आचार्य प्रशांत: यह विचित्र रवैया रहा है हमारा, ज्ञानियों, सन्तों के प्रति। हमने उनके सामने सिर भी झुकाया है। स्वेच्छा से ही उनकी बातों को ख़ूब गाया है। लेकिन उन्ही बातों में उन्होंने हमें जो सिखाया है, हमने उसका ख़ूब उल्लंघन भी करा है।
असल में एक समस्या आती है, एकदम मूलभूत। समस्या यह आती है कि हम सन्तों को बोल देते हैं कि ये अच्छे लोग हैं। है न। ये अच्छे लोग हैं। और अच्छे आदमी की हमारी परिभाषा क्या है? हमारे आम जीवन में हम अच्छा आदमी किसको बोलते हैं, हमारे लिए अच्छा कौन होता है, जो हमें चोट न पहुँचाए। जो हमें चोट न पहुँचाए। जो हमें दर्द न दे, उसको हम कहते हैं, अच्छा आदमी है। है न!
आपकी किसी से बहस हो रही हो तभी वहाँ कोई आये और आपका बहस में समर्थन कर दे। आप बहस में ज़रा हल्के पड़ रहे थे और किसी ने आकर आपका साथ दे दिया। आपकी दृष्टि में वो तत्काल कैसा आदमी हो जाएगा, अच्छा आदमी न। जो आपके मत का, रुख का, आपकी बात का समर्थन करे, वो अच्छा आदमी है। है न।
और सन्तों को तो हम बोलते ही हैं, ‘भले मानस थे, अच्छे लोग थे।‘ और अच्छे से आशय ही यही है कि जो तक़लीफ़ नहीं देगा, जो हमारे विरुद्ध नहीं खड़ा होगा, वो अच्छा है। तो अच्छेपन की इस परिभाषा से बड़ी गड़बड़ हो जाती है। यहाँ जो एक-एक बात है, एक-एक शब्द है, वो हमें तोड़ने के लिए ही है।
लेकिन सन्तों की मिठास ऐसी रहती है, उनकी स्निग्धता ऐसी होती है, उनकी कोमलता ऐसी होती है कि उनको देखकर लगता ही नहीं कि ये आदमी तोड़ने का काम करने के लिए आया है।
वो बड़ा भला मानस लगता है। कितना अच्छा आदमी है! मधुर स्वर है, शीतल वाणी है, जगत के कल्याण के लिए ही जैसे अवतरित हुआ है। सबको आशीर्वाद दे रहा है, सबकी ख़ैर माँग रहा है, निस्वार्थ काम करता है, बुरा किसी का चाहता नहीं। अच्छा आदमी है।
और यहाँ जो-जो बात कही गयी है वो आपको तोड़ने के लिए कही गयी है, तो उनकी जो अच्छी छवि है, वो उनके वास्तविक इरादों पर भारी पड़ जाती है। उनका इरादा है हमें तोड़ने का, लेकिन छवि है प्यारी, मीठी, शीतल, मधुर।
तो हम जब ये गा रहे होते हैं तो हम पूरे विश्वास में रहते हैं कि इसमें ऐसी कोई भी बात नहीं है जो हमें तोड़ने के लिए कही गयी है। कहते हैं इतना अच्छा आदमी हमें तोड़ने के लिए थोड़े ही कोई बात कहेगा।
उनकी हस्ती को देखो। उनकी हस्ती को हमने देखा नहीं है सचमुच, लेकिन हमने उनकी हस्ती की जो छवि बनायीं है, हम उसको देखते हैं तो हम कहते हैं, ‘अरे, अधमुँदी आँखें, गम्भीर चेहरा, एक बहुत छुपी हुई सी मुस्कान, चेहरे पर कोई द्वेष-क्लेश नहीं।
ये क्यों किसी को तोड़ेगा और तोड़ना तो बुरी बात होती है न, हमारी ही परिभाषा में। किसी को तोड़ो तो हम कह देते हैं यही तो हिंसा है। आम आदमी से पूछिए, हिंसा की परिभाषा क्या है तो कहेगा, किसी को अगर तुमने तक़लीफ़ पहुँचा दी तो इसको हिंसा कहते हैं।
तो फिर हम अपनी इसी परिभाषा को उठाकर के सन्तों के ऊपर भी लाद देते हैं। कहते हैं, सन्त इतने अच्छे आदमी हैं, हमें तक़लीफ़ तो पहुँचाएँगे नहीं। अब यह अलग बात है कि हमने उनको देखा नहीं है कभी और उनकी जो छवि है हमारे पास, वो छवि भी हम ही ने बनायी है।
अब गुरुनानक देव का उदाहरण लीजिए। वो यात्राएँ करते रहे जीवनभर और किसान थे। आप में से किन्ही लोगों का किसानों से सम्पर्क रहा है? एक किसान के हाथ कैसे होते हैं। किसान के हाथ कैसे होंगे और जिस आदमी ने जीवनभर पदयात्राएँ करी हों, भारत में भी घूमा हो और भारत में घूमते-घूमते उधर इराक तक चला गया हो।
उस व्यक्ति का शरीर कैसा होगा जो इतना चला हो। कैसा होगा। अब उसके हाथ सुकोमल तो नहीं हो सकते न। लेकिन देखिए, हम अपने चित्रों में कैसा बना देते हैं। इतने कोमल हाथ जैसे रूई का फाहा। जैसे ज़िन्दगी में कभी कोई चीज़ न उठायी हो।
किसान के हाथ ऐसे होंगे क्या? लेकिन हमारा बड़ा छुपा हुआ स्वार्थ है सन्तों को सुकोमल दिखाने में। उनको सुकोमल दिखाकर हम अपनेआप को आश्वस्त कर लेते हैं कि ये आदमी मुझे तोड़ेगा नहीं। इतना कोमल है ये तोड़ेगा थोड़े ही। और हमारी तरकीब काम भी कर जाती है। हम टूटने से अपनेआप को बचा भी लेते हैं।
कभी, कहीं किसी लोककथा में, जनश्रुति में आपने सुना कि कोई साधु है, सन्त है वो चिल्ला पड़ा? सुनेंगे ही नहीं। ऐसा तो नहीं है कि चिल्लाए नहीं होंगे। वास्तव में हम अपनेआप को सुरक्षा देते हैं कि अगर हमारे जैसा भी कोई उनके सामने होगा तो वो चिल्लाएँगे नहीं। माने हम ठीक लोग हैं।
अगर कोई हम पर चिल्ला दे तो साबित हो जाता है कि हम गड़बड़ आदमी हैं। ख़ास तौर पर अगर कोई अच्छा आदमी हम पर चिल्ला दे तब तो एकदम सिद्ध हो जाएगा कि हम गड़बड़ लोग हैं।
तो हमने उनकी छवि ही ऐसी रच दी है कि हम पूरे तरीक़े से सुरक्षित हो गये हैं, एन्श्योर्ड (आश्वस्त) हो गये हैं, उनके द्वारा दी गई चोट से। यह आदमी चोट दे ही नहीं सकता। जबकि उनका कुल काम हमें तोड़ने का है। और चूँकि तोड़ने का ही काम है इसीलिए वो अपने काम को जितने सहज तरीक़े से कर सकते हैं, करते हैं। जितना संघर्ष और घर्षण वो बचा सकते हैं, बचाते हैं क्योंकि काम ही ऐसा है न।
गाड़ी का इंजन होता है, उसमें सिलिंडर है, पिस्टन है। उसमें विस्फोट हो रहे हैं लगातार, प्रतिपल। एक पल में कई बार उसमें विस्फोट हो रहे हैं। है न। ये काम ही विस्फोट का है, आग लगाने का है।
तो इसलिए फिर ज़रूरी होता है कि सिलेंडर और पिस्टन के मध्य घर्षण कम-से-कम हो, नहीं तो पिस्टन में ही आग लग जाएगी। जिस काम में जितनी आग की सम्भावना होती है, उस काम को उतने कम घर्षण के साथ करना पड़ता है।
बात समझ में आ रही है?
इसलिए ये गीत इतने मधुर हैं और ये शब्द इतने मीठे हैं क्योंकि इनमे जो भाव है, वो अहंकार के लिए बड़ा भयंकर है। अहंकार के लिए चूँकि इनका सन्देश बहुत भयानक है, सन्देश अपनेआप में भयानक नहीं है पर अहम् के लिए बहुत भयानक है।
अहम् के लिए चूँकि यह सन्देश बहुत भयानक है इसीलिए इस सन्देश को इतनी मीठी चाशनी में डुबोकर प्रस्तुत किया जाता है। नहीं तो वो नहीं स्वीकार करेगा। तो उन्होंने अपनी ओर से यह सावधानी बरती।
पर हमारे मूर्ख मन में क्या बात आयी, हमने कहा, ‘अरे! जब इतना मीठा सन्देश है, तो वो हमें तोड़ने के लिए थोड़े ही होगा। जब कोई आकर के, हमारी जैसी परम्परा है समाज में, हमारे कोई आकर के हमें मिठाई खिलाता है, तो मिठाई खिलाकर फिर डंडा थोड़े ही मारता है। ऐसा थोड़े ही होता है।
जो हमें मिठाई खिलाता है वो तो हमारा बन्धु होता है, प्यारा होता है। कोई मीठी चीज़ अगर आपको परोस रहा है तो मीठी चीज़ परोसने की वजह यह तो नहीं होगी कि अब इसके बाद तुम्हारी कुटाई होनी है। लो मीठी चीज़ खा लो, अब इसके बाद तुम अब डंडा खाओ। ये तो नहीं होता।
तो हम कहते हैं, ‘अरे! हमारा तो रोज़मर्रा का अनुभव यही रहा है। चीज़ अगर मीठी होती है तो उसके साथ सुख जुड़ा होता है।‘ सुख के अवसरों पर ही तो हम मिठाइयाँ बाँटते हैं न। मिठाई का सम्बन्ध हमने सत्य या मुक्ति से रखा है क्या?
आख़िरी बार आपने कब मिठाई बाँटी थी या खायी थी? उसका सम्बन्ध निश्चित रूप से सुख और भोग से होगा। भोगने का कुछ नया हो जाता है तो मिठाई बँट जाती है। घर में गाड़ी आ गयी नयी, तो जाते हैं मंदिर में भी उस पर स्वास्तिक बनवाने तो वहाँ कुछ मीठा हो जाता है।
अब मिठाई का सम्बन्ध सत्य से तो फिर है नहीं। न गाड़ी का सम्बन्ध सत्य से, मुक्ति से है। भोग की बात है पूरी। शादी-ब्याह, नौकरी लग गयी। और किन चीज़ पर मिठाई बँटती है? बच्चा हो गया, टीम क्रिकेट मैच जीत गयी, इस पर भी बाँट देते हैं कुछ लोग। मैच हुआ था, जीत गये।
तो मीठे का सम्बन्ध ही हमने शुभ से नहीं, सुख से जोड़ा है न। हाँ, अपनी भाषा में हम सुख को ही कह देते हैं शुभ। जो कि बिलकुलl ग़लत है। सुख और शुभ का कोई अनिवार्य सम्बन्ध होता नहीं है। लेकिन ये सब कर-करके, कर-करके, पहले तो ये कई सदियों से चल रहा है और फिर अपनी ज़िन्दगी में भी हमने बीस, चालीस, साठ साल से यही सब होते देखा है।
ये सब कर-करके हमारी आदत ये लग गयी है कि अगर कहीं कुछ मीठा है तो वहाँ बात हमारे सुख की ही कही जा रही होगी। वहाँ मामला हमारे स्वार्थ का ही चल रहा होगा। वहाँ हमें हँसाया ही जा रहा होगा। वहाँ कम-से-कम कुछ ऐसा तो नहीं हो रहा होगा कि हम टूट जाएँ। क्योंकि बात मीठी है।
विज्ञापन भी आता है तो वो कहते हैं, ‘कुछ मीठा हो जाए।‘ क्या हुआ है। मोक्ष, निर्वाण प्राप्त हुआ है? कुछ मीठा हो जाए। किस बात पर कुछ मीठा हो जाता है? कुछ भी, कुछ भी। कुछ मीठा हो जाए। तो अब ये तो बहुत मीठे हैं। एकदम ही मीठे हैं। इतने मीठे हैं कि इन्सुलिन तैयार रखें आप।
मन स्वीकार करेगा ही नहीं कि इस मिठास के पीछे तलवार है। कि जैसे चाशनी में पगी हुई खडक की धार है। ये हमें यक़ीन ही नहीं आता। कोई नहीं मानेगा। और अगर हमने ये मान लिया होता तो सन्त लोग बेचारे कभी इतने प्रसिद्ध न होते। हम तो उनको अपने घर का मानते हैं।
ऋषियों से फिर भी हमारी उतनी मित्रता, उतनी घनिष्ठता, उतनी आत्मीयता नहीं हो पाती क्योंकि वहाँ मिठास नहीं है। श्लोक तो सीधे-सीधे गणित के सूत्र की तरह होता है, खरी-खरी बात बोल देता है, ख़त्म हो जाता है।
पर भजन, दोहे, काफिया, चौपाइयाँ इनमें तो रस सुधा है बिलकुल। लोग भाव-विभोर हो जाते हैं। आँसुओं की नदियाँ बहती हैं। और ये वो वाले तो आँसू नहीं होते जो सत्य से उठते हैं। इन आँसुओं का ज़्यादातर सच्चाई से कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। ये तो ऐसा है कि सुख ऐसा घना मिला कि आँसू आ गये। सुख के आँसू।
बात आ रही है समझ में?
बड़ी सतर्कता की ज़रूरत है। जैसा हमने कहा था पिछली बार भी। यहाँ मिठाई भी है, दवाई भी है। मिठाई के चक्कर में दवाई से चूक नहीं जाना है।
देखिए, मुझे माफ़ करिएगा लेकिन मेरी नज़र कुछ ऐसी है। आप लोग जब गा रहे होते हैं झूम-झूम कर के तो मैं बिलकुल कौतूहल में बच्चे की तरह देखता हूँ आपको।
अब वीडियो आ गया या फोटो आ गयी कि यहाँ से ये गा रहे हैं, आप लोग साथ में कीर्तन मग्न हो गये हैं। कीर्तन में होता है ऐसा। और किसी की ऐसी तस्वीर आयी है (भावमग्न होने की मुद्रा बनाते हुए) तो मैं उसको बहुत देर तक ऐसे ध्यान से देखता रहता हूँ।
मैं पूछता हूँ इन्हें क्या समझ में आया है? इनका मुँह ऐसा क्यों हो गया? और ये बड़ी-से-बड़ी समस्या होती है जब रस आ जाता है सत्य के बिना। क्या यही मानव जीवन की मूल समस्या नहीं है कि जहाँ सच नहीं भी होता वहाँ भी हमें रस आने लग जाता है? बोलिए।
क्या ज़िन्दगी की मूल समस्या यही नहीं है कि जहाँ सच जैसा कुछ है नहीं, जहाँ झूठ है, धोखा है, हमें वहाँ भी रस आने लग जाता है। बोलिए।
तो मैं देखता हूँ मतलब किसी ने ऐसे कर रखा है, कोई ऐसे है (भाव-विभोर होने की विभिन्न मुद्राएँ बनाते हुए) किसी के आँसू बह रहे हैं और मैं उन सब बातों का बड़ा मान करता हूँ। पर मेरे मन में जिज्ञासा उठती है। मैं पूछता हूँ, जितना भाव यहाँ प्रदर्शित हो रहा है, क्या सत्य में भी उतनी ही गहराई है इनके और अगर नहीं है तो ये तो सारा भाव बस नशा है।
और इसी तरीक़े से आप झूम सकते हैं किसी फिल्मी गीत पर भी। लेकिन वो कम ख़तरनाक होता है क्योंकि वहाँ अहंकार को कम-से-कम यह दावा नहीं मिलता कि वो श्रेष्ठ हो गया, आध्यात्मिक हो गया। ठीक बात। और अगर भजन के साथ हम झूम लिये बिना उसको समझे, तब तो दोहरी चोट पड़ गयी।
पहली बात तो कुछ समझ में नहीं आया। मिठाई गप हो गयी, दवाई थू हो गयी और दूसरी बात, भीतर दावा खड़ा हो गया कि मैं तो आध्यात्मिक हूँ। तो कहीं के नहीं बचे। भारत ने यही करा है अपने सब भजनों के साथ।
इतनी सुन्दर और इतनी विपुल ये सन्तों की साहित्य राशि है, हमने उसका बड़ा अपने लिए दुरुपयोग कर डाला। हमने उसका इस्तेमाल नाचने, झूमने, गाने के लिए कर लिया बिना यह जानें कि वो कहना क्या चाह रहे हैं।
अभी पिछले ही सप्ताह हमने किस भजन पर चर्चा करी थी?
‘तेरा मेरा मनवा कैसे एक होइ रे’।
अब कम-से-कम संस्था के सदस्यों के लिए वो भजन नया नहीं है। होंगे आठ-दस साल से हम उसको गा रहे हैं। पर जैसे विस्तार में पिछले रविवार बात हुई, ऐसे विस्तार में पहले बात या तो हुई नहीं होगी या जो अभी सदस्य हैं उन्होंने तब सुनी नहीं होगी तो उसके बाद ये लोग मेरे पास आये। बोले, ‘हमें समझ में नहीं आ रहा कि हम इतने सालों से इसको गा कैसे रहे थे। जब हमें इसका मतलब ही नहीं पता था तो हम इस पर गाते कैसे रहते थे?’
और ये बात संस्था के अन्दर हो रही है, जहाँ माहौल ऐसा रहता है कि ‘समझ लेना’ कुछ भी करने से पहले, गाने से पहले, फैसले से पहले समझा करो। जहाँ बार-बार मैं याद दिलाने के लिए मौजूद हूँ। वहाँ भी ये हो जाता है कि मिठास और कोमलता और चिकनाई ऐसा लुभाते हैं कि मन फिसल ही जाता है।
इन लोगों को याद होगा, दस-बारह साल पहले का है। तो इन लोगों को ऋषिकेश के आगे शिवपुरी है, वहाँ लेकर गया था। तो बहुत सारे तो उसमें छात्र ही थे, तो उन लोगो के लिए एक मिनी बस करी थी। मैं अपना बाइक पर था। वहाँ पहुँचे तो रात हो गयी थी।
तो मैं तो थका हुआ था। तो जाकर सो गया। ये लोग अपना वहीं पर गंगा किनारे कुछ करने लगे। मैं सो के उठा तब तक दस-ग्यारह रात के बजे थे। मैं बाहर जाता हूँ। वो पूरा दृश्य मुझे याद है। मैं बाहर जाता हूँ। तो वहाँ पर उन्होंने आग जला रखी थी तट पर। वहाँ बैठ गये थे।
इनको निर्देश ये रहते थे कि बैठ जाना तो अपना कुछ पढ़ना या गाना। और मैं अभी सो के उठा हूँ। आठ-एक घंटे मोटर साइकिल चलायी थी। थका हुआ था। और आप सोकर उठो तो वैसे ही थोड़ा सा मन घूमा हुआ रहता है। और पूरा अन्धेरा एकदम और एक जगह बस वहाँ पर आग दिखायी दे रही है।
मैं वहाँ जाता हूँ। वहाँ ये लोग बैठकर गा रहे थे। और गा क्या रहे थे, तब फिल्म आयी थी नयी-नयी। तो उसमें ही गा रहे थे- कुन फाया कुन। और जैसे आग भड़की हुई थी वैसे ही मैं तुरन्त भड़क गया और बहुत डाँटा।
मैंने कहा ये जो तुम गा रहे हो, तुम्हें इसका मतलब पता है? अगर तुम्हें मतलब नहीं पता तो तुम क्यों गा रहे हो? और गा ये वैसे ही रहे थे जैसे फिल्म में वो हीरो गाता है। कैसे भाव करके? एक बार करिए ताकि आपको पता चले कि वो भाव कितना नक़ली होता है।
कैसे हो जाते हो ये सब गाते हुए? कैसे हो जाते हो? करिए न। करते तो हैं ही। करिए करिए। बड़ा रस आता है वैसा चेहरा बनाने में, वैसा भाव दिखाने में। कौन करके दिखाएगा? लजाने की क्या बात है, हम यही तो करते आये हैं अपने मन्दिरों में, भजनों में, आरतियों में, यही तो करा है हमने।
हम बिलकुल दक्ष हो गये हैं झूठे भाव दिखाने में; चाहे वो ध्यान में हो, चाहे भक्ति में हो। हम बिलकुल जान गये हैं कि भाव कैसा दिखाना होता है। और वो पूरा झूठा होता है क्योंकि उसका आत्मा से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं।
आत्मा तो बोध है। जो समझा नहीं, उस पर भाव आ कैसे गया? करो, दिखाओ तो, कोई तो दिखाओ! कैसा रहता है भाव? करो। एक तो आँख बन्द होगी ही होगी। वो तो पहली शर्त है कि आँख तो करो बन्द। और फिर क्या करना होता है उसके बाद? मुँह खोलना होता है। आँख बन्द, मुँह खुला और क्या करना होता है?
कर ही दीजिए जब इतना…. वे बस यही। एक हाथ ऐसे ज़रूर आकाश की ओर जाएगा। (श्रोता हँसते हैं)
और आधे घंटे तक मैं बस डाँटता ही रहा और उन बेचारों को समझ में ही नहीं आया। वो तो एकदम ही छोटे-छोटे थे, सोलह-अठ्ठारह साल के रहे होंगे। बोले, ‘हम तो एकदम मगन होकर के पूरी गम्भीरता, एकदम ‘सिंसियरिटी’ से गा रहे थे, ग़लत क्या कर दिया हमने?
मैंने कहा, ‘कुछ नहीं ग़लत कर दिया। बस बता दो ये जो गा रहे हो, इसका अर्थ क्या है? अर्थ नहीं पता तो तुम जो कर रहे हो वो तो कोई टेप-रिकॉर्डर भी कर सकता है न।‘ और कोई अभिनेता भी कर सकता है। उसमें फिर सच्चाई कहाँ है? तुम बस नक़ल कर रहे हो भावों की। तुमको पता भी नहीं है कि तुम्हारे भाव भी असली नहीं हैं। यहाँ तक कि तुम रो पड़ते हो, तुम्हें ये भी नहीं पता कि तुम्हारे आँसू भी असली नहीं हैं।
और फिर यही जो तुम अभी कर रहे हो, यहाँ पर अध्यात्म के नाम पर, यही तुम फिर पूरी ज़िन्दगी करते हो और तुम्हें पता भी नहीं लगता कि तुम्हारा कुछ भी असली नहीं है। न हँसी असली है, न उदासी असली है, न आँसू असली हैं, न मुस्कुराहट असली है। कुछ असली नहीं रह जाता।
और ऐसा हमारा घना अभ्यास हो जाता है कि अन्तर करना मुश्किल हो जाता है। पता ही नहीं लगता हमें कि अभी मेरे भीतर जो उठ रहा है वो मेरा है या किसी और का है? असली है नक़ली है? पता ही लगना बन्द हो जाता है। थोड़ी सी आहट लग रही है, मैं क्या बोल रहा हूँ इसका?
जैसे भीतर कोई मशीन बैठ गयी है, जिसको पता है कि जब ऐसा मौका हो तो ऐसा फिर चेहरा दिखा दो। जब ऐसा शब्द कान में पड़े तो ऐसा भाव प्रदर्शित कर दो। भीतर कुछ बैठ गया है। बस! एक प्रकार की व्यवस्था, एक सेटिंग। यही है कि नहीं है, उससे क्या मिलेगा?
वो वैसे ही है जैसे मैं होटल में रुका हुआ हूँ तो वहाँ के कर्मचारियों को पूरा प्रशिक्षण है। आप टहल भी रहे हों, कोई भी आपको वहाँ रास्ते में मिलेगा, वहाँ बहुत सारे उनके हैं, कोई मिलेगा, ‘हेलो सर, हाउ इज़ इट गोइंग फॉर यू? (आपको कैसा लग रहा है) एंजॉइंग द वेदर? (मौसम का आनन्द ले रहे हैं?)’ और वो मुस्करा भी रहे होते हैं।
उनको पता लगना बन्द हो चुका है कि उनकी मुस्कराहट नक़ली है। उनमें और हममें कोई बहुत अन्तर नहीं है। हमने भी अपनेआप को उसी तरीक़े से प्रशिक्षित और अभ्यस्त कर लिया है।
यह मुझे अजीब लगता है। मेरे लिए ऑकवर्ड (अजीब) है कि क्यों मुझे देखते ही मेरे पास चले आ रहे हो। ऑल इज़ फाइन (सब बढ़िया है) और ऐसे करके, क्यो कर रहे हो। मुझे मालूम है कि यू डोंट मीन इट (आपको इससे कोई मतलब नहीं है)।
लेकिन उसको ये बात अब भूल चुकी है, बहुत ज़्यादा भूल चुका है वो इस बात को कि वो जो भी कुछ बोल रहा है, उसका उसके हृदय से कोई ताल्लुक़ नहीं है। वैसे ही तो हम हैं। हमारे विचारों में, हमारे कर्मों में, हमारे सम्बन्धों में बताइए हृदय कितना बचा है, न बचा है, न याद है कि नहीं बचा है। हम जैसे हैं, हम उसमें सन्तुष्ट हो गये हैं।
जैसे ये माइक रखा है। इसके भीतर अब कौन सा विरोध है, कुछ नहीं। मैं रो दूँ, ये रोने की आवाज़ एकदम ‘एम्प्लीफाई’ (बढ़ा देगा) कर देगा। मैं कुछ न बोलूँ तो ये सौ दिन तक मौन पड़ा रहे। इसे कोई अन्तर नहीं है, कोई असन्तुष्टि नहीं है।
अपनी स्थिति के प्रति इसमें कोई विद्रोह नहीं बचा है। इसको जो बता दिया जाए, ये कर देगा। कुछ न बताओ तो कुछ नहीं करेगा। और जो बता दिया गया है, उसको ये बिलकुल निपुणता से करके दिखाता है। वैसे ही तो हम हैं न। हमें जो बता दिया गया है, वही हम करते हैं।
छोटे थे, मन्दिर गये थे, हमें बता दिया गया था, भगवान जी हैं, क्या करना होता है यहाँ पर और छोटे बच्चे को आप पहले-पहले मन्दिर लेकर जाएँ तो वो वहाँ भी शरारत करता है। ज़मीन पर लोट जाएगा, कुछ करेगा, इधर-उधर देखेगा, भागेगा। फूल वगैरह देखेगा तो बीनना शुरू कर देगा, अरे! फूल दिख गये। घंटियाँ दिखेंगी तो बोलेगा मैं भी बजाऊँगा। ये सब करता है।
और उसको हम बता देते है, छोटे बच्चे को, ये सब यहाँ नहीं करना होता है। भगवान जी हैं, नाराज़ हो जाते हैं। भगवान जी को नमस्ते करो। वो ये सब सीख जाता है। वही छोटा बच्चा तो बड़ा हो गया। और आज कुर्सियों पर बैठा हुआ है।
क्या उसको कुछ भी समझ में आया था जिस दिन हमने उसको कहा था कि यहाँ फूलों से नहीं खेलते, यहाँ जमीन पर नहीं लोटते। नहीं, यहाँ शोर नहीं मचाओ। उसे कुछ भी समझ में आया था क्या? लेकिन वो धार्मिक हो गया था उस दिन।
वो जान गया था कि मन्दिर में मौन। वही बच्चा बड़ा हो गया है। आज यहाँ बैठा हुआ है। न उसे धर्म तब समझ में आया था, न धर्म उसे आज समझ में आता है लेकिन अभ्यास में निष्णात है वो बिलकुल।
और उदाहरण ले लीजिए। स्कूलों में सुबह की प्रार्थना। पहली-दूसरी कक्षा का बच्चा है। उसे क्या पता है और उससे आप प्रार्थना करवा रहे हो। अपनी प्रार्थनाएँ याद करिए। प्रार्थना याद करिए अपनी। उनका अर्थ आपको आज भी पता है क्या? और आप पाँच साल के थे तब आपको वो प्रार्थना दे दी गयी थी।
और हम, छोटे बच्चों की गम्भीरता देखने लायक होती है। वो इतने-इतने बित्ते खड़े होते है क़तार में और… उनमें जो शरारती वाले होते हैं उनको बोला जाता है, ‘हाँ, वन आर्म डिस्टेंस, (एक हाथ की दूरी पर रहो) तो ऐसे करके ऐसे पूरा घूमते हैं (अपना हाथ घुमाते हुए) कि कोई तो आ जाए चपेट में। वन आर्म बोला गया न, तो पूरा ऐसे गोल घूम जाते हैं। फिर उनके कान उमेठे जाते हैं तो वो भी फिर सीधे हो जाते हैं।
उन प्रार्थनाओं का अर्थ हमें आज तक पता नहीं है न। हम करते गये, रोज़ करते गये। बिना ये जानते करते गये कि…. और हम क्या बन गये, मशीन बन गये। और धर्म होता किसलिए है (हँसते हुए) ताकि मशीन में प्राण फूँक सके, कि जड़ को चेतन कर दे। लेकिन हमने धर्म का इस्तेमाल भी स्वयं को मशीन बनाने के लिए कर लिया।
आप में से कॉन्वेन्ट्स में कौन-कौन पढ़ा है? मैं भी पढ़ा हूँ थोड़ा। वो जो सुबह वाली प्रार्थना है उसका कुछ थोड़ा-बहुत भी अर्थ, अर्थ छोड़ दो। उसका सन्दर्भ, उसका कॉन्टेक्स्ट भी पता है, वो क्या बोला जा रहा है? गिव अस टुडे आवर डेली ब्रेड। (हमें हमारी रोज़ की रोटी दीजिए) वो तो मिल ही रही है।
मम्मी ने टिफिन बाँध के दिया है। ये सुबह-सुबह आकर के नाश्ता करके आये हैं। पेट भरा हुआ है, ये डेली ब्रेड क्यों माँगी जा रही है? लेकिन हममें ये जिज्ञासा नहीं होती। हमें नहीं पता कि हम जो माँग रहे हैं, क्यों माँग रहे हैं। वो दे दी गयी है न! प्रार्थना। प्रार्थना है, करो।
महिलाएँ होती हैं। वो जैसे ही पहुँचती हैं किसी जगह पर। उन्हें पता चलता है, पूजा वगैरह हो रही है। वो झट से ऐसे साड़ी में ऐसे कर लेती हैं। (अपना सिर ढकने का अभिनय करते हुए) ये काहे को किया। नहीं, किया क्यों, ये बता तो दो। हम नहीं कह रहे, मत करो, बिलकुल करो पर ये तो बता दो ये किया काहे को?
धर्म का अर्थ ही बन गया है, दिमाग़ मत चलाना, सवाल मत पूछना। अर्थ जानने की कोशिश मत करना और ज़्यादा सवाल पूछोगे तो हम कह देंगे, तुम ही बड़े भारी ज्ञानी हो? शताब्दियों से होता आया है जैसे वैसे तुम भी करो।
देखो भाई, होता आया होगा शताब्दियों से लेकिन हमारे पास तो हमें एक ही ज़िन्दगी मिली है, वो भी नयी-नयी पहली, आख़िरी। शताब्दियों से जो होता आया होगा, होता आया होगा, वो हमारा नहीं था। हम तो अभी के हैं। मैं आज हूँ। मुझे अपनी ज़िन्दगी आज जीनी है।
तो मुझे तो बता दो कि क्या है यह बात? और बता नहीं पा रहे तो मुझसे उम्मीद भी मत करना कि मैं इन सब बातों का पालन करूँगा। हाँ, ये जो कुछ भी हो रहा है वो मुझे रोचक लग रहा है। मुझे ऐसा आभास है कि इसके पीछे कोई गहरी बात शायद होगी पर सिर्फ़ आभास से मेरा काम नहीं चलेगा। या तो वो गहरी बात मुझे समझाइए नहीं तो माफ़ करिए।
समझ रहे हैं बात को?
ये वो नहीं है जो इसे हम आज तक समझते आये हैं और ये बात दोहरा रहा हूँ। मीठी करके कही ही इसलिए गयी है क्योंकि अहम् को लगनी बहुत कड़वी है। तो मीठी इसलिए करी गयी ताकि जब कड़वाहट लगे तो वो संतुलित हो जाए, न्यूट्रलाइज़ हो जाए।
समझ में आ रही है बात?
कि लोगे, अर्थ समझोगे, अर्थ तो बहुत कड़वा लगना है। जब अर्थ कड़वा लगे तो जो शब्दों की और भावों की मिठास है वो उसको किसी तरीक़े से संतुलित कर दे। बराबर कर दे। नहीं तो आप भाग जाओगे।
लेकिन हमने क्या करा? हमने कहा कि अर्थ में जब कड़वाहट है तो फिर अर्थ लेना ही क्यों है? सुर बिठाओ, लय ताल बैठाओ, गाओ, झूमो, नाचो। बात क्या है, वो बिलकुल मत समझो।
ये तो छोड़िए कि अर्थ पता होते हैं, अनर्थ इतना है कि कई बार जो लोग इन पर झूम रहे होते हैं, उन्हें शब्द भी नहीं पता होते। उन्हें शब्द भी नहीं पता हैं और झूमे जा रहे हैं।
निर्वाण षट्कम की अन्य रिकॉर्डिंग सुनिए, उसके कई मिलियन व्यूज़ हैं। एक बहुत बड़ी संस्था ने करा है । और उस पर बड़ी सुन्दर-सुन्दर लड़कियाँ एकदम लाल सफेद साड़ियाँ पहनकर गा रही हैं, स्वर-में-स्वर, सुर-में-सुर मिलाकर के। और क्या?
‘चिदानन्द रूपा” शिवोअहम्- शिवोअहम्।‘ तुम्हें तो अभी बोलना भी नहीं आ रहा है। तुम अर्थ से कितनी दूर होगे? चिदानंद “रूपः” है। यह “रूपा” कौन है? (श्रोता हँसते हैं) और वो लेकिन गा ऐसे रहे हैं बिलकुल। कोक स्टूडियो बना दिया है। वो भी झूम रहे हैं, सब दर्शक, श्रोता भी झूम रहे हैं।
ये जीने का एक तरीक़ा होता है, अगर जानता नहीं तो करूँगा नहीं। और जीने का यह तरीक़ा जो सिखाए उसको ही धर्म कहते हैं। नहीं जानता तो नहीं करूँगा। समझाओ। एक-एक बात समझाओ। छोटी-सी-छोटी चीज़ें मेरी जिज्ञासा रहेगी।
हाँ, बाल की खाल निकालूँगा। हाँ गड़े मुर्दे उखाडूँगा। गड़े मुर्दे उखाड़ने पड़ते हैं भाई। हमें नहीं पता, हत्या न हुई हो कहीं उसकी। उखाड़ो उसको। खोलो उसका शरीर और देखो कि उसके भीतर क्या है, पेट में ज़हर है क्या? क्योंकि अगर उसके पेट में ज़हर है तो फिर हमारी ज़िन्दगी भी महफूज़ नहीं।
समझ में आ रही है बात?
उल्टे, धर्म का अर्थ ये बन गया है कि व्यवस्था को छेड़ना मत। शर्ट तह करके अलमारी में रख दी गयी है। उसको बाहर निकालकर के यह मत देखना कि कहीं उसमें धब्बे तो नहीं पड़े। बाहर निकालोगे तो तह ख़राब हो जाती है न। लेकिन अगर बाहर निकालकर के उसके धब्बे नहीं जाँचोगे तो दोबारा धब्बे वाली शर्ट पहनने को मजबूर होना पड़ेगा न।
धर्म का अर्थ होना ही चाहिए खुदाई, ड्रेजिंग। धर्म का प्रतीक होनी चाहिए कुदाल या हल, फावड़ा। ये धर्म के प्रतीक होने चाहिए कि जो कुछ जम गया है, मुझे उसको खोजना है, खोदना है।
बात समझ रहे हैं?
मुझे बड़ा डर है आप सब-के-सब इस भजन को इतनी बार सुन चुके हैं कि मैं जैसे ही बात करनी शुरू करूँगा, आपके मन में बस पुरानी यादें सक्रिय हो जाएँगी। और आपका जो पुराना रिश्ता रहा है इस भजन से, वो कोई स्वस्थ रिश्ता नहीं रहा है।
हमारा किसी भी धार्मिक तत्व से स्वस्थ रिश्ता रहा ही नहीं है। घर-घर में आरती होती है न, ‘ॐ जय जगदीश हरे।‘ आपके किन-किन के घरों में हुई है, सबके घर में। तो शुरुआत ही वहाँ ‘ओम’ से हो रही है। ‘ओम' माने क्या है, कुछ नहीं, ओम ओम!
इतनी बार सुना है कि लगता है कि पता ही होगा। सिर्फ़ इसलिए कि आपने कोई शब्द बहुत बार सुन लिया या आपने कोई कृत्य बहुत बार कर दिया, आप उसे समझ गये क्या? बताइए न ओम! बहुत सम्भावना है कि जो मन्दिर में खड़े पुजारी भी आगे-आगे खड़े होकर 'ओम जय जगदीश हरे' कर रहे हैं, उन्हें भी ओम न पता हो। पर हमने कर ली और छोटे बच्चों से भी करवा दी।
अगर माँ-बाप सचमुच अभिभावक हों तो सबसे पहले बच्चे को समझाएँगे। एक-एक शब्द लेकर समझाएँगे। कहेंगे, देखो ये बात है और इस बात को इसलिए कहना या गाना ज़रूरी है क्योंकि हो सकता है, बात बहुत अच्छी हो।
लेकिन फिर प्रश्न यह उठना चाहिए कि इस अच्छी बात को हम गा क्यों रहे हैं? तो मुझे तो पूरी बात पता चलनी चाहिए न। मैं एक बच्चा हूँ छोटा, मुझे पूरी बात पता चलनी चाहिए। एक-एक शब्द का अर्थ क्या है और फिर यहाँ पर अगर मैं खड़ा हुआ हूँ प्रतिमा के सामने, मूर्ति या चित्र के सामने तो उसका अर्थ क्या है और उस प्रतिमा के सामने गाने का अर्थ क्या है। यह पूरी बात पता होनी चाहिए। नहीं पता है तो हम अपनेआप को बस जड़ता का प्रशिक्षण दे रहे हैं।