
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। सर, मैं अहमदाबाद से आया हूँ, पहली बार आपसे प्रश्न कर रहा हूँ। आपको मैं लगभग चार साल पहले से सुन रहा था, और उसके बाद अभी गीता-सत्र से एक साल दो महीने से आपसे जुड़ा हूँ। जीवन में बहुत बदलाव आए हैं, सर। जैसे कि मुझे दिखने लगा कि ये पशुओं की जो हत्याएँ वग़ैरह हो रही हैं, उसका सीधा-सीधा संबंध हमारे दूध, दही इन सब से है जो हम खा रहे हैं, पी रहे हैं। तो अभी तीन महीने से वो भी छोड़ दिया है। घर में बहुत फोर्स किया जाता है, लेकिन मैं अड़ा हुआ हूँ। और घर में भी लोगों को समझाता हूँ, लेकिन वो नहीं समझ रहे हैं।
और इसके बावजूद काफ़ी चीज़ें हैं, जो मेरी मान्यताएँ हैं, मेरी जो अंदर की गंदगी है, उनको जब आत्म-अवलोकन करता हूँ, तो बहुत ख़राब तरीके से दिखती हैं अंदर। और जब उन मान्यताओं के हिसाब से नहीं जीता हूँ, जैसे कि आप बताते हैं कि हमारे ज़्यादातर कर्म अतीत से ही हो रहे हैं, क्योंकि हम अतीत में कुछ सोचते हैं कि हम ऐसे जीते थे, और उस हिसाब से फिर पैटर्न हमारा चलने लगता है, तो वो दिखता है, सर। लेकिन जब उनको छोड़ता हूँ, मान्यताओं को छोड़ता हूँ, अपनी ये सब चीज़ें दिखती हैं, उनको छोड़ने के बाद दुख बहुत बढ़ जाता है। और मेरे घर में भी सबके साथ में, अभी मतलब मैं जिस तरह से जी रहा हूँ, उस हिसाब से घर में तालमेल नहीं बैठ रहा है, न पत्नी के साथ।
हालाँकि पत्नी भी गीता-सत्रों से जुड़ी हैं, उन्हें अभी दो-तीन महीने ही हुए हैं, पर उनका ऐसा कहना है कि "तुम पहले जैसे जीते थे, उसमें बहुत अंतर आ गया है। तुम पहले जैसी बातें नहीं करते, तुम दूर-दूर रहते हो। तुम पूरे टाइम किताबों में घुसे रहते हो, पूरे टाइम तुम गीता-सत्रों में, कभी वीडियो ही सुनते रहते हो। हमारे लिए समय कब मिलेगा?"
तो सर, मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं जीवन जी रहा हूँ कि मैं खप रहा हूँ। कुछ समझ में नहीं आ रहा है, और ये बहुत अंदर से पीड़ा सी होती है। तो मैं अपने आप को खुशनसीब मानता हूँ कि आज ये प्रश्न करने का मौक़ा मिला आपसे।
आचार्य प्रशांत: आपके घरवाले और पत्नी बधाई के पात्र हैं, झूठ के प्रति सही उनमें इतनी निष्ठा तो है कि वो अड़े हुए हैं। आप तो टूटने को तैयार खड़े हो। मैं तो उनको बधाई दूँगा कि वो, उनकी जो भी हालत है, जो भी उनकी मान्यताएँ हैं, हिसाब-किताब है, उसके प्रति उनकी कितनी घोर निष्ठा है। वो कह रहे हैं, हम तो नहीं हिलेंगे। निष्ठा देखिए, साहब! दम देखिए, हम झूठ पर हैं और झूठ पर ही बैठे रहेंगे, हिलेंगे नहीं। आप पूरी तरह से काँप रहे हो, हिल रहे हो, वही जीतेंगे।
प्रश्नकर्ता: सर, कई बार ऐसा होता है कि उनका ऐसा बोलने के बाद फिर, अभी मैं यहाँ सब चीज़ नहीं बोल सकता, मतलब कई बार ऐसा होता है कि मैं फिर वापस उसी जगह पर चला जाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: वो ज़्यादा मज़बूत हैं, वो आपको खींच लेते हैं।
प्रश्नकर्ता: ये दिखता भी है, कि मैं गलत जगह ये अपना समय लगा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: अपनी-अपनी निष्ठा, अपने-अपने प्रेम की बात होती है। वो अपने केंद्र पर इतने अडिग हैं कि आपको आपकी जगह से उठा के उधर खींच लेते हैं। और आपका अपने केंद्र के प्रति न संकल्प है, न सम्मान है। आप उन्हें अपनी ओर नहीं खींच पाते।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, मैंने उन्हें गीता-सत्रों में भी जोड़ा है, सर।
आचार्य प्रशांत: वो सब ऐसे ही होता है, बहुत लोग करते हैं, किसी का नाम रख के उसका दो-चार सौ रुपए रख दिया, तो इससे जुड़ थोड़ी जाता है, इससे कोई।
प्रश्नकर्ता: सर, उनके ऊपर बच्चों का भार है। वो पूरे टाइम बच्चों को लेने जाना, छोड़ने, फिर बाद में एक बच्चा क्रिकेट खेलता है और लड़की मार्शल-आर्ट्स में, फिर ट्यूशन वग़ैरह जाना, लेने-आना, वो सारे काम।
आचार्य प्रशांत: फिर क्या हो गया? 24 घंटे होते हैं दिन में, तो इससे क्या हो गया? क्या बता रहे हैं आप?
प्रश्नकर्ता: मतलब उनका ऐसा कहना है कि मैं अपने लिए तो जी...
आचार्य प्रशांत: आपका जो कहना है, क्या वो लोग बताएँगे? टूट आप रहे हो, उधर थोड़ी कोई टूट रहा है। जो आपको तोड़ने को आतुर है, क्या वो बताएँगे? कि आप श्रीमान जी हैं, पतिदेव जी हैं, आप दिन में बारह घंटे काम करते हो, वो ये नहीं गिनाएँगे। पर आप गिना रहे हो, क्रिकेट, मार्शल-आर्ट जाना होता है, एक घंटा यहाँ लग जाता है, डेढ़ घंटा वहाँ लग जाता है। आप ये गिना रहे हो, पर आप काम में बारह-चौदह घंटा लगाते हो, ये कोई गिना रहा है क्या?
कुल मिलाकर आप मेरी अनुमति लेने आए हो कि आपको पलायन करना है। आप कर जाइए, मेरी अनुमति की ज़रूरत भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, यहाँ तक दिख रहा है, आप जो बोलते हो न, कि एक स्थिति ऐसी आ जाती है जहाँ पर आप आगे बढ़ते हो, उसके बाद में फिर पीछे हटने का मन करता है।
आचार्य प्रशांत: पीछे हटने का मन क्या होता है? मन क्या होता है? मैंने कभी बोला मन करता है? मैंने कहा, पीछे हटने का फ़ैसला लेना चाहते हो स्वार्थवश। चाहते हो। “मन करता है,” तो बहुत छुपा-छुपाई वाला मुहावरा है। “मन कर रहा है,” मन क्या कर रहा है, बोलो, फ़ैसला ले रहा हूँ। “मन कर रहा है,” तो ऐसा लगता है जैसे किसी और के प्रभाव में आ गए हो, मन कोई और है। आप ही मन हो, बोलो, फ़ैसला ले रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: तो सर, इसमें मैं अडिग कैसे रह सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: अडिग रहिए ही मत। मैं तो चाहता हूँ कि आपके घरवालों की जीत हो और जीत के तोहफ़े के रूप में आपको भेंट दी जाए, ये लीजिए, ये रही भेंट। जो भी हैं आप, भाई, पति, पिता, आपको तोहफ़े में अर्पित कर दिया जाए जीतने वालों को। जो संकल्पित होगा, वो जीतेगा। जिसकी निष्ठा होगी, वो जीतेगा। आपकी तो नहीं दिख रही। जिसकी है, उसको ही जीतना चाहिए। और आपको जीत की ट्रॉफ़ी के रूप में हमें भेंट कर देना चाहिए। बधाई हो, घरवालों आप लोग जीत गए। ये लीजिए ट्रॉफ़ी।
प्रश्नकर्ता: सर, अभी एक चीज़ और कहना चाहता था आपसे, जैसे मैं जॉब करता हूँ, डायग्नोसिस लैब में मैं काम करता हूँ। वहाँ डॉक्टरों को मिलना, हॉस्पिटल में जाना, तो मेरे जो सहपाठी वग़ैरह होते हैं, उनसे भी मैं गीता-सत्रों की बातें करता हूँ। उनको कोशिश करता हूँ कि जुड़ें, लेकिन उनको जब मैं दो-तीन बार, चार बार बताता हूँ, तो वो फिर दूर हो जाते हैं।
तो अभी उन पर प्रयास न करके, जो सिक्योरिटी गार्ड हैं वहाँ पर हॉस्पिटल्स में, तो वो सब क्या हैं कि उत्तर प्रदेश मतलब बाहर साइड के हैं, गुजराती नहीं हैं क्योंकि गुजराती लोग इंटरेस्ट ही नहीं ले रहे हैं, सर। वो गुजराती लोगों को ये लगता है कि गुजराती में नहीं बोलते आचार्य जी, तो हमें समझ में नहीं आता। किताबें भी जैसे मैंने ख़रीदी हैं, मैं आपको सच बताऊँ, मैंने किताबें ऑनलाइन ख़रीद लीं, दस हज़ार रुपए की ख़रीदी थीं, लगभग साठ बुक्स। उसमें से पैंतीस बुक्स मैंने पढ़ भी ली हैं, सर। तो मैं जब उन लोगों को किताबें देता हूँ, तो किताबों में भी इतना इंटरेस्ट नहीं दिखाते। कहते हैं, कि ये हमारे समझ में नहीं आ रही हैं।
आचार्य प्रशांत: मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?
प्रश्नकर्ता: नहीं-नहीं सर, मैं प्रयास कर रहा हूँ लेकिन मैं उसमें सफल नहीं हो पा रहा हूँ, ये कह रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, आप प्रयास नहीं कर रहे हैं। मैं यही सेवा कर सकता हूँ कि आपको दो टूक बता दूँ। आपके ऊपर, आपके चेहरे पर पुता हुआ है, सौ तरह की विवशताएँ जो आपने पाली हुई हैं। पचास तरह के स्वार्थ पकड़े हुए हैं। कमज़ोरी को आप दिन-रात दाना-पानी डालते हो, ऐसे से नहीं होता। ऐसे नहीं होता।
कल रात को हमें पता चला, हमारी ही संस्था का एक विभाग था, पता चला वहाँ पर कुछ अनियमित चल रहा था, जो नहीं होना चाहिए था, वो हो रहा था। उसमें ये भी पता चला कि नुक़सान बहुत हो गया संस्था का। क्या करा हमने? मैं सुबह सात बजे तक जगा हुआ था, चार लोगों के साथ एक के बाद एक, एक साथ ही बल्कि वहाँ बैठक चलती रही। हमें दिखाई दिया, कुछ गलत हो गया है। हमने हाथ के हाथ कदम उठाए, नीति ही बदल दी, और आज ही में हम उसका परिणाम भी ले आए। ये रोने का अड्डा थोड़ी है।
हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं, उसके बाद कोई गृहस्थ आकर बोले, उसकी ज़िंदगी में समस्या है, तो चुटकुले जैसी लगती है। क्या समस्या है? वो बच्चे को मार्शल-आर्ट्स ले जाना है! यहाँ लाखों ज़िंदगियाँ हम पर आश्रित हैं, आप अपने बच्चे की बात कर रहे हो, और आपको वही बहुत बड़ी बात लग रही है, आपके चेहरे पर मजबूरी पुती हुई है। ये तो कुछ भी नहीं है। सीधी-सी बात ये है, फिर बोल रहा हूँ, शुरू में ही उत्तर दे दिया। घरवाले जैसे भी हैं, उनका अपने केंद्र के प्रति बड़ा समर्पण है, जो भी उनका केंद्र है। और आपके पास होगा ऊँचा केंद्र लेकिन उस ऊँचे केंद्र के लिए आपके पास समर्पण नहीं है।
गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को बहुत उलाहना देते हैं एक जगह। वो कहते हैं कि जितनी ताक़त और जितनी निष्ठा और जितने संकल्प के साथ सब अधर्मी लोग अधर्म का पालन करते हैं, तुम उतनी ताक़त के साथ धर्म का पालन करते नहीं दिखाई देते। अधर्मी के पास अधर्म के लिए बहुत तगड़ा संकल्प है। वो कह रहा है, जान दे दूँगा, यहाँ से नहीं हिलूँगा। श्रीकृष्ण को उदाहरण देना पड़ता है अर्जुन को। बोलते हैं, अर्जुन, उनको देखो, वो अधर्म के साथ हैं, फिर भी क्या अड़े हुए हैं। और तुम ख़ुद को देखो, गिरे जा रहे हो। “मैं नहीं लडूँगा, मैं अब स्वजनों पर आघात कैसे कर दूँ? मेरा गांडीव गिर गया है। मेरी खाल जल रही है। मैं भाग जाऊँगा।”
और वहाँ दुर्योधन, अधर्म है, लेकिन खड़ा हुआ है अधर्म की रक्षा के लिए खड़ा हूँ। किसकी रक्षा? अधर्म की रक्षा के लिए डटा हुआ हूँ। वो डटे तो हुए हैं कम-से-कम, भले ही अधर्म की रक्षा के लिए। आप हारोगे, आपका कुछ नहीं हो सकता, आप डटे हुए नहीं हो। जीतता वो नहीं है जो धर्म के साथ होता है, “धर्मो रक्षति रक्षितः” ये सब बाद की बातें हैं। जीतता वो है जिसके पास संकल्प होता है, अधर्म के पास संकल्प होगा तो अधर्म जीतेगा। इसीलिए मैं बोलता हूँ,
सच स्वयं नहीं जीतता, सच को जिताना पड़ता है, संकल्प करके। सच नहीं जीतता, संकल्प जीतता है। संकल्प अगर झूठ के पास होगा तो झूठ भी जीत जाएगा।
और दुनिया में यही चल रहा है, जितने झूठे हैं और बेईमान हैं, और अधर्मी हैं, वो सब तगड़े संकल्पित हैं और व्यवस्थित हैं, जान लगा रखी है उन्होंने अधर्म के पक्ष में। और जो लोग धर्म के पक्ष में हैं, वो ऐसे ही हैं। आपको नहीं बोल रहा हूँ, आपको भी बोल रहा हूँ। हवा का झोंका आया, पत्नी बोलती है “तुम जैसे थे वैसे ही हो जाओ, कहाँ घुसे रहते हो? यहाँ घुसो।”
आप क्यों नहीं कुछ बोल पाते? या गीता माने होंठ सिल जाते हैं? आप क्यों नहीं कुछ बोल पाते? और मैं फिर कह रहा हूँ, मैं मुरीद हो रहा हूँ उनका, मैं बधाई दूँगा उनको। उनका संकल्प देख रहा हूँ, वो यहाँ होतीं तो सचमुच उनको बधाई देता कि आप। वो जिस भी चीज़ की रक्षा करना चाह रही हैं, कम-से-कम उसकी रक्षा में प्रतिबद्ध हैं वो। नहीं फ़र्क़ पड़ता कि वो किस चीज़ की रक्षा कर रही हैं। हम कह सकते हैं, वो एक गलत चीज़ की रक्षा कर रही हैं, पर प्रतिबद्धता के साथ कर रही हैं। और आप जिस भी चीज़ के साथ हो, भले ही वो चीज़ भगवद्गीता है, आप में कोई प्रतिबद्धता, कोई निष्ठा नहीं है। आपके पास बस क्या है? “मैं तो लाचार हूँ।”
बुरा लग रहा है न? लगना चाहिए, और ज़्यादा लगना चाहिए। कह रहे हैं, “तुम मेरे जैसे हो जाओ।” आप क्यों नहीं कह पा रहे, “तुम मेरे जैसी हो जाओ?” और दो में से एक को तो जीतना ही पड़ेगा, है तो ये युद्ध ही। या तो आप उनके जैसे हो जाओगे या वो आपके जैसी हो जाएँगी। आप कह रहे हो, “मुझे भारी दुख लगता रहता है कि मुझसे कुछ छूट रहा है। आपसे झूठ छूट रहा है तो भी आपको दुख है, उनसे सच छूट रहा है तो भी उनको दुःख नहीं है। मैं तो उनको बधाई दूँगा।”
प्रश्नकर्ता: सर, उनका ये कहना है कि…
आचार्य प्रशांत: आपका जो कहना है, वो कहीं जाकर उद्धरत, कोट करती हैं?
प्रश्नकर्ता: हाँ सर, सुनती हैं लेकिन।
आचार्य प्रशांत: कहाँ करती हैं? सुनती हैं, लेकिन सर, कई बार ऐसा होता है। मैं कह रहा हूँ, आपने उनकी बात सुन ली और ख़ुद ही नहीं सुनी; मुझे भी सुनाने चले आए। आप जो बातें बोलते हो, यदि आप बोल पाते हो तो, आप जो बातें बोलते हो वो कहीं जाकर किसी को सुनाती हो?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, क्योंकि वो कहती हैं, “कचरा बात है इसकी, क्यों सुनाऊँ किसी को?” और आप उनकी बात लेकर मुझे सुनाने चले आए।
प्रश्नकर्ता: मैंने उनको बोला कि गीता सत्रों में जोड़ो लोगों को, तो बोलते हैं कोई नहीं सुनता है।
आचार्य प्रशांत: भाई, मजबूत औरत हैं। मैं तो जितना सुन रहा हूँ, फैन होता जा रहा हूँ। उन्होंने जो बोला, उस बात में इतना दम था कि उसे महावाक्य की तरह आप ले आए और मुझे भी सुना दिया, और आप उन्हें गीता तक नहीं सुना पाए। या आपने सुनाई भी थी, उन्होंने कहा, “दूर हटाओ कचरा।” गज़ब का दम है, सचमुच दम है। और ये कहानी हर घर की है, और यही बात है जिसकी वजह से शायद मेरा काम बहुत आगे तक नहीं बढ़ पाएगा। बहुत डरपोक लोग हो यार आप, और झुंझला जाता हूँ मैं बहुत बार।
काश कि आप अपनी पत्नी जैसी हैं वैसे आप होते, दमदार, संकल्पित, क्या गज़ब का दम है, क्या समर्पण, क्या प्रतिबद्धता है उनकी! “ताऊ ने मुझे उठा के बाहर फेंक दिया। आचार्य जी, लपक लो! मुझे फेंका है, मैं खिड़की से ऐसे बाहर हवा के झोंके के साथ लहराती हुई आ रही हूँ, अपनी लाइव लोकेशन भेज रही हूँ। आचार्य जी, लपक लेना।” इससे अच्छा तो मैं ही एक-आध अपने बच्चे पैदा कर लेता।
फिर बोल रहा हूँ, “जीत सच की नहीं, जीत संकल्प की होती है। जिसके पास संकल्प होगा, वो जीतेगा।” स्वयं श्रीकृष्ण खड़े थे पांडवों की ओर, और युद्ध शुरू होने से पहले ही पांडव हार गए थे। अर्जुन ही भाग गए थे। सच की कोई जीत होने वाली थी? सच तो सीधे-सीधे हारने को तैयार खड़ा था। सच नहीं जीतता; संकल्प जीतता है। संकल्पित तो दुर्योधन था, “नालायक हूँ, बेईमान हूँ, पर जैसा भी हूँ, अड़ा रहूँगा।” जीतता तो वही है जो अड़ा रहता है।
रावण का जीवट देखिए न; राम सामने खड़े हों, इसीलिए जीतता है रावण। अंत में भी उसने करीब-करीब हाथ मार ही दिया था। लक्ष्मण को तो लग ही गई थी शक्ति; आधा रास्ता तो तय ही कर दिया था। राम और लखन में से लक्ष्मण को तो अपने रास्ते से हटा ही दिया था लगभग। ठसक, संकल्प “नहीं झुकते।” और क्या बात है कुदरत की कि जो सीधे-सीधे झूठ के साथ खड़े हैं, वो कह रहे हैं, “नहीं झुकते” और वो झुकते भी नहीं हैं; और जो मेरे साथ हैं, गीता के साथ हैं, उनको यहाँ (हाथ की ओर इंगित करते हुए) पर रॉड लगानी पड़ती है कि किसी तरह सीधा हो जाए मामला।
ये जो दोस्त हैं आपके जिन्हें हिंदी नहीं समझ में आती, तो इन्होंने फिर अमिताभ बच्चन की कोई फिल्म देखी ही नहीं होगी, सलमान खान की कोई फिल्म नहीं देखी होगी, चिकनी चमेली पर नाचे भी नहीं होंगे ये शादी में। हिंदी तो आती ही नहीं उनको। जो पूछ रहा हूँ वो बताइए न, फिल्म नहीं देखते न वो? कैसे? अमिताभ गुज्जु हो गया, कैसे देख ली? और मैं जो हिंदी बोलता हूँ आपसे, वो बिल्कुल वैसी रहती है, संस्कृतप्रधान? बोलो जल्दी बोलो, नहीं समझ में आएगी?
श्रोता: आएगी।
आचार्य प्रशांत: बात गुजराती भाषा की है? पर आप उनके प्रतिनिधि बनकर, माउथपीस बनकर मेरे सामने उनकी बात रखने आ गए, कि “वो तो देखिए, किताबें वो कैसे पढ़ेंगे, वो आपका सेशन कैसे सुनेंगे?” सैकड़ों में नहीं, हज़ारों में लोग हैं गुजरात से हमारे पास, इसी गीता कम्युनिटी में। गुजरात से हैं, बेईमान नहीं हैं। बात गुजराती होने की नहीं है; बात ईमान की है। यहाँ भी कोई हो सकता और गुजरात से, (एक श्रोता अपना हाथ उठाते हैं) वो देखिए। क्या भाई, हिंदी नहीं आती?
उनको आप में संकल्प नहीं दिख रहा है; उनको आप में कमजोरी, लाचारगी और स्वार्थ दिख रहा है। और आप मेरे प्रतिनिधि बनकर खड़े हो, तो आपके माध्यम से मेरी छवि भी धूसर हो रही है। मैं आग रखता हूँ कि नहीं, ये आपकी रोशनी से पता चलता है। आप यहाँ आए हो न, आपने मुझे स्पर्श करा है, तो आप प्रदीप्त हुए कि नहीं? इससे लोग अनुमान लगाते हैं कि आपकी ज़िंदगी में कितनी रोशनी है, ताक़त कितनी है? ताक़त की जगह आप लुचर पुछुर रेंगोगे तो कौन मेरे पास आएगा? मेरा तो पूरा संदेश ही बल का है। और बहाने सब बना देंगे। कोई बोलेगा भाषा का बहाना है, कोई समय का बहाना बोल देगा, कोई कुछ और, मेरा विरोध करने के लिए कारणों की कमी है क्या? एक-हज़ार-एक कारण निकल आएँगे।
अभी एक का और आया, गज़ब है! बोले “ये कोई शिष्टाचार की बात है, सामने सौ लोग बैठे हों, हज़ार लोग बैठे हों, चाय अकेले पी रहे हैं।” बोले, “हमारी भारतीय संस्कृति में चाय अकेले नहीं पी जाती। अगर आप पी रहे हो तो सबके हाथ में प्याला होना चाहिए।” और इससे हमें पता चल गया कि तुम फ़र्ज़ी हो। मुझे फ़र्ज़ी घोषित करने के लिए आप एक कारण ढूँढो, पाँच सौ मिलेंगे। आप उन कारणों को आके यहाँ गिना दो। मैं क्या कर सकता हूँ फिर?
(चाय पीते हुए) ठंडी है यार, वहाँ रखी है; वो गरम-गरम वहाँ रखी हुई है वो, सब बैठ गए वहाँ से इधर आई भी नहीं। मतलब मैं क्या कर सकता हूँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं क्या करूँ? वहाँ पर रात में मेरे जिम ट्रेनर हैं वो आते हैं, मेरा काम है जो बोल दिया, वो करना है। हो गया। अब मुझे तो यही तरीका पता है बस: कि अगर दिख रहा है कि कोई चीज़ सही है, तो जो चीज़ सही है, चुपचाप करो। अब इस बात से क्या लेना देना कि दिन भर के बाद थके हो कि क्या है? कि यहाँ दर्द हो रहा है जो भी है, क्या, हो गया। चढ़ा दिया ट्रेडमिल पर, अब दौड़ो; ऐसा हो सकता है कि पाँच ही मिनट में आपकी साँस फूलने लग जाए। उन्होंने अगर सेट कर दिया है टाइम, तो दौड़ो तब तक। मैं तो यही जानता हूँ, बताओ मैं क्या करूँ?
बहुत जोड़तोड़, विधियाँ, तरीके, चालाकियाँ मुझे आती नहीं हैं। जो बात सीधी है, वो सीधी-सीधी है। सीधी बात यहाँ लिखी हुई है, वो सीधी बात बता दी। अब आप कहते हो, “मुझे दुख होता है कि मेरा पुराना जीवन छूट रहा है।” तो इसमें मैं क्या बता सकता हूँ आपको? ये ऐसी-सी बात है मैं ट्रेनर से बोलूँ, “मुझे दुख होता है कि मेरी पुरानी कमज़ोरियाँ छूट रही हैं।” तो क्या जवाब दे ट्रेनर? बोलो न। “मुझे दुख होता है कि मेरी पुरानी चर्बी छूट रही है।” ट्रेनर क्या बोल सकता है इसमें? क्या बोले बेचारा? भग! यही तो।
जिसको देखो, उसको अपनी नाकामियों की कथा लेकर के खड़ा हुआ है। आज मेरी माँ ने मेरे ऊपर खौलता हुआ पानी फेंककर मारा। और जो कमज़ोर से कमज़ोर लोग भी होते हैं न, ये बहुत रोचक बात है, कमज़ोर से कमज़ोर आदमी भी होगा, लेकिन जब उसी कमज़ोरी पर प्रहार हो रहा होगा, तो वो अपनी कमज़ोरी को बचाने के लिए बहुत मज़बूत हो जाता है। नहीं तो देखा जाए तो हम कहते हैं कि भारतीय मध्यम वर्ग में तो महिला बेचारी दुर्बल होती है, यही तो कहते हैं। खूब रोना इसी बात का रहता है।
सेक्स रेशियो गुजरात में भी बहुत बुरा है और गुजरात को कोई ख़ास प्रोग्रेसिव स्टेट भी नहीं माना जाता। तो गुजरात में हैं गृहिणी हैं कमाने वाले आप हैं तो लगेगा कि सारी ताक़त आपके पास होगी। पर नहीं देखो, अपनी कमज़ोरी को बचाने के लिए हम बहुत मज़बूत हो जाते हैं। जो मज़बूती हम किसी के ख़िलाफ़ न दिखा पाए, वो मज़बूती हम उसके ख़िलाफ़ दिखा देते हैं जो हमारी कमज़ोरी तोड़ने आता है।
कमज़ोरी में अहंकार के प्राण बसते हैं। अहंकार से उसकी कमज़ोरी छीनोगे, तो वो बहुत मज़बूत होकर के तुम पर वार करेगा, क्योंकि उसे अपनी कमज़ोरी बचानी है।
जिस पर प्रयास नहीं करना, मत करिए। मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि हर आदमी हर समय गीता के लिए तैयार नहीं होता, वो ठीक है। पर आप अपने प्रयास की दिशा मोड़ कर के, आपने कहा, और हैं इधर-उधर उनसे आप बात करिए। हार का रोना मत रोइए, प्रयास निरंतर रहे, बस। जिसने नहीं सुनी बात, अरे नहीं सुनी, हम आगे बढ़ जाएँगे। इतनी बड़ी दुनिया, इतनी आबादी है। तुम्हें नहीं सुननी, इसमें तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता। मेरी हार नहीं हो गई, दिल छोटा मत करिए, मत कहिए कि बड़ा दुख लग जाता है।
हम यहाँ बैठे हुए हैं, आज 31 तारीख है, चार घंटे में ये महीना पूरा हो जाएगा। कुछ नहीं तो पंद्रह हज़ार लोग हैं जिन्होंने अभी भी रजिस्ट्रेशन नहीं करा है। मैं उनका मातम मनाऊँ या आपसे बात करूँ? बोलो। हम आगे बढ़ गए। जिनको गाड़ी से उतरना है, उतर जाएँ। हमने प्रयास करा पूरा, कि न उतरें। नहीं मानना उन्हें वो उतर रहे हैं गाड़ी से, उतरो भैया, हम आगे बढ़ेंगे। हर महीने हमारी गाड़ी पर और नए लोग चढ़ जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: कल एक जन को जोड़ा भी है गीता सत्रों से। मेहनत कर रहा हूँ। क्षमा सर, मैं बीच-बीच में बोल देता हूँ, उसके लिए माफ़ी।
आचार्य प्रशांत: मेहनत तो किसी को मज़बूर कराके भी कराई जा सकती है। मुझे आज़ाद मेहनत चाहिए। सिर्फ़ मेहनत काफ़ी नहीं है, मेहनत तो मज़बूरी की चीज़ भी हो सकती है। गधा मज़बूर होता है, मेहनत करता है। मुझे आज़ादी वाली मेहनत चाहिए। आपकी बात में एक आज़ाद गर्जना होनी चाहिए, कमज़ोरी की पिलपिलाहट नहीं।
प्रश्नकर्ता: सर, आपके आशीर्वाद से मेरा डेढ़ साल पहले 84 किलो वज़न था सर, 72 किलो हुआ, जिम करके।
आचार्य प्रशांत: तो ये भुजदंड ऐसे ही थोड़ी बनाए हैं। इस्तेमाल भी करिए एक-आध दो को।
बहुत बुरी, गंदी हार भी हो जाए उस समय भी खड़े ऐसे रहिए जैसे कुछ नहीं बिगड़ा है। मज़बूरी नहीं आनी चाहिए चेहरे पर, किसी हाल में नहीं आनी चाहिए।
कौन हमारी नहीं सुन रहा, कौन नहीं सुन रहा, ये बहुत हद तक संयोग पर भी निर्भर करता है। उससे हमारा तेज कम नहीं हो जाना चाहिए। हम सही काम कर रहे हैं, सच बाप है हमारा। वो जैसे होते नहीं हैं ये आवारा लड़के, “तुझे ये पता है न मेरा बाप कौन है?” उन्हें जब ट्रैफ़िक पर रोका जाता है, “ तुझे पता है न मेरा बाप कौन है?” ऐसे ही हो जाइए, सच की उद्दंड औलाद। कहीं कुछ हो सीधे, “ तुझे पता है न मेरा बाप कौन है?” कौन है?
श्रोता: सच।
आचार्य प्रशांत: और जहाँ जाति-वाति हो तो, “अरे! कौन सी जाती?” जाति हमारी?
श्रोता: आत्मा।
आचार्य प्रशांत: पंगे मत लेना। थोड़ी गुंडागर्दी, कुछ गुंडई तो चलानी चाहिए, इसके बिना ये दुनिया आपको बिल्कुल रौंद के चल देगी।