समाज में छवि बनाने की चाह क्यों रहती है? || (2018)

Acharya Prashant

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समाज में छवि बनाने की चाह क्यों रहती है? || (2018)

प्रश्नकर्ता: समाज में छवि बनाने की चाह क्यों रहती है?

आचार्य प्रशांत: छवि भी यूँ ही नहीं पकड़ लेते, उसके पीछे भी बड़े भौतिक कारण हैं। जानवरों में तुम नहीं पाओगे कि इतनी ज़्यादा इमेज कॉन्सशियसनेस (छवि सतर्कता) है। छवि को लेकर वो इतने सजग नहीं होते। तुम ये नहीं कर पाओगे कि तुम किसी बिल्ली तो बहुत ज़ोर से डाँट दो, तो वो अपमान के मारे आत्महत्या कर ले। या किसी कुत्ते को तुमने ‘कुत्ता’ बोल दिया, या बोल दिया, “आदमी कहीं का”, तो वो डिप्रेशन (अवसाद) में चला जाए।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ऐसा तो होगा नहीं।

आदमी क्यों अपनी छवि के प्रति सतर्क रहता है, जानते हो? क्योंकि छवि का भी सीधा-सीधा सम्बन्ध तुम्हारी भौतिक सुख-सुविधाओं से है। कुत्ता बुरा नहीं मानेगा अगर तुम उसे गाली दे दो। पर कुत्ता बुरा मानेगा न अगर तुम उसकी रोटी छीन लो? तुम्हारी भी छवि से तुम्हारी रोटी बंधी हुई है, इसलिए डरते हो। तुमने अपनी रोटी क्यों दूसरों के हाथ में दे रखी है?

दफ़्तर में अगर तुम्हारी छवि ख़राब हो गई, तो प्रमोशन (पदोन्नति) नहीं होगा, ‘*प्रमोशन*’ माने तनख्वाह, ‘तनख्वाह’ माने रोटी। ले-देकर छवि का सीधा सम्बन्ध किससे है?

प्र: रोटी से।

आचार्य: जिस दिन तुम देखना कि छवि का कोई सम्बन्ध तुम्हारी रोटी से नहीं है, उस दिन तुम कहोगे, “छवि गई भाड़ में।”

जब तुम ऐसी जगह पहुँच जाते हो, जहाँ पर तुम्हारी छवि बने या बिगड़े, तुम्हारी सुख-सुविधाओं, सहूलियतों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, उस दिन तुम छवि की परवाह करना छोड़ देते हो।

ठीक? है न? तो तुम छवि के पिपासु नहीं हो, हो तुम प्यासे उसी के जिसका प्यासा चोर है। चोर, चोरी करने किसकी खातिर गया है? रोटी की ख़ातिर। तुम भी छवि क्यों बनाए रखना चाहते हो? रोटी की ही ख़ातिर।

जिस पड़ोसी की बहुत अच्छी छवि होती है, उसपर तुम भरोसा करोगे, उसको तमाम तरह की ज़िम्मेदारियाँ दे दोगे, उसे अपने घर आमंत्रण दोगे। लड़की की बहुत अच्छी छवि है, बड़े घर में शादी होगी। ‘बड़े घर’ का मतलब? बड़ी रोटी।

तो छवि भी ऐसी कोई सूक्ष्म चीज़ नहीं है। छवि भी ऐसी कोई मानसिक चीज़ नहीं है। छवि भी बड़ी भौतिक बात है। छवि का भी सीधा-सीधा मतलब माल-मसाले से है।

आज तक तुम इस बॉस को रिपोर्टिंग करती थीं, कल तुम्हारी रिपोर्टिंग उस बॉस को हो गई। अब भी उतनी ही परवाह करती हो कि अपने पिछले बॉस के सामने तुम्हारी छवि कैसी है?

प्र: नहीं।

आचार्य: यानी कि तुम्हें ‘छवि’ की तो परवाह नहीं है। छवि की परवाह होती, तो पिछले बॉस के सामने तुम अपनी छवि की उतनी ही परवाह करतीं जितनी कि पहले करती थीं जब उसको रिपोर्टिंग करती थीं। अब नए बॉस के सामने छवि बनाना चाहोगी। ठीक? पुराने के सामने अब छवि खराब होती हो तो हो। बल्कि अगर नए बॉस के सामने छवि बनाने के लिए, तुम्हें पुराने बॉस के सामने अपनी छवि खराब करनी पड़ी, तो तुम कहोगी, “ठीक है!”

छवि के लिए उतने परेशान नहीं हो तुम, अपनी उज्ज्वल छवि बनाने के लिए इतने आतुर नहीं हो तुम। रोटी के लिए आतुर हो, रोटी के।

प्र: आचार्य जी, रोटी तो सबको मिल ही जाती है। ऐसा नहीं है।

आचार्य: तो ये बात याद रखो न।

दिक़्क़त ये है कि हम रोटी, इसके (पेट के) लिए नहीं खाते न, हम इसके (मस्तिष्क के) लिए खाते हैं। ये तुम्हें याद ही नहीं रहता कि रोटी तो सबको मिल ही जाती है। और ये तुम्हें क्यों नहीं याद रहता, वो भी बता देता हूँ। तुम्हारी ग़लती नहीं है।

(शरीर की ओर इंगित करते हुए) इसको याद है कि बहुत-बहुत बार तुम मरे हो भूख से। वो पूरी चीज़ तुम्हारे जींस (वंशाणु) को याद है। तुम्हारी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से तरक़्क़ी कर गयी। तुम्हारे विज्ञान, तुम्हारी तकनीक ने, प्रौद्योगिकी ने, बहुत तेज़ी से तरक्की कर ली, ये शरीर उतनी तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा है। तुम ग़ौर से देखो, अभी में और पिछले पाँच हज़ार सालों में दुनिया कितनी बदल गयी है। बदल गयी न? पर आदमी का जिस्म बदला है क्या?

तुम पाँच हज़ार पहले के आदमी को लाकर यहाँ खड़ा कर दो, और उसे आज के परिधान पहना दो, वो बिलकुल कैसा लगेगा?

प्र: आज के आदमी जैसा।

आचार्य: आज के आदमी जैसा। लेकिन पाँच हज़ार सालों में दुनिया कितनी बदल गयी है? बहुत बदल गयी है। लेकिन तुम्हारे शरीर को स्मृति अभी भी पाँच हज़ार साल पहले की ही नहीं, पाँच लाख साल, पचास लाख साल पहले की है। तो इसीलिए तुम्हारा शरीर, जहाँ शक्कर पाता है, खाना चाहता है। तभी तो तुम्हें शक्कर इतनी अच्छी लगती है न, क्योंकि रोटी के लिए मर रहा है।

इसको अभी भी बस एक ही चिंता है – “कहीं मर ना जाऊँ भूख से।” तो इसीलिए रोटी के लिए मरा रहता है। इसीलिए जैसे ही तुमको तेल-मसाला मिलता है, चर्बी मिलती है, शक्कर मिलती है, तुम खा लेते हो, क्योंकि ये चीज़ें तुम्हें ज़िंदा रहने में मदद करेंगी।

जब सूखा पड़ेगा, जब बारिश नहीं होगी, जब जंगल सूख जाएगा, तब अगर तुम्हारे शरीर में चर्बी है, तो तुम बचे रह जाओगे। तो इसीलिए तुम्हें बहुत सारी रोटी चाहिए, उस रोटी के लिए वो ज़रूरी है। तो इसीलिए छवि को लेकर तुम इतने परेशान रहते हो। ये शरीर समझता नहीं इस बात को, कि रोटी सबको मिल जाएगी। आज का ज़माना ऐसा नहीं है कि कोई बिना रोटी के मरे।

और एक बात समझना। ज़माना पहले भी ऐसा नहीं था कि कोई बिना रोटी के मरे।

बस ऐसा है कि, जो अपने होने को लेकर बहुत शंकित हो, वो निन्यानवे अच्छी घटनाओं को भुला देता है, और एक बुरी घटना को याद रखता है।

ठीक? जिसका काम ही यही हो कि बस एक उद्देश्य की पूर्ति करे, क्या उद्देश्य? – “मैं बचा रहूँ”, वो उन सब घटनाओं को नज़रअंदाज़ करता रहेगा, जो घटनाएँ ठीक थीं, जहाँ कोई ख़तरा नहीं था। पर अगर एक घटना ऐसी घट गई, जो गड़बड़ थी, तो वो उस घटना को सदा के लिए स्मृति में अंकित कर लेगा।

तो निन्यानवे बार तुम्हें शारीरिक रूप से तुम्हें कोई दिक़्क़त नहीं हुई है। जंगल में इतने जानवर हैं, वो भूखे मरते हैं क्या? तो आदमी भी जब जंगल में था तो भूखा नहीं मर रहा था, बड़े मज़े में था। जंगल का जानवर देखा है कितने मज़े में रहता है? गैंडा भूखा मरता देखा है कभी? चाहे शेर हो, खरगोश हो, हिरण हो, उनको भूखा मरता देखा है कभी? सब मज़े में!

लेकिन कभी-कभार ऐसा हुआ, सौ में एक बार, सौ जन्मों में एक बार ऐसा हुआ कि नहीं हुई बारिश, या जंगल में आग लग गई, या कोई और बात हो गई, तो भूखे मरने की नौबत आ गई। मन ने वो बात याद रख ली है, क्योंकि मन का तो उद्देश्य ही यही है – ख़तरनाक बातों को याद रखना।

भई, अच्छी बातों को याद रखकर क्या करेंगे? अच्छी बात तो है ही अच्छी, उसको याद रखने की कोई ज़रूरत नहीं। जो कुछ बुरा हुआ है, वो याद रख लो, क्योंकि सावधान किससे रहना है? बुरे से। तो जो बुरा है, वो सब याद रख लो। अच्छा सब भुला दो। बुरा-बुरा याद रख लो।

तो ले-देकर हुआ ये है कि इस शरीर ने, इस मस्तिष्क ने, सब कुछ क्या याद रख लिया है? बुरा-बुरा। और बुरा-बुरा ये याद है – “तुम मरने वाले हो। तुम मरने वाले हो। रोटी नहीं मिलेगी।” तो रोटी के लिए अगर छवि चमकानी है, तो चमकाओ।

और ये कितनी मूर्खतापूर्ण बात है न?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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