वो ध्यान जो कभी नहीं टूटता || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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वो ध्यान जो कभी नहीं टूटता || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता आचार्य जी, ध्यान साधना करता हूँ, कुछ समय के बाद ध्यान टूट जाता है। क्या करूँ कि ध्यान बना रहे?

आचार्य प्रशांत: यह क्रम कौनसा है पहले तो यह बताओ, जिसमें दो घंटे साधना है और बाईस घंटे संसार है। क्रम बना हो तो न टूटेगा। तुमने कौनसी नदी की धारा देखी है जहाँ दो कदम पानी होता है और बाईस कदम सूखा? तुमने कौनसी डोर देखी है जो दो अंगुल साबुत होती है और बाईस अंगुल टूटी होती है? इसको तुम क्रम बोलोगे? इसको तुम श्रंखला बोलोगे क्या? बेटा, यह टूट ही इसीलिए रहा है क्योंकि यह कभी बंधा ही नहीं सिलसिला। बंध गया होता तो न टूटता।

यह दिन की दो घंटे वाली साधना से सावधान रहना। यह टूटेगी ही टूटेगी और टूटेगी इसीलिए क्योंकि यह कभी बंधी ही नहीं। जिस दिन तुम साधना कर भी रहे हो उस दिन भी तुमने कितनी करी? दो घंटा; बाईस घंटे बाहर के काम। कितने मज़े में बोला, "बाईस घंटे तो बाहर के काम करेंगे न!"

एक तरफ़ है दो, दूसरी तरफ़ है दो-दो (बाईस) — और यह है साधना। साधना तो है, पर यह संसार की साधना है क्योंकि बाईस घंटे तो उधर दिए हैं। मैं दो घंटे तुमको दूँ और बाईस घंटे इनको दूँ, तो मुझे प्रेम किससे है? जल्दी बताओ!

प्र: इनसे है।

आचार्य: और ग्यारह गुना प्रेम है इनसे। और फिर मैं कह रहा हूँ कि मैं साधना तुम्हारी कर रहा हूँ तो मैं झूठ बोल रहा हूँ न! झूठ बोला कि नहीं बोला?

प्र: बाज़ार भी इसीलिए जाता हूँ कि अपने वो दो घंटे बचा सकूँ।

आचार्य: अच्छा, अच्छा, अच्छा! तो बाईस घंटे बाज़ार करते हो ताकि दो घंटे निकाल सको। ऐसे नहीं होता। चौबीस घंटे वाली साधना चाहिए होती है।

मालिक पूरा है और तुम्हें भी वो पूरा ही माँगता है। पूरे से कम में काम नहीं चलता। पूर्ण को अपूर्ण की आहुति देकर काम नहीं बनेगा। भगवान को चावल भी चढ़ाते हो तो कहते हो कि चावल टूटा हुआ न हो, है न? पर टूटा हुआ जीवन चढ़ा दोगे, दो घंटे वाला। बाईस घंटे उधर हैं और दो घंटे तुम्हें दे दिए। वो राज़ी हो जाएगा? हो जाएगा राज़ी?

इसीलिए कहा इस दो घंटे वाली साधना से ख़बरदार रहना। चौबीस घंटे का सतत ध्यान चाहिए। आठ पहर अनहद बजना चाहिए और आठ पहर नहीं बज रहा, तो पल में चोर आएगा और माल चुरा ले जाएगा। 'आठ पहर अनहद का बजना' जैसे आठ पहर संतरी का सतर्क रहना। थोड़ी देर को संतरी सोया और हीरा खोया। तुम्हारा संतरी तो दो घंटे जगता है कुल। कौनसा हीरा बचा होगा, बेटा?

ध्यान माने जाग्रति, ठीक? और तुम्हारा संत्री जग कितना रहा है? दो घंटा।

साधना की विधियों के साथ यही बखेड़ा है। वो तुम्हें बाईस घंटे सोने की अनुमति दे देती हैं और तुम बड़े शौक़ से सोते हो यह कह कर कि अब अगले दो घंटे का नंबर कल आएगा।

जब लगातार साँस ले सकते हो, जब लगातार अपनी प्यास के प्रति सतर्क हो सकते हो तो लगातार तुम ध्यानस्थ क्यों नहीं जी सकते? क्या ऐसा कहते हो कि दिन में पानी पीने के अवसर दो ही घंटे के आएँगे? जब भी प्यास लगती है पी लेते हो कि नहीं, सोते से उठ कर भी पी लेते हो। या कहते हो कि हमने तो सुबह सात से नौ का समय बाँधा हुआ है पानी पीने का या दिल सिर्फ़ दो ही घंटे धड़केगा दिन में?

जिनसे प्रेम करते हो उन्हें दिन में दो ही घंटे प्रेम करते हो? जब प्रेम दो घंटे का नहीं तो भक्ति और ध्यान दो घंटे के क्यों? और वो कैसा प्रेम होगा जो कहेगा दो घंटे तुम्हें याद किया उसके बाद दुनिया है न?

मुनिया रूठ जाएगी अगर दो ही घंटे उसको याद किया। दो घंटे मुनिया बाईस घंटे दुनिया, ये मुनिया भी नहीं मानेगी। तो ऊपर तो जो बैठा है वो बिलकुल ही नहीं मानने वाला।

यह बड़ा आडम्बर हो जाता है। दो घंटे मेरे सामने बैठे हो, मैं गुरुदेव हूँ और बाईस घंटे, ‘अजी! हटाइए। कौन गुरु कौन चेला?’ यह बड़ा पाखण्ड हो जाता है।

जो भी चीज़ असली होती है उसकी पहचान होती है नित्यता; वह सतत होती है, वह काल से बाहर होती है। जो आए सो जाए, वो झूठा। ‘संतों आवे जावे सो माया’। यह कौनसा ध्यान है जो आता है और चला जाता है? यह कौनसी शांति है जो आती है और चली जाती है? यह झूठी शांति है।

झीना प्रेम करो। झीना प्रेम यह नहीं घोषणा करता कि दो घंटे हम प्रेमी हैं। झीना प्रेम चुपचाप चौबीस घंटे याद में रहता है। बाहर-बाहर दूसरी चीज़ें चल रही होती हैं, भीतर याद बसी होती है। वही झीना प्रेम है, उसी को ध्यान कहते हैं।

ध्यान बाहरी चीज़ नहीं है, भाई! ध्यान बहुत अंदरूनी है। तुम लोगों ने विधियाँ लगा-लगाकर ध्यान को बाहरी चीज़ बना दिया है। तुम तो जब कहते हो कि ध्यान कर रहा हूँ तो उसका अर्थ ही होता है कि कोई विधि आज़मा रहे हो। ध्यान बहुत अंदरूनी चीज़ है, वो किसी विधि पर आश्रित नहीं होती। अंदर की चीज़ को बाहर की चीज़ मत बना दो।

ध्यान माने प्यार हो गया है। अब प्यार हो गया है तो दिल धड़क रहा है। दिल धड़क रहा है तो धड़के ही जा रहा है, बीच-बीच में रुक थोड़े ही जाएगा, कि रुक जाएगा?

ध्यान माने वो जो सबसे सुंदर है वो ध्येय हो गया हमारा, नेह लग गया उससे। ‘पिया तोसे नैना लागे रे’— यह ध्यान है। ध्यान और प्रेम अलग-अलग नहीं हैं।

जहाँ ध्यान है वहाँ कोई ध्याता भी होगा और कोई ध्येय भी होगा। ध्येय माने लक्ष्य। तो जैसे प्रेम में होता है न कि किसी से प्यार हो गया, वैसे ही ध्यान में भी किसी पर ध्यान लगाते हो; कोई ध्येय हो गया। कौन ध्येय हो गया? वो जिसका कोई नाम नहीं, वो जिसको लक्ष्य तो बना रहे हैं पर वो अलक्ष्य है, अलख निरंजन है।

तो जो अलक्ष्य है उसको लक्ष्य करने निकले हैं। ‘निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊँगा,’ निर्गुण के गुण गाने निकले हैं। अलक्ष्य को लक्ष्य करने निकले हैं – यह ध्यान है।

पर प्यार तो हो ही गया है। उससे प्यार हो गया है जिसका न नाम है, न रूप है; अब क्या करें! मज़ेदार बात यह है जब किसी ऐसे से प्यार हो जाता है जिसका न नाम है, न रूप है, तो फिर वो हज़ार रूप लेकर के, हज़ार नामों में, हज़ार तरीक़ों से लगातार सामने आता रहता है। मज़े आ जाते हैं।

प्यार की बात निराली है। वो घड़ी नहीं देखता कि इतने से इतने बजे तक। बुल्लेशाह फटकार मारते हैं तुम्हें “घड़ियाली दियो निकाल नी।” और तुम घड़ी देख कर प्यार करते हो! क्या बोलते हैं बुल्लेशाह? “मेरा पिया घर आया ओ लालनी, घड़ियाली दियो निकाल नी।” घड़ी की क्या बात करते हो? घड़ी की अभी क्या ज़रूरत है? समय को थम जाना चाहिए और तुम समय देख कर ध्यान लगाते हो।

और आगे धमकी भी देते हैं। जाओ, मिलो बुल्लेशाह से। वो कहते हैं, ‘मेरे बस में होता तो आज इसकी ऐसी पिटाई लगाती, इस घड़ियाली की, कि पूछो मत। बड़ी मुश्किल से तो पिया घर आए हैं और बीच-बीच में यह घंटा बजा-बजा कर समय बताता रहता है। अरे! हट। आज की रात ख़त्म नहीं होनी चाहिए। समय थम जाना चाहिए।‘

और तुम पहले ही अलार्म लगाकर के ध्यान करने बैठते हो। यह कौनसा प्रेम है, भाई? प्यार नहीं जानते। हमारे साथ यह बड़ी दुर्घटना हो गयी है, प्यार का कुछ पता ही नहीं। और जीव को अगर प्यार नहीं पता तो क्या ख़ाक जी रहा है। हम नहीं जानते प्यार तो हम बड़ा रूखा-सूखा प्रेमहीन ध्यान करते हैं। उस ध्यान में कोई ज्वाला नहीं होती; ठंडे गोश्त जैसा ध्यान, मुर्दा!

ध्यान में एक आँच होनी चाहिए। देखा है न प्रेम में गाल कैसे तपते हैं? मुँह पर भी एक आँच रहती है। ध्यान में भी वैसी ही आँच होनी चाहिए। प्रेमी से मिलने जब जाते हो तो देखा है बदन में ज़रा हरारत रहती है। ठंडा ध्यान नहीं चाहिए, ध्यान में एक ऊष्मा होनी चाहिए। ध्यान के पीछे एक दीवानापन होना चाहिए। और दीवाने घड़ी देख कर चलेंगे?

तुम्हारी ध्यान की विधियाँ तुम्हें बड़ा ठण्डा ध्यान सिखाती हैं, 'ऐसे करो, फिर ऐसे करो, फिर ये करो। जैसे कोई किसी को प्रेम की विधियाँ सिखा रहा हो – ऐसे करना, फिर ऐसे करना, फिर ऐसे करना; छि!

जब प्रेम नहीं ऐसे हो सकता तो ध्यान कैसे होगा? ध्यान में तो एक उन्मत्तता चाहिए कि वो रात चोरी-छुपे मिलने निकली है; डर भी लग रहा है लेकिन सीने में आग भी जल रही है। इधर से, उधर से तमाम बखेड़े खड़े हो रहे हैं। पता है परिणाम भुगतने पड़ेंगे, पर जो बुला रहा है वो इतना सुंदर, इतना अपूर्व, इतना अप्रतिम, इतना दिलकश है कि रुका नहीं जाता। रोकने वाले तर्क तो बहुत हैं। पहला तर्क तो घड़ी ही है, टिकटिक टिकटिक टिकटिक टिकटिक, अरे! रुक। और उन सारे तर्कों से आगे है ध्येय, वो जिसकी आकांक्षा है, वो जिससे दिल लग गया है।

जब वो है ध्येय तब मानना कि ध्यान हुआ। जब सीधे कहो कि मेरे दिल की बात जो जाने तब आज इस घड़ियाली को निकाल ही नहीं दो, पीटपाट के निकाल दो। यहाँ घड़ियाली से अर्थ है — समय और संसार। ‘घड़ियाली दियो निकाल नी,’ जब पिया मिलन हो रहा हो तब कोई हमें समय न बताए। कैसा ध्यान है तुम्हारा जिसको तुम घड़ी के काँटों से छेद डालते हो?

श्रोतागण: तो आचार्य जी, जिस प्रेम की आप बात कर रहे हैं कि उससे प्रेम हो जाए तो वो व्यक्ति चौबीस घंटे उसी के रस में ध्यान करे। उससे तो प्रेम हमें है ही नहीं।

आचार्य: तो क्या करें? वो प्रेम ऐसे ही हो कि...

बहुत सूखे-सूखे लोग भी होते हैं जिनके भीतर प्रेम बिलकुल पपड़ी जैसा सूखा और मुर्दा हो गया होता है, शुष्क। उनको भी जब महबूबा की एक झलक मिल जाती है तो अचानक भीतर पथराई, पपड़ाई ज़मीन पर बरसात हो जाती है। जैसे भीतर एक सूखा बीज पड़ा था वो अंकुरित हो गया।

उसका समाधान तो यही है कि तुम्हें झलक मिले। बाहर जिसकी झलक मिलेगी उसको देख कर भीतर प्रेम अब बेहोशी तोड़कर उठ बैठेगा। इसीलिए फिर देने वाला तुम्हें अपनी झलक तमाम तरीक़ों से देता रहता है। वो सब झलकियाँ तुम्हें दी ही इसलिए जाती हैं ताकि तुम्हारे भीतर का बीज अंकुरित हो पाए; ताकि भीतर जो धरती तड़प रही है, बादलों को आवाज़ दे रही है, उस पर कुछ बूँदें पड़ें।

कहाँ से आती हैं वो झलकें? किसी को झलक मिल जाती है किसी झरने को देख कर, अवाक् खड़ा रह जाता है। किसी को झलक मिल जाती है रात के आसमान को देखकर, ठहर ही जाता है, विस्फारित नेत्र! यह क्या हो गया! किसी को झलक मिल जाती है कहीं मुरली सुनकर। किसी को झलक यूँही मिल जाती है कि हिरणों का एक दल देख लिया। किसी ने देखा कि पेड़ से एक सूखा पत्ता झड़ा और उसको वहीं झलक मिल गयी।

और जिनको प्रकृति में झलक नहीं मिलती उनके लिए परमात्मा ने फिर साधु-संत भेजे हैं, गुरुजन भेजे हैं। उनको इसीलिए तो भेजा गया है न ताकि तुम उनसे प्यार में पड़ सको। उनको इसलिए थोड़ी भेजा गया है कि उनकी बातें सुनो और तालियाँ मारो।

कबीर साहब इसलिए हैं ताकि इश्क़ हो जाए तुम्हें। कृष्ण इसलिए हैं कि फ़िदा हो जाओ उन पर। जीसस इसलिए हैं कि दीवाने हो जाओ उनके। उनको और क्यों भेजा गया है? इसीलिए तो भेजा गया है ताकि तुममें मोहब्बत जगे।

अर्जुन को तो गीता सुननी पड़ी। अर्जुन से पहले न जाने कितने हुए जिन्हें गीता के माध्यम से नहीं मुक्ति मिली, उन्हें मुक्ति मिल गयी कृष्ण की आशिक़ी से। गोपियों को कोई गीता सुनाई थी कृष्ण ने? राधा को गीता पढ़कर मुक्ति मिली क्या? कैसे मिली मुक्ति? प्रेम हो गया, कृष्ण से प्रेम हो गया।

कृष्ण से प्रेम हो जाए तो फिर गीता की भी क्या ज़रूरत? अर्जुन के तो प्रेम में कुछ कमी थी इसीलिए उसको गीताज्ञान देना पड़ा। राधा से पूछो, ‘तुझे मुक्ति कैसे मिली?’ वो बोलेगी ‘कृष्ण की आँखों में देखती हूँ – मुक्त; कृष्ण की मुरली सुनी – मुक्त। कृष्ण की हस्ती ने आज़ाद कर दिया मुझे। कृष्ण के मोरपंख ने आज़ाद कर दिया मुझे।‘

कृष्ण हैं ही इसीलिए कि तुम्हें प्यार हो जाए।

ध्यान को शांति और सौम्यता से ही सिर्फ़ जोड़ कर मत देख लेना। मैं तुमसे कह रहा हूँ, ध्यान पागलपन है। ध्यान प्रबल दीवानापन है। प्रेम है ध्यान। परमप्रेम है ध्यान।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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