तीन बातें जो मेरे पिताजी मुझे सिखा गए

Acharya Prashant

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तीन बातें जो मेरे पिताजी मुझे सिखा गए
पहली चीज़ जो मुझे मेरे पिता से मिली, वह है — किताबें। मुझे दुनिया भर की हर दिशा की किताबें मिलती रहीं। जब भीतरी विकास हो रहा था और दुनिया के प्रति एक दृष्टि विकसित हो रही थी, तो मैं उन किताबों का बहुत-बहुत महत्त्व पाता हूँ। दूसरी चीज़ जो मैंने उनसे सीख ली, वह थी — अथॉरिटी के सामने कभी न दबना। जब सच बोल रहे हो, तो डरने की ज़रूरत नहीं है। तीसरी चीज़ — मैंने उनसे चुप रहना सीखा। तब बोलो जब बोलने की ज़रूरत हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: श्री अवधेश नारायण त्रिपाठी जी। मेरे पापा उनका जन्मदिन है आज। तो मैं उनके लिए कुछ लेकर जाया करता था तो कुछ उपहार भेंट तोहफा तो उनके लिए जो है वो उनको तो कैसे दें? पुष्पांजलि हो गई कुछ क्यों ना फिर आप में बांट दें। और मैं आपको कोई उपहार देना चाहता हूँ तो मुझे लगता है सबसे अच्छा वही होगा जो मुझे उनसे मिला है। आप सब क्लास 8th से 12th के बीच के है ना?

श्रोतागण: हाँ।

आचार्य प्रशांत: तो बड़ा मज़ेदार और बड़ा संवेदनशील यह समय होता है। आठवीं से बारहवीं। मुझे अपना यह समय अच्छे से याद है और यह भी पता है कि मैं आज जहाँ भी हूँ, जैसा भी खड़ा हूँ, अच्छा बुरा उसमें वह जो 8 से 12th का समय था उसका बड़ा योगदान है। तो बहुत अच्छा है कि इस समय पर आप लोगों के साथ, इस सेंसिटिव समय पर आपका जो है, उस समय पर आप लोगों के साथ मैं वो बातें कह सकता हूँ जो मुझे लगता है मेरी ज़िन्दगी में बहुत अहम थी।

जब मिल रही थी उस वक़्त तो शायद पता भी नहीं था कि यह कितनी ज़रूरी चीजें हैं। पर आज मैं इस स्थिति में हूँ कि पीछे देखकर और ख़ुद को देखकर उसे पहचान सकता हूँ और फिर आपसे बाँट सकता हूँ। तो जो पहली चीज़ मेरे ध्यान में आती है जो मुझे मिली पापा से और आमतौर पर उतनी ज़्यादा बच्चों को मिलती नहीं है उनके अभिभावकों से, पैरेंट्स से वह है — किताबें। शुरुआत वहीं से करूँगा।

टेक्स्ट बुक्स की बात नहीं कर रहा हूँ। टेक्स्ट बुक्स तो सब बच्चों को मिलती है। सारे स्टूडेंट्स के पास होती हैं। मुझे दुनिया भर की हर दिशा की किताबें मिलती रही। और ज़रूरी नहीं है कि समझ में आती थी और ऐसा भी नहीं है कि 8th में आने के बाद ही मिलनी शुरू हुई। घर में बहुत सारी किताबें थी, उनकी अपनी लाइब्रेरी थी। ऐसा नहीं कि 5-7000 किताबें, पर जब आप 4th में 5th में होते हो या 8th में होते हो तो अगर अच्छी गुणवत्ता की 500 किताबें भी घर में मौजूद हैं तो उससे बहुत फ़र्क पड़ता है।

और मेरे घर में मेरे लिए 5-700 से कहीं ज़्यादा किताबें थी। और ये जैसा मैंने कहा कि टेक्स्ट बुक्स के अलावा थी। टेक्स्ट बुक्स तो ठीक ही है अपना आप पढ़ते रहिए। अब ऐसा नहीं कि मुझे वो सब समझ में आती थी। वो सारी किताबें दुनिया की हर दिशा से थी। उसमें इतिहासी किताबें भी थी राजनीति की भी थी खेलों की दुनिया से भी थी। एडवेंचर की दुनिया से थी विज्ञान की दुनिया से थी फिक्शन था, कविताएँ थी। जितने तरह का अच्छा साहित्य लिटरेचर हो सकता है, वह सब उपलब्ध था।

और मेरे ऊपर कोई ज़ोर नहीं था कि तुम्हें इसको पढ़ना ही है। बस वह उपलब्ध था। यह अवेलेबल है। तो अपनी मर्जी से जाओ जो चाहते हो उस किताब को उठाओ हाथ लगाओ कुछ आएगा समझ में। कुछ नहीं समझ में आएगा, कोई बात नहीं।

तो जब मैं अपने उन सालों को देखता हूँ जब भीतरी विकास हो रहा था और दुनिया के प्रति एक दृष्टि विकसित हो रही थी तो मैं उन किताबों का बहुत-बहुत महत्त्व पाता हूँ। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि मुझे उनसे ज्ञान मिला। इसलिए कि उन किताबों ने मुझे बहुत बचा कर रखा। एक इंसुलेशन की तरह, एक सुरक्षा कवच की तरह। क्योंकि मन खाली तो रह नहीं सकता ना। मन तो कुछ ना कुछ माँगता रहता है। मन को अपने आप को किसी ना किसी चीज़ से भरना है। है ना?

ऐसा कभी होता है कि कुछ भी नहीं चल रहा? कुछ तो चलेगा ही। तो अगर कुछ अच्छा और ऊँचा नहीं उपलब्ध है तो कुछ बहुत ही साधारण-सा औसत स्तर का या हो सकता है कि घटिया-सा भी मन को आकर के घेर ले। इन किताबों ने मुझे बहुत बचाया, बहुत जो पॉपुलर मुद्दे होते हैं लोग होते हैं चीज़ें होती हैं उनको इज़्ज़त देने से। क्योंकि मुझे बड़े नाम मिल गए थे और बड़ी बातें मिल गई थी तो मुझे फुर्सत नहीं मिली छोटे मुद्दों में फँसने की। और ये जो छोटे मुद्दे हैं जितना बड़ा ख़तरा मेरे लिए थे उससे कहीं ज़्यादा बड़ा ख़तरा तुम लोगों के लिए है।

क्योंकि आज तुम्हारे पास इंटरनेट है और सोशल मीडिया है। तो बहुत सारे छोटे-छोटे लोग होते हैं वो बहुत बड़ा नाम बन जाते हैं। और वो तुम्हारी उम्र में बिल्कुल दिलो दिमाग पर छा जाते हैं। और आप कहते हो कि ये मेरे आदर्श हो गए रोल मॉडल हो गए इन्फ्लुएंसर हो गए। वो छा ही जाएँगें अगर मन को ऊँचे लोगों की, बहादुर लोगों की, काबिल लोगों की संगति नहीं मिली है अगर आपको उनके नाम भी नहीं पता चले हैं। तो मैं कह रहा हूँ बहुत ही मामूली ऑर्डिनरी किस्म के लोग आपके मन पर ऐसे चढ़ जाएँगे जैसे कि देवता हो, भगवान हो।

आप कहोगे आई लुक अप टू हिम। और वो है कोई नहीं। वो सिर्फ़ एक गुब्बारे जैसा है। उसमें दम कुछ नहीं है। बस हवा उसमें भर दी गई है।

मेरे लिए अच्छा ये रहा कि मानव इतिहास के जितने बड़े नाम हो सकते हैं उन सबसे मेरा परिचय बहुत जल्दी हो गया।

तीसरी, चौथी, पाँचवी क्लास में था मैं। मैं तभी से कम से कम उन नामों को जानता था। भले ही उनकी कोई बात मुझे समझ में ना आती हो। और मुझे समझ में आ सके इसके लिए वैसी किताबें भी घर में थी जो मेरी उम्र के बच्चों के लिए सुग्राह्य होती हैं। माने डाइजेस्टेबल होती हैं।

तो ये एसॉप्स फ़ेबल्स हो या पंचतंत्र हो हितोपदेश हो नेहरू के लेटर्स टू डॉटर, पिता के पुत्री के नाम हो, ना जाने कितनी ऐसी किताबें वो सब रखी हुई थी तो अब वो तो मुझे पूरी समझ में भी आती थी क्योंकि वो थी ही बच्चों की और जो बच्चों की किताबें नहीं भी थी मैं कह रहा हूँ ना समझ में आने के बावजूद उन्होंने मुझे बचाया, उन्होंने मुझे बचाया कि मैं किसी सेलिब्रिटी को बहुत ऊँचा स्थान ना दे दूँ। बहुत बड़ा ख़तरा है यह। यह जो उम्र होती है ना तुम्हारी इसमें तुम्हारे पास अब एजुकेशन आ गई है तो तुम पढ़ सकते हो। एनर्जी आ गई है तो तुम इधर-उधर जा सकते हो चीज़ें माँग सकते हो। लेकिन अभी बहुत ज़्यादा समझ नहीं आई होती है। और जब समझ नहीं आई होती है तो फ़ायदा उठाने वाले एक्सप्लॉइट करने वाले, छा जाने वाले लोग बहुत होते हैं।

एक उदाहरण देता हूँ। Snapchat है, एक बहुत पॉपुलर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है। उसके जो ज़्यादातर यूज़र्स हैं वो अभी लीगली एडल्ट्स भी नहीं है। वो 18 साल से कम उम्र की है। माने अगर यहाँ पर 12वीं के बच्चे बैठे हुए हैं तो समझ लो यही पूरा है। और कोई भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इसलिए होता है ना कि वो जिसने बनाया है वो उससे पैसा कमाए और वो पैसा तभी कमाएगा जब जो उसके यूज़र्स हैं वो उस कंटेंट को बहुत देर तक देखते रहे। और आप किसी को बहुत देर तक तभी देखोगे जब आप उससे इन्फ्लुएंस हो जाओ। तो तुम्हारी यह जो अभी उम्र है कच्ची इसमें तुमको इनफ्लुएंस करके अपना फ़ायदा निकालने वाली ताकतें अब बहुत ज़्यादा हो गई हैं। जितना ख़तरा हमारे समय में था उससे कहीं ज़्यादा ख़तरा अभी है।

एक चीज़ और हुई है। हमने पैसे की बात करी है कि कोई भी अगर अपना सोशल मीडिया ऐप बनाता है तो इसलिए बनाता है कि पैसे कमाए। दुनिया का हर मैन्युफैक्चरर, सेलर ये जो एज ग्रुप होता है 8 साल से लेकर के 18-20 साल तक का बल्कि 8 साल से भी नीचे पांच-छ साल से शुरू करके 20-22 साल वाला इसको टारगेट कर रहा है। क्यों? आप कहेंगे ये तो कमाते भी नहीं। इनको क्यों टारगेट कर रहे हैं? इनको टारगेट इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इनके पास माँ-बाप का पैसा होता है। इंसान के पास जब अपना पैसा होता है, तब तो यह फिर भी संभव है कि वह थोड़ा देख समझ के खर्च करें। पर जब घर में संतान एक या दो ही हो और अक्सर माँ-बाप दोनों कमाते हो घर में पैसे की कोई कमी नहीं है और एक ही बच्चा है या दो ही बच्चे हैं तो बच्चों के हाथ में जबरदस्त स्पेंडिंग पावर आ जाती है।

अभी अगर मैं आपसे भी पूछूं, ऐसे ही एक छोटा सा सर्वे कर लिया जाए कि आप में से कितने लोगों के एक ही भाई या बहन हैं और कितनों के अधिक से अधिक दो भाई या बहन हैं? तो ज़्यादातर लोग आप इसी श्रेणी में आओगे। कुछ तो ऐसे होंगे जो अकेले होंगे घर में। कुछ ऐसे होंगे जो कि बस कहेंगे मेरा एक सिबलिंग है। और जो हाउसहोल्ड इनकम आज से 30-40 साल पहले होती थी, आज उससे कई गुना बढ़ गई है।

ये मैं हर दिशा में जा रहा हूँ। लिटरेचर से अब इकोनॉमिक्स की बात करनी शुरू कर दी। मैं सोशल मीडिया की बात कर रहा हूँ। ये समझ में आ रहा है या बोर कर रहा है? बोर कर रहा है तो बस इधर-उधर की बातें करें। ये समझ में आ रही है बातें? मुझे लगता है कि हम 8th, 10th, 12th में इतने मैच्योर हो जाते हैं कि ये बातें हमें समझ में आएँगी। आनी चाहिए। आ रही है ना बातें?

तो अब हाउसहोल्ड इनकम बहुत बढ़ गई है। और जो फर्टिलिटी रेट है मतलब घर में बच्चे कितने होते हैं वो गिर गया है। तो माँ-बाप के पास पैसा है। और बच्चे एक दो ही हैं। तो उन बच्चों के हाथ में बहुत स्पेंडिंग पावर आ गई है। तो दुनिया का हर एडवर्टाइजर, मैन्युफैक्चरर, सेलर किसको टारगेट कर रहा है? बच्चे को टारगेट कर रहा है। तो आपके लिए ख़तरा बहुत है। और उस ख़तरे से बचने का तरीका है किताबें। बहुत छोटे लोग बहुत छोटी-छोटी बातें करके आपको एक्साइट कर लें आपको जकड़ लें आपको हिप्नोटाइज़ कर लें आप उनके वश में आ जाओ। उससे कहीं बेहतर है कि ऊँचे और बड़े लोगों की संगति करो।

उसके बाद यह जो छोटी बातें हैं ना इसका दिख जाएगा कि इसमें मुझे फँसना ही नहीं है। मानव का पूरा इतिहास इतने महान लोगों से भरा हुआ है कि उनको अगर हम सूचना उपलब्ध होते हुए भी, मौका उपलब्ध होते हुए भी नहीं जान रहे हैं तो दोष बस हमारा है। और आज इतनी गड़बड़ बात है कि मैं आपसे पूछूँ उदाहरण के लिए कि रेनेसा हुआ यूरोप में वहाँ इतने रिवोल्युशंस हुए आप उनके की फ़िगर्स (Key figures) के कुछ नाम बताइए। तो आपके लिए बताना मुश्किल हो जाएगा और ये छोटी उम्र नहीं है। सब टीन्स में हो और आप टीन्स में आ गए हो तो पता होना चाहिए मुश्किल होगा। कुछ लोग बता पाएँगे और मुझे बहुत खुशी होगी कुछ लोग बता पाएँगे तो पर शायद ज़्यादातर लोग ना बता पाए।

लेकिन मैं यही आपसे पूछूँ कि आईपीएल जो कि नेशनल टीम में भी ना हो। आईपीएल के कुछ प्लेयर्स के नाम बता दो, मैं एक पूछूँगा 15 बता दोगे। किसी ने अभी एक भी अच्छी फ़िल्म ना करी हो। उसे कोई इंटरनैशनल छोड़ दो नैशनल अवार्ड भी ना मिला हो। पर आप ऐक्टर-ऐक्ट्रेसेस के नाम बता दोगे। कोई YouTube पर, Instagram पर छाया हुआ है आप उसका भी नाम बता दोगे। कोई किसी घटिया टीवी-शो में जाकर के बहुत सारा अटेंशन गैदर कर रहा है। आपको वो भी पता होगा। बिग बॉस वगैरह वो सब पता होगा। पर मैं अभी आपसे कहूँ कि कुछ फ्रेंच रिवोल्यूशनरीज़ के नाम बता दो आपको शायद ना पता हो। मैं आपसे पूछूँ कि बताइए कारण क्या थे कि भारत को कॉलोनाइज़ होना पड़ा पुर्तगाली, डच, फ्रेंच और ब्रिटिश ये सब छाते गए। इसके मूल कारण क्या थे तो शायद हमें ना पता हो। लेकिन जो बहुत सारी क्षुद्र किस्म की बातें हैं बहुत पेटी जिसको जमीन की भाषा में कहेंगे टूच्ची बातें वो हमें पता होती है। उन बातों से बचाने के लिए आपको किताबें होती हैं।

एक बार जिसको फिर आसमानों का स्वाद लग गया ना वो फिर ऐसे जमीन का कीचड़ नहीं चाट पाता। तो इस मामले में मैं सौभाग्यशाली रहा कि इस दुनिया की जो कालिक है, गंदगी है उससे मैं इंसुलेट हो गया। मुझे आकर्षक ही नहीं लगती थी। एक दो बार ऐसा तक हुआ कि लखनऊ से पहले छोटे शहरों में एक दो बार पोस्टिंग हुई थी पापा की, शाहजहाँपुर हो गया तो शाहजहाँपुर का मुझे याद है वहाँ से लखनऊ आते थे और एक बड़ा एजेंडा पॉइंट रहता था कि किताबें खरीदनी है। क्योंकि छोटा शहर था शाहजहाँपुर वहाँ कोई ऐसी अच्छी बुकशॉप थी नहीं। टेक्स्ट बुक्स होती थी। ऐसी कोई बुकशॉप नहीं थी बड़ी।

गर्मी की छुट्टियाँ होती थी तो उसमें मैं अपने ननिहाल जाता था। वहाँ जाने से पहले निकलने से पहले यह किताबें दे दी जाती थी और ननिहाल भी जाता था तो वहाँ मेरे नाना की भी लाइब्रेरी थी। उनके पास भी किताबें वहाँ रखी हुई थी। तो इन्होंने मुझे बहुत बचाया है। मैंने ज्ञान क्या ले लिया वो मुझे नहीं याद है। और आप इतने छोटे होते हो तो आपको याद भी क्या रहेगा और मैं बिल्कुल मानता हूँ बहुत समझ में भी नहीं आएगा।

अब एक नोबेल प्राइज़ विनिंग नॉवेल है और आप क्लास 6 में हो आप 11 साल के हो। 11 साल की उम्र में आप एक नोबेल प्राइज़ विनिंग नॉवेल पढ़ रहे हो। तो ज़ाहिर सी बात है वो बहुत समझ में नहीं आएगा लेकिन उसने आपको बचा दिया है। और वहाँ आपको कुछ ऐसा मिल रहा है जो आपको पूरा समझ में तो नहीं आ रहा पर ये हल्का-हल्का एहसास हो रहा है आहट सी आ रही है कि इसमें कुछ खूबसूरती है और वो खूबसूरती आपको फिर मजबूर करती है कि इसको समझो। तुम अगर अब इसे नहीं समझ पा रहे हो तो अपना स्तर बढ़ाओ ताकि तुम इसे समझ सको तो फिर आपकी समझ का भी स्तर बढ़ता है और आपकी भाषा का भी स्तर बढ़ता है।

क्योंकि अच्छा साहित्य है तो अच्छी भाषा में भी लिखा गया होगा। तो मुझे फिर बहुत मदद मिली अपनी हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों बेहतर करने में। जब मेरा दसवीं का आईसीएससी का रिजल्ट आया तो उसमें उत्तर प्रदेश में मेरा पहला स्थान था तो जो बोर्ड के सेक्रेटरी थे वो आकर के मेरे पैरेंट्स से मिले। उन्होंने कहा ये सब ठीक है। हर साल कोई ना कोई यूपी टॉप करता है लेकिन इस साल आपके बेटे के रिजल्ट में खास बात ये है कि उसके हिंदी और इंग्लिश दोनों में हाईएस्ट है और ये रेयरली होता है कि किसी का दोनों भाषाओं पर समान अधिकार हो और वो समान अधिकार मुझे आईसीएससी की टेक्स्ट बुक्स पढ़ के नहीं आया था, टेक्स्ट बुक्स भी पढ़ी थी। वो समान अधिकार आया था जो घर पर किताबें थी उनको पढ़ के। बात समझ में आ रही है?

जब हम कंपनी कर ही सकते हैं; कंपनी माने साथ, संगति। जब हम कंपनी कर ही सकते हैं तो उन सब ऊँचे लोगों की क्यों नहीं करें जो प्यार के नाते हमारे लिए अपने पीछे अपने जीवन का अमृत छोड़कर गए हैं। हो सकता है वो आदमी आज से 1000 साल पहले का हो या 200 साल पहले का हो या भारत का नहीं हो, चीन का हो, अफ्रीका का हो, यूरोप का हो, अमेरिका का हो, कहीं का हो। पर उसने अपने जीवन का सार वो सारी बातें जो जानने और ग्रहण करने लायक हैं वो उसने एक किताब में आपके लिए छोड़ दी हैं।

और कई बार जब वो किताबें बहुत मोटी होती हैं। जैसे डिकेंस का साहित्य हो गया या अन्ना कारेनिना हो गया तो उनके अब्रिज्ड वर्ज़न्स आते हैं फॉर द यूथ तो मुझे वह लाकर दे दिए जाते थे। अब मोबी-डिक पूरी कौन पढ़े तो उसका एक अब्रिज्ड वर्जन है आप उसको पढ़ लीजिए। वो सब अभी भी घर में रखे हुए हैं। मुझे इतना प्यार हो गया था उनसे, मैं उनको बाइंड कराता था। जैसे स्कूल की किताबें बाइंड कराई जाती है। अब बाइंडिंग होती है या नहीं होती है? कार्डबोर्ड बाइंडिंग अभी होती है? अब नहीं होती?

श्रोतागण: प्लास्टिक।

आचार्य प्रशांत: अच्छा प्लास्टिक। हमारे समय में कार्डबोर्ड बाइंडिंग होती थी। तो वो जितनी सारी मेरी किताबें थी मैं उनको बाइंड वाइंड करा के उनकी लेबलिंग करके अच्छे से रखता था। जैसे टेक्स्ट बुक्स रखी जाती है। उनमें से कुछ अभी भी घर पर पड़ी होंगी। और ये नहीं कि उसमें सब कुछ मैं सीरियस ही पढ़ता था। कॉमिक्स वगैरह भी खूब चलती थी। डॉक्टर झटका, मोटू पतलू, घसीटाराम, चाचा चौधरी ये सब भी चलता था। इंद्रजाल कॉमिक्स अब नहीं आती। पहले आती थी, एक टिंकल करके आती थी। तो वह सब भी रहता था। बात समझ में आ रही है?

बेटा, दुनिया के लिए ना आप बच्चे नहीं हो। दुनिया के लिए आप कस्टमर हो। कोई भी आपको अगर अट्रैक्ट कर रहा है ना तो वो इसलिए नहीं कर रहा कि उसको आपसे प्यार है। वो आपको इसलिए अट्रैक्ट कर रहा है ताकि आपसे कुछ ले सके। बहुत जल्दी किसी के फैन मत बन जाया करो। चाहे वो कोई पॉलिटिशियन हो, चाहे इंडस्ट्रियलिस्ट हो, चाहे चाहे कोई ग्लिटरिंग सेलिब्रिटी हो, ये दुनिया बहुत अच्छी जगह है नहीं। लेकिन हम एक अच्छी ज़िन्दगी जी सकते हैं। क्योंकि कुछ अच्छे लोग हुए हैं। और जो अच्छे लोग हुए हैं उन्होंने हमारे लिए बेइंतहा कोशिश करी है कि हम भी अच्छी ज़िन्दगी जी पाए। ये जो पब्लिक स्पेस है उसमें ज़्यादातर लोग जो हैं जिनको आप जानते हो वो आपके लिए अच्छे नहीं हैं। समझ में आ रही है बात?

लेकिन वो बिल्कुल हमारे लिए क्या बन जाते हैं? ओ माय आइडल माय आइडल। मैं पूजा करूँगा इसकी। वो व्यक्ति क्या है? उसने सचमुच क्या हासिल करा है ज़िन्दगी में? उसके विचारों में कितनी गहराई है? वो ज़िन्दगी को कितना समझता है? तुम उसे जानते भी क्यों हो? अगर आप आपको उसका नाम भी पता है तो इतने में भी आपका नुकसान हो गया। आपको उसका नाम भी नहीं पता होना चाहिए। बहुत सारी बातें थी जो मुझे मेरे घर पर पता ही नहीं लगने दी गई। मुझे नहीं पता होता था। कहते थे तुम वो पता करो ना जो ज़िन्दगी में उच्चतम है। उससे नीचे की कोई सूचना तुम्हारे मन में पहुँचे ही क्यों?

मैं स्कूल जाता था। अब मान लीजिए मैंने जूते पहन रखे हैं। तो मुझसे साथ वाले पूछते थे और मुझे बड़ा अजीब लगता था कि यह कैसा सवाल है? कितने के हैं? मुझे नहीं पता होता था क्योंकि मुझे कभी बताया नहीं गया है। मुझे नहीं पता। अब तो हर तरह का एंटरटेनमेंट मौजूद है। पहले जब 31 दिसंबर की रात होती थी, न्यू ईयर आ रहा है आपका इसलिए बोल रहा हूँ। 31 दिसंबर की रात होती थी तो उसमें दूरदर्शन पर आते थे - ये वो। तो उसके बाद, विंटर ब्रेक के बाद जब मिले स्कूल में तो काफी देर तक एक दिन दो दिन यही बात होती थी कि उसमें कौन-सी सेलिब्रिटी आई थी उसने क्या किया, क्या नहीं किया, कैसा हुआ मुझे नहीं पता होता था। मैं जानता ही नहीं।

मैं जब अपना 10th का बोर्ड दे रहा था उस वक़्त भी घर में एक ब्लैक एंड वाइट पोर्टेबल टीवी था। कलर भी था ड्राइंग रूम में रखा हुआ था पर वो कभी चलता नहीं था। वो बस ड्राइंग रूम में रखा हुआ था। कभी बाहर से वीसीआर मंगा करके उसमें फ़िल्म देख ली जाती थी। वो इसके काम आता था कि जब वीसीआर आएगा तो उसमें फ़िल्म देख ली जाएगी वरना वो नहीं चलता था। एक इतना-सा छोटा-सा वेस्टन का पोर्टेबल टीवी था वही रखा होता था उसी के साथ मैंने अपने बोर्ड्स दिए हैं तो पता ही नहीं चलता था। क्यों पता चले? मैं आपसे पूछ रहा हूँ। बताओ ना दुनिया भर की गंदगी आपको क्यों पता हो? क्योंकि अगर वो पता होगी तो फिर अपना असर भी करेगी। उसको जानने में ही नुकसान हो गया। क्योंकि समय तुम्हारे पास सीमित है और ये जगह स्पेस भी सीमित है। एक चीज़ को जानोगे तो दूसरी चीज़ को नहीं जान पाओगे। देयर वुड ऑलवेज़ बी वन एट द कॉस्ट ऑफ द अदर। समझ में आ रही है बात? तो यह पहली चीज़।

दूसरी चीज़ जो जाने अनजाने ही मैंने इनसे सीख ली, सोख ली वो थी अथॉरिटी के सामने कभी ना दबना। जब झुकना तो अपनी समझ से झुकना।

जब झुकना तो इसलिए झुकना क्योंकि सामने वाला इस लायक़ है कि उसको नमन कर सके। उसको सर झुका सके नहीं तो किसी से नहीं झुकना है और इसमें कोई ऐरोगेंस वाली अहंकार वाली बात नहीं है। बात बहुत सीधी है। तुम इस लायक़ तो हो ना कि हम तुम्हारी दिल से इज़्ज़त कर सके तो ज़रूर करेंगे। और अगर हम तुम्हारी भी इज़्ज़त करें और जो सचमुच महान है, हम कहें उसकी भी इज़्ज़त कर रहे हैं तो फिर हम किसी की इज़्ज़त नहीं कर रहे। ये जो सर है अगर यह हर जगह झुक सकता है तो फिर कहीं नहीं झुका। ये तो बिकी हुई चीज़ हो गया ना कि जिसको देखो उसको ही रिस्पेक्ट दिए जा रहे हो।

तीन बार उनका प्रमोशन था वो रुका रहा। कई कई सालों तक रुका रहा। और फिर हाई कोर्ट जाते थे, केस करते थे और तब अपना प्रमोशन लेते थे। क्यों रुका रहा? क्योंकि उनके जो सुपीरियर्स थे, बॉसेस थे सरकार में जो सेक्रेटरीज़ वगैरह होते थे उनके आगे नहीं झुकते थे। ऐसा नहीं कि वहाँ उदंडता दिखाते थे। बस जो बात जैसी थी उसको बोल देते थे। दो टूक स्पष्ट, ये जो स्पष्टवादिता है कि जब सच बोल रहे हो तो डरने दबने झुकने की ज़रूरत नहीं है, जो चीज़ जैसी है उसको बोल दो।

हमारा यह उद्देश्य नहीं है कि हम किसी को आहत करें। पर सच अगर किसी को बुरा लगता है तो फिर लगे। हमने आपको आहत हर्ट करने के उद्देश्य से नहीं बोला है। पर हम क्या करें कि आप ऐसे हैं कि आपको सच से चोट लग जाती है। आपको सच से चोट लगती है तो फिर हम कुछ नहीं कर सकते। हमें माफ कर दीजिएगा। और निश्चित रूप से उसको चोट लगेगी तो वो भी पलट के आपको चोट देगा। आपकी पूरी तैयारी होनी चाहिए ऐसी चोट स्वीकार करने की। तो वो बार-बार स्वीकार करते रहे।

उनको जिस पद पर रिटायर होना चाहिए था, वो रिटायर भी उससे एक पद नीचे पर हुए। लेकिन ठीक है। घर में बड़े अरसे तक तनाव का माहौल रहता था कि क्या अब कोर्ट की फिर से हियरिंग है। अब फिर से कोर्ट में जाना है। ये हुआ, वो हुआ। कोर्ट ने इंस्ट्रक्शंस दे भी दिए हैं कि आप किसी भी आधार पर इनका प्रमोशन नहीं रोक सकते। प्रमोट करिए तो भी जो सुपीरियर्स हैं वो इतने चिढ़े हुए हैं कि वो प्रमोट नहीं कर रहे हैं तो फिर दोबारा कोर्ट जाओ। वहाँ से कंटेंप्ट की प्रोसीडिंग्स शुरू करो और फिर जाकर के अपना प्रमोशन लो। ये सब इनका चलता था।

जो सेल्स टैक्स एसोसिएशन थी उसके कई बार प्रेसिडेंट रहे। तो एक बार उनका जो वार्षिक अधिवेशन होता था ऐनुअल गैदरिंग उसमें मुझे भी साथ ले गए। मैं शायद 6th में था, मैं 11 साल का था। तो वहाँ स्टेज पर उस समय जो यूपी के सीएम थे नारायण दत्त तिवारी जी वो मौजूद थे। तो उन्होंने कुछ कहा ऐसा इनके विभाग के बारे में। व्यक्तिगत रूप से पापा के बारे में कुछ नहीं। पूरे डिपार्टमेंट के बारे में कुछ कहा। जो कि थोड़ा अनुचित था तो वहीं मंच पर मैंने उनको 1000 लोगों के सामने मुख्यमंत्री को यह कहते सुना कि मुख्यमंत्री जी जो आपने बोला है वो ठीक नहीं है।

अब जो आदमी मुख्यमंत्री को हजार लोगों के सामने कहेगा कि गलत बोल रहे हो। और मंच पर कहेगा गलत बोल रहे हो और मीडिया के सामने बोलेगा कि गलत बोल रहे हो। उसको फिर जो हमारा सिस्टम है वो तकलीफें तो देगा ही ना। तो तकलीफें कैसे झेलनी है सच्चाई के लिए वो आज मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। इतनी बाधाओं से, दिक्कतों से, तकलीफों से गुजर कर यहाँ तक आया हूँ और आज भी कितने तरीके की अड़चनें झेल रहा हूँ। वह सब संभव हो पा रहा है क्योंकि मैंने देखा है कि करा जा सकता है, करा जाना चाहिए। बहुत बोलना नहीं और जब बोलना तो साफ बात बोलना।

दो टूक बात बोलना। कुछ ऐसा नहीं है कि बात में रफनेस है या क्रूडनेस है। एक कवि एक साहित्यकार की बात भी मंजी हुई होगी। शब्दों का चयन और वाक्य विन्यास भी बहुत साफ सुथरा होगा। लेकिन दुनिया ऐसी है कि साफ बात से घबराती है। दुनिया को झूठ चाहिए। दुनिया को बनावट चाहिए। बनावटी नहीं होना है। ये मुझे स्पष्ट होता जा रहा था। बनावटी मत हो जाना। और बनावटी हो जाने के बड़े फायदे मिलेंगे। दुनिया कहेगी कि तुम झूठ बोलो। नकली चेहरा दिखाओ। जहाँ हंसने की कोई ज़रूरत नहीं है वहाँ भी हंसो। जिनको इज़्ज़त नहीं दी जानी चाहिए उनके सामने भी झुक जाओ। और तुम अगर यह सब कुछ करोगे तो हम तुमको रिवॉर्ड करेंगे इनाम पुरस्कार देंगे। कोई रिवॉर्ड मत ले लेना। एक ज़िन्दगी है उसको साफ सुथरे तरीक़े से जीना है। गंदे नहीं हो जाना है।

जब मैं स्कूल ड्रेस में देखता हूँ ना बच्चों को तो सबसे पहले मेरे भीतर से एक डर-सा उठता है। कहीं ये गंदे ना हो जाए और इतनी सारी ताकतें हैं जो इसी में लगी हुई हैं कि तुम्हारे मन पर छा जाए और तुमको गंदा कर दें और बहुत सारे लोग तो शायद 15-17 के होते खूब गंदे हो भी चुके होते हैं। उनको फिर सुधारना या उनको वापस रिट्रीव करना भी मुश्किल काम हो जाता है।

और जो तीसरी चीज जो घर में थी, हवाओं में थी। मुझे पता भी नहीं चला मैं कब सीखता गया। वो ये कि —

चुप रहना सीखो। तब बोलो जब तुम्हारे बोलने की ज़रूरत हो। सिर्फ़ तब बोलो जब मौन की अपेक्षा शब्द बेहतर पड़ते हो।

अन्यथा बहुत बोलो मत। और खासकर प्रतिक्रिया में तो बिल्कुल मत बोलो। रिऐक्ट तो बिल्कुल ही मत करो। भले ही तुम्हारे आसपास के लोग कितनी भी कोशिश कर रहे हो कि तुमसे एक रिऐक्शन निकलवा लें। रिऐक्शन मत करना। जब करना अपनी मर्जी से ऐक्शन करना।

रिऐक्शन का तो मतलब गुलामी होता है। कोई आपसे ऐसी बातें बोल रहा है जो बोली ही जा रही हैं कि आपको चुभे। जो बोली इसीलिए जा रही हैं ताकि आपकी ओर से भी कोई पलटवार आए। खासकर ऐसे में तो बिल्कुल भी मत बोलना। एक मालकियत होनी चाहिए। सॉवरिन्टी कि आप हमसे ज़बरदस्ती कुछ नहीं उगालवा पाओगे। एक शब्द भी नहीं। ना आप हमें मजबूर कर सकते हो बोलने के लिए प्रतिक्रिया देने के लिए और ना आप हमें रोक पाओगे जब हम कुछ करेंगे। ज़बरदस्ती हमसे आप कुछ करवा नहीं सकते और जब हम कर रहे होंगे तब आप हमें रोक नहीं सकते। दोनों स्थितियों में ज़बरदस्ती नहीं चलेगी।

यह नहीं होना चाहिए कि आप बैठे हुए हो। आप मुझे सुन रहे हो उदाहरण के लिए और आपके बगल वाला उसने आपको कोहनी मार दी और आप भी उसे कोहनी मारने लग गए और यह सुनना वगैरह सब पीछे छूट गया। ये तो जीत गया बगल वाला। वो ख़ुद तो सुन रहा नहीं था। वो क्या कर रहा था? उसने कहा मैं तो सुन नहीं रहा हूँ। ये मेरे बगल में बैठा हुआ है। ये इतने डूब करके इमर्शन में क्यों सुन रहा है? तो चलो इसको… वो जीत गया ना।

उसका एजेंडा था आपको डिस्टर्ब करना। वो डिस्टर्ब कर ले गया। और ये दुनिया एक चीज ही ऐसी है जिसका काम है मन को कॉलोनाइज़ करना। आपके देश को कोई कॉलोनाइज़ करता है आपको कितना बुरा लगता है? लगता है ना? कोई आपकी शर्ट को गंदा कर देता है आपको बुरा लगता है ना? किसी ने इंक मार दिया आपकी शर्ट पर और कोई आपके मन पर कीचड़ मारे तो बुरा क्यों नहीं लगना चाहिए? ज़्यादा बुरा लगना चाहिए ना? सबसे ज़्यादा उनसे बचकर चलना है जो मन को गंदा करते हैं। मन ही सब कुछ है। इसको बचा ले गए तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरती से निखर के आएगी। और मन गंदा हो गया तो फिर कुछ बचता नहीं है। समझ में आ रही है बात?

रिऐक्शन हमेशा आपको गुस्सा दिलाकर ही नहीं लिया जाता। रिऐक्शन आपके भीतर इमोशंस भावनाएँ उकसा के भी लिया जाता है। ये एक और बड़ी गहरी चीज़ थी जो मुझे इनसे मिली। संवेदनशीलता, भावुकता नहीं, सेंसिटिविटी, इमोशनैलिटी नहीं। गजब के संवेदनशील आदमी थे। पर उनको मैंने नहीं देखा कि वो बहुत अपनी भावुक कभी स्थितियाँ प्रदर्शित कर रहे हो। संवेदनशीलता पूरी थी। अन्यथा वो वैसी कविताएँ नहीं लिख पाते जैसी उन्होंने लिखी हैं।

लेकिन वो मंच वाले कवि नहीं थे। मंचों वाले कवि देखे हैं। वियरिंग योर इमोशंस ऑन योर स्लीव्स। वह सब भी सोशल मीडिया पर बहुत छाए रहते हैं। वो आकर के ऐसे हाथ उठा उठा के अपनी कविता बाँचते हैं और दर्शकों से कहते हैं चलो ताली पीटो। वो वाले नहीं थे। वो लिखने वाले थे। बाँचने वाले नहीं थे। समझ में आ रही है बात?

सेंसिटिव होना एक बात है और इमोशनल रिऐक्टिवनेस बिल्कुल दूसरी बात है और आप जिस उम्र में आ गए हो अब वहाँ तो हार्मोनल रिऐक्टिवनेस भी शुरू होगी या हो रही होगी। ये दुनिया आ रही है और आपको पता भी नहीं चला कि आपके भीतर से जो रिऐक्शन आ रहा है वो आपका अपना है ही नहीं, वो एक केमिकल रिऐक्शन है वो एक हार्मोनल रिस्पांस है और वो जो हार्मोनल रिस्पांस था वो आपको अपने साथ बहा ले गया। नहीं बहना है।

मेरी हस्ती, मेरे वचन, मेरे कर्म यह सब मेरी समझ से चलेंगे। ये सब मेरे नियंत्रण में रहेंगे। ये सब मेरे बोध से उठेंगे। कोई आकर के मुझे ललचा नहीं सकता। कोई आकर मुझे डरा नहीं सकता। कोई आके मुझे अगर किसी भी तरीके से आकर्षित करेगा, रिझाएगा अट्रैक्ट करेगा तब तो मैं और उसकी तरफ नहीं जाऊँगा क्योंकि यह मेरे साथ साजिश करी जा रही है। यह मेरे मन को इनवेड करा जा रहा है। ये आक्रमण है। ये उल्लंघन है। ये ट्रेस पासिंग है कम से कम। ये मेरी सेक्रेड टेरिटरी है। और यहाँ बस वही प्रवेश पाएँगे जो सेक्रेड होंगे। जो सेक्रेड नहीं है उसको यहाँ नहीं आने दूंगा। बाहर रहो, दूर रहो मैं तुम्हें जानूँगा भी नहीं। ऐसा नहीं कि मैं तुमसे लड़ रहा हूँ। तुम्हारे प्रति मेरा रुख यह है कि मैं तुम्हें जानूँगा भी नहीं। समझ में आ रही है बात? नहीं आ रही है, एक हिंट दे देता हूँ।

जो सब लोग कर रहे हो जो बहुत प्रसिद्ध हो, पॉपुलर हो, प्रचलित हो। उसके प्रति थोड़ी जिज्ञासा की, संशय की एग्जामिनेशन माने परीक्षण की निगाह रखना। जो चीज़ ऐसी हो कि जिसमें सभी बहे जा रहे हो। बहुत ज़्यादा संभावना है कि वह चीज़ गड़बड़ है। बहुत संभावना है। कोई चीज़ पॉपुलर है। शायद इसी से साबित हो जाता है कि वो चीज़ गड़बड़ है। या कम से कम उसके गड़बड़ होने की प्रॉबेबिलिटी बहुत बढ़ जाती है।

डोंट ट्राई टू बिलॉन्ग टू द क्राउड। यह मत कहा करो कि अरे मैं तो पीछे छूट गया। आई एम लेफ्ट बिहाइंड। मुझे फोमो हो गया। फोमो फोमो पता है? पता ही होगा। फियर ऑफ मिसिंग आउट। ओ सब चले गए। आई मिस्ड आउट ऑन दिस। सब एक दूसरे से पूछ रहे हैं। सो डूड व्हाट्स अप ऑन द न्यू इयर्स ईव। और आपके पास कुछ बताने को नहीं है व्हाट एम आई डूइंग ऑन द न्यू ईयर। सो आप ऐसे छुप रहे हो या झूठ बोल रहे हो या किसी से कह रहे हो कि यार तू कहीं जा रहा है क्या? मेरे को भी साथ ले लेना।

बोल रहा है मैं जहाँ जा रहा हूँ एंट्री चार्जेज़ हैं, 5000 लगेगा। तो जाकर के मम्मी से पापा से कुछ करके उनको भी इमोशनली ऐसे ब्लैकमेल करके आर्म ट्विस्टिंग करके उनसे पैसे ले रहे हो। यू डोंट लव मी ना? पैसे नहीं देना चाहते ना? सी ऑल माय फ्रेंड्स आर गोइंग देयर। सब जहाँ जा रहे हो वह जगह ही भेड़ों की होगी। सब लोग तो टॉप भी नहीं करते, अगर वही करना है जो सब करते हैं तो सब लोग तो कोई एंट्रेंस एग्जाम पास भी नहीं करते।

एक छोटी माइनॉरिटी होती है ना। दुनिया के सारे अच्छे काम एक छोटी माइनॉरिटी द्वारा करे जाते हैं। तो जो लोग मेजॉरिटी में रहने के लिए बहुत आकुल होते हैं। वो कभी कोई अच्छा और ऊँचा काम कर ही नहीं सकते। बोर्ड कौन टॉप करता है? मेजॉरिटी टॉप करती है? एंट्रेंस एग्जाम कौन क्लियर करता है? मेजॉरिटी क्लियर करती है? ग्रैंड स्लैम्स होते हैं। उनको मेजॉरिटी जीतती है? नहीं। कोई एक जीतता है।

माइनॉरिटी में रहना सीखो। अकेलेपन में आनंद महसूस करना सीखो।

जो आदमी कहेगा कि मैं ऐट ईज़ तभी हूँ, मैं आराम से तभी हूँ जब मैं बाकी लोगों के साथ हूँ। वो इंसान ज़िन्दगी में बहुत नीचे स्तर पर रहेगा। बहुत औसत स्तर पर रहेगा। मैं अकेला हूँ और अकेलेपन में मेरी शान है। इसका मतलब यह नहीं है कि अकेला हूँ कि जितने अच्छे लोग थे उनको भी इधर-उधर भगा दिया कि भागो भागो। मैं तो अकेला हूँ।

अकेलापन लेकिन चीज़ ऐसी है कि मिलता है। उत्कृष्टता की तलाश में जब भी निकलोगे तो अकेलापन मिलेगा। जो अकेलेपन से घबराएगा वह उत्कृष्टता भी नहीं पाएगा। उत्कृष्टता समझते हो क्या?

श्रोतागण:: नहीं।

आचार्य प्रशांत: नहीं समझते। क्या वैदिक स्कूल है फिर? क्या तुम लोग कर रहे हो? एक्सीलेंस। एक तो संस्कृत पर बाद में आना। पहले हिंदी पढ़ना सीखो। भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं होती। भाषा भाषा से आगे का भी कुछ होती है। जब आप भाषा बदलते हो तो बस ऐसा नहीं है कि जैसे आप बाइनरी सिस्टम से हेक्साडेसिमल पर आ गए हो। एंड देयर वुड बी अ परफेक्ट ट्रांसलेशन और माइग्रेशन। ऐसा नहीं होता है। कुछ भीतर होता है जो बदल जाता है।

मैं चाहता तो आज आपसे अंग्रेज़ी में भी बात कर सकता था। पर जो मुझे बोलना है अंग्रेज़ी में वो थोड़ा अलग हो जाता। मैं कोई दोहा उठाऊँ। जानने वालों ने ज्ञानियों ने बड़े अच्छे दोहे कहे हैं। और मैं वो आपको अंग्रेजी में सुनाऊँ। उसका बिल्कुल सही अनुवाद अंग्रेजी में सुनाऊँ तो बात नहीं बनेगी। नहीं बनेगी ना? तो दुनिया किधर को भी जा रही हो? तुम अपनी नज़र से पता करो कि क्या सही है, क्या नहीं और उसको पकड़ कर चलो। सबके पीछे पीछे चलना कोई मजबूरी नहीं होनी चाहिए। और इस बात में कोई फक्र नहीं होना चाहिए कि सी हाउ पॉपुलर एम आई।

सबके अकाउंट्स होंगे, इंस्टा पर सबके अकाउंट्स होंगे। ओ मुझे इतने लोग फॉलो करते हैं। तुझे कितने फॉलो करते हैं? या मेरा फ्रेंड सर्किल इतना बड़ा है। तेरा कितना बड़ा है? मुझे कितने लोग पसंद करते हैं? तुझे कितने लोग पसंद करते हैं। सही काम करोगे तो बहुत संभव है कि नापसंद मिले, रिजेक्शन मिले। कोई बात नहीं। क्या हो गया?

ऐसे अलमारी थी और उसके बगल में सोफा रखा हुआ था। ऐसे अलमारी और ये सोफा ऐसे रखा होता था। तो अलमारी और सोफे के बीच में थोड़ी सी जगह होती थी। तो मैं वो वहीं जमीन पर बैठ जाता था और उसमें से कौन सी अलमारी किताबों की और मैं उसमें से किताब निकाल के पढ़ना शुरू कर देता था। और वो सोफे के बगल में मैं जमीन पर बैठा हुआ हूँ।

तो एक बार ऐसा हुआ कि वहीं बैठे-बैठे पढ़ते-पढ़ते मैं सो गया और वहाँ आप वहाँ पढ़ते-पढ़ते सो जाओगे तो दिखाई भी नहीं पड़ोगे। खोज मची हुई है आप वहाँ सो रहे हो। किसी को पता ही नहीं चल रहा है। चाँटा पड़ा, कोई बात नहीं। आ रही है ये बात समझ में?

उन सब जगहों से बचकर चलना जहाँ ऐसी भीड़ है जो तुम्हारे मन को काबू कर लेना चाहती है। जब मैं पैरेंट्स से बात किया करता हूँ तो उनसे कहता हूँ कि देखो बहुत ज़्यादा सामाजिक मत बनाओ बच्चे को उसको बचा कर रखो। दुनिया बहुत गंदी है। दुनिया बहुत गंदी है। और बच्चा आपको मिला है वो अभी साफ़-सुथरी चीज थोड़ी उसको बचाओ नहीं तो ये लोग सब आके अपना कीचड़ उस पर मल देंगे। क्यों उसको शादियों में लेकर चले जा रहे हो? शादियों जैसा भ्रष्ट माहौल और कहीं देखने को मिलता है? अच्छा खासा आदमी भी शादी में जाकर के एकदम लफंगे जैसी हरकतें करता है। और वहाँ तुम अपने बच्चे को ले जा रहे हो। वो क्या देख रहा है?

चार दिन शादी वाले माहौल में रह के वो आधा बर्बाद हो के लौटेगा। मत ले जाओ ना। बहुत लोगों को बहुत अजीब लगेगा शादी में नहीं ले जाएँ तो क्या करें पर समझना थोड़ा, सोचना इस बारे में। गौर करना कैसा माहौल होता है वहाँ पर, वहाँ पर टैगोर की और कांत की बात हो रही होती है? वहाँ भगत सिंह की बात हो रही होती है? वहाँ आज़ाद की बात हो रही है? वहाँ शेक्सपियर की बात हो रही है? वहाँ बुद्ध की महावीर की उपनिषदों की बात हो रही है? वहाँ कौन-सी बातें हो रही है? डीजन (दान/न्योता) आया अभी तक?

क्यों तुम जो नन्हा है उसको खराब करना चाहते हो? हम जानते नहीं क्या कि दुनिया कैसी है? जैसी दुनिया है वैसे ही हमारे रिश्तेदार भी हैं। इन रिश्तेदारों को क्यों एक्सपोज़ कर रहे हो बच्चों को, मत एक्सपोज़ करो। उन्हें बुरा लगता है तो लगे। तुम्हारे पास बर्बाद करने को तुम्हारा बच्चा है उसको बर्बाद करो। कुछ आ रहा है समझ में?

अभी बैठे हो बहुत सारे चेहरे मासूम लग रहे हैं। सीधे-साधे लग रहे हैं। तो मुझे डर ये लगता है कि इन्हीं से पाँच साल बाद मिलूँगा फिर डूड-डूड नहीं बन चुके होंगे। है ना ऐसा?

श्रोतागण: सर हाँ में हिलाते हुए।

आचार्य प्रशांत: देखो आपके टीचर्स जानते हैं अच्छे से कि ऐसा है।

जैसे फूल हो नन्हे जिन्हें खाने के लिए दुनिया के सारे जानवर लगे हुए हैं। जैसे लताएँ हो कोमल उनको थोड़ी सी सुरक्षा, थोड़ी बाढ़ तो देनी पड़ेगी ना तो कोई बकरी आगे चढ़ जाएगी। कईयों को तो बहुत मज़ा आ रहा है। बिल्कुल ऐसे हो गए हैं। और कई कह रहे हैं कि बात कुछ ख़तरनाक है हम नहीं सुनेंगे। क्योंकि अगर ये बात सुन ली तो सुविधाओं पर चोट पड़ेगी।

चलो मुझे अपनी ओर से इतना ही बोलना था। आपने इतना भी सुन लिया बड़ी बात है क्योंकि हम जहाँ आ गए हैं वहाँ इतना भी अटेंशन स्पैन होता नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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