तीन गलतियाँ जो सब करते हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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तीन गलतियाँ जो सब करते हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: सत्य को मायापति कहा गया है; समझते हैं। माया क्या? वो जो हमें प्रतीत होता है, जिसकी हस्ती के बारे में हमे पूरा विश्वास हो जाता है, पर कुछ ही देर बाद या किसी और जगह पर, किसी और स्थिति में हम पाते हैं कि वो जो बड़ा सच्चा मालूम पड़ता था, या तो रहा नहीं या बदल गया; ऐसे को माया कहते हैं।

गलत केंद्र से अनुपयुक्त उपकरणों के द्वारा छद्म विषयों को देखना और उनमें आस्था बैठा लेना ही माया है।

तीनतरफ़ा गलती होती है। जो देख रहा है, द्रष्टा या कर्ता, वो गलत है। वो गलत क्यों है? क्योंकि देखते समय, देखने के बिंदु पर उसका इरादा सत्य देखना नहीं है; उसका इरादा है इस प्रकार देखना कि देखने वाले की हस्ती बची रह जाए, कि देखने वाले का अस्तित्व अक्षुण्ण, सुरक्षित रह जाए। ये बेईमानी के साथ देखना हुआ। इस प्रकार के देखने में सत्यता, सत्यनिष्ठा बिल्कुल नहीं है। जो ऐसे देख रहा है वो देखना चाह कहाँ रहा है? वो तो दिखाई देती चीज़ को भी अनदेखा कर देना चाह रहा है, झुठला देना चाह रहा है। हम कह भी नहीं सकते कि वो देखने का इच्छुक है; वो तो अपने-आपको धोखा देने का इच्छुक है। तो पहली गलती हमसे ये होती है कि देखने वाला ही गलत है।

दूसरी गलती होती है कि जो देखने का हमारा उपकरण है वो अनुपयुक्त है। हमारे देखने का उपकरण, सब अनुभवों को ग्रहण करने का हमारा उपकरण है हमारी इंद्रियाँ; और इंद्रियाँ बहुत सीमित क्षेत्र में और बहुत बँधे-बँधाए तरीके से काम करती हैं। सत्य पूरा है, और इंद्रियाँ कभी पूरी चीज़ जान नहीं सकतीं। कान पूरी बात नहीं सुन सकते, आँख सब कुछ देख नहीं सकती, मन सब कुछ याद नहीं रख सकता, बुद्धि कभी पूर्ण विवेचना नहीं कर सकती। तन हर जगह मौजूद नहीं हो सकता, तन हर समय मौजूद नहीं हो सकता। तो शरीर के जितने भी उपकरण हैं संसार को देखने-परखने और संसारगत अनुभवों को ग्रहण करने के, वो ज़बरदस्त तरीके से सीमित और अपूर्ण हैं।

तो देखने वाला गलत, देखने का उसका उपकरण सीमित, अनुपयुक्त, और जिस विषय को वो देख रहा है उस विषय को मैं कह रहा हूँ छलावा है, छद्म है; क्योंकि जो विषय देखा जा रहा है वो विषय भी देखने वाले से ही सम्बंधित है। आप सब कुछ तो नहीं देखते न? आपको क्या देखना है इसका आप पूरा चुनाव करके देखते हैं। कभी आपको अनायास, संयोगवश कुछ अनचाहा, अनियोजित दिखाई भी दे जाए, तो उसको अर्थ तो आप अपने अनुसार ही देते हैं न? तो जो दिखाई दे रहा है वो आपकी प्रतिछवि है। आप ही गलत हैं, तो आपकी छवि ठीक कैसे हो सकती है?

तो तीनों तलों पर गलती होती है। इन तीनों गलतियों को मिलाकर के जो निकलता है उसको माया कहते हैं। तो हम तो पूरे तरीके से माया के शिकंजे में रहते हैं, हम माया के दास हैं; और सत्य को यहाँ कहा जा रहा है मायापति। आशय क्या है? आशय है बीमार मन को ये बताना, 'तेरा सिद्धांत गलत है; तेरा सिद्धांत है कि तू ही बड़ा होशियार है, तेरा सिद्धांत है कि तुझसे ऊपर कोई नहीं। '

मन ऐसा है कि अगर वो झुकता भी है तो ये वो स्वयं ही चुनता है कि किसके सामने झुकना है; ये झुकना भी कोई झुकना हुआ? मन अगर किसी ईश्वर को सर्वोपरि और सार्वभौम भी मानता है तो उस ईश्वर की रचना वो स्वयं करता है। अब ये ईश्वर बड़ा हुआ या मन? मन अपने-आपको सबसे बड़ा ही मानता है। प्रमाण इसका ये है कि मन जिस किसी को, बाहर वाले को, अपने से किसी अलग इकाई को बहुत बड़ा माने भी, तो उस इकाई का चयन वो स्वयं ही करता है।

मन कहेगा, 'मैं अपने देवता के सामने या अपने नेता के सामने झुकता हूँ, पर मेरा नेता कैसा होगा ये तो मैं तय करूँगा। और मेरा नेता अगर मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, मेरा देवता अगर मेरी प्रार्थनाऍं नहीं सुन रहा, मेरी माँगें नहीं पूरी कर रहा, तो मैं उससे विमुख हो जाऊँगा। ' तो मन जब किसी को अपने-आपसे बड़ा भी कहता है तो भी पीछे-पीछे, चोरी-छुपे मन की धारणा यही होती है कि मैं सबसे ऊपर हूँ; उसी धारणा को उपनिषद् चुनौती दे रहा है।

उपनिषद् कहता है मन से, 'तुम अपने-आपको सबसे ऊपर मानते हो, लेकिन वास्तविकता देखो। तुम जिसके गुलाम हो, कोई और है जो उससे ऊपर है। ' कौन है जो उससे ऊपर है? वो कोई व्यक्ति, कोई इकाई, कोई वस्तु तो हो नहीं सकता। मन को फिर बताया क्या जा रहा है? मन को बताया ये जा रहा है कि, 'तुम जहाँ पर हो, तुम वहीं बैठे-बैठे अपने-आपको बड़ा सूरमा माने बैठे हो, लेकिन तुम्हारी संभावना, तुम्हारी सत्यता कुछ और है। '

एक तल है माया; अनंत ऊँचाई नहीं है माया। एक सीमित तल है माया, और तुम उससे नीचे हो; उससे ऊपर जाया जा सकता है, माया का दास होने की जगह माया का स्वामी हुआ जा सकता है। और माया का स्वामी जो हो गया, मात्र वही है नमन करने योग्य; उसी का नाम सत्य, उसी का नाम परमात्मा है। और वो तुम नहीं हो, क्योंकि तुम अपनी वास्तविकता देखो, तुम तो दिन-रात माया से मार खाते हो। तुम्हारे लिए करने को अभी बहुत कुछ शेष है। उपनिषद् चुनौती दे रहा है, उपनिषद् कह रहा है कि, 'बहुत नीचे बैठे हो तुम, पर बहुत ऊपर हो सकते हो। '

पहली बात मानो कि तुम नीचे हो; ये मानना ही तुम्हारे लिए बड़ा मुश्किल है, तुम्हारी धारणा ये है कि तुम्हीं तीस-मार खाँ हो। ना, तुम तो बहुत सीमित, संकुचित, क्षुद्र इकाई हो एक; लेकिन सीमित, संकुचित, क्षुद्र रहे आना तुम्हारी नियति नहीं है। जो आज माया का बंधक है वो कल मायापति हो सकता है; जो माया का बंधक है, ठीक उसी के भीतर संभावना बैठी हुई है मायापति हो जाने की। लेकिन वो संभावना तब तक साकार नहीं होगी जब तक तुम अपनी झूठी धारणा को पीछे नहीं छोड़ देते।

(श्लोक पढ़ते हुए) 'वो अपनी शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर शासन करता है। '

'तुम अपनी हालत देखो; ' जिसे सम्बोधित कर रहे हैं उपनिषद्, उससे कह रहे हैं कि, 'तुम अपनी हालत देखो, तुम लगातार शासित ही शासित हो। कुछ भी होता है, कोई भी आता है और वो तुम पर हावी हो जाता है, कम-से-कम तुम्हें प्रभावित तो कर ही देता है। लेकिन क्या तुम इस स्थिति से संतुष्ट हो? अगर सन्तुष्ट होते तुम, तो तुम्हें उपनिषदों के पास आने की ज़रूरत पड़ती नहीं। ये स्थिति तुम्हें कुछ भा तो नहीं रही। शासित बने बैठे हो तुम, जबकि शासक हो जाने की योग्यता है तुम्हारी; शासक हो जाना मात्र योग्यता नहीं है तुम्हारी, अधिकार है तुम्हारा, नियति है तुम्हारी, तुम्हें शासक होना ही चाहिए। प्रमाण ये, कारण ये, कि शासक हुए बिना तुम चैन तो पाओगे नहीं। लेकिन अभी देखो, जितने भी लोक हैं—सिर्फ पृथ्वी लोक ही नहीं, जितने मानसिक लोक भी हैं—उनकी कोई भी घटना, छोटी-बड़ी, तुमको विचलित कर जाती है। '

और ठीक उसके विपरीत कहा जा रहा है कि कोई है ऐसा जो त्रिभुवन का स्वामी है, जो त्रिलोक का स्वामी है, जो सब लोकों का शासक है। जैसे मन को जगाया जा रहा हो, जैसे मन को कोई बहुत भूली-बिसरी, पुरानी बात याद दिलाई जा रही हो। मन की ये धारणा तोड़ी जा रही है कि, 'मैं क्या करूँ? मुझे तो ऐसे ही रहना है। और मेरा ऊँचा-से-ऊँचा काम ये हो सकता है, आकांक्षा ये हो सकती है, प्राप्ति ये हो सकती है कि मैं अपने सीमित घेरे में ही कोई छोटी-मोटी उपलब्धियाँ अर्जित कर लूँ। ' ना, मन से कहा जा रहा है कि, 'ये छोटी-मोटी उपलब्धियाँ जिनके पीछे तुम भागते रहते हो, तुम इनके लिए नहीं बने हो, इनसे तुमको चैन नहीं मिल जाना है। तुम तब तक शांत नहीं हो पाओगे, तुम्हें भीतर की खलबली से मुक्ति तब तक नहीं मिलेगी जब तक तुम तीनों ही लोकों के शासक नहीं हो जाते। '

तात्पर्य क्या है? तीनों ही लोकों का शासक कोई कैसे हो सकता है? तात्पर्य ये है कि तुम भीतर से ऐसे हो जाओ कि कहीं घटती कोई भी घटना, किसी भी तल की घटना, किसी भी तरह की घटना तुम्हें तुम्हारे केंद्र से कम्पित ना कर पाए। जिसको कोई उसके सिंघासन से उतार नहीं सकता वो कौन होगा? शासक ही तो हुआ। कुछ होता रहे दुनिया में, तुम्हारे पास कुछ ऐसा है जो हिलेगा-डुलेगा नहीं, जिसमें किसी भी तरह के विचलन का, आलोड़न का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। जिसके इर्द-गिर्द तमाम गतिविधियाँ चल रही हैं, लेकिन जिसके पास कुछ ऐसा है जो किसी भी गतिविधि से, किसी भी लालच से, किसी भी डर से, किसी भी जन्म से, किसी भी मृत्यु से, किसी भी प्राप्ति से, किसी भी हानि से ज़रा भी शंकित नहीं होता, कम्पित नहीं होता। जिसको अपना मौन इतना प्यारा है कि वो आँख खोलना ही नहीं चाहता, आवाज़ करना ही नहीं चाहता, वो हो तुम। और जो ऐसा है, वो शासक है सब जगहों का, क्योंकि सब जगहें मिलकर भी असमर्थ हैं उसे उसके केंद्र से विमुख करने में।

समझ में आ रही है बात?

आध्यात्मिक अर्थ में राजा होने का, स्वामी होने का या शासक होने का अर्थ ये नहीं है कि तुम अपनी सत्ता, अपनी आज्ञा, अपनी हुकूमत चलाओगे; वो अर्थ बहुत सांसारिक होता है। संसार में जब कोई राजा होता है तो उसको पहचाना जाता है इस बात से कि कितने लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं; ये बहुत सक्रिय तरह का सत्ता-प्रदर्शन हो गया। आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन ऐसे नहीं होता; आध्यात्मिक शक्ति चुपचाप, शांत, निष्क्रिय मौन में अपने-आपको अभिव्यक्त करती है।

आध्यात्मिक शक्ति अभिव्यक्त होती है अकम्प रह जाने में, अटूट रह जाने में, अविचलित रह जाने में, अस्पर्शित रह जाने में।

ये सारे शब्द देख रहे हो, ये नकार के हैं। संसार ये सब कुछ करना चाहता है तुम्हारे साथ- तुम पर दाग-धब्बे लगा देना चाहता है, तो आध्यात्मिक शक्ति होती है निरंजन रह जाने में। संसार चाहता है तुमको रंजित कर दे; तुम स्वच्छ, निर्मल, निरंजन रह गए। संसार चाहता है कि तुम जहाँ केंद्रित हो वहाँ से उठाकर के तुमको कहीं और बैठा दे; ना, तुम अपनी जगह पर स्थिर रह गए, हिले-डुले नहीं। संसार चाहता है कि तुम्हारी जो डोर है आस्था की, तुम्हारी जो तंद्रा है ध्यान की, उसको तोड़ दे; तुम अटूट रह गए।

ये सब लक्षण होते हैं आध्यात्मिक शासक के। वो सच्चा शासक है, उसे इसमें रुचि नहीं है कि दूसरे उसकी आज्ञा का पालन करें, दूसरों का यथार्थ वो कब का समझ चुका। वो भली-भाँति जान गया है कि जिन्हें अपने को लेकर शंका होती है वही दूसरों पर सत्ता चलाने के बड़े आकांक्षी होते हैं। तो दूसरों पर किसी तरह का अनुशासन करने की उसकी अब अभिलाषा नहीं, वो तो बस अपने भीतर की गुफ़ा में अटूट ध्यान में बैठ गया है। उसका दम, उसकी शक्ति प्रदर्शित होती है उसके अविचलित रह जाने में; अविरल है उसका मौन।

तुमसे कहा जा रहा है उपनिषद् के द्वारा, कि, 'ऐसे हो सकते हो तुम, और कितने खेद की बात है कि ऐसे नहीं हो तुम। और उससे भी ज़्यादा खेद की बात है कि जैसे बने बैठे हो तुम, उससे तुमने एक तरह की झूठी संतुष्टि भी पाल ली है। ' ये जो झूठी संतुष्टि है, इस पर आक्रमण कर रहा है उपनिषद्। उपनिषद् कह रहा है कि ऐसे ही नहीं रहे आना है।

बात समझ में आ रही है?

अर्थ का अनर्थ मत कर लेना। ये श्लोक हमें ये बताने के लिए नहीं है कि कोई और है जो मायापति है, कि कोई और है जो शासक है। कोई और है जो मायापति है, कोई और है जो शासक है तो फिर हमें तो बड़ी सुविधा हो गई; हम माया के बंधक, हमें पता चल गया, उपनिषद् द्वारा सत्यापित हो गया कि हमें तो ऐसे ही रहे आना है, यही भाग्य है हमारा; हम दुनिया भर से प्रताड़ित, हम हर छोटी-बड़ी चीज़ से प्रभावित, और हमें पता चल गया कि दुनिया पर राज करने वाला कोई और है। फिर हमें बड़ी सुविधा हो गई, हमने कहा कि, 'ये तो हम जानते ही थे। हम तो जो अधिक-से-अधिक, ऊँचे-से-ऊँचे हो सकते हैं वो तो हम पहले ही हैं। ' तुम समझ रहे हो?

ये कितने दुर्भाग्य की बात होती है जब तुम अपनी एक निम्न-स्तरीय अवस्था में भी संतुष्ट हो जाते हो, जब तुम कहना शुरू कर देते हो, 'मैं जैसा हूँ, बड़ी मेहनत से पहुँचा हूँ यहाँ पर। मैं जैसा हूँ, यहाँ पहुँचना भी बच्चों का खेल नहीं। मैं जैसा हूँ, सम्मान का अधिकारी हूँ। ' उपनिषद् तुमसे कह रहा है कि, 'तुम सम्मान के अधिकारी ज़रूर हो, पर इसलिए नहीं कि अभी तुम किसी बहुत अच्छी हालत में हो; तुम सम्मान के अधिकारी इसलिए हो क्योंकि तुम उच्चतम स्थान के अधिकारी हो। सिर्फ वो जो उच्चतम स्थान है, उसी पर सम्मान है। उससे नीचे अगर तुम कहीं हो, और नीचे होते हुए भी अपने-आपको सम्मानित माने बैठे हो, तो ये तुम्हारा बड़ा अभाग है। '

तो ये दोनों बातें साथ समझना: तुम्हें ऊँचे-से-ऊँचा सम्मान भी दिया जा रहा है, और साथ-ही-साथ ये भी बताया जा रहा है कि, 'क्यों व्यर्थ अपने-आपको सम्मानित किए बैठे हो? ' इन दोनों बातों को एक-साथ समझना होता है। अध्यात्म हमें उच्चतम सम्मान भी देता है और कटुतम अपमान भी करता है हमारा।

अध्यात्म हमारे प्रति ये दोतरफ़ा रवैया क्यों रखता है? क्योंकि भाई, हम दो हैं। हम दो हैं; तो जो हम दो हैं, उन दो को अलग-अलग तरीके से सम्बोधित किया जाता है। पशु से पशुतर हम हैं, न्यून से न्यूनतर हम हैं, क्षुद्र से क्षुद्रतर हम हैं, और उच्च से उच्चतर भी हम ही हैं। शुद्ध से शुद्धतर भी हम ही हैं, बुद्ध से बुद्धतर भी हम ही हैं; अजीब संगम है मनुष्य।

बार-बार मैं कहा करता हूँ न, कि मिट्टी और आकाश जब एक हो जाते हैं किसी जादू से तो जो प्रकट होता है उसे मनुष्य कहते हैं? तन उसका मिट्टी का है, चेतना उसकी आकाश से प्रेम करती है।

वो चेतना जब मानने लग जाती है कि मिट्टी बने रहना ही उसकी किस्मत है तो उपनिषद् धिक्कारते हैं उसको। उपनिषदों से ज़्यादा कटु तरीके से, कठोर तरीके से, तिक्त तरीके से हमें कोई नहीं धिक्कारता, और उपनिषदों से ज़्यादा गरिमा हमें कोई नहीं देता; उपनिषदों से ज़्यादा कोई नहीं बताता हमें कि कितनी ऊँची महिमा है हमारी। हम दो हैं, दोनों तरह का सम्बोधन हमारे लिए ज़रूरी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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