। दूसरे छोड़ पर वो स्त्रियाँ हैं जो निम्न मध्यम वर्ग की हैं, निम्न वर्ग की हैं, वो मज़दूरी कर रही हैं। वहाँ उनकी हालत ख़राब है क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। वहाँ पर उनसे अज्ञान और परम्परा ने क्या करवा दिया है कि वो बच्चे ज़्यादा करती हैं और वो मज़दूरी कर रही है वो काम वाली बाई है, वो कई बार ईंटें उठाने का काम कर रही है और उसके चार बच्चे हैं। इतना मुझे बुरा लगता था काम चल रहा था, तो वहाँ पर एक तख़्त रखा था बड़ा छाँव में और वहाँ पर जो ये मज़दूर स्त्रियाँ आया करती थीं वो अपने छोटे-छोटे बच्चे बैठा देती थीं, लेटा देती थीं, इतने छोटे-छोटे वो उस पर पड़े हुए हैं! और उनकी माँएँ ईंट ढ़ो रही हैं, ऐसे यहाँ पर तसला रखे ईंट ढ़ो रही है, रेत ढ़ो रही हैं और वो छोटे बच्चे हैं वो एक तख़्त था छाया में, वो उस पर एक-दो, तीन-चार बच्चे हैं वो अपना पड़े हुए हैं और ज़्यादातर इतने छोटे हैं कि वो करवट भी नहीं ले सकते ठीक से, इतने छोटे! और वो मेहनत-मज़दूरी कर रही हैं।
ये जो पूरा हमने खेल चला रखा है मुझे बताओ, इसमें कौनसे वर्ग का लाभ हो रहा है? इसमें किसी का लाभ नहीं हो रहा, इसमें पुरुष भी शोषित है और स्त्री भी दमित है, क्योंकि सब तथ्यों से दूर हैं, किसी को नहीं पता कि इंसान और इंसान का रिश्ता कैसा होना चाहिए, ये ज़िन्दगी किसलिए मिली हुई है। वो मज़दूर स्त्री है वो नहीं जानती कि ज़िन्दगी क्या चीज़ है, वो बच्चे पैदा किये जा रही है। ये क्या कर रहे हो? ग़रीबी जितनी ज़्यादा होती है बर्थ रेट (जन्म दर) उतना ज़्यादा होता है, ये क्या कर रहे हो? अशिक्षा जितनी ज़्यादा होती है बर्थ रेट (जन्म दर) उतना ज़्यादा होता है! क्या?
ये सब जीवन की चीज़ें हैं और घटनाएँ हैं, घर एक जगह मात्र है। आपको कोई पसन्द आ गया आपने विवाह कर लिया, वो एक घटना मात्र है, एक माइलस्टोन है, अधिक-से-अधिक एक पड़ाव है। आपको गर्भ हुआ आपने संतान पैदा करी वो भी एक घटना मात्र है। ये सब जीवन की घटनाएँ हैं ये जीवन नहीं है।
“जीवन चेतना की सतत यात्रा है, रोशनी की तरफ़, बोध की ओर, मुक्ति की तरफ़!”
वो जीवन है, उस यात्रा में बीच-बीच में ये सब होता रहता है। आप पैदा हुईं, आप पैदा हुई ताकि आप एक यात्रा शुरू कर सकें। ठीक? वो यात्रा है किसकी तरफ़ लगातार? सत्य, बोध, मुक्ति, लिबरेशन जो बोल लो उसको। उस यात्रा में ये सब बीच-बीच में होता रहता है, ये जो बीच-बीच में हो रहा है ये मंज़िल नहीं हो गया!
घर आ गया! ठीक है आ गया। कौन कह रहा है कि घर को आग लगा दो या घर छोड़ दो? पर वो ठीक है, अब ये बीच की चीज़ है, घर आ गया। बच्चा आ गया, पति आ गया और चीज़ें हैं वो सब आ गयीं, वो सब बीच-बीच की चीज़ें हैं, यात्रा के बीच की चीज़ें हैं — आप कहीं जाते हो बीच में इतने ढ़ाबे पड़ते हैं, पेट्रोल पम्प पड़ते हैं, ये पड़ा, वो पड़ा — वो सब आ गये बीच में, कई बार उसमें आदमी थोड़ी देर के लिए रुक भी जाता है। रुक जाता है न? कई बार नाइट स्टे (रात का रुकना) भी कर लेता है, कई बार फ्यूलिंग के लिए रुक जाता है। लेकिन थोड़ी देर को रुक सकते हो, सदा के लिए तो नहीं रुक सकते न? उसी जगह को ये तो नहीं कह सकते न कि यही मेरी मंज़िल है? अब ये बात स्त्री पर भी लागू होती है, पुरुष पर भी लागू होती है, समझता कोई नहीं है। स्त्रियाँ तो एकदम ही नहीं समझना चाहतीं। अब कोई क्या करें?
स्वार्थ को प्रेम समझ लेंगी, ममता को प्रेम समझ लेंगी। क्यों नहीं स्वीकार करते हो कि जिस पुरुष के साथ रिश्ता बनाते हो उसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा हिस्सा तो शारीरिक स्वार्थ का ही होता है, क्यों नहीं? बड़ी शर्म आती है सबको ये सब को मानने में, ‘नहीं-नहीं हमारा देह का थोड़े ही रिश्ता है!’ अच्छा देह का रिश्ता नहीं है तो किसी स्त्री से ही बना लिया होता! स्त्री, स्त्री से क्यों नहीं विवाह कर लेती? पुरुष, पुरुष से क्यों नहीं विवाह कर लेता? ये लव अफ़ेयर ज़्यादातर या हमेशा ही लगभग अपोज़िट जेंडर्स (विपरीत लिंग) में हीं क्यों होते हैं? क्यों बोलो? क्योंकि जो प्राइमरी कंडीशन (प्रथम शर्त) है वो तो सेक्सुअल है न और बाक़ी चीज़ें कॉम्पप्रोमाइज़ (समझौता) हो सकती हैं, बाक़ी चीज़ों पर आप एडजस्ट(समायोजित) कर सकते हो।
लड़कों से पूछो, ‘अच्छा चलो लड़की नाटी है चलेगा?’ हो सकता है वो मान ले, ‘चलेगा’। कहे, लड़की बहुत लम्बी है चलेगा? तो भी चलेगा। लड़की बहुत गोरी है चलेगा? चलेगा। लड़की एकदम काली है चलेगा? हो सकता है वो भी चलेगा। लड़की बहुत मोटी है चलेगा? चलेगा। लड़की पढ़ी-लिखी नहीं है चलेगा? चलेगा। लड़की, लड़की ही नहीं है, अब चलेगा? अब चलेगा क्या? लड़की पढ़ी-लिखी नहीं है, चलेगा। लड़की सुन्दर नहीं है, वो भी हो सकता है चलेगा। लड़की अमीर नहीं है, वो भी हो सकता है अब चलेगा। लड़की, लड़की ही नहीं है अब चलेगा? तो तुम्हें दिखता नहीं है कि प्राइमरी शर्त तो सेक्सुअल ही है, पागल! सेक्स को प्रेम समझ लेते हो!
बच्चे के साथ ममता का रिश्ता होता है, ममत्व को भी प्रेम समझ लेते हो! और समझाने वालों ने, ऋषियों ने, ज्ञानियों ने कहा है कि प्रेम तो सिर्फ़ होना चाहिए उस आख़िरी मंज़िल की तरफ़ जिसके लिए पैदा हुए हो। उसके लिए हमारे पास कोई भाव ही नहीं है, उसके लिए कोई लगाव ही नहीं है। इधर-उधर की बातों को प्रेम बोल रहे हो! जिससे प्रेम होना चाहिए था उसके लिए हमारे पास कोई भाव नहीं है और इससे, उससे कह देते हो, इससे अटैचमेंट हो गया है, इससे मोह हो गया है, इससे ये हो गया है, इससे वो हो गया, ये पचास चीज़ें! उन्हीं में उलझे रहते हो। बात बुरी और कड़वी लग रही है? बता दीजिए! फिर बाद में मेल पर और कमेंट में भर-भरकर गालियाँ भेजा करते हैं। ये आप नहीं करते पर… इस बात में कोई आपत्ति लग रही है? लग रही है तो बताइए! क्या समस्या है? अच्छा और पूछ रहा हूँ मैं, चलो!
सम्बन्ध बनाना अपनी रज़ामंदी का काम होता है न? एक-एक साथ चलेंगे क़दम, ठीक है? दो लोग आपस में रिश्ता बना पायें, ये उनकी आपसी सहमति की बात होती है न? आप किसी को जाकर प्रपोज़ करते हो, तो आप इन्तज़ार करते हो न कि वो बोले कि हाँ स्वीकार किया, आइ डू या आइ टू! ठीक है? यही तो होता है न? आप ये तो नहीं कहते कि ज़बरदस्ती! माने दो लोगों में सम्बन्ध तभी बन सकता है जब दोनों के पास आज़ादी हो। अगर उसके पास इनकार करने की आज़ादी नहीं है तो उसके स्वीकार का कोई मतलब रह गया क्या? नहीं रह गया न, नहीं रह गया न? तो माने रिश्ता भी अगर प्रेम-सम्बन्ध भी बनाना है तो वो दो मुक्त लोगों में ही तो बन सकता है पागल! कि नहीं? जो मुक्त ही नहीं है, वो सम्बन्ध भी क्या बनाएगा? भाई, आपने किसी को ग़ुलाम बना रखा है, स्लेवरी (ग़ुलामी प्रथा) पहले चलती थी और आपने उसको ऐसे जकड़कर रखा है, फिर आप उससे जाकर बोलते हैं, ‘सो डू यू लव मी? (क्या तुम्हें मुझसे प्रेम है) उस बेचारे की हिम्मत है कि बोल दे, आइ डोंट! (नहीं है) और अगर वो बोल भी दे आइ डू! (हाँ), तो उस कथन का कोई मतलब है? कुछ है? अच्छा तभी लगता है न जब कोई इनकार कर सकता था पर उसने इकरार करा। जो अस्वीकार कर सकता था उसके पास हक़ था अस्वीकार करने का, उसने स्वीकार करा तब अच्छा लगता है न? बोलो!
तो अच्छे सम्बन्ध भी दो आज़ाद लोगों में ही बन सकते हैं! ठीक बोल रहा हूँ कि नहीं बोल रहा हूँ? एक-दूसरे की आज़ादी छीनकर के तुम क्या सम्बन्ध बनाओगे एक-दूसरे से? अगर अच्छे सम्बन्ध भी दो आज़ाद लोगों में ही बन सकते हैं, तो एक-दूसरे से आज़ादी छीनकर के क्या रिश्ते बनाओगे? और क्या रिश्ते रखते हो — जहाँ एक-दूसरे के मोबाइल फ़ोन्स पर जासूसी करी जा रही है, फ़ोन करके पहला सवाल करा जा रहा है, कहाँ हो? और अब तो और मुश्किल है, कुछ बोलो तो उधर से बोला जाता है, ‘अच्छा ठीक है ज़रा सा वीडियो ऑन करना! लाइव लोकेशन भेजो और वीडियो ऑन करो! कोई रिश्ता बनेगा इसमें? याद रखना!
“स्वस्थ, सुन्दर रिश्ते प्रेम के सिर्फ़ दो मुक्त लोगों में, आज़ाद लोगों में बन सकते हैं, स्वतंत्र लोगों में बन सकते हैं। तुमने जिसकी स्वतंत्रता छीन ली, तुमने उसका प्रेम भी छीन लिया!”
तो आपने अगर एक ऐसी व्यवस्था को सहमति दे दी है जिसमें एक आज़ाद अब रहेगा ही नहीं, तो दूसरा भी फिर आज़ाद नहीं रहेगा! क्योंकि मालूम है जब आज़ादी जाती है न तो दिल बहुत टूटता है और जिसने आपकी आज़ादी छीनी है आप उसकी छीन लेते हो! जो पेट्रियार्कि है, पितृसत्ता; इसमें पुरुष सक्रिय रूप से स्त्री की आज़ादी छीनता है और स्त्री?
श्रोता निष्क्रिय रूप से।
आचार्य: नहीं, निष्क्रिय नहीं, परोक्ष रूप से। वो उसको सीधे-सीधे ग़ुलाम बनाता है, ऊपर-ऊपर तरीक़े से, वो उसको अन्दर-अन्दर से बनाती है। ग़ुलाम एक-दूसरे को दोनों बनाते हैं, क्योंकि ये हो नहीं सकता — हैं तो दोनों व्यक्ति ही न, दोनों क्या हैं? पुरुष और स्त्री से पहले व्यक्ति हैं, मनुष्य हैं — ये हो नहीं सकता कि आप किसी पर अत्याचार करो और वो पलटकर के आप पर वार न करे।
इसी को ऐसे भी कह सकते हो कि स्त्री, पुरुष का शोषण करती है, उसको कोल्हू का बैल बनाकर के, तो फिर पुरुष भी स्त्री का शोषण करता है। इसको जैसे चाहो वैसे कह लो, मैं कहता हूँ, ‘दोनों एक-दूसरे का करते हैं, क्योंकि अज्ञान हमेशा हिंसात्मक होता है, इधर भी अज्ञान है इधर भी अज्ञान है तो दोनों एक-दूसरे के प्रति हिंसा रखते हैं। आ रही है बात समझ में?
प्र: अगर ये सब बातें समझकर भी कोई स्टेप आउट (बाहर निकलना) करना चाहे, तो क्या ये ठीक है?
आचार्य: देखिए, स्टेप आउट इंटू व्हॉट? (बाहर निकलना, पर कहाँ) आप एक स्तर पर होते हो, वहाँ से दोनों सम्भावनाएँ खुलती हैं, ऊपर जाने की भी नीचे जाने की भी।
मेरे पास पुरुषों की शिकायत आ जाती है बोलते हैं कि मैं पहले भी बाहर का काम करता था ये घर पर रहती थीं कुछ घर का काम करती थीं और आपने जो क्रान्तिकारी वक्तव्य दिये हैं उसके बाद से अब मैं बाहर का और घर का दोनों का काम करता हूँ! (श्रोतागण ज़ोर से हॅंसते हुए)
और उनकी शिकायत मैं सुनता हूँ, मतलब मुझे फिर लज्जा आती है कि ये मैंने बेचारे के साथ क्या कर दिया! भाई, अगर मैं कहता हूँ कि घर का काम सबसे ऊँचा काम नहीं है तो मैं आपको कह रहा हूँ, घर के काम से ऊपर का कोई काम करो न और मेहनत का और श्रम का और साहस का काम करो! मैंने ये थोड़े ही कहा है कि घर का काम छोड़कर के अब कुछ मत करो! तो स्टेपिंग आउट इन्टू व्हॉट? इफ़ इन्टू अ हाइयर वोकेशन देन वंडरफ़ुल, इफ़ इन्टू मोर पेनस्टेकिंग एण्ड इंटेन्सिव वोकेशन, देन वंडरफ़ुल!
पर एक चीज़ को त्यागकर के हमेशा हम उससे ऊपर की चीज़ में जाना चाहते हैं न, उससे नीचे की चीज़ में तो नहीं जाना चाहते, है न? हाँ, तो उससे ऊपर का आप खोजें तो फिर आपको स्वयं ही दिख जाएगा कि अब वो चीज़ इतनी आवश्यक है और इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसके सामने घर का काम करने के लिए समय कम बच रहा है। घर का काम सब ध्यान से सुन लें, छोड़ा नहीं जाता जब कोई उससे ऊँचा काम मिल जाता है तो स्वतः छूट जाता है। तो जो लोग घर का काम छोड़ रहे हैं वो ग़लती कर रहे हैं। वो ग़लती कर रहे हैं, वो क्या करेंगे फिर कि पहले कम-से-कम घर का काम तो वो करते थे, अब वो कुछ नहीं करेंगे! नहीं, ये नहीं है।
“कुछ ऊँचा तलाशिए! जब कुछ ऊँचा मिल जाता है तो नीचे वाली चीज़ अपनेआप धीर-धीरे विदा हो जाती है स्वयं ही छूट जाती है।”
भाई देखिए, ये सरकार भी करती है, जब आप ऑफ़िसर बनते हो, तो आपको बंगलो दे देती है, क्यों? कि आपको ये जो निचले स्तर का काम है कि इधर-उधर ढूॅंढ रहे हैं किराये का मकान, ये आपको न करना पड़े। सरकार आपका एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफ़र करती है, स्थानान्तरण; आप वहाँ जाते हो वहाँ आपके लिए बंगला तैयार रहता है। ठीक है न? मैं सेंट्रल सर्विसेज़ सिविल सर्विसेज़ वगैरह की बात कर रहा हूँ।
तो आप ऑफ़िसर हो, सरकार ख़ुद ही कहती है कि इन सब झंझटों में हम तुम्हें पड़ने ही नहीं देंगे कि तुम अपने लिए घर ढूॅंढो, घर हम तुम्हें पहले से ही तैयार करके देंगे, ताकि तुम काम पर फ़ोकस कर पाओ, अगर ऑफिसर को नयी जगह पोस्टिंग होने पर तीन महीने तक रेंट के लिए मकान ढूॅंढना पड़ रहा है तो वो काम कब करेगा? इसी तरीक़े से सरकार आपको गाड़ी दे देती है। गाड़ी क्यों दे देती है? ताकि आपको ये झंझट न रहे कि आप सेविंग कर रहे हो, फिर ईएमआइ से ख़रीद रहे हो या कि ओला-उबर कर रहे हो। कहती है, ‘लो! गाड़ी भी उपलब्ध है और ड्राइवर भी उपलब्ध है, आप जाना चाहते हो आप तुरन्त जा सकते हो।’ छोटे कामों से आपको मुक्ति दी जा रही है, सिर्फ़ गाड़ी नहीं दी गयी है, ड्राइवर भी दिया गया है। ड्राइवर क्यों दिया गया है?
ताकि जब ड्राइवर गाड़ी चलाये तो ऑफ़िसर क्या करे? ऑफ़िसर काम करे इसलिए ड्राइवर दिया गया है। साथ-ही-साथ आपको ऑर्डर लीज़ मिल जाते हैं, प्यून्स मिल जाते हैं, क्यों मिल जाते हैं? कि भाई अगर ऑफ़िसर को घर में झाड़ू लगाना पड़ेगा तो वो काम कब करेगा? और वो ऑफ़िसर है उसको ज़िम्मेदारी दी गयी है वो अपना काम करके आ रहा है और घर में आ रहा है फिर बेचारा झाड़ू लगाएगा और खाना बनाएगा क्या?
तो जब आपको एक ऊँचा काम मिल जाता है तो नीचे वाला काम ख़ुद ही आपके पास से हट जाता है। हाँ, आपकी मर्ज़ी हो, अपनी रुचि के लिए, अपनी ख़ुशी के लिए आप कहें कि मुझे गार्डेनिंग (बागबानी) करनी है, मैं ऑफ़िसर हूँ, मुझे गार्डेनिंग करनी है, तो आप कर सकते हैं! आप कहे, ‘मैं ऑफ़िसर हूँ लेकिन मुझे आज अपनी पसन्द का, अपने हाथ से बनाना है।’ आप बना सकते हैं, वो आपकी रुचि की बात है वो अलग चीज़ है, लेकिन वो आपके ऊपर से ज़िम्मेदारी हटा दी जाएगी।
ये समझ में आ रही है बात?
तो आप कहें कि मुझे फ़लाने काम से अब अपना हाथ पीछे खींचना है, उससे पहले ये भी आपको पूछना पड़ेगा कि मैंने ऊँचा काम कौनसा पकड़ा! ऊँचा काम पकड़िए फिर निचले काम के लिए न समय बचेगा न ध्यान बचेगा, फिर अपनेआप वो सम्यक विदाई होती है। ये ठीक हुआ! इतना ही नहीं, अगर घर वालों में थोड़ी भी बुद्धि होगी, सेंस होगी, तो फिर वो आपकी सहायता ही करेंगे। वो कहेंगे कि अब ये ऊँचे क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं, अब हम इनसे ये थोड़े ही बोल रहे हैं कि जाओ चाय बनाकर लाओ! जाओ कपड़े क्यों नहीं धोये! उन सब कामों के लिए अब दूसरी व्यवस्था कर लेंगे। वो फिर घर वाले भी फिर सहायता करेंगे। कुछ बन रही है बात या उल्टा ही पुल्टा बोल रहा हूँ मैं?
“जब कुछ ऊँचा मिल जाता है तो नीचे वाली चीज़ अपनेआप धीर-धीरे विदा हो जाती है, स्वयं ही छूट जाती है। कुछ ऊँचा तलाशिए!”
YouTube Link: https://youtu.be/P5Qd9Z2yACo