"हमें चाँद नहीं चमाट चाहिए" || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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"हमें चाँद नहीं चमाट चाहिए" || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आत्मा और अहंकार ये सारी इंटेलेक्चुअल लेवल (बौद्धिक स्तर) पर समझ में आती हैं। लेकिन अनुभव के स्तर पर कहीं-न-कहीं हम इनको एक तरीक़े से मान रहे हैं, जान नहीं पा रहे अन्दर से कि हम आत्मा हैं। ये परिवर्तन कैसे हो?

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं समझना होता, जीना होता है। जान लगानी होती है। आपको मैंने शिविर में इसलिए नहीं बुलाया है कि आपको ज्ञानी बना दूँगा। आपको शिविर में इसलिए बुलाया है कि आपमें आग लगा दूँगा। जानने-समझने वाले हमेशा से बहुत रहे हैं। धर्म की किताब एक खोजिए, दस मिलेंगी और धार्मिक सिद्धान्त कोई बहुत जटिल नहीं होते। अगर बौद्धिक तल पर ही बात करें तो कक्षा बारह की फिज़िक्स धार्मिक सिद्धान्तों से ज़्यादा जटिल होती है, तो ऐसा कुछ नहीं है कि कोई बहुत जटिल चीज़ है और वो आपको समझ में नहीं आ रही है। ‘अरे! निष्काम कर्म समझ में नहीं आ रहा है। चेतना की अवस्थाएँ समझ में नहीं आ रही हैं। वो सबकुछ आपको एक सेमेस्टर के कोर्स में समझाया जा सकता है। जहाँ तक बौद्धिक समझने की बात है, एक सेमेस्टर में।

जितने सूत्र और सिद्धान्त आप पकड़कर बैठे रहते हैं कि कॉम्प्लेक्स हैं, जटिल हैं, समझ में नहीं आ रहे। उससे ज़्यादा इंटेलेक्चुअल (बौद्धिक), कॉम्पलेक्सिटी (जटिलता) इंजीनियरिंग के फ़र्स्ट सेमेस्टर में एक छात्र झेल लेता है। किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में। ये बातें इंटेलेक्चुअली कॉम्प्लेक्स (बौद्धिक रूप से जटिल) नहीं हैं। इनको बहुत साधारण तरीक़े से एक समीकरण, एक इक्वेशन बनाकर भी आपको दिखाया जा सकता है। आप समझ जाएँगे। इसमें ऐसा कुछ नहीं है।

आपको बनाकर दिखाया था न, कि तीन तल हो गये। एक इधर है (हाथों से एक तरफ़ इशारा करते हुए), एक इधर है (हाथों से दूसरी तरफ़ इशारा करते हुए), सब कर रहे थे न। क्या उसमें जटिल है? तीन दिन में ही आप बौद्धिक तल पर बहुत कुछ चीज़ें समझ गये, तो ज्ञान में क्या परेशानी है। ज्ञान तो सस्ता है। आसानी से हो जाता है।

परेशानी है, हमारी बेईमानी में। खोट है हमारी नीयत में और वो ज्ञान से नहीं जाने वाली। क्योंकि जब नीयत ख़राब होती है न, तो वो ज्ञान का भी दुरुपयोग कर लेती है। ज्ञान बेचारा तो छोटी चीज़ बन जाता है ख़राब नीयत के सामने। ज्ञान ख़राब नीयत के हाथों में खिलौना, उपकरण बन जाता है। वो ज्ञान का भी भद्दा इस्तेमाल करती है।

आपको साहस चाहिए, आपको विद्रोह चाहिए, आपको आग चाहिए। बहुत ज़रूरी है कि आपके मन में अध्यात्म की जो छवि बनी हुई है, शान्त बैठना, एकदम निस्पृह, भाव-मुक्त चेहरा लेकर के, यूँ दिखाना कि हम तो किसी और लोक के हैं, हमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। ये सब मूर्खताएँ जलानी ज़रूरी हैं। क़ैद के अन्दर क़ैदी को शान्ति नहीं चाहिए, आग चाहिए, अशान्ति चाहिए। मैं तो चाहता हूँ आप अशान्त हो जाएँ क्योंकि ये शान्ति झूठी है। मेरे पास से बहुत लोग भागते भी इसीलिए है। कहते हैं, ‘अशान्त हो गये, अशान्त हो गये। पहले सब ठीक चल रहा था। इनके पास आये, अशान्त हो गये।’ फिर एकदम भागते हैं।

शान्ति मुक्ति के साथ ही आनी चाहिए। बन्धनों के बीच में आपको शान्ति मिल गयी है, तो मामला बहुत ख़तरनाक है और ये बिलकुल मत कह दीजिएगा कि बातें बतायीं, समझ में तो आ गयीं, जीवन में कैसे उतारें? ‘कैसे’ का कोई सवाल नहीं है। मामला जटिल है ही नहीं। ज्ञान की नहीं, हौसले की कमी है। ये कोई आकस्मिक बात नहीं है कि यहाँ जितनी बात हो रही है गीता में, वो युद्ध क्षेत्र में हो रही है।

जिन्हें स्वयं के ख़िलाफ़ लड़ना हो सिर्फ़ उनके लिए है अध्यात्म, वेदान्त, गीता। हरि ओम, हरि ओम करते रहना है और एक शान्त शक्ल बनाकर के मद्धम मुस्कुराहट के साथ ऐसे दुनिया को देखना है कि अरे! ये सब तो माया है, प्रपंच है। इसमें रखा क्या है? ऐसों के लिए कम-से-कम वेदान्त नहीं है। ऐसों के लिए मेरा साथ भी नहीं है। चले जाइए बहुत सारी संस्थाएँ हैं जो यही मक्कारी सिखाती हैं और खूब चल रही हैं कि कैसे ख़ुद से झूठ बोलना है और शान्ति-शान्ति करते रहना है। इस दुनिया में आप शान्ति के लिए नहीं आये हैं। कुछ बातें खोपड़े में बिलकुल सीधी तरह डाल लीजिए। दुनिया में आदमी शान्ति के लिए नहीं आता।

जेल में आपको शान्ति के लिए डाला जाता है कि बेटा अब यहाँ भजन करो? आप यहाँ कर्म के लिए आये हों और कर्म जितना सघन होगा उतनी पीड़ा देगा। हाँ, उस पीड़ा में एक बहुत सूक्ष्म आन्तरिक आनन्द होता है, पर वो बहुत सूक्ष्म होता है। वो उस शान्ति जैसा बिलकुल भी नहीं होता जो तथाकथित धार्मिक लोगों के मुँह पर पायी जाती है।

आप जीवन मुक्त लोग हैं? आप कौन हैं? तो शान्त रहकर क्या करोगे? तुम्हें तो अपनी बेड़ियाँ काटनी हैं या मंजीरा बजाना है और स्वाँग करना है कि हम तो मुक्त हैं ही? अहंकार मिथ्या है, आत्मा मेरा स्वभाव है। ‘मैं तो नित्य मुक्त हूँ।’ ऐसे नाटक करना है? शान्ति नहीं माँगिए, मुक्ति माँगिए। दोनों में बहुत अन्तर है और शान्ति का बहुत मन करता हो तो कह दीजिए मुक्ति ही शान्ति है। मुक्ति से पहले की शान्ति फ़रेब है, ज़हर है।

और मुक्ति माने भी क्या? मैं किसी पारलौकिक चीज़ की बात यहाँ नहीं कर रहा हूँ मुक्ति माने। कोई यहाँ बैठा है ऐसा जो अपने बन्धनों से परिचित न हो? कोई है यहाँ पर ऐसा? बोलिए। कुछ बाहरी बन्धन, कुछ भीतरी बन्धन। कौन है जिसको नहीं पता? तो मुक्ति का फिर कोई पारलौकिक अर्थ होगा क्या? जब बन्धन सारे लौकिक हैं, जब आपके सारे बन्धन यहीं के हैं, इसी दुनिया के हैं तो मुक्ति भी फिर क्या है? इसी दुनिया की है।

मुक्ति माने ये नहीं है कि मर-मुराकर के किसी और लोक में जाकर धुनी रमायी है और इस मामले में सनातन धर्म एकदम अनूठा है, जीवन मुक्ति की बात कहीं और की ही नहीं गयी। हर जगह इस तरह की बात तो पायी ही जाती है। हिन्दुओं में भी पायी जाती है कि मरने के बाद ये होता है। मरने के बाद वो होता है। सनातन धर्म बल्कि वेदान्त एकदम अनूठा है क्योंकि यहाँ कहते हैं, ‘मरने की क्या बात कर रहे हो? ‘जीवन मुक्ति’।

इसी जीवन में मुक्त हो। बन्धन सारे अभी हैं न, जीते जी? तो काटोगे भी उन्हें जीते जी। और इसी में फिर आनन्द है और कोई नहीं आनन्द होता। ख़ुद को तोड़ने में ही आनन्द है। अब आपको क्या चीज़ रोकेगी? जैसे ही मैं बोलूँगा, ‘ख़ुद को तोड़ने में ही आनन्द है।’ बन्धन, आप जानते हैं, तोड़ने के लिए मैं कह रहा हूँ कौन सी चीज़ रोकेगी? कहिए। ज्ञान की कमी रोकेगी? ज्ञान की कमी रोक रही है?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य: हाँ! बेईमानी, कमज़ोरी और कामचोरी रोक रहे हैं। कोई आध्यात्मिक नहीं समस्या है। यही है सीधी-सीधी समस्या, कामचोरी।

फ़ैसला कि दर्द नहीं झेलेंगे, दर्द नहीं चाहिए। दर्द हो रहा है। दर्द होता है। नहीं करना। पीड़ा होती है। कष्ट होता है। सुविधा कौन छोड़ दे? दोनों हाथ फेंककर, दोनों टाँगें खोलकर, खर्राटे मारकर, लम्बा सोना है। मेहनत कौन करे! ये है असली समस्या, ‘ज्ञान की कमी’ थोड़े ही कोई समस्या है।

शान्ति चाहिए? बहुत आसानी से मिल जाएगी। (व्यंग्य करते हुए) ‘भक्तजनों, अब सब आँखें बन्द कर लो और कल्पना करो कि तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा हो और चाँद पर चकोर बनकर चढ़ गये हो। वहाँ भी एक खजूर का पेड़ है। उस पर भी सबसे ऊपर बैठे हो और अब सुनो कि तुम्हारे कान में कुहू-कुहू की मधुर ध्वनि आ रही है। आ रही है? आ रही है।‘

चढ़ जाओ चाँद पर मिल जाएगी शान्ति। हमें चाँद नहीं, चमाट चाहिए। तीरों की, घावों की, लहू की बात होनी चाहिए। तब गीता उतरती है। वो मैदान न हो, तो गीता भी न हो। जिन्हें मैदान पर उतरना ही नहीं, जिनसे धनुष उठाया ही नहीं जाता, उन तक थोड़े ही आएगी गीता? उनके लिए बहुत और अड्डे हैं, भागें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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