पढ़े-लिखे लोगों में अंधविश्वास की ये है वजह || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. बॉम्बे (2022)

Acharya Prashant

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पढ़े-लिखे लोगों में अंधविश्वास की ये है वजह || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. बॉम्बे (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रशांत, वेरी हैप्पी टू सी यू हेयर (आपको यहाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई)। मुझे आपके वीडियोज़ देखकर बड़ा अच्छा लगा कि आप सुपरस्टिशन (अंधविश्वास ) के अगेंस्ट बोलते हैं, रेसनालिटी (समानता) की तरफ़ बोलते हैं। एक सवाल था कि हमने साइंटिफिक टेम्पर (वैज्ञानिक स्वभाव) अपने कांस्टीट्यूशन (संविधान) में डाल दिया और साइंस (विज्ञान) पढ़ना हमारे लिए कंपल्सरी (अनिवार्य) है हर बच्चे के लिए। फिर भी साइंस में बड़ी-बड़ी डिग्री लेने के बाद भी लोग यहाँ पर सुपरस्टिशन में काफ़ी विश्वास करते हैं या फिर उनका साइंटिफिक , वैज्ञानिक मानसिकता नहीं है।

कुछ किसी ने कह दिया कि अरे! ये, ये इलाज काम करता है, वो बिना सोचे-समझे कि इसका क्या टेस्टिंग (परीक्षण) हुई है, क्या हुआ है; वो सोचकर उसपर अंधविश्वास करते हैं, वाट्सएप फॉरवर्ड कर देते हैं, वगैरह-वगैरह और अग़र आप देखो कि पिछले हज़ार, दो हज़ार, तीन हज़ार साल पहले जो नॉलेज (ज्ञान) हमारे सभ्यता में आई थी तो वो बिना जिज्ञासा के, बिना सत्य की खोज के नहीं आई होगी।

किसी ने ये नहीं कहा होगा कि मेरे पूर्वजों ने सबकुछ ढूँढ लिया है, अब मुझे कुछ ढूँढने की ज़रूरत नहीं है, बस मैं पूर्वजों को मानकर चलूँ। तो भी क्या ऐसा है कि हम वो दोबारा नॉलेज को आगे बढ़ाने के लिए नहीं सोच पाते या तो हम पाश्चात्य नॉलेज पर पूरा डिपेंडेंट (आश्रित) रह जाते हैं या फिर जो हमारे पूर्वजों ने बोल दिया उसको सत्य मानकर कि उसके आगे हमें उसकी टेस्टिंग भी नहीं करनी। तो ये हम कहाँ पर ग़लत हैं और ये एजुकेशन (शिक्षा) में कहाँ चेंज (परिवर्तन) लाने की ज़रूरत है कि ये आगे बढ़ा जा सके?

आचार्य प्रशांत: वंडरफुल (आश्चर्यजनक)! प्रोफेसर शेठी मेरे बैचमेट (सहपाठी) हैं आईआईटी देलही से (तालियाँ जाती हैं)। सो ग्रेट टू बी रिसीविंग ए क्वेश्चन फ्रॉम हिम (अतः उनसे एक सवाल प्राप्त कर अच्छा लगा), वंडरफुल ! देखिए, पहली बात सुपरस्टिशन का इलाज़ साइंस नहीं है। ये बहुत बड़ा सुपरस्टिशन है कि सुपरस्टिशन को आप साइंस से काट दोगे। साइंस क्या है? साइंस एक बाहरी चीज़ है और सुपरस्टिशन बाहरी चीज़ों को विषय बनाता है, ऑब्जेक्ट (वस्तु) बनाता है। सुपरस्टिशन नहीं है बाहर, सुपरस्टिशन का ऑब्जेक्ट है बाहर।

सुपरस्टिशन यहाँ है (हृदय की और संकेत करते हुए) और साइंस यहाँ घुसने से इंकार करता है। साइंस बहुत ईमानदार है। साइंस कहता है, 'इंसान के दिल में क्या है, उससे हमें कोई लेना-देना नहीं।' साइंस कहता है, 'मुझे तो ये पता करना है इसके अन्दर क्या है, इसको देखने वाले के अन्दर क्या है।' साइंस उस क्षेत्र में जाता ही नहीं।

साइंस ने अपनी जो बाउंड्री है, सीमा, वो बहुत ऑनेस्टली डिलिनिएट कर रखी है, ठीक है न? आई शेल डील माईसेल्फ विद द ऑब्जेक्टिव वर्ल्ड दैट इज अमीनेबल टू द सेंसिस एंड टू द माइंड (मैं स्वयं ही इस भौतिक संसार जो चेतना और मस्तिष्क के लिए उत्तरदायी है, को समझ लूँगा)।

जो कुछ आँख से दिखाई देता हो या इंद्रियों को अनुभव होता हो या कम से कम मन जिसको कंसेप्चुलाइज (संकल्पना) कर सकता हो, उससे साइंस बात करता है। अब आप जब किसी अंधविश्वासी आदमी को देखते हो तो आप देखते हो कि वो क्या कर रहा है?

समझ लीजिए कि उसने, उसने दही पकड़ रखी है और सोच रहा है कि मैं अगर दही को चाटूँगा तो मेरा ज़्यादा नंबर आ जाएँगे या वो बिल्ली को देख रहा है और कह रहा है कि वो बिल्ली है, बिल्ली रास्ता काट गई है तो कुछ मेरा नुक़सान हो जाएगा या वो किसी और चीज़ को लेकर, कोई और, कोई और चीज़ बताओ जिसको लेकर सुपरस्टिशन रहता है? उसने गले में कुछ पहन रखा है, कुछ गंडा-ताबीज़ कुछ डाल रखा है। तो हमारी आँखें हमको बताती हैं कि जैसे सुपरस्टिशन का ताल्लुक बिल्ली से है, दही से है या ताऊबीज से है या वो सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण को सोच रहा है कि सूर्यग्रहण- चंद्रग्रहण में बाहर निकालोगे तो तुम्हारा अपशकुन हो जाएगा।

हम सोचते हैं, उसका जो सम्बन्ध है अंधविश्वास का वो ऑब्जेक्टिव यूनिवर्स से है। ऑब्जेक्टिव यूनिवर्स (भौतिक ब्रह्माण्ड) से है नहीं, ऑब्जेक्टिव यूनिवर्स में सुपरस्टिशन के ऑब्जेक्ट्स होते हैं, सुपरस्टिशन का सब्जेक्ट तो यहाँ बैठा हुआ है न, उसके बारे में हमने कुछ करा ही नहीं तो नतीजा क्या निकला है? पढ़ा-लिखा अंधविश्वासी आदमी। जोकि रॉकेट लॉन्च करता है मुहूर्त देखकर।

भारत में खूब होता है। रॉकेट लॉन्च किया जा रहा है, पहले मुहूर्त देखा जाता है, कितने बजे रॉकेट लॉन्च होगा? कोई लड़ाई भी करनी होगी, सीमा पर आ गया, तो पहले देखा जाएगा कि उचित मुहूर्त क्या है जवाब देने का।

आप बैंगलोर चले जाइए, आप सोचेंगे कि भई, ये तो आईटी नगरी है यहाँ पर तो, वहाँ आपको जितना अंधविश्वास मिलेगा, आप कहेंगे, 'चल क्या रहा है यहाँ पर?' और जवान लोग, एकदम पढ़े-लिखे लोग। जो अपनेआपको मॉड (आधुनिक) बोलेंगे और सारी वही लाइक , ब्रो और ये सब कर रहे होंगे और भीतर ही भीतर उनमें गज़ब अंधविश्वास होगा।

कोई बता रहा होगा कि – कुछ भी चलता है कि – वो कैलाश पर्वत पर एलियन स्पेसक्राफ्ट (अंतरिक्षयान) लेंड (उतरते) करते हैं, कोई कुछ बता रहा होगा। कोई कुछ बता रहा होगा, अंधविश्वास का गढ़ बना बैठा है बैंगलोर। वजह? हमने जो भी शिक्षा दी है न, वो बाहर की दी है। हम सब बहुत पढ़े-लिखे लोग हैं, हमें एकदम पता है कि दुनिया में चल क्या रहा है? अभी इस कमरे में जो कुछ है उसके बारे में आपसे पूछूँगा, आप सब कितने बढ़िया तरीके से बता दोगे। मुझसे तो कहीं ज़्यादा अच्छे तरीके से बता दोगे, कुछ पूछूँ।

मैं पूछूँ कि ये जो है (टेबल पर रखी हुए चीज की और संकेत करते हुए) ज़रा इसके कुछ मॉलिक्यूलर कांस्टीट्यूशन (अणु संरचना) का बताइए, आप तुरंत बता दोगे। ये जो लाइट है इसके बारे में पूछूँगा, आप बता दोगे। ये जो ऑडियो सिस्टम है आप सब जानते हो, आप सब कुछ जानते हो। आप अपने बारे में कितना जानते हो? अपने बारे में नहीं जानते तो भीतर जो छुपकर के बैठा हुआ है दुश्मन, वो फिर बैठा ही रह जाता है, हमें उसका नहीं पता होता।

सुपरस्टिशन साइंस से नहीं स्प्रिचुएलिटी (आध्यात्मिकता) से दूर होगा और मैं वो पोंगापंथी अध्यात्म की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं वो जो फ्रॉड स्प्रिचुएलिटी है उसकी बात नहीं कर रहा हूँ, मैं बात कर रहा हूँ रिगर्स स्प्रिचुएलिटी की, जिसके पास बस एक जिज्ञासा होती है – 'ये भीतर से देखने वाला है कौन?' पूछता है – 'कौन है जो शब्दों को बाहर प्रेषित करता है? और जब शब्द बाहर प्रेषित होते हैं तो जाना कहाँ चाहते हैं?' "श्रोतस्य श्रोत्रम्।" कौन है जो कानों के पीछे बैठकर सुनता है और वो किसको सुनने के लिए इतना बेचैन है कि जीवनभर सुनता ही जाता है, सुनता ही जाता है? कौन है जो आँखों के पीछे बैठा है? और क्या खोज रहा है वो?

जो आँखें कभी स्थिर नहीं होती हैं, आँखें हमेशा ऐसे-ऐसे(आंखों से खोजने का संकेत करते हुए)। ज़िंदगीभर आँखें कुछ खोजती रहती हैं जिसको खोज रही हैं आँखे, वो कभी मिलता नहीं। कौन है? ये जिज्ञासा करते है कि भीतर कौन है? कौन है जिसकी तलाश में मन जीवन भर सोचता रहता है? सोचता ही जाता है, सोचता ही जाता है। पर सोच कभी किसी निष्पत्ति पर नहीं पहुँच पाती।

कौन है जिसके लिए मन सोच रहा है? कौन है जो मन को सोचने के लिए भेजता है? सोच का स्रोत है और कौन है जो उसी सोच का गन्तव्य भी है? सोच कहाँ से चलती है और कहाँ जाना चाहती है? आदि-अन्त क्या है? इन प्रश्नों पर हमारी शैक्षणिक व्यवस्था कभी विचार करती नहीं न!

हम लोग ने ह्युमनिटीज (मानवता) से कुछ कोर्सेज (पाठ्यक्रम) करे थे, वो बहुत अच्छे थे। पर उसमें सेल्फ इनक्वायरी (स्वयं के बारे में पूछना) का कोई कोर्स नहीं था। थर्ड सेमेस्टर से लेकर के हमारे सिक्स सेमेस्टर तक़ एक-एक कोर्स कंपल्सरी होता था ह्युमनिटीज का। बहुत अच्छे कोर्सेस थे, बहुत अच्छी बात है।

पर उसमें एक कमी रह गई, हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था में एजुकेशन ऑफ द सेल्फ (स्वयं शिक्षा) जैसा कुछ नहीं है। हम बाहर-बाहर का बताते रहते हैं, क्या चल रहा है। भीतर क्या चल रहा है? उसका हमें पता नहीं। जबकि जीना आपको किसके साथ है? आपको सब कुछ बता दिया गया है सिम्पल पेंडुलम के बारे में, आप पेंडुलम के साथ ज़िंदगी जिओगे क्या? आप इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स (विद्युत चुंबकीय तरंग) को खूब जानते हो, आपके प्राण वहाँ जाकर अटके हुए हैं क्या? आप जीते किसके साथ हो दिन-रात? किसके साथ जीते हो? आप अपने साथ जीते हो। आप अपने साथ जीते हो और रात में तीन बजे अचानक नींद खुल जाती है तो पसीने में पाते हो अपनेआप को। कौन सी साइंस आपकी मदद कर देगी अब? और वहाँ हम बिलकुल निरक्षर हैं, इल्लिट्रेट हैं।

हमें कुछ नहीं पता अपने बारे में, क्योंकि जिन्होंने हमारा पाठ्यक्रम तय करा है, ये जो सब करिकुला है, जहाँ से आ रहे हैं, शायद वो ख़ुद भी अपने बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ थे। न उन्हें ये पता था वो कौन है? न उन्हें इस बात की ज़रूरत पता थी कि आने वाली पीढ़ियों को, बच्चों को, छात्रों को, सेल्फ में एजुकेट करो।

मैं रिलीजियस एजुकेशन (धार्मिक शिक्षा) की बात नहीं कर रहा, किसी को ऐसा तो नहीं लग रहा? मैं नहीं कह रहा हूँ कि सबको ले जाकर के किसी पंथ में दीक्षित कर देना है। भाई, मैं बहुत सीधी, सच्ची, शुद्ध चीज़ की बात कर रहा हूँ।

मेरे भीतरी प्रक्रिया क्या है? उसको जानने में कुछ धार्मिक या मज़हबी एंगल आ गया क्या? कोई उसमें समस्या है? आप अगर स्वयं को जानने लगोगे तो सेकुलरिज्म रुक जाएगा? बाधा पड़ जाएगी कुछ? लेकिन सेकुलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) वगैरह के नाम पर हमने क्या करा? हमने आत्मज्ञान से, सेल्फ नॉलेज से ही वंचित कर दिया एक नहीं, दो-तीन पीढ़ियों को।

तो क्या उसका नतीजा निकलता है? नतीजा यही निकलता है कि हमें समझ में नहीं आता, हम सोचते थे जैसे-जैसे हायली एजुकेटेड (उच्च शिक्षा प्राप्त) होगा, वैसे-वैसे उसकी ज़िंदगी में एक निखार और नूर आएगा। हम देखते हैं कितना पढ़ा-लिखा है और गज़ब के अपराध कर रहा है।

और आज दुनिया के सामने जो समस्याएँ खड़ी हैं, आप मुझे बताओ उनका कोई टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशन है क्या? रूस कह रहा है यूक्रेन पर अब न्यूक्लियर बम गिरा दूँगा। बताओ, कौन सी टेक्नोलॉजी रोक सकती है रूस को? कोई टेक्नोलॉजी है जो इंसान की हिंसा और हवस और वहशीपन को रोक सके उसे? ऐसी कोई टेक्नोलॉजी है? जल्दी बोलो?

क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) को रोक पाने वाली कौन सी टेक्नोलॉजी एंड, क्लाइमेट चेंज इज ए प्रोडक्ट ऑफ ह्यूमन ग्रिड एंड लस्ट फॉर कंजम्शन (भोगने के प्रति मनुष्य के लालच और वासना का उत्पाद जलवायु परिवर्तन है), कोई टेक्नोलॉजी जो कार्बन चेंज, ग्रीन टेक्नोलॉजी वगैरह मत बोल देना, उससे नहीं रुकने वाला बाबा, बेकार की बातें नहीं।

कोई टेक्नोलॉजी है जो हमें समझा सके कि जितना हम कंज्यूम कर रहे हैं, हमें उतना कंज्यूम करने की ज़रूरत नहीं है? आज की जितनी दुनिया की समस्याएँ हैं उनका हल न विज्ञान के पास है, न टेक्नोलॉजी के पास है। उसका हल आत्मज्ञान के पास है, लेकिन उससे हम डरते हैं। हमको लगता है दंगे हो जाएँगे और वो जो डर है उसकी भी वजह है।

देखो, भारत को जो आज़ादी मिली थी विभाजन के साथ मिली थी। खूनी दंगों, खूनी मज़हबी दंगों के साथ मिली थी। तो इसलिए उस वक्त बहुत ज़्यादा सतर्कता बरतनी पड़ी और फिर अति हो गई। अति हो गई, अति ये हो गई कि बिलकुल ही ख़त्म कर दिया।

नहीं तो मैं वजह जानना चाहता हूँ, चार साल के बीटेक प्रोग्राम में और उसके बाद एमटेक प्रोग्राम होते हैं, और न जाने कितने और प्रोग्राम होते हैं? एक भी कोर्स क्यों नहीं होता सेल्फ इन्क्वायरी पर? और सेल्फ इनक्वायरी बिलकुल वैसे ही होती है जैसे आप बाहर की दिशा में इनक्वायरी करते हो, सवाल पूछो जो उत्तर आए उसको जाँचों-परखो।

ग़जब दर्जे की ऑब्जेक्टिविटी होती है उसमें, जबकि वो बात सब्जेक्ट को लेकर के हो रही है। यही वजह थी कि जो कुछ भी मैंने पढाई-लिखाई करी, जो भी मुझे करियर मिल रहे थे। उनसे ज़्यादा मुझे ज़रूरी लगा ये काम करना। मैंने कहा, 'यार, बाक़ी तो सब ठीक है, लेकिन हम आधी शिक्षा देकर के लोगों को दुनिया में धकेल दे रहे हैं और दुनिया में फिर वो करेंगे क्या?'

दुनिया आज कहाँ पर आकर के खड़ी हो गई है? उसका जो नतीजा है न, वो हमारी एजुकेशन ही है। आप एजुकेशन में हो इसलिए आपसे और ज़्यादा बोल रहा हूँ। हम सिक्स्थ मास एक्स्टीनक्शन फेज में प्रवेश कर चुके हैं न, ये हम जानते हैं कि नहीं जानते हैं? चार सौ चालीस पीपीएम बोलता हूँ तो क्या याद आता है? और कितना होना चाहिए?

और जब आप नेट ज़ीरो की बात करते हो तो आप कह रहे हो दो हज़ार पचास। आप बच जाओगे? आप बच जाओगे क्या? ये किसने कर दिया? लैक ऑफ टेक्नोलॉजी ने कार्बनडाई ऑक्साइड बढ़ा दी है? कार्बनडाई आक्साइड इसलिए बढ़ गई, क्योंकि हम गँवार हैं, कबिलों में रहते हैं, इसलिए इतनी बढ़ गई है?

आप सब यहाँ बैठे हो, सब अठारह से बाईस, चौबीस साल के, बीस के होंगे। राइट? ठीक? जानते हो कार्बनडाई ऑक्साइड दो-सौ-अस्सी से चार-सौ-चालीस तुम्हारे जीवन काल में हुई है? ये पढ़े-लिखों की करतूत है। ये अनपढ़ों, जाहिलों, गँवारों ने, अशिक्षितों ने नहीं कर दिया; ये हमने करा है, ये हमारी पढाई ने करा है। ये हमारी शिक्षा व्यवस्था है और उसमें भी और सुनो, जो कम पढ़ा-लिखा आदमी है, कम एमिशन करता है, दुनिया के सबसे ज़्यादा एमिशन करने वाले सबसे ज़्यादा पढे-लिखे और अमीर लोग हैं और सबसे प्रतिभा सम्पन्न लोग हैं।

जब दो हज़ार आठ में इकोनॉमिक बबल बर्स्ट हुआ था, तो मैंने पूछा अपनेआप से, मैंने कहा ये, ये जो बैंक इसमें सब दिवालिया हुए हैं उसमें तो मेरे बैचमेट सब मैनेजर हैं। ये लेमेन ब्रदर्स , ये तो मेरे कैम्पस में आता था और सब पागल रहते थे इसमें घुसने के लिए और दर्ज़न-दर्ज़न लोग इसमें जाते थे।

इन्होंने इतनी मूर्खतापूर्ण हरकत कैसे कर दी? ये जो हम पढ़े-लिखे लोग हैं न, हम दुनिया को नाश की कगार पर ले आए हैं, कगार में नहीं ले आए हैं, नाश शुरू हो चुका है। ये हमने करा है क्योंकि हमारी जो शिक्षा है, एकदम आधी-अधूरी है और हम उसमें ही बहुत गौरव अनुभव करते रहते हैं।

हमको लगता है हम सब जानते हैं, हमें ये पता है, मुझे इसके बारे में पता है। मुझे इसके बारे में पता है, मुझे उसके बारे में पता है, सबके बारे में पता है। ये कुछ नहीं पता। तीस-चालीस साल में एक-सौ-पचास प्रतिशत बढ़ोत्तरी कार्बन एमीशन में, जनसंख्या जिस हिसाब से, कम-से-कम भारत की बात करूँ, बढ़ रही है, हम खुश हो जाते हैं कि ग्रोथ रेट ऑफ पॉपुलेशन (जनसंख्या वृद्धि दर) नीचे आ रहा है और फिर स्टेबिलाइज (स्थिर) कर जाएगा। हम ये तो अभी बात ही नहीं कर रहे है कि हमें डीग्रोथ चाहिए, बोथ इन टर्म्स ऑफ़ इकॉनमिक्स एंड पॉपुलेशन (आर्थिक और जनसंख्या दोनों के संदर्भ में)। उसकी हमें बात ही नहीं समझ में आ रही। कितनी स्पीशीज प्रतिदिन एक्सटिंक्ट (नष्ट) हो रही हैं, हम जानते हैं क्या? जो नैचुरल रेट ऑफ एक्सटिंक्शन ऑफ स्पीशीज (जीव-जन्तु, पेड़-पौधों के नष्ट होने की प्राकृतिक दर) होना चाहिए, उससे एक हज़ार प्रतिशत ज़्यादा दर से प्रतिदिन स्पीशीज एक्सटिंक्ट हो रही हैं।

एक्सटिंक्शन का मतलब समझते हो? वो पेड़, वो पौधा, वो जानवर, वो चिड़िया, वो अब कभी लौटकर नहीं आएँगे। आप यहाँ बैठे हुए हो, आपको नहीं पता चल रहा होगा। वो कभी अब लौटकर नहीं आएगा, हम खा गए उसको और जितनी स्पीशीज हम पिछले बीस, चालीस साल में खा गए, उतनी पिछले पाँच लाख साल में नष्ट नहीं हुई थीं। ये पढ़े-लिखों की करतूत है।

हम कहते हैं, हम अच्छे लोग हैं क्योंकि हम पढ़े-लिखे हैं और पढ़ाई से इनसान की बेहतरी होती है। ये बेहतरी हो रही है? बोलते हैं, "अधजल गगरी छलकत जाए"। आधा ज्ञान ज़्यादा ख़तरनाक होता है। हमें आधा ज्ञान मिल रहा है। उपनिषद् कहते हैं, 'जिनके पास अविद्या होती है, पर विद्या नहीं होती, वो जाकर के गहरे कुएँ में गिरते हैं।' अविद्या जानते हो क्या होता है? ये जो हमारे यूजुअल सब्जेक्ट्स होते हैं। आप जितने भी कोर्सेज पढ़ते हो, वो अविद्या के अंतर्गत आते हैं। अविद्या माने सांसारिक ज्ञान।

सांसारिक ज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं है, बहुत गहरे गड्ढे में जाकर के गिरोगे। वो ये भी कहते हैं, आत्मज्ञान है, सांसारिक ज्ञान नहीं है तो और ज़्यादा गड्ढे गहरे में जाकर गिरोगे। फिर कहते हैं, 'जिसको दोनों हैं, विद्या और अविद्या। वो राजा हो जाता है। उसको फिर मौत भी नहीं डराती, अमर हो जाता है वो।'

हम जिसको कहते हैं विद्यालय, वो अविद्यालय है, उसमें सब दुनियाभर की बाहरी बातें ही बताई जा रही हैं, विद्या तो तब है जब भीतर का भी, अपना भी, माने मन का, 'आई' का, 'मैं' का, अहम् का, कुछ पता चलना शुरू हो।

तो जब मैं ऐसी जगहों को सम्बोधित करता हूँ, जो धार्मिक हैं या आध्यात्मिक हैं तो मैं उनसे कहता हूँ, 'भाई, तुम ये सब शास्त्र और ग्रंथ यही पढ़ाते रहोगे? कुछ दुनियादारी की भी तमीज़ दोगे अपने लोगों को कि नहीं दोगे?' क्योंकि वो विद्या दे रहे हैं और अविद्या नहीं दे रहे।

और आपसे मैं कह रहा हूँ, 'आप सिर्फ़ अविद्या ले रहे हो, विद्या नहीं ले रहे, आपकी भी हालत उन्हीं जैसी होगी। आधा-अधूरा उनका भी ज्ञान, आधा-अधूरा फिर आपका भी ज्ञान। बात बनेगी नहीं।

मैं एक-दो बातें इसमें और बोलूँगा सुपरस्टिशन पर। देखो, सुपरस्टिशन क्या होता है? अंधविश्वास किसको बोलते हो? अंधविश्वास किसको बोलते हो? जाना नहीं, मान लिया। यही अंधविश्वास है न? पता नहीं है, लेकिन मान ऐसे रहे, जैसे सब पता हो।

जाँचा-परखा नहीं, उसको सत्य घोषित कर दिया। यही है न सुपरस्टिशन ? यही है न? आपको कैसे पता कि एक मोटा सैलरी पैकेज होना ही होना चाहिए? ये सुपरस्टिशन नहीं है? बोलो। आपको कैसे पता कि यहाँ से निकलने के दो-चार साल के बाद शादी करनी ही चाहिए या दस साल के बाद।

ये सुपरस्टिशन नहीं है क्या? आपको कैसे पता ज़िंदगी तभी पूरी होगी जब घर में दो नन्हें-मुन्ने आ जायेंगे। ये सुपरस्टिशन नहीं है क्या? बोलो, ये सुपरस्टिशन नहीं है क्या? आपको कैसे पता? मैं पूछ रहा हूँ कब जाँचा, कब परखा? सवाल कब करा? इनक्वायरी , जिज्ञासा कहाँ है? पर माने बैठे हैं और पढ़े-लिखे लोग ये बातें मान रहे हैं कि नहीं मान रहे हैं? सब सुपरस्टिसियस हैं।

लेकिन सुपरस्टिसियस होने का इल्ज़ाम बस उन बेचारों पर लगता है जो सड़क पर रेंग-रेंगकर जा रहा होगा कि मैं ऐसे जा रहा हूँ तो देवता प्रसन्न हो जाएँगे, वरदान देंगे, 'हे हे.. सुपरस्टिसियस। ' और हम जो कर रहे वो सुपरस्टिशन क्यों नहीं है? हमारे पास गुड लाइफ की एक तस्वीर है। और गुड लाइफ क्या होती है? ग्रीन कार्ड, डॉलर, इनकम। ठीक? शिकागो में घर है बहुत बढ़िया।

आपको कैसे पता यही गुड लाइफ है? आपको कैसे पता इसको ही गुड लाइफ बोलते हैं? आपको लाइफ ही नहीं पता क्या होती है, आपको गुड लाइफ कैसे पता? ये सुपरस्टिशन नहीं है?

लेकिन यहाँ कोई नहीं बैठा होगा जो इस बात पर सवाल उठाए कि मैं कैसे मान लूँ यही गुड लाइफ है? हम सुपरस्टिसियस कैसे नहीं हैं? एक-एक चीज़ जो हम मानते हैं और बिलकुल मान ही लेते हैं, उसको कहते हैं, 'बट ऑवियसली।' ये ऑवियसली क्या होता है? नहीं तो कॉमन सेंस की बात है न? ये क्या कॉमन सेंस है? सारी कॉमन सेंस सुपरस्टिशन कैसे नहीं है?

ये हर चीज़ जिसको आप बोलते हो, ये-ये, ये-ये सुपरस्टिशन कैसे नहीं है ऑबवियसली वगैरह? बोलो न! और कोई इस पर सवाल उठाए तो कहोगे, 'कूल नहीं है।' कहोगे, 'हर चीज़ में ये मीन-मेख निकालता रहता है।' इससे कुछ भी बोलो तो पूछता है, 'बट कैसे?' वो आपको अच्छा नहीं लगेगा बंदा। ये सुपरस्टिशन की निशानी नहीं है क्या?

कोई आपके सामने आकर कहे कि साबित करो, दिखाओ हाइपोथेसिस क्या था? फिर दिखाओ प्रॉब्लम सॉल्विंग प्रोसीजर क्या था? और फिर दिखाओ कि कनक्लूजन क्या आया है? कोई आपसे ये सब बोले तो आप कहोगे, 'न... न…! ये सब तो करा ही नहीं।'

ये सारी जो इंटेलेक्चुअल रिगर है, वो मैथ्स और फिजिक्स के लिए रिजर्व कर छोड़ी है। सोच खूब सकते हैं, इंटेलेक्चुअली बिलकुल डिसेक्ट कर देंगे सिचुएशन को, प्रॉब्लम को। लेकिन सिर्फ़ तब जब वो, हाँ, सर्किट थ्योरी बिलकुल मैथेमेटिक डिफरेंशियल इक्वेशन फोड़नी है, वहाँ दिमाग पूरा लगा दोगे। ज़िंदगी फोड़नी है, उसमे दिमाग़ कौन लगाएगा? सुपरस्टिशन को अगर काटना है तो प्योर स्प्रिचुएलिटी को अपनाओ और मैं किसी रिलीजियस एफिलिएशन की बात नहीं कर रहा हूँ।

वेदान्त में तो भाई, देवी-देवता और ईश्वर और भगवान के लिए भी कोई विशेष जगह नहीं है। वहाँ तो बात सिर्फ़ सत्य की होती है। वो नहीं कह रहे हैं कि तुम किसी पंथ के अनुयायी बन जाओ, कल्टव्येरा से कोई लेना-देना नहीं, इसीलिए जो पुराने पारम्परिक ढंग के धार्मिक लोग होते हैं उनको वेदान्त फूटी आँख नहीं सुहाता। वो कहते हैं, 'इसमें तो एथिज़्म है।' कहते हैं, 'ये तो नास्तिकता है इसमें।' समझ में आ रही है बात?

तो आप अनकूल नहीं हो जाओगे अगर आप उपनिषद् पढ़ने लगोगे तो। मज़ा आएगा, कोशिश करें। देखकर शुरुआत तो कर सकते हैं? ऑनलाइन सब उपलब्ध हैं। अष्टावक्र गीता की एक कॉपी लें, पढ़े। कोई दिक्कत तो नहीं आ जाएगी? नहीं कह रहे कि मान लो, लेकिन ये तो देखो कि वो कह क्या रहा है? किसी बंदे ने कोई बात कही है, उसको सुन लेने में भी कोई नुकसान है क्या? शुरुआत तो करें।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=PRchl36fqaI

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