प्रश्नकर्ता: रिश्ते संयोग से बनते हैं या पूर्व निर्धारित होते हैं? लोग मिलते हैं, उनमें रिश्ते बन जाते हैं। क्या यह डेस्टिनी (नियति) है?
आचार्य प्रशांत: ये डेस्टिनी नहीं है। मन तो पचास जगह रिश्ता बनाता है। वो सब रिश्ते मन के खेल हैं, मन की प्यास हैं, समय के संयोग हैं। डेस्टिनी होती है वो आख़िरी रिश्ता, जिसके बाद और कोई रिश्ता चाहिए नहीं। डेस्टिनी का अर्थ होता है अन्त। डेस्टिनेशन (लक्ष्य), अन्त, जाकर के रुक जाना।
जो मिल गया हो आपको, क्या उसके बाद कोई और नहीं चाहिए — ये प्रश्न पूछिए। जो मिल गया है, जिससे सम्बन्धित हो रहे हो, क्या वो आख़िरी है? अगर वो आख़िरी है तो डेस्टिनी है, आख़िरी नहीं है तो खेल है, संयोग है, घटना है। खेल चलता रहेगा। अभी जहाँ बैठे हो, वहाँ भी तो रिश्ता बन गया है; चादर पर बैठे हो, चादर से एक रिश्ता है। क्या ये आख़िरी चादर है? यहाँ आये हो, एक-दूसरे से मिले हो, बहुत लोग नये मिले होंगें। क्या आख़िरी बार किसी अजनबी से मिले हो?
ये यात्रा है, ये यात्रा है मंज़िल की तरफ़। मंज़िल से जो रिश्ता बनता है, मात्र वही डेस्टिनी है। नियति, मंज़िल, जहाँ तुम्हें पहुँचना-ही-पहुँचना है। इसीलिए समझाने वाले कह गये हैं कि रिश्ते बहुत सोच-समझ के बनाओ। सन्तों के पास जाओगे, वो कहेंगे, संगत से ज़्यादा बड़ी बात दूसरी नहीं। सुसंगति मिल गयी तो सबकुछ मिल गया और कुसंगति मिल गयी तो जीवन तबाह है। क्योंकि सारे रिश्ते हैं ही इसीलिए कि कोई ऐसा मिल जाए जो उससे (ऊपर की ओर इशारा करके) रिश्ता बना दे तुम्हारा। समझ रहे हो?
जिससे मिले हो, अगर वो ऐसा है कि तुमसे तुम्हारा ही परिचय करा दे, तुमसे सच्चाई का परिचय करा दे तो सुसंगति है। इस व्यक्ति को जीवन में आदर देना, जगह देना, मूल्य देना। पर जो मिला है तुमसे, उससे रुचि का सम्बन्ध है, लेन-देन जैसी बात है, उसके साथ रहकर के कुछ मज़ा सा आता है, अच्छा सा लगता है, उत्तेजना सी बढ़ती है, थोड़ी ख़ुमारी, थोड़ा नशा आता है, तो समझ लेना, ये तो आने-जाने वाली चीज़ें हैं, जीवन में लगी रहती हैं, आती-जाती रहती हैं। अब ये तुम्हें देखना है और तय करना है कि जिससे मिले हो, उसका प्रभाव क्या हो रहा है तुम पर।
असली रिश्ता, सुसंगति वो है जो तुम्हें अपने तक न ले आए व्यक्ति, बल्कि तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हें सत्य तक ले जाए। अधिकांश लोग तुमसे रिश्ता बनाते हैं क्योंकि उन्हें तुमसे कुछ चाहिए। कोई ही होता है जिसे तुमसे, न किसी और से, किसी से उसे कुछ नहीं चाहिए। वो तुम्हारा हाथ थाम रहा है क्योंकि तुम्हें मंज़िल दिखाना चाहता है। वो रिश्ता रखने लायक़ है। उसके अलावा भी अगर कोई हमसफ़र मिल जाए तो उसकी पहचान इसी बात से कर लेना कि हो सकता है जो मुझे मिला है, वो स्वयं मंज़िल का पारखी न हो पर क्या उसमें कम-से-कम मंज़िल की प्यास है। भले ही वो स्वयं मंज़िल का पारखी नहीं है, पर क्या वो मंज़िल का राही भी है।
अगर वो स्वयं मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहा है, मंज़िल की राह पर है तो तुम उसकी हमराह हो लेना। ठीक हुआ, चलो उसे मंज़िल पता नहीं, पर कम-से-कम उसका उद्देश्य तो मंज़िल की प्राप्ति है न। वो भी बढ़ेगा मंज़िल की ओर, आप भी बढ़ोगे मंज़िल की ओर और साथ-साथ हो सकता है राह बेहतर कटे। तो हमने कहा, ‘सर्वश्रेष्ठ संगति किसकी है?’ जो मंज़िल का पारखी ही हो। हमने कहा, अगर वो न मिले जो मंज़िल का पारखी हो और जो तुम्हारा हाथ पकड़कर मंज़िल तक पहुँचा दे, तो उससे भी काम चलाया जा सकता है जो कम-से-कम मंज़िल का प्यासा हो। पारखी न हो तो कम-से-कम प्रार्थी हो।
पर सबसे घटिया संगति उसकी होती है, जिसको मंज़िल की तरफ़ जाना ही नहीं है। वो न खुद जाएगा, न तुम्हें जाने देगा। अधिकांश लोग ऐसे ही रिश्तों में और ऐसी ही कुसंगति में फँसे रह जाते हैं। किसी ऐसे के साथ नाता कर लेते हैं, जिसकी न तो ख़ुद रूचि है मंज़िल को जाने में और तुम चलोगे तो तुम्हें भी बाधा देगा, ऐसों से बचना।
सर्वश्रेष्ठ तो ये रहे कि तुम्हें कोई मिल जाए ऐसा, ऐसी सुन्दर किस्मत हो तुम्हारी कि कोई मिल जाए ऐसा जो स्वयं मंज़िल तक पहुँचा हुआ हो, फिर तो क्या कहने! वो न मिले तो कम-से-कम किसी ऐसे का हाथ थामना जो मंज़िल का प्रार्थी हो। कह रहा हो, ’मंज़िल मिली तो नहीं है पर मैं जा रहा हूँ मंज़िल की ओर, अगर तुम भी जा रहे हो तो चलो साथ-साथ चलते हैं। एक ही राह के हमसफ़र हुए हम।‘
इस दूसरी कोटि से भी काम चला सकते हो। पर तीसरी कोटि से तो दूर से ही नमस्कार कर लेना जिसको मंज़िल से कोई लेना-ही-देना नहीं है। ये तीसरी कोटि जीवन नर्क कर देती है। अब तुम देख लो कि जो मिला है वो पहली कोटि का है, द्वितीय या फिर निचली कोटि का।