प्रश्नकर्ताः आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि ये हम चीज़ सब कुछ छोड़कर ही कर पाएँगे या फिर सब में रहते हुए भी कर सकते है? मतलब कि मैं घर-बार छोड़कर या फिर वैराग्य लेकर या सन्यास लेकर ही वो चीज़ कर पाऊँगा, या फिर मैं घर पर रहकर भी वो चीज़ कर सकता हूँ? कि मुझे फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा, वो चीज़ है तो ठीक है, नहीं है तो भी ठीक है।
मेरा वो ही प्रश्न था कि कौनसा मार्ग सही है। जैसे घर पर भी अभी बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ हैं मेरे ऊपर, अभी अकेला हूँ तो माँ-बाप की बहुत ज़िम्मेदारियाँ हैं। तो मैं पहले कर्तव्य अपना देखूँ या मैं इस तरफ़ मुड़ूँ या दोनों कर सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: जैसे हम कहते हैं न, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,” वैसे ही हम यह भी कह सकते हैं, “मनुष्य एक घरेलू प्राणी है।” घर तो हमारा होना ही है, जहाँ भी हों हम, वहाँ घर तो बन जाना ही है। आप एक होटल के कमरे में भी जाते हो दो-चार दिन के लिए, तो उसको भी थोड़ा तो सुव्यवस्थित करके रखते ही हो। बन गया न चार दिन के लिए घर? गाड़ी में भी बैठते हो दो घंटे के लिए तो गाड़ी की भी थोड़ी सफ़ाई करके रखोगे, गाड़ी की भी सीट की सफ़ाई देखोगे, उस पर लिहाफ़ क्या चढ़ा है, उसका रंग क्या है, यह सब देखोगे, हो गई न घर जैसी बात? तो घर तो रहेगा ही, प्रश्न यह है कि उस घर के साथ आप सम्बन्ध क्या बना रहे हो?
समझना, बीमार के साथ एक सम्बन्ध यह हो सकता है कि तुम भी बीमार हो जाओ, बीमार के साथ एक सम्बन्ध यह हो सकता है कि तुम उसके यार हो जाओ, और बीमार के साथ एक सम्बन्ध हो सकता है कि उसके मददगार हो जाओ। अगर मानोगे ही नहीं कि जिसके साथ हो वह बीमार है, तो यही करोगे कि उसकी बीमारी अपने ऊपर भी ले लोगे। अगर कहोगे कि जो बीमार है वह तो बहुत ख़ुशहाल है, वह तो बिलकुल वैसा ही है जैसा उसको होना चाहिए, तो उससे मित्रता कर बैठोगे, यार हो जाओगे उसके।
अगर बीमार को आदर्श ही बना लिया, तो फिर बीमार के प्रति सम्मान से भर जाओगे, बीमार और उसकी बीमारी दोनो के पाँव छूना शुरु कर दोगे। और अगर साफ़-साफ़ स्वीकार करते हो कि बीमार के साथ हूँ, बीमारों के मध्य हूँ, तो फिर उनके मददगार हो सकते हो। और अच्छे से समझ लो, जैसा हमने शुरुआत में कहा, कि तुम जहाँ भी रहोगे, तुम्हारे इर्द-गिर्द कुछ तो रहेगा ही।
तुम्हारे इर्द-गिर्द जो कुछ है, उसी को तुम एक तरह का तात्कालिक घर मान सकते हो। जो कुछ भी है तुम्हारे इर्द-गिर्द, उससे सही रिश्ता बनाना सीखो न। और उससे सही रिश्ता बनाने में यह बात भी शामिल है कि उससे निकटता कितनी रखनी है और दूरी कितनी रखनी है। और निकटता अगर रखनी है तो क्या बनकर रखनी है और अगर दूरी रखनी है तो किस प्रयोजन से रखनी है।
पर यह बात हो गयी सूक्ष्म। हम इतनी सूक्ष्मता में, इतने विस्तार में जाना नहीं चाहते, तो हम फिर मोटे-मोटे अपने सामने दो चुनाव रख लेते हैं बस, क्या? कि या तो घर में रहो, जैसे सब रहते हैं वैसे ही, घर वाले बनकर ही घर में रहना है; या फिर हम सन्यासी हो गये, अब हम घर को छोड़ देंगे, घर-बार का जी हमने त्याग कर दिया। ये दोनों ही अतियाँ बड़ी स्थूल हैं और एक सोते हुए मन की निशानी हैं। इन दोनों ही कामों को करने के लिए कोई विशेष जागरूकता चाहिए नहीं। वास्तव में ये दोनों काम अपने-आप हो जाते हैं।
किसी जगह पर एकदम लिप्त हो करके पड़े रहो, पड़े रहो। जब लिप्तता बहुत बढ़ जाएगी तो अपने आप फिर एक दिन विस्फोट हो जाता है और वो बिंदु आ जाता है जहाँ पर रिश्ते टूटने लगते हैं, तो फिर दूरी बन जाती है। फिर जब दूरी बन जाती है तो कहीं और जा करके बैठे हुए होते हो, वहाँ भी यही प्रक्रिया अपने-आपको दोहराती है; वहाँ से बिदक करके वापस पुरानी जगह पर आ जाते हो।
घड़ी का पेंडुलम जैसे होता है न? इधर से उधर, उधर से इधर। और घड़ी के पेंडुलम के पास तो दो ही सिरे हैं, क्योंकि वह एक ही आयाम में गति करता है, ऐसे-ऐसे (उँगली से गति को दर्शाते हुए) , हम ३६० डिग्री गति करते हैं, कभी ऐसे, कभी ऐसे, कभी ऐसे, कभी ऐसे, कभी ऐसे, कभी ऐसे (उँगली से सभी दिशाओं में अनियंत्रित गति को दर्शाते हुए)। घड़ी के पेंडुलम के पास अधिक-से-अधिक दो अड्डे हैं, हमारे आठ-दस होते हैं, बीस होते हैं, कहीं भी जा सकते हैं। लेकिन जहाँ भी जाते हैं, उस जगह को न तो समझते हैं, न उससे सही सम्बन्ध बनाते हैं। भागा-भागी से क्या होगा?
मैं इस बात का क़ायल नहीं हूँ कि जहाँ हो वहीं चिपके पड़े रहो। पर मैं भागा-भागी के विरुद्ध थोड़ा सावधान रहने को इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि एक जगह से भाग करके दूसरी जगह जहाँ आप जाते हो, वहाँ भी क्या चैन पाते हो? भाग लो भागना ही है तो, पर सही दिशा की ओर तो भागो। एक जगह से दूसरी जगह की अंधी दौड़ लगाने से, कूद-फाँद से क्या लाभ होगा?
यहाँ बहुत लोग बैठे होंगे जिन्होंने कुछ जगहें छोड़ी होंगी, कुछ दूसरी जगहों पर जा करके अड्डा बनाया होगा, आवास किया होगा, उससे वाक़ई लाभ ही हो गया? आप एक रिश्ते में जाते हो, उसको तोड़ देते हो, फिर दूसरा रिश्ता बनाते हो; एक नौकरी में जाते हो, छोड़ देते हो, दूसरी में जाते हो। यह प्रक्रिया ठीक है, अगर इससे आपको लाभ हो रहा हो वाक़ई। पर लाभ नहीं हो रहा तो फिर तो हम अपने-आपको ही बस बहला-फुसला रहे हैं न?
अध्यात्म का मतलब यह नहीं है कि घर-बार छोड़ देना है। अध्यात्म को क्या लेना-देना घर-बार से, दुकान से; यह तो संसार है। अध्यात्म आपके बारे में है, भाई!
वह कहता है कि आप जानते भी हो क्या कि आप जहाँ बैठे हो, वहाँ क्यों बैठे हो?
जिनसे संबंधित हो, उनसे क्यों सम्बन्धित हो?
आपको पता भी है आप क्या बन करके जी रहे हो, जहाँ भी जी रहे हो?
ये हैं सवाल। अब जिस तल पर आप पूछ रहे हो कि मैं घर पर रहूँ या घर छोड़ दूँ, उस तल पर अध्यात्म आपको कोई उत्तर दे ही नहीं सकता; आपको देखना है। और किसने कह दिया कि यही दोनों विकल्प होते हैं? पहला विकल्प आपने कह दिया कि जैसी स्थितियाँ हैं, बिलकुल वैसे ही चलती रहें, कुछ हिले नहीं, यथास्थिति बरकरार रहे, स्टेटस क्वो। यह आपने पहला विकल्प पकड़ा है। और दूसरा विकल्प आपने क्या पकड़ा है? कि सब छोड़-छाड़कर कहीं रफूचक्कर हो जाना है। इन दोनों ही विकल्पों में कौनसी होशियारी है?
अध्यात्म में कुछ भी अनिवार्य नहीं, कुछ भी वर्जित नहीं, कर्म के तौर पर। हाँ, एक चीज़ ज़रूर है जिसकी ओर आपका ध्यान खींचा जाता है, वह यह कि क्या बने बैठे हो, क्या कर रहे हो, और जो बनकर जो कुछ कर रहे हो, उससे तुमको चैन मिल रहा है क्या। बहुत सीधा-सा सवाल है।
इस सवाल के बाद अगर आपको अपने रिश्ते वैसे ही चलाने हैं जैसे चल रहे हैं, तो चलाइए। कोई ऋषि आपको बताने नहीं आएगा कि आपके भाई से या आपके पिता से या आपकी पत्नी से आपका रिश्ता कैसा होना चाहिए। ऋषियों का यह काम नहीं है। वो इन मामलों में नहीं पड़ते; वो आपको देखना है। न तो वो यह कहने आएँगे कि यथास्थिति चलती रहे, न वो यही कहने आएँगे कि सब तोड़ दो, मरोड़ दो, छोड़ दो।
सब विकल्प खुले हैं – छोड़ने का भी विकल्प है और रिश्ते जैसे हैं, उसकी अपेक्षा उन्हें बहुत सुधार देने का भी विकल्प है। यह तो निर्भर इस पर करता है कि वह रिश्ता बना ही क्यों है, और यह निर्भर इस पर भी करता है कि वह रिश्ता किससे बना हुआ है। जिससे रिश्ता बना हुआ है, उससे ज़बरदस्ती तो नहीं की जा सकती। कोई सुनने-समझने, बदलने को यदि राज़ी हो, तो ही प्रगति संभव है। और सबका समय एक साथ ही आ जाए, यह आवश्यक नहीं।
क्यारियाँ बना दीजिए, उसमें बीज छिड़क दीजिए, एक-सी मिट्टी, एक-से बीज, फिर भी अंकुर एक ही समय पर नहीं फूटते; सब का समय ज़रा अलग-अलग होता है। सब एक ही चाल से चलते भी नहीं, सब एक ही दिशा में बढ़ते भी नहीं। अब आप चाहे कि किसी का हाथ खींचकर ज़बरदस्ती करें, ऐसा हो नहीं पाता है।
एक तरफ़ तो कह रहे हो कि मुक्ति परम आवश्यक है, दूसरी ओर क्या किसी को ज़बरदस्ती मुक्ति दिलाओगे? वो इस बात के लिए भी तो मुक्त है न कि मुक्ति न चाहे। अब वो नहीं चाह रहा तो क्या करोगे? या किसी से कहोगे ये कि ये एक बद्धता है कि तुम्हें मुक्त होना पड़ेगा?
जब मुक्ति में कोई अनिवार्यता नहीं होती तो मुक्ति स्वयं भी एक अनिवार्यता कैसे हो गई? जिसको नहीं चाहिए उसको नहीं चाहिए; उसको अभी संसार भोगने दो भई। अधिक-से-अधिक उससे कुछ बातें कर सकते हो, अधिक-से-अधिक कुछ प्रयोग कर सकते हो, अपनी ओर से प्रयास कर सकते हो।
सब व्यक्ति अलग-अलग होते हैं और सबके साथ अलग-अलग ही विधियाँ काम करती हैं। कोई इसमें एक रास्ता नहीं बताया जा सकता। आपको अपनी चेतना का प्रयोग करना है, आपको देखना है इस क्षण पर क्या कहना, क्या करना उचित है।
हाँ, एक बात निश्चित होनी चाहिए कि आप जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें आपकी और दूसरे व्यक्ति, दोनों की भलाई निहित हो। जो कुछ भी आप कर रहे हों, दूसरे का शोषण करने के लिए मत करिएगा। बाक़ी कभी किसी की भलाई उसे बाएँ खींचकर की जा सकती है, कभी दाएँ खींचकर की जा सकती हैं, कभी उससे गले मिलकर की जा सकती है और कभी उससे दूर जाकर की जा सकती है, नहीं?
किसी का भला करने का कोई एक तरीक़ा तो होता नहीं, कि होता है? किसी को समझाने के लिए कभी गले भी मिल सकते हैं और कभी डाँट-डपट भी सकते हैं, कभी बहुत बोलना भी ज़रूरी हो सकता है, कभी एकदम चुप रह जाना—प्रयोजन ठीक होना चाहिए बस। और फिर अलग-अलग समय होते हैं और हर समय की अपनी एक माँग होती है।
एक दिन था जब सिद्धार्थ गौतम ने ब्याह किया था, ठीक है न? बलात् तो नहीं करवाया गया होगा, उन्होंने भी सहमति दी होगी पिता को कि हाँ, ठीक है, करनी है। हो गया विवाह। फिर एक दिन था जब पत्नी के साथ मिलन करा होगा तो संतान पैदा हुई। वो भी ज़बरदस्ती तो नहीं करवाया गया; स्वयं ही आकर्षित हुए होंगे, यौन क्रिया में उतरे होंगे, तभी संतान पैदा हुई। फिर एक दिन था जब पत्नी सो रही है, साथ में बच्चा सो रहा है, और रात में उठते हैं और महल छोड़कर निकल जाते हैं। और फिर एक दिन था जब बुद्ध हो करके उस महल में वापस भी आ जाते हैं। और फिर एक दिन था कि जिस लड़की को एक दिन पत्नी बनाकर लाए थे, उसको भिक्षुणी बनाकर ग्रहण कर लेते हैं।
तो क्या बताया जाए, क्या सही है, क्या ग़लत? बोलो। जो संतान एक दिन सिद्धार्थ की कामोत्तेजना से पैदा हुई थी, उसी संतान को एक दिन अपना शिष्य बना लेते हैं। क्या बताया जाए, क्या सही है, क्या ग़लत? यह तो समय-समय की बात होती है; किसी समय पर कुछ सही, किसी समय पर कुछ और सही। पर अगर आप अपनी चेतना का इस्तेमाल नहीं करना चाहते, तो फिर आप बँधे-बँधाए नियमों की माँग करते हैं कि नियम बता दीजिए, नियम क्या है। क्या नियम बता दें? न घर पर पड़े रहना नियम है, न घर को छोड़ देना नियम है; नियम तो इनमें से कुछ भी नहीं है। घर पर पड़े रहना भी बहुत ग़लत हो सकता है और घर को छोड़ देना भी बहुत ग़लत हो सकता है। क्या बताएँ?
प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। मैंने कई परिवारों में देखा है कि हम जिनको प्यार करते हैं, हम उनको अपने ऊपर निर्भर होने देते हैं और जिनसे प्यार कम होता है, उनको हम बोलते हैं कि आप ख़ुद करो। तो यह विरोधाभास नहीं हो गया कि हम जिनको निर्भर होने देते हैं, हम उनकी तरफ़ दानव जैसा व्यवहार करते हैं और जिनको बोलते हैं कि ख़ुद करो, उनकी तरफ़ हम अच्छे होते हैं। यह तो विरोधाभास हो गया।
आचार्य: जो हमारे प्यार से बच गया, वो बच गया! नफ़रत थोड़े ही भारी पड़ती है हमको, मारे सब प्यार के ही हुए हैं! मुझे बताइए, कौन ऐसा है जो नफ़रत का शिकार हो? कारण है न, जो आपसे नफ़रत करता है, उसके पास आप टिकते ही नहीं ज़्यादा, तो बच जाते हो। जिसको जान गए कि नफ़रत करता है आपसे, उससे क्या हो जाओगे? दूर हो जाओगे। तो बच जाओगे। आपको तबाह करते हैं तो प्यार करने वाले, क्योंकि उनसे दूर नहीं हो पाते न।
आप क्या हैं उसको बदलिए। अगर आप ग़लत हैं तो आप कुछ भी करें, सामने वाले पर प्रभाव ग़लत ही पड़ेगा। अगर आप ठीक ही नहीं है, अगर आप स्वस्थ ही नहीं हैं, अगर आप अच्छे ही नहीं हैं, तो आप एक अच्छी माँ भी कैसे हो सकती हैं? नहीं समझे? अगर आप अच्छे ही नहीं है, तो आप एक अच्छी माँ हो सकती हैं क्या? अगर…
हम जो हैं, उसको बदलना पड़ेगा न?
कैक्टस (नागफनी) आपको प्यार भी करने आएगा, तो क्या देगा? काँटे ही देगा! वो लिपट गया बिलकुल आपसे तो बड़ी दिक़्क़त हो जाएगी। वो तो प्यार कर रहा है, वो मजबूर है, और कुछ कर ही नहीं सकता। तो किसी को प्यार करने से पहले अपना ‘कैक्टसपना’ तो छोड़िए। साँप किसी की चुम्मी भी लेगा तो…बड़ी गहरी वाली उसने ली है अपनी ओर से!
हमारे भीतर ये सब बैठे हैं न, कैक्टस , साँप, इनको अगर हटाएँगे नहीं तो बड़ा ख़तरनाक हो जाएगा हमारा स्पर्श, हमारा आलिंगन, हमारा चुंबन। बहुत ख़तरनाक हो जाएगा! नीयत की नहीं बात है कि मैं तो उसका अच्छा ही चाहती थी न। अब कैक्टस चाह तो रहा है अच्छा, तो उससे क्या हो गया, चाहने से क्या हो गया? वो कैक्टस है!
इसीलिए फिर ऋषियों ने समझाया है कि दूसरे को प्यार करने से पहले ख़ुद से प्यार कर लो, दूसरे को चाहने से पहले ख़ुद को चाह लो, दूसरे को सुधारने से पहले ख़ुद को सुधार लो। ये स्वार्थ ज़रूरी है क्योंकि अगर तुमने अभी ख़ुद को सुधारा नहीं, तो तुम दूसरे को भी बर्बाद ही करोगे।
अच्छा, एक बात बताइए, कोई माँ-बाप होते हैं जो अपने बच्चों का अपनी तरफ़ से बुरा चाहें? वो विचार ही यही करके बैठे हों कि ये जो पैदा हुआ न, इसको बर्बाद करना है? ऐसा विचार तो कम-से-कम कोई नहीं करता है, या करता है? तो फिर भी ज़्यादातर बच्चे बड़े होकर क्यों बोल रहे होते कि ये इन्हीं दो लोगों ने बर्बाद किया है मुझे? ऐसा क्यों होता है? चलिए कुछ कह दीजिए कि वो बच्चे ग़लतफहमी में हैं या कि बड़े एहसान-फ़रामोश निकले, लेकिन कुछ हद तक तो उनकी बात तो सही होगी न?
अगर माँ-बाप बच्चों का भला ही चाहते हैं, तो बच्चों का बुरा क्यों हो जाता है? दुनिया बिगड़े हुए बच्चों से ही क्यों भरी हुई है? नब्बे-पिच्यानवे प्रतिशत तो ऐसे ही हैं न जिनको देखकर आपको यही सवाल आता है कि इनके माँ-बाप कौन हैं, या नहीं आता? आठ-आठ साल के लड़के ड्रग्स (नशीले पदार्थ) लेकर घूम रहे हैं, दस-दस साल की लड़कियाँ गर्भवती हो रही हैं, और तुरंत फिर आप क्या बोलते हो? "इनके पेरेंट्स (माँ-बाप) कौन हैं?" और पेरेंट्स कह रहे कि हमने इनका बुरा तो कभी नही चाहा था। भाई, चाहने से कुछ नहीं होता, जागने से होता है, समझने से होता है। उसी के लिए तो अध्यात्म है।
हम बड़ी ग़लतफ़हमी में जीते हैं, हमें लगता है कि नहीं, नहीं, नहीं, चीज़ें तो हमारी इच्छा से चलेंगी। चीज़ें तुम्हारी इच्छा से नहीं, तुम्हारी हस्ती से चलती हैं। बात समझ में आ रही है? इन दोनों में बहुत अंतर है। आपकी इच्छा कुछ होती है, आपकी हस्ती बिलकुल दूसरी होती है। जो होगा वो आपकी इच्छा अनुसार नहीं होगा, आपके अस्तित्व, आपकी हस्ती के अनुसार होगा। इसलिए बच्चे बर्बाद निकलते हैं।