संसार श्रम, सत्य विश्राम || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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संसार श्रम, सत्य विश्राम || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: संसार श्रम है और तपस्या विश्राम। संसार उसी समय तक है जब तक आपके पास करने के लिए कुछ है। जहाँ तक आपके पास करने के लिए कुछ है, संसार वहीँ तक है। जहाँ तक लक्ष्य हैं, उपलब्धियाँ हैं, सपने हैं, संसार वहीँ तक है। और संसार से मेरा आशय है, जैसा हम उसे जानते हैं। संसार सिर्फ वहीँ तक है। मन थमा तो संसार थम गया। मन चलता रहा — और मन की जो पूरी चाल है, ये कोई सहज चाल नहीं है, मन की चाल कष्ट की चाल है, भागने की चाल है। मन चलता ही क्यों है? क्योंकि वो कष्ट में है, अन्यथा नहीं चलेगा। जब आप बोलते हो कि मैं बड़ी चंचल चित्ता हूँ, तो ये कोई मोहक वक्तव्य नहीं है कि लड़की बड़ी चंचल है। इसका अर्थ यही है कि लड़की बड़े कष्ट में है।

चंचलता यही बताती है कि जो है, उससे सम्पर्क नहीं है, इसके कारण मन कहीं और भागना चाहता है। चंचलता व्यग्रता है, चंचलता पीड़ा है, चंचलता ही संसार है। मन का चलते रहना ही संसार है, और जब तक मन चल रहा है तब तक संसार है। संसार क्या है? एक विचार ही है। वो विचार आएगा ही नहीं अगर आप वहाँ पर हो, आप जहाँ पर हो। यहाँ पर आप बैठे हो, मैं भौतिक स्थिति की बात नहीं कर रहा हूँ, आप यहाँ पर बैठे हो, आप में से कितने लोगों के मन में ये विचार चल रहा है कि बाई आ गयी होगी। जिनको आ रहा हो, घर ही चले जाएँ।

जब मन नहीं है तो संसार का लोप हो गया। इसका अर्थ ये नहीं है कि कुछ नहीं है। अभी जो है, मस्त है, शान्त है। कोई दिक्कत नहीं है पर संसार नहीं है। क्या संसार है अभी? आपमें से कितने लोग अभी विचार कर रहे हो कि दिल्ली में सरकार बनेगी कि नहीं बनेगी? या कर रहे हो? थम गया ना? संसार गया। मन थमा, संसार थमा। मन जहाँ दोबारा आपका गतिमान होगा, आपका संसार फिर से खड़ा हो जायेगा।

संसार श्रम ही है, संसार का अर्थ ही है मन का भागना। श्रम से अर्थ शारीरिक श्रम नहीं है कि माँसपेशियाँ हिल-डुल रही हैं। सारा श्रम मानसिक होता है। सभी कुछ मानसिक है, श्रम भी मानसिक है । इसलिए संसार में किसी को कुछ मिल नहीं सकता, सिवाय थकान के। कबीर कहते हैं-

‘ये संसार काँटों की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है, ये संसार कागज़ की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है’

‘रहना नहीं देश बेग़ाना है’: जो भी कोई ये सोचे कि कुछ पा कर संसार में उसे शान्ति मिल जायेगी, वो अपने आप को धोखा दे रहा है। संसार ने सिर्फ थकाया है, घाव दिए हैं, नोंच खाया है, और ये आपकी नहीं, ये जगत की कहानी है। और याद रखिएगा, मैं संसार कह रहा हूँ तो उससे अर्थ है, हमारा संसार, हमारा अवास्तविक संसार।

अहंकार कहता है मुझे अपनी परवाह खुद करनी है: मैं न करूँगा तो काम होंगे कैसे? श्रद्धा कहती है: सब हो जाएगा, तुम ज़रा बीच से हटो। बिल्कुल विपरीत हैं दोनों। अहंकार कहता है श्रम, श्रद्धा कहती है विश्राम। अहंकार आपसे गहरा श्रम कराएगा, आपको तोड़ कर रख देगा, एक-एक बूँद निचोड़ लेगा, ‘और करो, और करो… कुछ पाना है, कहीं पहुँचना है, कुछ छूटा जा रहा है, कुल इतने ही साल का तो जीवन है उसी में सब कुछ उपलब्ध होना है’ — ये सब अहंकार है।

श्रद्धा कहती ही नहीं कि कितने साल का जीवन है, उसे विचार ही नहीं आता समय का।

अहंकार बहुत डरेगा अपनी सुरक्षा को छोड़ दिया तो मेरा क्या होगा? श्रद्धा कहेगी, ‘होगा क्या ? जिसने मन ने ये भाव दिया वो जाने’। कोई विचार आप की इच्छा से उठते हैं? प्रेरणाएं आपकी अपनी होती हैं? जन्म आपने अपनी मर्ज़ी से लिया है? श्रद्धा कहती है, ‘जिसने ये सब किया है वह आगे भी करेगा । मेरे हाथों अगर कोई महनत होनी होगी तो इसकी भी प्रेरणा वो दे देगा’। याद रखियेगा ये जो आदमी होता है जो सत्य में जीता है ये मेहनत भी घनी कर लेता है। पर इसकी मेहनत वो नहीं होगी जो समाज चाहता है । ये चैनलाइज़्ड मेहनत नहीं करेगा कि सड़क बनाओ, इसकी मेहनत की दिशा बहुत दूसरी होगी।

और इसकी मेहनत कभी थकानेवाली नहीं होगी। खेलकूद जैसी होगी इसकी मेहनत। इसकी मेहनत भी विश्राम है और अहंकार का विश्राम भी मेहनत है। उसको विश्राम करना हो तो कहेगा स्विट्ज़रलैंड जाना है। लोग देखे नहीं है आपने जो विश्राम करने के लिए दूर जगहों पर जाते हैं?

(बोधस्थल के वासियों को इंगित करते हुए ) मैं तो पूछता हूँ इन लोगों से कि घर जाते क्यों हो रात को, बारह-चौदह घंटे तो यहीं रहते हो। और यह बात कई सालों से मुझे बहुत मूर्खता की लगती है कि लोग घर जाते क्यों हैं। उत्तर था, ‘सोने के लिए’। एक बार सो गए तो तुम्हें बिलकुल पता नहीं कि तुम कहाँ सो रहे हो, तो यहीं पड़ जाओ। पर नहीं, विश्राम करने के लिए भी श्रम करना है घर जाना है। ऐसे ही लोग ग्लोबल वार्मिंग कर रहे हैं। गाड़ियाँ ले-ले के आते हैं, फिर विश्राम करने के लिए श्रम करते हैं। ये अहंकार के काम हैं, ‘आइ नीड टु अनवाइंड, आइ नीड टु रिलैक्स, हैव बीन वर्किंग मोर एंड मोर’।कुछ तो इतने पहुँचे हुए हो जाते हैं कि उनको रात को नींद नहीं आती जब तक दो-चार किलोमीटर उन्हें दौड़ना न पड़े। विश्रांत नहीं हुआ जा रहा तो और मेहनत करो।

और अगर कोई मिल जाये बेचारा जो वास्तव में विश्रांति में है तो उसको इतने ताने मारो कि उसका जीना मुश्किल कर दो — ‘मुफ्तखोर है, आलसी है’, बिल्कुल उसको कहीं का न छोड़ो। कोई मिल जाए जो थोडा कम कमाता हो, अपने हिसाब से चल रहा हो तो उसको छेद डालो बिल्कुल,’यही तुम्हारी सेल्फवर्थ है? सेल्फवर्थ इज़ ईक्वल टु नेटवर्थ’। तुम क्या हो, उसके लिए दिखाओ बैंक स्टेटमेंट और बैंक स्टेटमेंट में कुछ ज़्यादा निकल ही नहीं रहा। ‘धत्! हमारा दिमाग ख़राब हुआ था कि बेटी की शादी तुमसे करी, हमारी बुद्धि फिर गयी थी’। और लड़की भी नाच रही है सर पर, ‘अबे, क्या बे भिखारी!’

श्रोता: विश्राम और आलस में क्या अंतर है?

वक्ता: आलस में आप बाहर से इनएक्टिव हो भीतर-भीतर बहुत चलता रहता है। अलसी आदमी बैठा भी है तो उसका शरीर नहीं हिल रहा पर मन लगातार हिल रहा है। वो बुक आर्डर करेगा, ‘हाउ टु गेट रिड ऑफ़ लेज़िनेस’। विश्राम का अर्थ है मन शांत है भले ही शरीर चल रहा हो।

देखिये, बिना विश्राम के क्रिएटिविटी(सृजनात्मकता) नहीं हो सकती। एक आदमी जो दिन भर दौड़भाग में लगा हुआ है वो क्रिएटिव नहीं हो सकता। क्रिएटिविटी के लिए तो गहरी शांति, गहरी स्थिरता, के पल चाहिए। जब आप कुछ नहीं कर रहे हों, कुछ नहीं कर रहे हों। विश्राम वैसा ही है जैसा समझ लीजिये कि मिट्टी में दबा हुआ बीज, जिसमें दिखता यही है कि कुछ हो नहीं रहा है और फिर अचानक उसमें से कुछ फूटता है। चार-छः घंटे ऐसा लग सकता है कुछ नहीं कर रहे, बस पड़े ही तो हुए हैं। फिर अचानक कुछ हो जायेगा, फटेगी फिर ऊर्जा। आप क्रिएटिव नहीं हो सकते जब तक मन शांत न हो; एक बिल्कुल ध्यानस्थ मन से ही क्रिएटिविटी निकलती है।

श्रोता: हमारे सम्बन्धी वगैरह चाहते हैं कि हम खूब कमायें। ऐसा न होने पर वो हमसे दूर होने लगते हैं।

वक्ता: ये फ़ायदा हमेशा मिलेगा। आप जब भी अपने करीब आओगे आप पाओगे कि वो सब आपसे दूर हो गया जो आपको आपसे दूर खींचता था। इस बात को समझिएगा। और यही आपका पुरस्कार है: आप अपने करीब आने लगो और इस प्रक्रिया में कुछ लोग आपसे दूर होने लगें तो बिल्कुल समझ लीजियेगा कि इन्हें दूर ही होना चाहिए मुझसे। आप जब भी अपने जैसा हों और उसमें कोई बाधा डाले, तो पहली बात उस व्यक्ति को आपके जीवन में होना ही नहीं चाहिए। और फिर जो लोग आपसे दूर हो रहे हों फिर उन्हें होने दीजिये। क्योंकि उनका होना आपके जीवन में आपके लिए ही ज़हर है। आप विश्राम में आओगे तो जो भी लोग चाहते हैं कि आप लगातार कोल्हू के बैल बनो, वो आपसे दूर हो जायेंगे। होने दीजिये, अच्छा है। आपके मन में महत्वाकांक्षा नहीं रहेगी जो भी लोग आपको संसाधन की तरह उपयोग करना चाहते थे कि ये खूब कमाएगा और ये करेगा और वो करेगा, वो आपसे दूर होने लगेंगे कि हमारे तो किसी काम का ही नहीं रहा, ये तो इतना कमाता ही नहीं है। अच्छा है न कि दूर हो रहे हैं, वो आपके करीब भी रहते तो क्या करते? आपका शोषण ही करते। आपका शोषण बच गया। और यही पहचान है — जो आपके साथ सत्य के रास्ते चलने को प्रस्तुत हो वही मित्र है, वही प्रेम के काबिल है।

-अद्वैत बोधस्थल पर आयोजित बोधसत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

सत्र देखें: https://www.youtube.com/watch?v=JDXe_RHCcIA

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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