प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं बचपन से एक धार्मिक परिवार में पला-बढ़ा हूँ। बचपन से पूजा-पाठ हमारे घर में चलता था। रामायण-महाभारत हमारे घर में चलता था। तो उन सब का देखा-देखी मैं भी सबसे रामायण-महाभारत साझा करता था। लोग खुश होते थे और मुझे भी एक तरह का प्रोत्साहन मिलता था। पर जैसे-जैसे मैं जीवन में आगे बढ़ा, ग्यारहवीं-बारहवीं में आया, तो इन चीज़ों से अरुचि हो गयी।
अब पिछले साल लॉकडाउन के कारण मैं घर में रहा, तो काफ़ी खाली समय था मेरे पास। उस खाली समय में मैंने आपके वीडियोज़ और लेक्चर सुनना शुरू किया। मेरा फिर से स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) की तरफ़ ध्यान बढ़ गया और मैं आपकी वीडियो अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से शेयर (साझा) करने लगा, लेकिन अब वो इतना विरोध क्यों कर रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: मुझे नहीं पता वो क्या कर रहे हैं। वो थोड़े ही शिविर में आये हैं। तुम छोटे से बच्चे हो क्या कि मम्मी-पापा की शिकायत दूसरे डैडी जी से करने आये हो? और छब्बीस की उम्र में, जिससे तुम बात कर रहे हो, वो भी अगर ऐसे ही किसी की शिकायत किसी से कर रहा होता, तो आज मैं तुम्हारे सामने बैठा होता?
मैं क्यों इस बात पर ध्यान दूँ कि तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें रामायण-महाभारत पढ़ाते थे कि नहीं पढ़ाते थे, आज वो तुम्हारी रुचियों को पसन्द करते हैं कि नहीं करते हैं? ये उनका मामला है, वो जब शिविर में आएँगे तो उनसे बात कर लूँगा। तुम अपनी बताओ।
प्रश्नकर्ता: वो रोकते हैं मुझे।
आचार्य प्रशांत: तुम छब्बीस साल के हो! तुम छोटे से बच्चे हो, ऐसी शिकायत कर रहे हो खड़े होकर के? ये लाज की बात है! ‘मम्मी-पापा रोक रहे हैं, मम्मी-पापा रोक रहे हैं’, दो साल के हो? छ: साल के हो? नहीं, छब्बीस साल के हैं। कैसे रोक रहे हैं? उन्हें दिख ही रहा होगा कि तुम रोकने लायक़ हो, इसलिए रोक रहे हैं। एक जवान शेर को कौन रोक सकता है? तुम जवान हुए ही नहीं, इसलिए तुम्हें रोक रहे हैं। मैं रोकने वालों की बात करूँ या रुकने वाले की?
प्रश्नकर्ता: रुकने वाले की।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो अपना बताओ न तुम्हें कैसे कोई भी रोक लेता है? ये जो तुमने पूरी कहानी सुनायी, ये सुनने में ही भद्दी थी। ये कहानी आठ-दस-बारह साल तक शोभा देती है, उसके बाद नहीं। ‘मैं नौकरी कर रहा हूँ, मैं छब्बीस साल का हूँ, मैं अध्यात्म की ओर बढ़ रहा हूँ, मैं जो भी कुछ कर रहा हूँ, मम्मी ने मना कर दिया।’
प्रश्नकर्ता: आसपास का जो माहौल है वो रोकता है।
आचार्य प्रशांत: अरे! तो वो क्यों है तुम्हारे आसपास? और अगर तुम्हारे आसपास भी है, तो उसकी हिम्मत कैसे पड़ जाती है तुमसे उल्टी-पुल्टी बातें बोलने की? लोग भी न बन्दा देखकर के और शक्ल देखकर बोलते हैं। तुम शेर की तरह रहो, शेर की तरह जियो, किसी की ख़ुद ही हिम्मत नहीं पड़ेगी तुम पर आक्षेप, आपत्ति करने की।
पहली शर्म तो तभी आ जानी चाहिए जब कोई आकर के तुम्हारे मसलों में हस्तक्षेप करे। बात ये नहीं है कि उसने जो भी कहा वो सही है या ग़लत। बात ये है कि उसने जो भी कहा उसने कह कैसे दिया?
ज़रूर तुमने ही ऐसे इशारे दिये हैं कि मैं कमज़ोर आदमी हूँ और मुझसे कोई कुछ भी कह सकता है। तुमने अपना ब्रांड ऐसा लुचुर-पुचुर बना क्यों रखा है? और ऊपर से दूसरों की शिकायत कर रहे हो कि फ़लानों ने आकर मेरे साथ बड़ी ज़्यादती कर दी।
प्रश्नकर्ता: इस चीज़ से लडूँ कैसे?
आचार्य प्रशांत: लड़ने की ज़रूरत ही नहीं है। तुम्हें ऐसा हो जाना है कि किसी की हिम्मत ही नहीं पड़े तुमसे ये सब बातें बोलने की। देखो, बीमारी भी कमज़ोर आदमी पर हमला करती है। सबसे पहले ये समझो कि दूसरे तुममें कमज़ोरी देख रहे हैं न, इसलिए तुम पर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। अगर वो तुममें कमज़ोरी देखेंगे ही नहीं तो तुम पर चढ़ने की कोशिश भी नहीं करेंगे।
और अगर तुम्हारे ही माँ-बाप हैं और कमज़ोरी देख रहे हैं, तो कमज़ोरी होगी भी। वो बिलकुल तुम्हारी असलियत से वाक़िफ़ हैं, उन्हें दिख रहा है कि ये लड़का तो है ही कमज़ोर, तो इसका हाथ उमेठ सकते हैं, इसके कान भी मरोड़ सकते हैं। नहीं तो छब्बीस साल के जवान पर कौन धौंस चला सकता है!
देखो, अध्यात्म ऐसे ही नहीं होता कि हल्की-फुल्की चीज़ है, कोई भी कर ले। बैठकर कहीं भजन ही तो गाने हैं, उसके बाद बूंदी के लड्डू खाने हैं। ये पंजीरी वाला अध्यात्म किसी काम का नहीं होता कि छुन्नू गया मन्दिर की घंटी बजायी और वहाँ पर चरणामृत और पंजीरी लेकर वापस आ गया और धार्मिक कहला गया। जिगर चाहिए, हौसला चाहिए, भीतर ज़रा आग चाहिए, आँखों में तेज चाहिए। किसी की हिम्मत नहीं होनी चाहिए तुमसे फालतू बात करने की।
पहला अपमान तो यही है कि वो ऐसी बात कर कैसे गया। उसके बाद तुम उसको सज़ा दे लो, चाहे उसको मना कर दो, इससे नुक़सान की भरपाई नहीं होने वाली। सबसे पहले तो यही पूछो अपनेआप से कि इसने ऐसी बात करी माने इसने मुझमें ज़रूर कोई कमज़ोरी देखी है। ‘कर कैसे दी ऐसी बात?’ इसीलिए कहा जाता है न कि महावीर चलते थे, तो जो हिंसक पशु भी होते थे, वो बिलकुल गाय की तरह हो जाते थे।
प्रश्नकर्ता: जो अपने बिलकुल निकटतम हैं उनके लिए ऐसा मन में आता है कि उनको ठेस नहीं पहुँचानी है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बस यही तो कमज़ोरी है जो उन्होंने देख ली है तुममें। अरे! किसी अच्छी चीज़ को ठेस नहीं पहुँचायी जाती भई! तुम्हारे घर में जाले लगे होते हैं, तो तुम क्या बोलते हो, ‘इनको ठेस नहीं पहुँचानी है?’ अगर आँखों में जाले हों, कैटरेक्ट (मोतियाबिंद), तो उसको भी ठेस नहीं पहुँचानी है? जब घर के जाले भी हटा देते हो, आँखों के जाले भी हटा देते हो, तो मन के जाले क्यों नहीं हटा सकते? वहाँ क्यों बोलते हो, ‘अरे! मैं किसी के मन को ठेस कैसे पहुँचा दूँ?’ वहाँ क्यों बोलते हो?
तुम मन को ठेस नहीं पहुँचा रहे, मन के जालों को ठेस पहुँचा रहे हो और तुम जिसके मन के जाले साफ़ कर रहे हो, उस पर एहसान कर रहे हो। ठसक के साथ करो। इसमें शर्मिंदा होने की क्या बात है कि मैंने फ़लाने को ठेस पहुँचा दी?
सर्जन (शल्य चिकित्सक) प्रायश्चित करने गया है। क्या? ‘मैंने फ़लाने का पेट फाड़ दिया।' भाई, तुमने एहसान करा है उसकी सर्जरी करके, तुम प्रायश्चित किस बात का कर रहे हो? पर फिर वही, हम यथार्थ में तो जीते ही नहीं हैं, हम तो आदर्शों और कल्पनाओं में जीते हैं और तुम हो आदर्श पुत्र जो माँ-बाप से बहस नहीं लड़ा सकता। न सच बड़ा है, न आज़ादी बड़ी है, क्या बड़े हैं? मध्यमवर्गीय संस्कार। और वही है — ‘घर में रामायण-महाभारत चलती थी।’
प्रश्नकर्ता: हाँ, मैं मानता हूँ मैं डरपोक हूँ। इस बात पर ग्लानि भी आती है कि उनसे जो चीज़ कहनी है, वो कह नहीं पा रहा हूँ। जैसे आपके सम्पर्क में आने के बाद मैंने दूध, डेयरी वगैरह बिलकुल छोड़ दिया है। लेकिन पेरेंट्स (माता-पिता) और आसपास के लोग सुनते नहीं हैं। और मुझे बहुत ग्लानि भी होती है कि जिनसे कहने की बहुत ज़रूरत है उनसे मैं कह भी नहीं पा रहा।
आचार्य प्रशांत: कहना तुम्हारे हाथ में है, पर मानना या न मानना उनके हाथ में है, क्योंकि मानने की क़ीमत देनी पड़ती है भाई। तुम उन्हें कोई चीज़ दिखा सकते हो और बता सकते हो कि इसकी इतनी क़ीमत है, पर तुम उनके लिए उस चीज़ की क़ीमत ख़ुद तो नहीं अदा कर सकते न।
मम्मी जी चाय नहीं छोड़ना चाहतीं। तुम उन्हें बार-बार बता रहे हो कि दूध पीने में क्रूरता है। अब चाय तो मम्मी जी को ही छोड़नी है, मम्मी जी के लिए तुम थोड़े ही छोड़ सकते हो। तुम अपने लिए छोड़ सकते हो, तुमने शायद छोड़ भी दी होगी।
हाँ, अब तुम लाख बताते रहो मम्मी जी को कि ये जो दूध निकाला जा रहा है और जो पूरा दुग्ध-उद्योग है यह माँस उद्योग से जुड़ा हुआ है — यह क्रूरता है! क्रूरता है! मम्मी जी को अगर चाय और लस्सी और खीर की लत लगी हुई है, तो वो नहीं छोड़ेंगी। अब तुम क्यों परेशान हो? उनकी करनी उनके साथ।
प्रश्नकर्ता: जैसे कभी-कभार मैं दोस्तों के साथ खाने पर जाता हूँ। कुछ शाकाहारी दोस्त हैं, कुछ माँसाहारी भी हैं।
आचार्य प्रशांत: अरे! दूसरे दोस्त बना लो, इसमें इतने क्यों परेशान हो रहे हो।
प्रश्नकर्ता: नहीं, मैं चाहता हूँ कि वो भी माँसाहार छोड़ें।
आचार्य प्रशांत: उन्हीं को काहे को चाहते हो? दुनिया में आठ–सौ-करोड़ लोग हैं, उनको क्यों नहीं चाहते?
प्रश्नकर्ता: जो एकदम मेरे आसपास हैं उन्हें तो चाहता हूँ।
आचार्य प्रशांत: ये (शिविर में उपस्थित श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) भी तो आसपास बैठे हैं, इनको चाह लो! वो जो आस-पास हैं, वो आस-पास नहीं हैं, उनसे तुमको मानसिक सुरक्षा मिलती है। तो तुम ये कह रहे हो कि इनको छोड़ना भी नहीं पड़े, ये ही सुधर जाएँ तो इससे बढ़िया क्या होगा। और वो हों ही नहीं सुधरने के लायक़, तो?
सुधरना और नहीं सुधरना है, ये हर व्यक्ति का निजी फैसला होता है, क्योंकि क़ीमत उसे ही अदा करनी है। फिर बता रहा हूँ, उसके लिए, उसके बिहाफ़ (की ओर से) पर तुम क़ीमत नहीं अदा कर पाओगे; कर सकते ही नहीं, नियम है।
चाय उसे ही छोड़नी है, माँस उसे ही छोड़ना है, तुम कैसे छोड़ दोगे उसकी जगह? अब वो नहीं छोड़ने को राज़ी है तो अब ये उसका अपना स्वाधीन फैसला है, तुम बस ये कर सकते हो कि वो माँस नहीं छोड़ रहा, तुम उसे छोड़ दो।
प्रश्नकर्ता: वो कह रहे हैं कि एक तरह से तुम इनटॉलरेंट (असहिष्णु) हो रहे हो।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें ये सुनना क्यों ज़रूरी है? वो जो भी बोल रहे हैं, इनटॉलरेंट हो रहे हो, वो कुछ भी बोल सकते हैं। वो बोल सकते हैं कि तुम कुछ और हो रहे हो, तुम एलियन हो रहे हो, तुम यूएफओ हो गये। वो तुम्हें कुछ भी बोल सकते हैं, तो उससे क्या हो गया?
बात ये नहीं है कि वो बोल रहे हैं। बात ये है कि तुम्हें कौनसी मजबूरी है कि तुम बैठे-बैठे सिर झुकाये सुन रहे हो? उठ कर चल दो। वो बोल भी इसीलिए पा रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि तुम सिर झुकाकर सुनते रहोगे, वो कुछ भी बोलें। और जब आपको पता है कि आप कुछ भी बोलेंगे और सामने वाला सिर झुकाकर सुनता ही रहेगा, तो फिर आप वास्तव में कुछ भी बोलेंगे। आपकी बेहूदगी की, झूठ की, और बद्तमीज़ी की फिर कोई सीमा ही नहीं रह जाएगी, क्योंकि सामने जो बैठा है वो तो ऐसा ही है — रीढ़ के बिना, लुचुर-लुचुर बैठा है — कुछ भी बोलो, वो सुनता रहेगा।
ज़ाहिर सी बात है क्योंकि सुनने-सुनाने की बात नहीं है, क़ीमत अदा करने की बात है। जो भीतर से तैयार ही नहीं है क़ीमत देने को उसकी कोई प्रगति या सुधार कोई दूसरा कैसे कर देगा?