प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। आप कहते हैं कि प्यार, रोमांस नहीं है। बुद्धि के स्तर पर ये बात समझ में आती है लेकिन अपने दैनिक जीवन में जब मैं काफ़ी सफल जोड़ों को देखती हूँ तो उनमें से अधिकतर को आध्यात्मिक रूप से जीते नहीं देखती।
वे बहुत ही संसारिक, भौतिक जीवन जीते हैं। बाहर रेस्ट्रान्ट (भोजनालय) जाते हैं, मांस खाते हैं, ख़रीदारी करते हैं, पार्टी करते हैं लेकिन एक-दूसरे के साथ बहुत ख़ुश दिखायी देते हैं। जब मैं ऐसे ख़ुश जोड़ों को वास्तविक जीवन में देखती हूँ तो मुझे जो सच्चाई समझ में आयी है उसी पर शक होने लगता है।
ऐसी कई वेबसाइट्स हैं, कई डेटिंग प्लैट्फॉर्म्स हैं जो सफल प्रेम कहानियों का दावा करते हैं। मैं आपसे समझना चाहती हूँ कि वास्तव में प्रेम क्या है? और क्या प्रेम सच में रोमांस नहीं है?
आचार्य प्रशांत: रोमांस माने क्या होता है? रोमांस क्या है? हमें उसकी परिभाषा नहीं पता तो हम उस तक उसकी जो उड़ती-उड़ती फ़िल्मी छवियाँ आ जाती हैं हम उसी को रोमांस समझ लेते हैं न। हम तक जो मनोहर कहानियाँ आ गयीं, फ़िल्मी छवियाँ आ गयीं हम उनको सोच लेते हैं कि यही तो रोमांस है।
और रोमांस का मतलब होता है कि हमारी दृष्टि में कि आपको जो व्यक्ति मिल गया है वो एकदम कोई फ़रिश्ता है या परी है और उसमें आपको स्वर्ग, जन्नत सब दिखायी दे रहे हैं। और बड़े ज़बरदस्त सुख की वर्षा हुई है, यही है न रोमांस।
और जो कुछ ज़िन्दगी में आज तक नहीं मिल पाया था; किसी क़ाबिल नहीं बन पाये, पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाये, नौकरी साधारण सी है वो भी धक्के खाकर मिली है, जानकारी, ज्ञान वगैरह कुछ है नहीं, किसी स्पोर्ट्स में आगे नहीं हैं, कोई कला नहीं आती, दुनियाभर में इतना बढ़िया उत्कृष्ट साहित्य है कुछ-कभी पढ़ा नहीं;पूरा व्यक्तित्व ही सौ खोट लिए हुए है। शक्की भी हैं, दब्बू भी हैं, कमज़ोर भी हैं और कभी उग्र हैं, कभी हिंसक हैं— यही है न आम आदमी का जीवन और व्यक्तित्व।
कुछ कर लेते हैं बेहोशी में फिर पछताते हैं और फिर जिस बात पर पछताते हैं उसी को दोहराते हैं, यह है न। तो इस तरह कि सौ कमियों, खामियों वाली हमारी ज़िंदगी होती है। लेकिन ये जितनी खामियाँ हैं और उनसे जितने दुख हैं वो सब मिट जाते हैं जब एक ख़ास व्यक्ति सामने खड़ा हो जाता है और उसके सामने खड़े होने की भी आवश्यकता नहीं है उसकी कल्पना ही पर्याप्त होती है, यही है न रोमांस।
हवाओं में गीत गूंजने लगते हैं, वायलिन बजने लगते हैं, मिठाईयाँ तैरने लगती हैं, चाँदी के वर्क के साथ— यही है न सब रोमांस। एक हवा-हवाई फ्लफी (फूला हुआ) कल्पना। एक ऐसी कल्पना जो आपके लिए थोड़ी देर आपके सब दुखों का अंत कर देती है। जितनी कमियाँ करीं, जितनी ग़लतियाँ करीं उन सबसे कहीं बेहतर कुछ मिल गया ज़िंदगी के सब दोषों की भरपाई हो गयी;यही न रोमांस है। ये रोमांसवाद आप जानते हैं क्या है?
ये एक पूरा अपनेआप में दर्शन है और ये दर्शन शुरू हुआ था उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में। अठारहवीं शताब्दी के अंत में शुरू हुआ था, उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक इसका स्वर्ण युग रहा सन् 1850 के आस-पास तक। आपको पता है ये शुरू ही क्यों हुआ था?
ऐसे शुरू हुआ था कि जो मध्ययुगीन अंधविश्वास था और धार्मिक सत्ता थी पूरी उसको रेनेसा (पुनर्जागरण) ने एकदम उलट कर रख दिया। रेनेसा ने क्या कहा, “रीज़न (तर्क)।“ और रेनेसा से पहले तक क्या चल रहा था— विश्वास, कल्पना, हवा-हवाई बातें; आकाशपुष्प! आसमान में फूल खिले हैं!
समझ में आ रही बात?
तो ये सब चला करता था और वो सब जब चला करता था तो कमी थी, ग़रीबी थी, दुख था कोई विज्ञान भी नहीं था। क्योंकि विज्ञान कल्पना पर तो चलता नहीं वो तो तथ्यों पर चलता है। और जब एक पूरी जनसंख्या का ही आदर्श, मीठी-मीठी, भीगी-भीगी कल्पानाएँ बन गयीं हो तो वहाँ विज्ञान क्या तरक्की करेगा और क्या वहाँ दर्शन आएगा।
तो उन सब चीज़ों को रेनेसा ने और उस समय के जो विचारक थे उन्होंने पलट के रख दिया— वोल्टेयर, लॉक, रूसो उन्होंने कहा, ‘नहीं, ये हवा वाली बातें नहीं चलेंगी जो बात असली है उसको सामने रखो, हमें रीज़न पर जीना है, रीज़न पर, तथ्य पर जीना है।‘
तो जब उन्होंने तथ्य पर जीना शुरू किया तो उससे यूरोप को अचानक बहुत फ़ायदा हो गया; सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक हर क्षेत्र में। यूरोप ने बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीतनी शुरू कर दीं, कॉलनीज़ स्थापित करनी शुरू कर दी, इन्डस्ट्रीअल रेवोल्यूशन (औद्योगिक क्रांति) आ गया आर्थिक क्षेत्र में और आप क्या चाहते हैं! इन्डस्ट्रीअल रेवोल्यूशन आ गया।
सामाजिक क्षेत्र में क्या आ गया—फ्रांसीसी क्राँति हुई, “लिबर्टी, इक्वालिटी, फ्रैटर्निटी”(स्वतंत्रता, समानता, बधुंत्व) ये सब आ गये। धार्मिक क्षेत्र में क्या हुआ कि आम जनमानस को जो चर्च की पकड़ थी उससे मुक्ति मिली। कि ज़िंदगी के प्रतिदिन के छोटे-छोटे कामों में चर्च घुसा हुआ था, चर्च की सत्ता छाई हुई थी, आम जनमानस को उससे थोड़ी राहत मिली। कि नहीं भाई हर काम चर्च से पूछकर नहीं करना है हमारे पास भी बुद्धि है, हमारी अपनी ज़िंदगी है देख लेंगे।
तो यूरोप को हर तरीक़े से फ़ायदा हुआ "द एज ऑफ रीज़न "(तर्कयुक्त कॉल), "द एज ऑफ एनलाइटेनमेंट"(प्रबोधन का काल)। वो “एज ऑफ एन्लाइटन्मन्ट” बोला जाता है।
लेकिन बहुत बड़ी जनसंख्या अभी भी ऐसी थी जिसको वो पुराने दिन याद आते थे जब आप कुछ भी कल्पना कर सकते थे। कुछ भी कल्पना कर सकते थे। सरोवर में जलेबियाँ तली जा रही हैं, काहे को? कल रात को सपने में फ़रिश्ते आये थे, उन्होंने बोला था कि तुमको बड़ी-बड़ी जलेबियाँ मिलेंगी। कहाँ चली जाएँगी वो?सरोवर में तली जाएँगी और उसमें पानी नहीं तेल है, तेल भी नहीं है;घी है।
और उन कल्पनाओं में बड़ा आनंद रहता था लोगों को, कुछ लोगों को। सामंतवाद ऐसे ही थोड़ी पनपता था। सामंतवाद का मतलब ये होता है कि जितने भी सब ग़रीब और पिछड़े लोग हों, परित्यक्त लोग हों उनको कल्पनाएँ दे दो ताकि वो उसी में ख़ुश रहे। सारी पूंजी और सत्ता तो कुछ हाथों में पहुँच जाती है न फ्यूडलिज़म में। तो बाक़ियों को क्या देना है— बाक़ियों को फिर दिया जाता है—हाँ! गुब्बारा, खिलौना, दुमछल्ला लो बेटा! तुम इससे खेलो।
तो वो ख़ुश होते रहते हैं। वे कहते हैं मेरे पास कुछ नहीं है;पर मेरे पास धर्म है, मेरे पास कुछ नहीं है, पर मेरे पास ये है, वो है; मेरे पास स्वर्ग का आश्वासन है। मैं मरूँगा तो बताया है मुझे, चर्च में फ़ादर ने कि सीधे स्वर्ग पहुँचने वाले हो तुम्हारी सीट जो है वो बुक हो चुकी है। तो जो फिर आम आदमी है जिसका शोषण हो रहा है जिसको कुछ नहीं मिला ज़िंदगी में वो इसी बहाने जी लेता है। अपने भूखा पेट जी लेता है कि स्वर्ग मिलने वाला है, 'हेवन'।
तो वो जो लोग थे, जिनके स्वार्थ थे या तो कल्पना में या फिर सत्ता में उनको बड़ा बुरा लगा जब ये “एज ऑफ रीज़न” आ गया। जब ये बुद्धि का और तर्क का युग आ गया, उन्हें बड़ा बुरा लगा तो उन्होंने ही फिर पलटकर के ये रोमैन्टसिज़म शुरू किया रोमांसवाद।
ये जो रोमांसवाद था ये इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन पर एक प्रतिक्रिया की तरह आया था। ये आया था इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन के ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रिया की तरह। बोल रहे हैं, “क्यों हर काम इतने सधे तरीक़े से हो;हमें नहीं पसंद है।“ अरे! ज़िंदगी टेढ़ी-मेढ़ी है न तो उसको टेढ़ा-मेढ़ा रहने दो, क्यों तुम्हें तर्क पर चलना है। अरे! भावनाओं की भी कोई क़ीमत होती है न। हम भावनाओं पर चलना चाहते हैं, क्यों तुम्हें तथ्य पर चलना है। अरे! कल्पनाओं की भी कोई क़ीमत होती है न, हम भावनाओं और कल्पनाओं पर जीना चाहते हैं।
तो ये वहाँ से आया और ये भी अपनेआप में एक बड़ा भारी मूवमेंट (आंदोलन) था और इसने यूरोप के जीवन को कई आयामों में एकदम प्रभावित करा और फिर धीरे-धीरे, जैसे-जैसे फिर इंडस्ट्री (उद्योग) बढ़ती गयी, ज्ञान बढ़ता गया, टेक्नालॉजी (तकनीक) बढ़ती गयी ये रोमांसवाद अपनेआप हट भी गया। वहाँ से हट गया यहाँ से नहीं हट रहा। (दोहराते हैं) वहाँ से हट गया यहाँ से नहीं हट रहा।
रोमांसवाद मतलब भावना सर्वोच्च है और मीठे-मीठे अनुभव लेना ही जीवन का लक्ष्य है। वो मीठे-मीठे अनुभव अगर झूठ से मिलते हों तो झूठ से लो। कहानियों से मिलते हों, कल्पनाओं से मिलते हों, तो उनसे भी लो। तो जो रोमांटिक पोएट्स (कवि) हैं, उनकी कविताएँ पढ़ेंगे तो उसमें भावना, भावना, भावना का ही पूरा प्रवाह और ज़बरदस्त वो कल्पना खींचते हैं।
‘मैं खड़ा हुआ हूँ एक ऐसे पहाड़ की चोटी पर जिसके एक तरफ़ शहद के झरने बह रहे हैं और दूसरी तरफ़ दूध का समुद्र है लेकिन मुझे इन दोनों में से कुछ भी नहीं सुहा रहा क्योंकि मेरे लिए तो शहद और दूध दोनों तुम ही हो मेरी प्रेयसी, तुम कहाँ हो।‘ ये कविता है! नहीं, जो साहित्य के विद्यार्थी हैं उन्हें बहुत बुरा लगेगा कि मैं, क्योंकि उस समय के बड़े नामी-गिरामी सब पोएट्स हैं उनको मैं उनकी पूरी उस पोइट्री को इस स्तर पर गिरा रहा हूँ, मुझे मालूम उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा बिलकुल, लेकिन जो भाव है कुल वो मैं सामने ला रहा हूँ। भाव पूरा यही है।
हमें इंडस्ट्री अच्छी नहीं लगती; हमें विज्ञान अच्छा नहीं लगता; हमें ज्ञान अच्छा नहीं लगता, हमें क्या अच्छा लगता है—आँख बंद कर लो और कल्पना करो। तो उस समय इस पूरी बात का तात्कालिक प्रभाव तो हो गया, ठीक है।
एक कन्टेम्परेरी डिक्लाइन (समानांतर गिरावट) हो गया उस समय। लेकिन वो चीज़ (कल्पनाओं में जीने की आदत) पूरी तरह गयी नहीं क्योंकि वो चीज़ किसी काल की नहीं है वो चीज़ आदमी के मन की है, वो इंसान में आज भी ज़िंदा है।
भारत में तो बहुत ही है, पश्चिम में भी है अभी और वो सब ज़्यादातर एक हारे हुए आदमी और एक कमज़ोर आदमी के मन में ही ज़्यादा उठता है। जो ज़िंदगी के तथ्यों का सामना नहीं कर सकते वो फिर झूठ में जीना शुरू कर देते हैं, कल्पनाओं में जीना शुरू कर देते हैं। जिन्हें सच्चाई का आनंद नहीं मिलता वो फिर किसी व्यक्ति का आनंद लेना शुरू कर देते हैं। जिनके पास जीवन में कुछ भी नहीं होता क्योंकि उन्होंने कभी कुछ साहस के साथ अर्जित ही नहीं किया। वो किसी व्यक्ति को कहना शुरू कर देते हैं, तुम मेरे सब कुछ हो और उनकी बात ठीक भी है क्योंकि उस व्यक्ति के पास वाक़ई अपना तो कुछ है नहीं।
और ये बात व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है। ये नदियों, पहाड़ों, झरनों, पुराने किलों, पुरानी स्मृतियों इन पर भी लागू होती है। रोमांसवाद आप उन पर भी लगा सकते हो बिलकुल।
समझ में आ रही है बात?
अब आप पूछ रही हैं कि प्रेम और रोमांस में अंतर क्या है? मुझे ये बताइए कि दोनों में समानता क्या है? अंतर की बात तो तब आती है जब कम-से-कम कुछ हद तक समानता हो। समानता एक ही दिख रही है कि लोग रोमांस को प्रेम बोल देते हैं, यही है बस समानता।
चूँकि प्रेम से कोई परिचय नहीं है तो यही जो अनुभववाद है कि मुझे मीठे-मीठे इक्स्पिरीअन्सिज़ (अनुभववाद) हो जाएँ इसको हम बोल देते हैं कि यही प्रेम है। अब अनुभव शब्द पर आ ही गये हैं तो थोड़ा उसका भी विश्लेषण कर लेते हैं।
जब आप बोलते हो कि आपको किसी से बड़ा अच्छा अनुभव मिल रहा है क्योंकि ये जो प्रश्न है ये अगर मैं सही समझ रहा हूँ तो स्त्री-पुरुष संबंध के आयाम में किया गया है न?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: ठीक। तो आप कहते हो कि आपको किसी से बड़ा अच्छा अनुभव मिल रहा है, किसी व्यक्ति से, विपरीत लिंगी होता है आमतौर पर और उससे आप कहते हो कि इसके साथ तो मुझे बड़ा बढ़िया लगता है आई फ़ील ग्रेट , फ़ील ग्रेट , तो आपको जो चीज़ बढ़िया लग रही होती है क्या आपके मन में पहले से ही उसकी छवि नहीं होती है?
ये जो पूरा रोमांस है न ये इसी पर चलता है; फ़ीलिंग पर, इमोशन पर (अनुभव, भावना)। मैं पूछ रहा हूँ वो जो फ़ीलिंग है वो आपमें उस व्यक्ति से आयी है या वो फ़ीलिंग आपमें पचास और जगहों से पहले आकर बैठी हुई थी? बस एक इंसान मिल गया, आपने उसके ऊपर वो सारी फ़ीलिंग्स डाल दीं। कहिए तो।
वरना कैसे हर लड़के को पता है कि लड़की के सामने किस तरह से सज-धज के जाना है और उससे कौन-कौन सी बातें बोलनी है और कौन-कौन से शब्द बोलने हैं कैसे पता है। उसे पहले से ही पता है और लड़की को भी पता होता है कि अगर मुझसे इस तरह की बातें बोल रहा है और ऐसे कर रहा है इसका मतलब ये मुझमें रुचि इंट्रेस्ट रखता है। ये कैसे दोनों को पहले से पता है।
अगर रोमांस कोई एकदम ताज़ा खिला हुआ फूल होता तो वो तो फिर अन्प्रिडिक्टबल (अपूर्वानुमेय) होता न, उसका कोई फिर पूर्वानुमान तो नहीं लगाया जा सकता था, है न।
लेकिन आपको पहले ही पता है उदाहरण के लिए, आप मिलने जाते हो किसी से डेट वगैरह पर। आप भी जानते हो कि आप कौन से कपड़े पहन के जाओगे तो सामने वाले को बिलकुल मज़ा आ जाने वाला है! माने ये बात पहले से ही तय है न। आपके दिमाग में पहले ही यह बात डली हुई है कि रोमांस वगैरह का ये मतलब होता है;ऐसे-ऐसे करो तो रोमांस कहलाता है। तो ये बात तो बिलकुल मैकेनिकल हो गयी। आप पहले ही जानते थे ऐसी-ऐसी बातें करी जाती हैं रोमांस में।
मैं अभी यहाँ पर आपको दस चित्र दिखाऊँ जिसमें एक स्त्री और एक पुरुष हो। मैं आपसे पूछूँ, ‘इसमें से रोमैन्टिक जोड़े कौन से हैं? आप क्या तत्काल बता नहीं दोगे? बता दोगे न। आप कैसे बता दोगे? वो तो चित्र हैं, कैसे बता दोगे? क्योंकि आपके मन में पहले ही छवि बैठी हुई है कि इस चीज़ को रोमांस कहते हैं। तो आप उन छवियों को देखते ही बता दोगे कि ये, ये, ये दीज़ आर द रोमैन्टिक रिलेशनशिप (ये सभी रोमांटिक रिश्तें हैं।) ऐसे बता दोगे। मज़ेदार बात ये कि ये बात उन लोगों को भी पता है और इसी तरह उनका रोमांस चल रहा है। सबको पता है कि क्या करना है और ये बात बिलकुल यांत्रिक है न, मैकेनिकल है न।
और अब देखिए कि ये जो रोमांसवादी थे इन्हें मशीनों से बड़ी प्रॉब्लम थी। इन्हें जो पूरी इंडस्ट्री खड़ी हुई थी यकायक यूरोप में पचास साल के भीतर-भीतर, ये कहते थे, “ये क्या हो रहा है? ये क्या हो रहा है?”
रोमांस अपनेआप में एकदम मैकेनिकल बात है, एकदम मैकेनिकल।
लड़की भलीभाँति जानती है उसे आँखों में किस तरह काजल लगाना है, बाल कैसे बाँधने हैं, कपड़े क्या पहनने हैं तो वो जो लड़का है उसको रोमैन्टिक सुख मिल जाएगा, कौनसी बात बोल देनी है। मज़ेदार बात ये है कि वो इस लड़के को जो बात बोल रही है वही बात, बिलकुल वही बात, बिलकुल वही शब्द उसने अपने पिछले तीन लड़कों को भी बोले थे; लेकिन पेट अभी भी नहीं भरा। और वो लड़का भी जानता है कि यह बात जो मुझे बोल रही है बिलकुल यही शब्द बिलकुल यही वाक्य ये पाँच और को पहले बोल चुकी है। ये जानते हुए भी उसको बड़ा सुख मिल जाता है, वो कहता है, ‘आहहा! मुझे तो बोला है।‘
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: ये रोमांस है! रोमैन्टिक मूवीज़ आती है न, उन रोमैन्टिक मूवीज़ में क्या जो स्क्रिप्ट राइटर (पटकथा लिखने वाला) है, जो डायरेक्टर (निर्देशक) है उसको पहले से ही नहीं पता है कि ऑडियंस (दर्शक) क्या माँग रही है, बोलिए? वही रोमांस है।
हम सबके सामने हम तीन-चार-पाँच साल के होते होंगे तभी से ये रोमांस की छवि हमारे दिमाग में डाल दी जाती है। छोटे-छोटे बच्चों को भी तो लेकर लोग चले जाते हैं शादियों में अब वहाँ पर आप दूल्हा-दुलहन का खेल देख रहे हैं।और शादी वगैरह में माहौल वैसे ही ज़हरीला होता है। वहाँ आप देख रहे हो कि किस तरीक़े की लफंगई चल रही है। और बच्चा समझ जाता है, अच्छा! इसी को रोमांस बोलते हैं इसी के लिए जिया जाता है इसी के लिए मरा जाता है।
चाचा की लड़की की शादी थी और उस शादी के लिए ही चाचा ने ज़िदगी भर कमाई और बचत करी थी; तो माने इसी के लिए तो जिया जाता है। इसी एक रोमैन्टिक पल के लिए तो जिया जाता है। आप देखिए न शादियों की बात चली है तो किसी भी शादी में जो कुछ हो रहा होता है क्या पहले से नहीं पता होता कि ये होने जा रहा है।
जो विवाह का उत्सव होता है जो सेरेमोनी है उसमें सब पहले से ही पता है न ये सब होने जा रहा है, तो ये बात तो बहुत उबाऊ होनी चाहिए। लेकिन हम फिर भी कूद-कूद के जाते हैं सज-बज के जाते हैं, बात एकदम उबाऊ होनी चाहिए न। अब ये होगा अब ये होगा। वो जो दो वहाँ कुर्सियाँ लगायी जाती हैं उनके बैठने के लिए उन कुर्सियों पर उनसे पहले सत्तर और जोड़े बैठ चुके हैं और जो कपड़े इन दोनों ने पहनी है बिलकुल वही कपड़े पहनकर बैठ चुके हैं— ये बात तो बहुत बोरिंग होनी चाहिए; नहीं होनी चाहिए क्या।
लेकिन यही रोमांस है। मेरे पास एक इमेज (चित्र) है, एक दिन मेरी भी शादी होगी न, मैं वहाँ ऊपर बैठूँगा, यही है रोमांस। पहले से आपके दिमाग में एक इमेज डाल दी गयी है जिसको ग्लोरिफाइ (महिमामंडन) कर दिया गया है। आपको बता दिया गया है यही जीवन का अमृत है, तुम्हें ये मिल गया;तो तुम्हें सब कुछ मिल गया।
तुम्हारी अगर बढ़िया वाली फ़ोटो खिंच गयी, दो-चार-दस लाख के कपड़े और गहने पहने हुए हैं वहाँ ऊपर मंच पर बैठ करके तो तुम तर गयी, बिटिया!
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: अब वो काहे को बोर्ड में मेहनत करेगी, काहे को। वो काहे को सुबह-सुबह उठ करके स्वीमिंग पूल (तरणताल) जाएगी, ठंडे पानी में कूदेगी तकलीफ़ काहे को लेगी वो;वो तो तर गयी! उसको पहले ही बता दिया गया है, दैट, दैट इमेज इज़ योर डेस्टनी (वह छवि ही तुम्हारे जीवन का लक्ष्य है)। तो रोमांस यही है: इमेजेज़ का पीछा, इमेजेज़ का पीछा।
ये बहुत खौफ़नाक बात है। सिर्फ़ हँसते मत रहिए। आपको उस चीज़ से कुछ मिलना नहीं है। लेकिन आपमें ये भावना डाल दी गयी है कि अगर तुम भी अपनेआप को उस इमेज में देख पाओ तो तुम्हें सुख मिल जाएगा;मिलना नहीं है. पर ये भाव डाल दिया गया है कि मिल जाएगा।
तो एक फ़ोटो लगी हुई है उसमें दो लोग हैं समझ लीजिए। बस दोनों के सर या मुँह नहीं हैं और पूरी आबादी वो जो ख़ालीस्थान है जहाँ एक चेहरा नहीं है उसमें अपना चेहरा लगाकर देखती है और कहती है, ‘अगर मैं यहाँ पर हूँ तो मैं सुखी हो गया।‘ ऐसे चलता है न खेल। ऐसे ही चलता है न।
और उसके बाद हम घूमने जाएँगे और उसके बाद हम महँगे होटल में रुकेंगे और उसके बाद हम, ये करेंगे और हम ये करेंगे, ये पहले से कैसे पता तुमने करा तो है नहीं या कर चुकी हो;पाँच-सात बार। हनीमून की बात हो रही थी, तुम्हें कैसे पता इसमें सुख है, बताओ तो। और सबको एक ही तरह की चीज़ में सुख है ये सम्भव कैसे है! थोड़ा विचार करिए, थोड़ी बुद्धि लगाइए। हर लड़के को, हर लड़की को एक ही तरह की चीज़ में पहले से ही कैसे पता है कि सुख मिल जाना है, सुख नहीं मिलता वो भी छोटा मुद्दा है।
मैं उसकी भी बात नहीं कर रहा कि नहीं मिलता है सुख। मैं तो इस मुद्दे की बात कर रहा हूँ कि बेटा तुम्हें आठ, दस, बारह, चौदह साल की उम्र से पता कैसे है कि उस फ़ोटो में, उस फ्रेम में अगर तुम्हारा चेहरा लगा होगा तो तुम्हें बहुत सुख मिल जाएगा। ये तुम्हें किसने बताया? मैं कह रहा हूँ, बहुत बड़े गुनहगार हैं वो जिन्होंने हमें ये बताया। बहुत बड़े गुनहगार। आप पूछते हो न बार-बार सौ तरीक़ो से एक ही सवाल पूछते हो— “आचार्य जी दुख क्यों है?”
दुख इसलिए है क्योंकि आपके पास सुख की झूठी छवियाँ हैं।
आपको जो छवियाँ दे दी गयीं हैं आप वहाँ सुख तलाशने, टटोलने पहुँच जाते हो; वहाँ मिलता दुख है इसलिए आपके पास दुख इतना है। कोई आपसे पूछेगा कि इसमें तुम क्यों मान रहे हो कि सुख है? तो आपके पास कोई उत्तर नहीं होता है। आपके आगे एक छवि है किसी भी चीज़ की; नाच रहे हैं, तो बारिश में झूम रहे हैं वही फ़िल्मी कार्यक्रम सारा। ये सब हैं। ये सब। और आप कह रहे हो काश! मुझे भी ये सब करने को मिले तो कितना सुख रहेगा। कोई आपसे पूछे कि आपको कैसे पता इसमें सुख रहेगा तो आपके पास कोई उत्तर होगा नहीं। आप कहेंगे, ‘ये कॉमनसेंस (साधारण बुद्धि) है न, इसमें तो सुख होता ही है। ये तो कॉमनसेंस है; यह तो होता ही है।
आपको कैसे पता? कैसे पता?
प्रेम है सत्य पर न्योछावर हो जाना और रोमांस है झूठ को ज़िंदगी बना लेना।
अब बताओ इन दोनों में साझा क्या है?
प्रेम का मतलब होता है— जैसे आप बोलते हो फ़िल्मी भाषा में दिल, जान, जिगर, किडनी, गुर्दा सब न्योछावर कर दिया। किस पर? किस पर?
सच्चाई पर;ये प्रेम होता है। जो चीज़ चाहने लायक है उसको चाहा ये प्रेम है। और रोमांस यह है कि ये तो छोड़ो की वो चीज़ चाहने लायक है या चाहने लायक नहीं है। कोई चीज़ है ही नहीं फिर भी ख़ुश हो गये। कैसे ख़ुश हुए—(आँख बंदकर, सिर पीछे तरफ़ कर ख़यालों में होने का अभिनय करते हैं) बहुत मज़ा आ रहा है! कब तक आँख बंद करे रहोगे। ज़िंदगी बेरहम है, आपने आँख बंद कर रखी है वो मौका देखकर मुँह पर लात मारती है। आँख बंद थी कुछ भी किया जा सकता है भाई। यही होता है रोमैन्टिक लोगों के साथ। भला होता कि थप्पड़ पड़ता, थप्पड़ नहीं पड़ता;पटाक।
और बताता हूँ चूँकि वो कल्पनाएँ सब प्रीडीटर्मिन्ड (पूर्वनिश्चित) पहले से ही तय हैं तो इसीलिए चाहे चौदह साल वालों का रोमांस हो कि चौंतीस साल वालों का वो लगभग एक जैसा होता है। वो एक जैसे ही, गुलाब के फूल क्या अलग- अलग होते हैं दोनों के लिए? गुलाब के फूल अलग होते हैं? बातें भी वैसी होती है, ‘मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊँगा,’ यही चौदह साल में बोल रहा था यही चौंतीस साल में बोल रहा है।
तुझे दिख नहीं रहा है! तू एक स्क्रिप्ट पढ़ रहा है जिस स्क्रिप्ट से तुझे आज तक कुछ नहीं मिला है। तू उसे पढ़े ही जा रहा है, तू पढ़ ही जा रहा है। उधर वो लड़की है उसको भी पूरा भीतर से हार्डवायर कर दिया गया है कि जैसे ही यह बात कान में पड़े, “मैं तेरे बिना जी नहीं सकता,” ख़ुश हो जाना। इफ़ (अगर) मैं तेरे बिना जी नहीं सकता जानू देन हैपी (तब ख़ुश)!
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: लड़की भी भली-भाँति जानती है क्या चीज़ उसको बोलनी है— ‘जानू बोलो न, दिल का हाल खोलो न। तुम सबकुछ मुझे बता सकते हो, प्लीज़ बताओ न।‘ उधर दूसरा चल रहा प्रोग्राम इफ, बोलो न, खोलो न देन एक्साइटेड (उत्तेजित)। इधर हैपीनेस (ख़ुशी) है उधर उत्तेजना है और दोनों जब मिलते हैं तो भारत एक सौ चालीस करोड़ का हो जाता है।
श्रोतागण: ठहाका लगाते हैं।
आचार्य प्रशांत: ये रोमांस हैं और रोमांस को इंडस्ट्री अच्छी नहीं लगती इसीलिए भारत का इन्डस्ट्रीअलाइजेशन (औद्योगीकरण) भी नहीं हो पा रहा। कोई ढंग का काम करने के लिए ज़िंदगी में तर्क, विचार, बुद्धि, सच्चाई पर चलना पड़ता है। भावनाओं के बुलबुले उड़ा करके, बच्चों की वो आती है एक छोटी सी डिबिया खिलौना (जिसमें झाग भरकर फूँकने से बुलबुले निकलते हैं) उसको यूँ (हाथ फूँककर दिखाते हैं), तो उसमें बहुत सारे ऐसे बुलबुले उड़ने लगते हैं, ये रोमांस है। देखा है वो—(हाथ फूँककर दिखाते हैं) आहहा! चंद्रलेखा! सुप्रभा! और उन पर अगर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो आपने देखा उन बुलबुलों में कैसे इन्द्रधनुष खिलते हैं। वो इन्द्रधनुषों का खिलना ही तो रोमांस है। बस दिक्क़त ये कि उसको आप छुओगे;टूट जाएगा, उसमें कुछ है नहीं; अनुभव होता है; है नहीं, प्रतीत होता है; है नहीं।
वो लगभग प्रिज़म का काम करते हैं और अब मैं रोमैंन्टिक लोगों से क्या उम्मीद करूँ कि उनको स्कैटरिंग (बिखराव) डिफ्रैक्शन (विवर्तन) डिस्पर्श़न लाइट (प्रकाश का फैलाव) का कुछ याद होगा? काहे को याद होगा यहाँ इंजीनियर भी बैठे हैं पूछो? बताना स्कैटरिंग और डिस्पर्श़न में क्या अंतर होता है? कौन बता पाएगा? कुछ नहीं; पर ये सबको याद है, “बेटा बोलो न, हाँजी खोलो न!“
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: > रोमांस, प्रेम की भ्रूणहत्या कर देता है।
आप प्रेम का कभी चेहरा नहीं देख पाते। वो आपका अन-जिया बच्चा बनकर रह जाता है, प्रेम। रोमांस, प्रेम को पैदा नहीं होने देता। आ रही बात समझ में?
आपने देखा कैसे जब फिल्मों में नायक या नायिका का प्रवेश होता है और भारत में ही नहीं हॉलीवुड में भी यही है। और अगर वो रोमैंन्टिक फिल्म है तो कैसे आपकी सब इन्द्रियों पर एक साथ आघात किया जाता है। पीछे से मधुर संगीत बजने लगता है, उसकी चाल दिखायी जाती है, पहले आगे से फिर पीछे से। देखो, जब ये पीछे से चल रहा है तो क्या एकदम! या चल रही है नागिन की तरह लहरा रही है। फिर आँखें दिखायी जाती हैं, फिर बाल दिखाए जाते हैं।
अब तो फोर- डी, फाइव- डी सिनेमा हॉल्स होने लगे हैं तो उसमें जब प्रवेश होता है नायिका का तो जितने लोग बैठे होते हैं सब पर पानी के छींटे मार उन्हें गीला कर दिया जाता है। वो जो पानी के छींटे हैं और जो आपको गीला किया गया है वह प्रतीकात्मक है। यतिन्द्र जी, समझें! खिलाड़ी अनुभवी चाहिए; नहीं तो नहीं समझ में आती बात।
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: अभी और आगे जब बढ़ेगी टेक्नालाजी तो सिक्स- डी होगी तो ख़ुशबुएँ भी उठेंगी कि वो घुसी नहीं अंदर की ख़ुशबुएँ उठ गयीं। ये आपकी जितनी इंद्रियाँ हैं सबको एक साथ उत्तेजित(ट्रिगर) किया जा रहा है। ताकि वो जो भीतर बैठी हुई कल्पना है वो एकदम उठ खड़ी हो वो अंगड़ाई लेकर बोले, हो गया यही तो था यही चीज थी न, मैच-मैच हो गया यही था पहले बताया गया था होता है, वही जो बताया गया था;वो मिल गया।
उसका ऐल्गोरिथम (प्रमेय) समझ रहे हैं। आप क्या हैं? पहले आपको बता दिया जाता है – इफ दिस, देन हैपी (अगर यह हो तो खुश हो जाना) और फिर वो जो दिस है उसकी तलाश में आप जीवन भर घूमते हो बिना यह जाँचें कि इफ़ दिस देन हैपी में यथार्थ कितना है। क्या सचमुच इससे हैपीनस मिलती भी है? वो जाँचने का आपको मौका नहीं मिलता क्योंकि आपको बुली (धौंसियाना) कर दिया गया है आपको एक ही बात अगर सौ बार बता दी जाए वो भी आधिकारिक सूत्रों द्वारा, अथॉरटीज़ द्वारा तो आपमें हिम्मत नहीं रह जाती उस पर जिज्ञासा, प्रश्न करने की। नहीं रह जाती न।
वही बात आपको चार साल की उम्र से बतायी जा रही है, चालीस साल के हो गये वही बतायी जा रही है आपको ये संभावना कौंधती भी नहीं ज़ेहन में कि ये जो बात बतायी है यह मूलतः झूठ है। इफ दिस देन हैपी— ये झूठ है। नहीं, इसमें कोई हैपीनस नहीं है— यह बात आपको कौंधती भी नहीं है। क्योंकि इतने लोगों ने बता दी, इतने भारी भरकम लोगों ने बता दी कि आप कैसे कहोगे, कैसे आपको यह विचार भी आएगा कि ये सब कुछ झूठ है।
और उस विचार के न आने से बस इतना ही होता है, मैं नहीं कह रहा कि प्रेम की लाश गिर जाती है, मैं कह रहा हूँ वो बेचारा छोटा बच्चा पैदा नहीं होने पाता। लाश भी गिरे तो कम-से-कम इतनी सांत्वना रहती है कि इसके साथ कुछ दिन तो जी लिए कुछ दिन जी लिए अब ये मर गया, लाश हो गया।
लेकिन प्रेम पैदा ही नहीं होने पाता। हममें से ज़्यादातर लोग प्रेम का चेहरा भी नहीं देख पाते अपनी पूरी जिंदगी में। साठ-सत्तर-अस्सी साल के होकर मर जाएँगे। शादी सुदा रहेंगे उसके अलावा दो-चार और इधर-उधर अफेयर्स(प्रेम सम्बन्ध) रहेंगे, सब कर लेंगे, अच्छे से कर लेंगे। ख़ूब सारी रोमैंन्टिक स्मृतियाँ रहेंगी, वीडियोज़ रहेंगे, फोटोज़ रहेंगी सबकुछ रहेगा। उन सब में कहीं भी प्रेम का एक पल भी नहीं रहेगा, कुछ नहीं बस ख़ाली एकदम निर्जन, शमशान, रिक्त, सुना।
बहुत सतर्क होना पड़ता है।आत्मावलोकन का यही अर्थ है— आप जब कोई कहानी सुनें, आप जब कोई चेहरा देखें, आप जब कोई मूवी देखें तो पूछें अपनेआप से कि ये एकदम मुझे साफ़-साफ़ बताओ कि क्या संदेश दिया जा रहा है? मुझे संदेश क्या दिया जा रहा है इसमें?
क्योंकि कोई भी घटना सिर्फ़ घटना नहीं होती वो आपके ऊपर पड़ा एक प्रभाव, एक इम्प्रिन्ट(छाप) होती है।
कोई भी घटना सिर्फ़ घटना नहीं होती वो आपके ऊपर पड़ा एक निशान होती है। पूछिए कि ये जो घटना रची गयी है यह मेरे ऊपर कैसा निशान छापने के लिए रची गयी है? पूछिए तो अपनेआप से।
ये जो वेडिंग्स (शादियाँ) होती है, दिल से बताइएगा— ज़्यादातर कुँवारे वहाँ पहुँचते ही क्या अनुभव करने लगते हैं। क्या अनुभव करने लगते हैं? पहला ही उत्तर एकदम जैकपॉट है। किसी लाइफलाइन की ज़रूरत नहीं, उत्तर यह है कि कुँआरा वहाँ पहुँचा नहीं कि उसको पहला ख़्याल ये आता है कि यही तो मुझे भी मिलना है। मेरा कब होगा, मुझे कब मिलेगा। वो घटना रची ही इस हिसाब से गयी है कि आपके भीतर यह भाव जागृत कर दे और जब आपके भाव जागृत होता है तो आप उसमें कभी पहले ये जाँच नहीं करते। आपको ये जाँच करने की मोहल्लत ही नहीं दी जाती कि जिनके साथ यह घटना घट रही है पहले यह तो देख लो इनको क्या मिला? पहले ये तो देख लो इनको क्या मिला?
ऐसी सी बात है कि आपके सामने एक बस हो और वो बस बाहर से बहुत ही ख़ूबसूरत है। एकदम ऐसा लग रहा है आज से पचास साल आगे की टेक्नालॉजी की बस है फ्यूचरिस्टिक (भविष्यवाद सम्बन्धी)। वो बाहर से बस नहीं लग रही है;वो स्पेसशिप लग रही है। और आप कह रहे हो, ‘वाह! क्या चीज़ है।‘ और उसके अन्दर लोग हैं, बाहर से ही उसका रूप, रंग, आकार, इतना आकर्षक बना दिया गया है कि आपको ये ख़्याल ही नहीं आता कि एक बार खिड़की खटखटा के अंदर वालों से पूछ लें कि तुम्हें लग कैसा रहा है। ये संभावना ही नहीं पैदा होती कि ये जो बस जो बाहर से ही बनायी गयी उसके भीतर जो हैं उनका हाल बुरा भी हो सकता है ये संभावना नहीं आती दिमाग में।
और वो जो बस है उसका जो आकार बनाया गया है वो आपने पहले ही देख रखा था। जब आप चौंथी-पाँचवी क्लास में थे तो आपकी कॉमिक्स में एक सुपरहीरो होता था, जो वैसे ही बस में चलता था। तो वैसी बस बहुत ज़बरदस्त चीज़ होती है इसकी छवि आपके पास बहुत पहले से है, बचपन से है।और एक दिन वो बस आपके सामने खड़ी कर दी जाती है आप कहते हैं, ‘वाह! सपने साकार हो गये।‘ यही तो चीज़ थी जो मुझे चाहिए थी। आज सपने साकार हुए। मैं कह रहा हूँ, थोडा सा खिड़की, दरवाज़ा खटखटा के किसी अन्दर वाले से पूछ लीजिए। हो सकता है पूछने की ज़रुरत भी न पड़े, हो सकता है उसका चेहरा ही सारी कहानी बयान कर दे।
रोमांस भावना पर चलता है, भावना वृत्ति की बहन है बिलकुल;बहुत क़रीबी रिश्ता है दोनों में।
और हमारी वृत्ति आप जानते हैं न क्या कहती है? क्या कहती है? मूलवृत्ति आपकी क्या चाहती है? ख़ासकर जब बात विपरीत लिंगी की आती है। सिर्फ़ यही चाहती है कि आप अपना डीएनए ज़्यादा-से-ज़्यादा फैलाएँ। अगर पुरुष जागृत नहीं है, अगर महिला जागृत नहीं है तो दोनों एक दूसरे की तरफ़ सिर्फ़ एक ही नज़र से देख सकते हैं— यही नियम है। उसका वीर्य और उसके अंडाणु इसके अलावा दोनो में कोई रिश्ता नहीं बन सकता अगर दोनों जागृत नहीं है, दोनों कान्शियस (चेतन) नहीं हैं तो; और जागृत लोग होते नहीं।
तो जिसको आप बोलते हैं न भावना, उसको देखकर मुझमें ये इमोशन आता है, उसको देखकर मुझमें ये फीलिंग आती है, वो इमोशन, वो फीलिंग सिर्फ़ एक चीज़ है;सेक्स। यह बात सुनने में बहुत लोगों को बहुत बुरी लगती है। कहते हैं, नहीं ऐसा थोड़ी होता है, कम्पैन्यन्शिप (साहचर्य) भी तो कोई चीज़ होती है। कम्पैन्यन्शिप कोई चीज़ होती है तो तुम लड़के हो तो किसी लड़के की कंपनी काहे नहीं करी! और अगर महिला की भी करनी है तो अपने से तीस साल बड़ी उम्र की क्यों नहीं करी या अपने से बीस साल छोटी उम्र की काहे नहीं करी।
ये कम्पैन्यन्शिप जो चीज़ है ये सिर्फ़ एक एबल सेक्सुअल पार्टनर (यौन सम्बन्ध बनाने योग्य साथी) के साथ ही क्यों बनती है भाई! क्यों झूठ बोल रहे हो कम्पैन्यन्शिप, ये और वो बेकार की बातें। खेल सारा सिर्फ़ और सिर्फ़ डार्विनियन है। पता है कि ‘नेचुरल सेलेक्शन’ इज़ ऐट प्ले। (खेल सारा डार्विन के सिद्धांत ‘प्रकृतिक चयन का है।)सो आई हैव टू प्रोलिफरैट माय सीड ऐज़ मच ऐज़ पॉसिबल (अत: मुझे अपने बीज को यथासंभव बढ़ाना है)। बस इतना ही है, कुल इतना है।
अब ये सुन करके लोग झेपने भी लगते हैं, बहुत गुस्सा हो जाते हैं। ये-वो गालियाँ देते हैं, लिखते हैं, “अरे! आचार्य तू भी तो ऐसे ही पैदा हुआ था, अगर इतना सोचा गया होता तो न तू पैदा होता न कोई और पैदा होता।“ हम कहाँ बड़े आह्लादित हैं पैदा हो करके!
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: हम कहाँ कह रहे हैं कि बहुत बड़ी और बड़ी आनंददायक घटना हो गयी; हम पैदा हो गये तो, तुम जैसों के बीच में जीना आनंद की बात है कोई हमारे लिए!
यही है कूल रोमांस— सेक्स करना है और अपने आप से झूठ बोलना है कि फूल खिल रहे हैं, यही कुल। हम कह रहे थे— प्रेम तब है जब आप दूसरे में वो देख पायें जो उसमें बिलकुल आप जैसा है, है न। जानवर को भी आप तभी नहीं काट पाते जब आप देख पाते हो कि उसकी आँखों में बहुत कुछ आपके जैसा है।
जब आप देखते हो कि आप और वो सामने वाला एक तल पर बिलकुल एक है, तो उससे प्रेम और अहिंसा का जन्म होता है। और जितना आप देखते हो कि आप और सामने वाला अलग-अलग हैं उतनी हिंसा पैदा होती है।
अब बताओ रोमांस में आप सामने वाले को अपने जैसा देखते हो या अपने से भिन्न देखते हो— अपने से बिलकुल भिन्न देखते हो न। कोई आप ही की तरह दिखने वाला आपके सामने आ जाए तो उससे कौन से रोमैंन्टिक फव्वारे छूटेंगे। होगा ही नहीं कुछ भी कि होगा? आईने में अपनेआप को देख करके कौन प्रपोज कर देता है कि होता है ऐसा। कह रहे कि आज मैं सिड्यूस (शील भंग करना या संभोग के लिए फुसलाना) हो गया। केस— कंघा मार रहा था और वो सामने वाले की जुल्फ़ें देखीं वो जो आईने में था और फ़िदा हो गये, चूम-चूम के आईना तोड़ डाला; ये देखो तमाम ख़ून बह रहा है। होता है ऐसा?
तो रोमांस में ये अनिवार्य शर्त होती है कि सामने वाला आपको आपसे बिलकुल भिन्न लगे। और आप उसके व्यक्तित्व के उन्हीं हिस्सों पर ध्यान केन्द्रित करते हो जो आपसे अलग होते हैं। आप बातें उन्हीं चीज़ों की करोगे जो उसमें आपसे अलग है।
महबूबा की आँखों को लेकर के आपने शायरी पढ़ी होगी, महबूबा के कानों को लेकर पढ़ी है क्या। क्योंकि आदमी-औरत के कानों में फ़र्क कर पाना मुश्किल होता है, वो लगभग एक से होते हैं। पर आँखों में फ़र्क कर पाना ज़रा आसान है, ख़ासतौर पर उसमें काजल लगा हो आँखों में तब। कानों में भी काजल लगने लगे तो कानों पर भी शायरी हो जाएगी, आप कर लीजिए कोशिश; काजल नहीं तो कुछ और लगा लीजिए। झुमका तो लगा था तो झुमके पर शायरी होती है, “झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में” तो उसके कान भी अलग कर दिये जाते हैं।
जहाँ कोई अलगाव नहीं है वहाँ भी मामला अलग कर दिया जाता है ताकि आपमें सेक्सुअल एक्साइटमेंट (संभोग की उत्सुकता) पैदा हो सके। अब नाक दोनों की एक सी होती है तो उसकी नाक छेद देंगे। आप कारण दूसरे बताते रहिए— लोग कहते हैं यहाँ (हाथ से नाक की बिन्दु दिखाते हैं) पर न एक नोड (बिंदु) होती है, यहाँ एक नाड़ी होती है उसको छेद दो तो लड़की पतिव्रता रहती है। ऐसा कुछ, इसी तरीक़े का।
असली बात ये है कि आप जब उसकी नाक छेद देते हो तो वो एक फेमनिन सिम्बल (स्त्रैण सूचक) बन जाता है। और जैसे ही वो फेमनिन सिम्बल बनता है वो सेक्सुअल एक्साइटेशन (यौनिक उत्तेजना) में सहायक हो जाता है। समझ में आ रही है बात?
माथे भी दोनों के एक से होते हैं तो माथा भी अलग कर दो, कैसे— यहाँ टिकुली लगा दो, बिंदी। अब देखो, “आय! हाय! तेरी बिंदिया रे।“ तेरी बिंदिया रे, तुझे बिंदिया इतनी पसंद है, ख़ुद लगा ले।
श्रोतागण: ठहाका लगाते हैं।
आचार्य प्रशांत: ये नहीं पूछ रहा है कि माथे के पीछे क्या है— बुद्धि कितनी है, विवेक कितना है, ज्ञान कितना है? वो माथे पर टिकुली लगा के आ गयीं, ये एकदम गिरे पड़े हैं, लोट गये हैं। मैं किस बात की परवाह करूँ कि माथे पर बिंदी कैसी लगी है या माथे के अंदर ज्ञान और बुद्धि और विवेक और प्रेम कितना है? नहीं, उसकी क्या बात करनी है, माथे पर बिंदी लगी हुई है!
और अगर अंतर स्थापित करना है तो उसको बुर्का पहना दो, अब तो अंतर ही अंतर है, एकदम ही अलग वस्तु खड़ी हो गयी सामने। अब तो जो एक्साइटमेंट होगा उसकी कोई सीमा नहीं है। इतना पूरा ढँक दिया, पूरी अलग लग रही है। पुरुष हर समय उत्तेजित रहेगा अब। जो चीज़ अनुपलब्ध हो जाती है अनअवेलबल देखा उसकी कामना कैसे एकदम उबाल मारती है, तो उसको ढँक दो, पर्दा, नक़ाब, घूंघट, बुर्का, हिजाब से ढँक दो उसको।
और जहाँ अलगाव है, हम कह रहे हैं वहाँ हिंसा है। रोमांस हिंसात्मक होता है। जितना आप दूसरे को अपने से भिन्न देखोगे हो गयी हिंसा। इंसान, इंसान को मार के नहीं खाता न, पर इंसान जानवरों को मारकर खा जाता है— यही तो कहता है वो दूसरी स्पीशीज़ (प्रजाति) है, भिन्न है।
भिन्न है तो मार दूँगा। कोई दूसरे धर्म का है उसको मार दूँगा। अपने धर्म वाले को तो नहीं मारता। कोई दूसरी जाति का है उसको भी मार दूँगा अपनी जाति वाले को नहीं मारता। कोई दूसरे देश का है उसको मार दूँगा अपने देशवासी से तो प्रेम करना चाहिए ऐसे ही चलता है न खेल।
तो जहाँ भिन्नता आयी वहाँ हिंसा आयी। रोमांस भिन्नता पर ही पनपता है तो रोमांस हिंसा है। हिंसा है।
जितने ये आपको रोमैंन्टिक लोग मिलें, दिल फेंक सावधान हो जाइएगा— वो नोंच-फाड़ के खा जाएगा। वो बड़ा अच्छा लगता है, वो ऐसे चाभी का छल्ला लेकर ऐसे-ऐसे (उँगली को सर्किल में “नीले-नीले अंबर” गाते हुए, घुमाते हैं) और देवीजी पर एकदम वर्षा हो गयी तन बदन सब भीग गया। वो ऐसे है न, “उड़े जब-जब ज़ुल्फ़े तेरी कवारियों का” वो अपने ज़ुल्फ़ें ऐसे-ऐसे कर रहा है और देवी जी एकदम नहा गयीं—ये हिंसा है आप कहीं की नहीं बचने वाली।
प्रेम देखता है कि तू बिलकुल मेरे जैसा है। प्रेम कहता है, ऊपर-ऊपर अंतर है भीतर-भीतर समानता है और समानता क्या है— हाँ, बेचैन मैं भी हूँ।
और बेचैन सेक्स के लिए नहीं, एक एग्ज़िस्टेन्शियल (अस्तित्वपरक) बेचैनी। हम हैं, इसलिए बेचैन हैं, होने मात्र से बेचैन है। वही अज्ञान मुझमें, वही अज्ञान तुझमें है। बंधनों से परेशान मैं भी हूँ, बंधनों से परेशान तू भी है। मुक्ति और आनंद मुझे भी चाहिए, मुक्ति, आनंद तुझे भी चाहिए। प्रेम ये देखता है। प्रेम तब है, आपको एक सूत्र दिये देता हूँ:
प्रेम तब है, जब आप किसी के साथ बैठें और भूल ही जाएँ कि उसका जेंडर क्या है, तो समझ लीजिए प्रेम है।
और आप किसी के साथ बैठें और, और ज़्यादा आपको एहसास होने लगे कि मैं किसी अपोजिट जेंडर (विपरीत लिंगी) वाले के साथ बैठा हूँ तो जान लीजिएगा कि ये सेक्स है, लस्ट है, वायलेंस है, रोमांस मात्र है।
प्रेम की एक निशानी समझ रहे हैं आप जिसके साथ बैठे हैं आपको याद ही न रहे कि वो आपके जेंडर का है या दूसरे जेंडर का है तो प्रेम है।
और जिसके साथ बैठे हो, मान लीजिए आप किसी महिला के साथ बैठे हैं उसके साथ बैठ के आप और भकभका कर पुरुष बन जाएँ, आपके भीतर का पौरुष एकदम उत्तेजित होने लगे तो जान लीजिएगा ये गड़बड़ रिश्ता है, बहुत गड़बड़ रिश्ता है।
आपके जीवन में कोई पुरुष हो उसकी उपस्थिति में आप एकदम ही वुमन्ली (स्त्रैण) बन जाती हैं तुरन्त पल्लू संभालने लगती हों तो जान लीजिए वो बंदा ठीक नहीं है आपके लिए। जो आपके भीतर आपकी सेक्सुअल आइडेन्टिटी, जेंडर आइडेन्टिटी अराउज़ (लिंग पहचान उजागर करे) करे वो व्यक्ति आपके लिए अच्छा नहीं है। और रोमांस में यही किया जाता है। जो व्यक्ति ऐसा करेगा वो व्यक्ति वायलेंट (हिंसक) होगा।
और ऐसा अनजाने में भी नहीं होता ऐसा बाय डिजाइन (रूप-रेखा के अनुसार) होता है ऐसा बाय प्रेपरेशन (नियोजित रूप से) होता है ऐसा योजना बनाकर, तैयारी करके किया जाता है न, कहिए। आप भली-भाँति जानते हो, लड़कियाँ तैयार हो रही होती हैं, उनकी दोस्त होती हैं, फ्रेंड्स उनपर हँसती हैं, कहती हैं, आज तो ये मिसाइल बनकर जा रही है, आज फुलझड़ी बन रही है, आज पटाखा बनकर फटेगी।
लड़की को भी पता होता है कि वो जानबूझ कर पटाखा बन रही है। लड़कों को भी पता होता है वो पटाखा नहीं बन पाते, पर जो भी। वो दिवाली में वो साँप वाली गोलियाँ आती थी न, उनमें आग लगा दो तो वो साँप बन जाता था, ऐसे (हाथ उठाकर दिखाते हैं) पुरुष का वो रहता है उसमें आग लगा दो तो ऐसा साँप बन जाता है।
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: ये अनार बनकर आयी हैं, फुलझड़ी बनकर आयी हैं, वो साँप बनकर आये हैं— ये सबकुछ बाय डिज़ाइन हो रहा है न, बाय डिज़ाइन। दोनों को पता है कि मैं क्या करूँगा तो दूसरे में (उत्तेजना होगी, सिर्फ़ हाथ से इशारा कर बताते हैं)। यह हिंसा है। शायद बारह-चौदह साल वालों को हक़ होता होगा ये सब करने का। बहुत अफ़सोस होता है जब मैं पचीस, तीस, पैंतीस साल वालों को ये करते देखता हूँ।
तुमने कुछ नहीं देखा, तुमने कुछ नहीं सीखा। हर इंसान अपनेआप में एक ख़ज़ाना हो सकता है, एक रोमांटिक रिश्ते में आप उस ख़ज़ाने से बिलकुल वंचित रह जाते हैं। जिससे आपका रोमांस है आपको उसकी हस्ती की बस बाहरी धूल मिलती है। जैसे, ये मेज़ रखी है इसमें मान लीजिए यहाँ कुछ ड्रॉर्ज़ (दराज़) हों और उन ड्रॉर्ज़ में हीरे-मोती हैं बेशक़ीमती। रोमांस में मालूम है आप क्या करते हो— आप ये जो चिकनी-चिकनी इसकी सतह है, जवान टेबल है नयी-नयी और इसपर जो धूल पड़ी है, आप उसको चाटते हो अपनी जीभी से, ये रोमांस है।
किसी की हस्ती की सतह की धूल को चाटना— ये रोमांस है। और उसकी हस्ती के केंद्र में जो हीरे मोती थे, उनसे एकदम चूक जाना, पूरी तरह वंचित रह जाना, ये रोमांस है।
ज़िदंगी भर मेज़ की सतह को चाटते रहे, ड्रॉर्ज़ कभी खोल के देखा ही नहीं कि वहाँ क्या है। कैसे देखते, ड्रॉर्ज़ के भीतर जो है उसके चित्र नहीं होते, हमें तो बचपन से सतह के और चिकनाहट के ही चित्र दिखाए गये थे। तो हमें लगा यही सबकुछ होता है, इफ चिकना, देन हैपी। तो जो चिकना-चिकनी चीज़ हमको मिली हमने चाट मारी।
भीतरी दरवाज़े कभी हम खोल ही नहीं पाये क्योंकि हमें कभी किसी ने ये समझाया ही नहीं की असली दौलत अस्तित्व के भीतरी तलों में होती है।
वो हमें कभी किसी ने समझाया नहीं। हमने फिल्में देखीं। एक बात समझिएगा बहुत अच्छे तरीके से, मैं बड़ी कोशिश करता हूँ कि जो वैश्विक मुद्दे हैं, जो ज़्यादा व्यापक सरोकारों वाले इशूज़ हैं, मैं उन पर बोलूँ; मैं उन पर बोलता भी हूँ। मैं धर्म पर बोलूँगा, संस्कृति पर बोलूँगा, देश पर बोलूँगा, राजनीति पर बोलूँगा, इन सब पर, मैं शास्त्रों पर बोलूँगा इन पर बातचीत चलती रहती है।
लेकिन उन सारी बातचीतों के बाद और उनके मध्य में समझ में मुझे ये आता है कि इंसान का नर्क तो रिश्ते ही होते हैं। अगर अध्यात्म का उद्देश्य है मनुष्य को दुख से आजाद करना, तो ले देकर के अंततः ध्यान तो उसके रिश्तों पर ही देना पड़ता है। क्योंकि सारा दुख उठता तो वहीं से है। आप में से कितने लोगों के जीवन का सबसे बड़ा दुख ये है कि रूस और युक्रेन भिड़े पड़े हैं? कहिए हाथ उठाइएगा। तो मैं उस मुद्दे पर खुलकर बोलता भी हूँ तो आपको लाभ कहाँ होगा बताइए न।
क्योंकि वो मुद्दा आपकी ज़िंदगी में सेकन्डेरी है, पीछे का है, गौण है, है न। आपमें से कितने लोगों की ज़िंदगी का सबसे बड़ा दुख ये है कि भारत में हिंदु-मुस्लिम तनाव है। ज़िंदगी का सबसे बड़ा दुख ये है कि भारत में हिंदु-मुस्लिम तनाव है, ऐसे कितने लोग हैं? (कुछ हाथ उठे थे)। उठा दीजिए। एक–दो कुल मिलाकर ये संख्या दस भी नहीं पहुँच रही।
हमारी पाठ्य-पुस्तकों में जो बच्चों को पढ़ाई जाती है आठवीं, दसवीं, बारहवीं की, उनमें बदलाव करे जा रहे हैं उसमें से कुछ बदलाव बहुत ख़तरनाक हैं। आप में से कितने लोगों की ज़िंदगी का यह बहुत बड़ा दुख है। अब कुछ ज़्यादा उठेंगे, मैं क़रीब आता जा रहा हूँ, अब उठे हैं क़रीब बीस-एक हाथ। और कितने लोगों के सीने में ये रिलेशनशिप ही खंजर बनकर घुसी हुई है;अब वो हाथ उठाएँ, चाहे आज की चाहे पुरानी? ये लीजिए गिनना पड़ेगा कि किसने हाथ नहीं उठाया।
तो मैं क्या करूँ, देख लीजिए न आ गये। सवाल सब वहीं रिश्तों पर। मुद्दा था प्रेम और सवाल जितने आएँगे वो रिश्तों पर ही आएँगे क्योंकि आदमी की ज़िंदगी का ज़हर तो रिलेशनशिप्स ही हैं न। सत्तर-अस्सी प्रतिशत जो मानसिक बीमारियाँ होती हैं जो सारी मेंटल डिज़ीज़ हैं वो रिलेशनशिप से है।
इंसान की ज़िंदगी का ज़हर है–रिलेशनशिप्स और सम्बन्धों का ज़हर है– रोमांस।
तो अब बताइए कि पूरी दुनिया को बर्बाद किसने कर रखा है फिर, रोमैन्स ने। आप भारत के हर कोने से आये हैं, आप पूरे भारत के इस वक्त प्रतिनिधि हैं, और ये अच्छा-ख़ासा बड़ा सैम्पल साइज़ है। वही रोमांस आपको लगातार परोसा जा रहा है— आम जन संस्कृति में, टीवी की स्क्रीन पर, मोबाइल की स्क्रीन पर, सिनेमा हॉल की स्क्रीन पर, लगातार वही परोसा जा रहा है और वही ज़िंदगी का सबसे बड़ा ज़हर है।
आप कम कमाते हो इस बात को आप एक बार को भूल जाते हो, है न। व्यापार में घाटा हो गया, वो बात भी एकबार को भूल जाते हो लेकिन जिससे आपका रिश्ता-नाता है उससे जो चोट लगती है वो आप जिंदगी भर लेकर चलते हो कि नहीं? और ख़ासकर भारत में जो फिल्में बनती हैं उसमें से नब्बे प्रतिशत सिर्फ़ एक विषय पर होती हैं। किस विषय पर —बॉइ मीट्स गर्ल और कुछ होता है, तो वही तो कुल मिलाकर के दिल का नासूर है।
बाक़ी मुद्दों में न आप रुचि रखते हो; दस मई को कर्नाटक में चुनाव में क्या होगा, ये रुची की बात है। अगले साल यही लोग रहेंगे या नयी सरकार बनेगी, ये भी रुची की बात है। लेकिन ये जो रिश्तेदारी होती है न जिसके साथ आप एक ही कमरे में, एक ही बिस्तर पर सो रहे हो, एक ही मेज़ पर खा रहे हो, जिसको आपका वॉर्ड्रोब (पहनने का वस्त्र) पता है और जिसके वॉर्ड्रोब को आप अच्छे से जानते हो। देख पा रहे वो चीज़ कितनी बड़ी चीज़ है।
एक इंसान के साथ आप ऊपरी तौर पर कम-से-कम मेज़ की सतह के तल पर इतनी निकटता बना चुके हो और दिलों में मीलों का फासला है। एक ही तकिया, एक ही चादर, एक ही कटोरी, एक ही चम्मच। इंसान और इंसान का रिश्ता होना चाहिए कि एक दूसरे को बेहतर बनाएँ, है न। जंगल से निकलकर आये हैं हम, जानवर हैं। इंसान और इंसान का रिश्ता ये होना चाहिए कि वो एक दूसरे को पक्का पूरा इंसान बनाएँ क्योंकि जंगल से निकले जानवर हैं हम।अस्सी प्रतिशत हम अभी भी जानवर हैं, थोड़े से ही इंसान बने हैं, तो रिश्ता इसलिए होना चाहिए कि पूरे इंसान बन पायें।
लेकिन हमारे ये जो रोमैन्टिक रिश्ते होते हैं इसमें जो सामने वाला होता है वो जितना इंसान होता भी है हम उससे यह उम्मीद करते हैं कि हमारी खा़तिर और बड़ा जानवर बनेगा। अच्छा! ईमानदारी से जवाब दीजिएगा आपके किसी दोस्त की शादी हो रही है, ठीक है। जिस लड़की से शादी हो रही है उसका कुछ नाम है, उसका नाम है, डॉक्टर शैली। उसका क्या नाम है— डॉक्टर शैली। और ये डॉक्टर शैली हैं, ये हमारी भाषा के अनुसार हॉट हैं। एकदम हॉट हैं जिसको बोलते हैं पटाखा, ठीक है वही फुलझड़ी वाला।
अब आप, आपस में बात करेंगे फ़लाने की शादी हो रही है जिससे शादी हो रही वो आपका दोस्त है, आपके सर्किल का आदमी है। अब आपस में बात करेंगे, कितने लोग ये बात करोगे कि उसकी शादी पीएचडी से हो रही है? और कितने लोग ये बात करोगे कि उसकी शादी किसी सेक्सी से हो रही है? सही बताइएगा आपस में आप जो बात करोगे उसमें मुद्दा पीएचडी रहेगा या सेक्सी रहेगा?
श्रोतागण: सेक्सी रहेगा।
आचार्य प्रशांत: सेक्सी रहेगा। बस बात ख़त्म, यही है। वो जितना इंसान होता भी है हम उसको और जानवर बना देते हैं। वो पढ़ी लिखी है, वो पीएचडी है, क्या फ़र्क पड़ता है। मुझे तो इस बात से फ़र्क पड़ता है कि वो सेक्सी कितनी है। कभी आपस में बात करते हो कि दो-तीन लड़कों का अपना गैंग था, एक की शादी, बाक़ी दो बात करते हैं, भाई बंदा बहुत लकी निकला, भाई बंदे का जैकपॉट हो गया, भाई बंदी पीएचडी है! पीएचडी! ऐसे कभी बात करोगे। कोई नहीं करता; भाई! माल है, लंगूर को अंगूर। यही बात होती है न।
हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता उसका ज्ञान कितना है, वो इंसान कैसी है। हमें ये फर्क पड़ता है कि उसकी देह कैसी है, ठीक जैसे हम किसी जानवर को देखते हैं न कसाई जब कोई जानवर ख़रीदता है तो उसके पुठ्ठे थप-थपाता है। लगभग इसी तरीक़े से लड़की देखी जाती है शादी- ब्याह में;उसका शरीर देखो बस। वो इंसान हो भी तो उसको जानवर की नज़र से देखो, ये रोमांस है। उसके बाद अब उसकी सेक्सी शादी हुई है;अब रोमैंन्टिक फोटोज़ आएँगी, उन रोमैन्टिक फोटोज़ में कहीं कुछ डॉक्टरेट का भी ज़िक्र होगा? बस बात यही है।
और मैं जो बातें बोल रहा हूँ चालीस मिनट की बकबक के बाद आपको बताना चाहता हूँ कि इसमें से कोई भी बात नयी नहीं है, ये बातें आप सब जानते हैं बहुत अच्छे से। अभी आप जानिए कि जानते हुए भी ये बातें आपके लिए महत्व की क्यों नहीं है?
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। ये शुरू में आपने बोला कि जो इन्डस्ट्रीअलिज़ैशन था या रेनेसा (पुर्नजागरण) था उसकी प्रतिक्रिया के रूप में रोमांस आया। मगर अभी देखने में आ रहा है कि जो रोमांस है इन्डस्ट्रीअलाइजेशन उसी को ही यूज़ कर रहा है और उसके लिए इंडस्ट्री खड़ी हो गयी है। तो ये जो इन्डस्ट्रीअलाइजेशन है उसकी चतुराई है या इनकी बेवकूफ़ी है?
आचार्य प्रशांत: हाँ, वही है। भाई जो इन्डस्ट्रीअलाइजेशन आया वो कैपिटल (पूँजी) के आधार पर आया है। कैपिटल का अर्थ क्या होता है? कैपिटलिज़म (पूँजीवाद) माने प्राइवेट प्रॉपर्टी। तो उसको तो अपनी पूँजी बढ़ानी है वो अपनी बुद्धि का उपयोग कर रहा है पर अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए कर रहा है। तो सामने जब देखता है रोमैन्टिक इडियट्स (ख़्याली मूर्ख) को तो वो उनकी इडीऔसी (मूर्खता) का इस्तेमाल कर लेता है अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए। ये पूरा वेडिंग इंडस्ट्री है भारत में ये कितने मिलियन डॉलर की है आप लोग सर्च कर लीजिए न। ये बैंगक्विट हाल (दावतख़ाना), ये तंबू, ये शामियाना, ये केटरींग (खानपान)। ये जो पूरा पंडितों का खेल है और भी सबकुछ, इसमें क्या-क्या नहीं आता! हास्पिटैलिटी (आतिथि सत्कार), ट्रेवल (यात्रा) सबकुछ, पैकेजेस, कासमेटिक्स (प्रसाधन साम्रगी), ज्वेलरी (गहने) ब्राइडल मेकअप्स (दुल्हन श्रृंगार)— ये सब कितने मिलियन डॉलर की इंडस्ट्री है, देख लीजिए न।
वो क्यों चूके— कोई बेवकूफ बनने को तैयार है, तो उसे बेवकूफ़ क्यों नहीं बनाएगा कैपिटलिस्ट (पूँजीपति)। और वो ज़बरदस्ती तो कर नहीं रहा है। ज़बरदस्ती वो कर भी रहा है तो बड़े इनडायरेक्ट (अपरोक्ष) रूप से। वो ऐसे लुभावने विज्ञापन देता है कि आप एकदम लालच में आ जाते हो, पर वो आपका हाथ पकड़कर; तो आपका पैसा छीन नहीं रहा है। पैसा तो आप, अपनी मर्ज़ी से उसकी दुकान पर देकर आते हो न वो भी एडवांस (अग्रिम)। कोई बेवकूफ़ बनने को तैयार खड़ा हो, कोई लूटने को एकदम उत्सुक खड़ा हो; तो ज़माना क्यों नहीं लूटेगा उसको।
और अच्छे-से-अच्छे आदमी को बेवकूफ़ बनाने का यह तरीक़ा एकदम कारगर रहा है— रोमैन्स। एकदम बुद्धिमान आदमी भी होता है, इस मुद्दे पर उसकी बुद्धि घुटने में सरक जाती है, एकदम पागल हो जाता है, विक्षिप्त। सही-गलत, अच्छा-बुरा, सच-झूठ समझ में आना ही बंद हो जाता है। और जो पूंजीपति है उसका तर्क होता है भैया देखो, ये तो अब लूटेगा, उसमें हमारी ग़लती नहीं है। ये लूटने को बिलकुल तैयार हो गया है, चिल्ला-चिल्ला के कह रहा है, मुझे लूटो तो ये तो लूटेगा। बस! इतना होगा कि अगर मैंने नहीं लूटा तो बगल वाला लूटेगा।
जो आदमी इन चक्करों में पड़ गया वो अब बाज़ार में, चौराहे पर, खड़ा होकर के चिल्ला रहा है, “मुझे लूटो” चाहे आदमी हो, चाहे औरत हो। आदमी से मेरा आशय मनुष्य है। हर तरीक़े से लूटेगा, आर्थिक तौर पर, मानसिक तौर पर, भावनात्मक तौर पर और सबसे घातक बात, आत्मिक तौर पर। ये व्यक्ति ज़िंदगी की सच्चाई से, ज़िंदगी के अमृत से, रस से एकदम वंचित रह जाएगा।
प्रश्नकर्ता: इसी के आगे एक और जो चीज़ मैं सोच रहा था कि कल हमने भक्ति की बात करी, प्रेम उसकी पहली शर्त है। अगर हम ये बोल रहे हैं कि हम प्रेम को रोमांस के साथ में इक्वेट (समतुल्य) करके देख रहे हैं आज के ज़माने में तो भक्ति के अंदर भी वो रोमांस आ रहा है।
आचार्य प्रशांत: बहुत, बहुत बढ़िया इन्साइट(परख), बहुत प्यारी इन्साइट। मज़ा आ गया। ये जो हमारी भक्ति चल रही है ये रोमैन्टिक भक्ति है। आप देख नहीं रहे हो, क्या कर देते हैं राधा-कृष्ण को। बिलकुल ठीक बोला कितने ख़ेद की बात है, कितनी बुरी बात है। ये नयी टर्म (परिभाष देना) आपने अभी-अभी बना दी, क्वाइन (परिणत करना) कर दी—'रोमैंटिक भक्ति'। वही चल रहा है जिसमें हर तरह की उत्तेजना समाविष्ट है सबकुछ, रंग, सौंदर्य, नैन-नक़्श। फ़ूहड़ बिलकुल।
और इसी को थोड़ा और आगे बढ़ा लीजिएगा तो प्रेम सिर्फ़ भक्ति की ही पहली शर्त नहीं था प्रेम ज्ञान की भी पहली शर्त था। और अगर प्रेम रोमांस बन गया है तो ज्ञान भी वही बन गया है—‘रोमैन्टिक ज्ञान।
रोमैन्टिक ज्ञान बताऊँ कैसा होता है?
मैं जब ऋषिकेश में था और वहाँ एम.डी.टी(मिथ डेमौलिशन टुर , मिथक विध्वंसक कार्य) होते थे। आज से सात-आठ साल पहले की बात है। तब तीन-चार साल लगातार वहाँ पर करे थे, फिर बंद कर दिये। क्योंकि इधर का काम बढ़ गया बहुत। तो वहाँ पर जो विदेशी लोग आते थे विशेषकर महिलाएँ, वहाँ पर भी ये सब सत्संग और ये सब कार्यक्रम बहुत होते थे। वहाँ एक समय में दस जगह पर सत्संग चल रहे हैं, प्रवचन चल रहे हैं और विदेशी लोग जाकर उनमें बैठ रहे हैं और सुन रहे हैं। उनमें सारी जो बातें करी जा रही हैं वो बातें क्या करी जा रही हैं?
यू आर ऑलरेडी दी ट्रूथ, यू आर ऑलरेडी दी ट्रूथ, यू डोंट नीड टू चेंज, यू डोंट नीड टू इम्प्रूव, यू डोंट नीड टू बिकम एनीथिंग और एनीबाडी, यू आर आलरेडी द ट्रूथ। (आप पहले ही सत्य हैं, आप पहले से ही सत्य हैं, आपको बदलने की आवश्यकता नहीं है, आपको सुधार करने की आवश्यकता नहीं है, आपको कुछ भी या कोई भी बनने की आवश्यकता नहीं है, आप पहले से ही सत्य है।)
तो तुम जैसे हो तुम वैसे ही सर्वशक्तिमान आत्मा हो। और जो बैठे होते थे सब वहाँ पर, अब उसमें कोई लालची है, कोई दब्बू है, कोई डरपोक हैं। आंतरिक रूप से काने-कुबड़े सब बैठे हुए हैं वहाँ पर लेकिन सबको क्या बता दिया गया?
एंड सिंस यू आर ऑलरेडी दी ट्रूथ, जस्ट क्लोज़ योर आइज़ एंड एक्सपीरीअन्स दी ब्लिस विदिन। (चूँकि आप पहले से सत्य हैं बस अपनी आँखें बंद कर लें और भीतर के आनंद का अनुभव करें।) क्योंकि तुम पहले से ही सर्वशक्तिमान हो तो तुम अपनी आंखें बंद करो और अनुभव करो उस परमानंद को अपने भीतर।
रोमांस किसपर पनपता है— एक्सपीरीअन्स बेस्ड (अनुभव पर।) सुख का अनुभव करो, सुख का एक काल्पनिक अनुभव ही रोमांस है। जस्ट क्लोज़ योर आइज़ एंड एक्सपीरीअन्स दी ब्लिस विदिन और थिंक इन सच एंड सच वेज़। (तुम अपनी आंखें बंद करो और अनुभव करो उस परमानंद को अपने भीतर। और इस-इस तरीक़े से सोचो) उसको वो बोलते हैं, गाइडेड मेडिटेशन (निर्देशित ध्यान), थिंक इन सच एंड सच वेज़ एंड फ़ील दी प्लेज़र विदिन। (कि ऐसा- ऐसा सोचो, इस तरीक़े से सोचो और अपने अंदर आनंद की अनुभूति करो।)
मैं ये सब देखा, एकदम ख़ौफ़ आ गया मुझको कि ये चल रहा है और उसमें से बहुत कुछ अद्वैत के नाम पर चल रहा होता था। बोले, यही तो नॉन डूऐलिटी (अद्वैत) है। क्योंकि अगर तुम कुछ हो और तुम्हें कुछ और बनना है तो वो तो डूऐलिटी (द्वैत) हो गयी, दो हो गये। एक मैं हूँ अभी और एक कुछ और बनना है, तो हो गया द्वैत। यू आर आलरेडी ट्रूथ। तुम जैसे हो तुम पर्फेक्ट (पूर्ण) हो, (यू आर पर्फेक्ट इग्ज़ैक्ट्ली एज़ यू आर। जो जैसा है वो वैसा ही मस्त है, मैं तो पर्फेक्ट हूँ।
और सुबह-सुबह वहाँ पर एकदम विदेशी महिलाएँ निकले हैं ये लंबे बाल झरझराती हुई, उनको मैं बोलता था, मिस सनशाइन। वो सुबह-सुबह निकल रही हैं अपना योगा मैट दबा करके। और योग वगैरह करो तो जिस्म तो छरहरा हो ही जाता है। और वो ऐसे, उन्होंने थोड़ा सा ठुड्डी ऊपर को कर रखी है आसमान की ओर निहार रही है और मुँह पर पूरा भाव यही छपा हुआ है;आई ऐम ऑलरेडी दी ट्रूथ एंड आइएम एक्सपीरीअन्सिंग दी ब्लिस विदिन (मैं तो सत्य हूँ और मैं अपने भीतर परम आनंद का अनुभव कर रही हूँ)। खोए हुये हैं एकदम।
मैं देखूँ कहूँ, ये सौ विकार इसमें, पचास तरह के दोष इसमें, थोड़ा सा भी सच बोल दो तो झेल पाने की सामर्थ नहीं इसमें, लेकिन इसको ये घुट्टी पिला दी गयी है— आई ऐम ऑलरेडी दी ट्रूथ एंड आइएम एक्सपीरीअन्सिंग दी ब्लिस विदिन—ये है ‘रोमैन्टिक ज्ञान।‘ तो जैसे ‘रोमैन्टिक भक्ति’ चल रही है, वैसे ही रोमैन्टिक ज्ञान भी चल रहा है।
आई ऐम ऑलरेडी गुड, आई ऐम ऑलरेडी पर्फेक्ट (मैं तो अच्छा ही हूँ, मैं तो पूर्ण ही हूँ।) जस फ़ील इट, लेट दी इनर रिज़र्व वॉइस ओपन-अप फॉर यू। (इसको अनुभव करो, अपने भीतर की दबी हुयी आवाज़ को खोलो) जितना ये बोला जाए उतना जो डरपोक और बेईमान लोग हैं, उन्हें उतना मजा आये। बोले हाँ, बिलकुल सही बात है लेट दी इनर रिज़र्व वॉइस ओपन-अप(भीतरी कोष खोलो) आहहा! आनंदम्— ये रोमैंटिक ज्ञान है।
अनुभव के पीछे मत भागिए, अनुभव पूर्व निर्धारित होता है। प्रीडीटर्मिन्ड, प्रिस्क्रिप्टेड।
किसी चीज़ से आपको बता दिया गया है प्लेज़र (आनंद) है। आप उसी चीज़ को बार-बार दोहराना चाहते हो बिना यह जाँचे कि उस प्लेज़र में गहराई, सच्चाई कितनी है। ये है एक्सपीरीअन्स का सारा खेल; एक्सपीरीअन्स के पीछे मत भागिए। कोई आपको बोले अगर फ़लानी आध्यात्मिक जगह पर जाकर बड़े अच्छे अनुभव होते हैं तो ये रेड फ्लैग (लाल झंडा) है, ये ख़तरे की बात है, क्योंकि अहम् ही होता है जो अनुभवों का प्यासा है। सारे अनुभव किसको चाहिए? अनुभोक्ता कौन होता है—ईगो , अहंकार। तो मीठे-मीठे, प्यारे-प्यारे अनुभव अगर मिल रहे हैं तो ईगो को क्या हो रहा है नरिश्मन्ट (पोषण) ही तो मिल रहा है।
अनुभव, आहहा! और आध्यात्मिक जगहों की आप जब भी चित्र वगैरह देखो, आप आश्रम हों, रिज़ार्ट हों, कुछ हों, केंद्र हों, मठ हों उनकी वेबसाइट पर ,आप वहाँ जाओगे वहाँ देखोगे ऐसे (आँख बंद करके, मुँह खुला हुआ दोनों हाथ फैलाए हुए करके दिखाते हैं) शक्लों में होंगे हमेशा।
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: ये क्या है! अध्यात्म आँखें खोलने का नाम है या आँखें और बंद कर लेने का—यही रोमांस है। “एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे?” खिलता गुलाब, खिलता गुलाब। वो पहले ही पता है खिलता गुलाब कितनी मीठी छवि है खिलता गुलाब। यही होंगे जो दो साल बाद गा रहे होंगे, “कांटा लगा” ले लो गुलाब अब!
श्रोतागण: ठहाके लगाते हैं।
आचार्य प्रशांत: चलिए।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम सर, मेरी समझ से ये रोमांस का कान्सेप्ट यूनिवर्सल (अवधारणा सार्वभौमिक) है। जहाँ पर अगर हम देखते हैं भारत में बहुत ज़्यादा है पर यूरोप से जब शुरू हुआ तो अभी भी यूरोप में उसकी झलकियाँ नज़र आती हैं। लेकिन सर एट द सेम टाइम (उसी समय में) हम देख रहे हैं कि यूरोप ने साइंस, टेक्नोलॉजी, इनोवेशन (विज्ञान, अनुसंधान, यांत्रिकी) में इतनी तरक्की कर रहे हैं लेकिन इंडिया में ऐसे कुछ चीज़ें, बहुत हम पिछड़ गये हैं।
तो इसका क्या कारण हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: यूरोप में एक छोटी सी आपको मैं ट्रिक दिये देता हूँ। एक यूरोप में सिर्फ़ आप फिल्म ही देख लो तो उस अनुपात में रोमैन्टिक नहीं बनते हैं जिस अनुपात में भारत में बनते हैं। बस उसी से समझ जाओ कि दोनों के समाजों में कितना अंतर है।
आप एक साधारण गूगल सर्च कर लीजिए कि यूरोप के देशों में जो फिल्में बनती हैं या देखी जाती हैं उनकी अपनी इंडस्ट्री उतनी ही डेवलप्ड है, हॉलीवुड ही ज़्यादा कन्सूम (उपभोग) करते हैं। वहाँ जो देखी जाती है उनमें कितने प्रतिशत रोमैन्टिक फिल्में हैं? और भारत में जो देखी जाती है उसमें कितने प्रतिशत रोमैन्टिक फिल्में हैं?
ऐसा नहीं कि हममें और उनमें कोई जेनेटिक डिफरेंस (आनुवंशिक विभेद) है बात बस इतनी सी है कि हमको बचपन से ही भावना की घुट्टी पिलायी जाती है भावना, भावना, भावना।
एक आयीं देवी जी, वो उन्होंने अपनी कुछ समस्या बतायी। उनके बच्चे हैं छोटे और साथ-ही-साथ वो काम भी करना चाहती हैं। तो उन्होंने अपना कुछ केस स्टडी था वो बताया और उस पूरी केस स्टडी में उन्होंने आख़िरी जो पंक्ति बोली वो ये थी कि सर आई वान्ट टू बी एन इंडियन मदर नॉट एन अमेरिकन मदर (मैं एक भारतीय माँ की तरह होनी चाहती हूँ न कि अमरिकी माँ की तरह)
ये बात समझ रहे हो? क्या है?
बचपन से ही इंडियन मदर अलग होती हैं कुछ। जो बच्चा होता है उसको जो माँ मिली है वो एक ख़ास माँ है, वो इंडियन मदर है। तो बचपन से ही आपको भावना की घुट्टी जो है वो मिल जाती है, बिलकुल एकदम माँ के दूध के साथ। क्योंकि वो अलग है, कहती है, ‘मैं इंडियन मदर हूँ।‘आई हैव टू बिहैव इन दी अदरवेज़ (मुझे दूसरे तरीक़े से बर्ताव करना है।) व्हाट आर दोज़वेज़? (और वो तरीक़े क्या हैं?) फीलिंग सेंटर्ड, इमोशन सेंटर्डवेज़ (भावना केन्द्रित तरीक़ा)
ये मत देखो कि बच्चे की भलाई किसमें है; ये देखो कि मेरी भावना क्या उबाल मार रही है। तो फिर वहाँ की जो जनसंख्या है उसका एक स्तर होता है, और भारत की जो जनसंख्या है उसका एक स्तर होता है। जो हमारी पूरी संस्कृति है बहुत ख़ेद की बात है कि वो सत्य पर नहीं, कल्पना पर और भाव पर आधारित है। पूरा जो कल्चर ही है वो फीलिंग, इमोशन ड्रिवन (अनुभव संचालित) है। उसमें हार्ड फैक्ट्स (कटु तथ्य) के लिए बहुत कम जगह है और आपसे कोई हार्ड फैक्ट्स बोल दे, तो बुरा लग जाता है आपको।
कुछ इस तरह का साहब का है कि जब कोई हार्ड फैक्ट्स बोल देता है तो, (मेरे पास एक था)
"कड़वे बोल कबीर के, सुनकर लागे आग। अज्ञानी सब जल मरे, ज्ञानी जाये जाग"। ~कबीर साहब
तो ये बात आज की नहीं है। ये बात आज से पाँच-छ: सौ साल पहले भी ऐसी ही थी कि किसी ने आपसे सच्चाई बोल दी तो आपके आग ही लग जानी है। आप उसको धन्यवाद नहीं दोगे कि मैं भ्रम में जी रहा था, मैं झूठ में जी रहा था तू मुझे सच बता दिया। कोई सच बोल दे तो यही होगा—"कड़वे बोल कबीर के, सुनकर लागे आग” और आग ऐसी लगती है कि अज्ञानी सब जल मरें। वैसे उनको ऐसी दाह, ऐसा जलन उठता है कि राख ही हो जाते हैं जलकर। ये थोड़ी ही लिखा है कि ज्ञानियों को ज्ञान मिल जाता है उस आग से, न। उनकी बातें सुन करके अज्ञानी जागृत नहीं होते अपने ही द्वेष की आग में राख और हो जाते हैं।
“और ज्ञान ही जाये जाग” और ज्ञानी तो तब भी मुट्ठी भर थे आज भी मुट्ठी भर हैं। हमारी संस्कृति ही ऐसी नहीं है कि जिसमें दो टूक बात करी जा सके। कोई अगर आपसे दो टूक बात करता है तो आपको दुश्मन सा लगेगा। मीठी बात बोल दो (पूरी करिए, स्त्रोता से कहते हैं) झूठी ही सही। बात झूठी हो; पर मीठी हो चलेगा, बढ़िया है। वो हमारे बड़े शुभचिंतक होते हैं जो हमसे मीठी-मीठी बातें करते हैं। बहुत मीठी बात।
गाने भी फिर वही बनते हैं देखिए न वो सब समाज का दर्पण होते हैं।
“पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले?”
श्रोतागण: झुठा ही सही।
आचार्य प्रशांत: “जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे, तुम दिन को कहो रात..” यह आदमी बड़ा ज़बरदस्त चार सौ बीस होगा!
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: तुम दिन को कहो रात तो हम रात कहेंगे ग़ज़ब! तो इसलिए फिर वहाँ (पश्चिम) पर ज्ञान विकसित हो पाता है, यूनिवर्सिटीज़ (विश्वविद्यालय) विकसित हो पाती हैं, लैब्स विकसित हो पाती हैं, विज्ञान आगे बढ़ता है, मेडिकल साइंस आगे बढ़ती है, आर्ट्स (कला) भी वहीं आगे बढ़ती हैं, फिलोसॉफी भी वहीं आगे बढ़ती है।
बात सिर्फ़ इन्डस्ट्रीअलाइजेशन की नहीं है न। आप अगर ह्यूमैनिटीज़ (मानविकी) और आर्ट्स को भी देखें तो उसमें वहीं तो आगे हैं। क्यों— क्योंकि वहाँ भावना के लिए कम जगह है;सच्चाई के लिए थोड़ी ज़्यादा है।
बाक़ी झूठे लोग यहाँ भी होते हैं, झूठे लोग वहाँ भी होते हैं। अनुपात में अंतर है। वहाँ पर फैक्ट्स को कुछ इज़्ज़त दी जाती है हमारे यहाँ फैक्ट्स को नहीं दी जाती फीलिंग्स को इज़्ज़त दी जाती है। बस यह अंतर है। जहाँ पर भी फीलिंग, फैक्ट्स से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाएँगी वो जगह बर्बाद होकर रहेगी; चाहे वो कोई घर हो और चाहे कोई देश।
देश को भी आगे बढ़ाने का तरीक़ा यही है कि संस्कृति और समाज सत्यनिष्ठ हों, भावनिष्ठ नहीं। सत्यनिष्ठ हों।