प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शत् शत् नमन। आचार्य जी, मैं दो प्रश्न पूछना चाहता हूँ। पहला प्रश्न थोड़ा कहानी की तरह है। मैंने सबसे पहले आपका शिविर बैंगलोर में और दूसरा अभी पिछले महीने ऋषिकेश में ही अटेंड (भाग लिया) किया था। पिछले शिविर के लिए जब मैं आया था तो बहुत ही ज़्यादा खुश था और जो चार दिन यहाँ बीते उसमें निरंतर यही चर्चाएँ होती रही — अध्यात्म, माया और इन्हीं से सम्बन्धित सब चीजों की चर्चा होती रही।
तो जब घर वापस पहुँचा तो एक अजीब सा साहस प्रतीत हो रहा था और पहले चार-पाँच दिन सिर्फ़ आपकी ही बातें करता रहा। उससे कुछ लोग प्रभावित भी हुए और उन्होंने आपके वीडियोज़ देखने भी शुरु किए। फिर उसके बाद कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हुई की मुझे कहीं जाना पड़ा और वहाँ मुझे किसी चीज़ के लिए फ़ोर्स (दबाव) किया गया, यह परिवारिक संदर्भ में ही था सारा। तब पहली बार मैंने साहस करके उन चीज़ों को नकारा।
सब बहुत हैरान हुए कि तुम इतना बदल कैसे गये। तभी से मेरे रिश्ते काफ़ी रॉकी (पथरीले) हो गये हैं क्योंकि मैं सामने वाले की ग़लत बात नहीं सुन पा रहा। मुझे लगता है कि ये उस लेवल (ऊँचे स्तर) पर थोड़ी ही हैं कि मैं इनकी बात मानकर कुछ ज़िंदगी में करूँ। लेकिन मेरे अपने डिसीज़न (फैसले) भी कोई बहुत अच्छे नहीं होते तो फिर लोग मुझे ताने भी मारते हैं कि 'तुमने कौन सा बड़ा काम कर दिया।'
वो समझ में आता है कि हमारे जीवन में अभी ऐसा कुछ नहीं है जो दूसरों के लिए उदाहरण बने।
इस दूसरे शिविर के आने के लिए थोड़ा सा डांवाडोल था मन। वो समझ आ रहा था कि माया का खेल चल रहा है। पहुँच भी गया, अभी भी बैठा था, बैठने से पहले मन में क्षुब्धता सी थी। तो ये जो पूरा इतना समय मन का खेल है, मैं नहीं समझ पा रहा कि हो क्या रहा है सबकुछ। तो इस पर आपसे चाहता हूँ कि थोड़ा सा प्रकाश डालें।
दूसरा प्रश्न मेरा यह है कि पिछले शिविर में मुझे ऐसी प्रेरणा हुई कि क्यों न बच्चों के लिए कुछ किया जाए। मेरे ख़ुद के भी छोटे बच्चे हैं, तीन साल और आठ साल के। आपने बोला था कि कोई भी उम्र छोटी नहीं होती उपनिषद् समझने के लिए और गीता समझने के लिए। तो मैं चाहता हूँ कि मैं एक स्कूल खोलूँ बच्चों के लिए जहाँ पर सामान्य शिक्षा के साथ-साथ उनको इस तरह की शिक्षा भी मिले। मैं अपने बच्चों से ही उसका प्रयोग शुरू करना चाहता हूँ ताकि मुझे पता हो कि कैसे छोटे बच्चों के साथ डील (व्यवहार) किया जाता है। तो उसके लिए मैं आपसे मार्गदर्शन चाहता हूँ कि वो कैसे कर सकते हैं? धन्यवाद, आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: देखिए, पहली जो आपने बात कही कि भीतर साहस उदित हो रहा है लेकिन उसमें कई तरह की फिर अड़चने आती हैं। बाहर वाले भी बहुत बातें बोलते हैं और बाहर वालों से ज़्यादा भीतर भी मन डांवाडोल रहता है। तो क्या करें ऐसी स्थिति का।
ये होगा, और ये बहुत लंबे समय तक होगा। अगर आप ऐसी स्थिति के साथ एक सहजता नहीं स्थापित कर पाते, तो आपका खेल ख़त्म हो जाएगा। लग्ज़री (महंगी) कार की आदत मत डालिए। अगर सही रास्ते पर चलना है तो रोडरोलर की आदत डालिए। लग्ज़री कार होगी, उसका ग्राउंड क्लियरेंस ही इतना सा (थोड़ा सा का इशारा करते हैं) होता है। उसको रोकना बहुत आसान हो जाता है न?
बड़ी नाज़ुक है, बड़ी लंबी है, बड़ी महंगी है, चम-चम चमकती है, आवाज़ ही नहीं करती, हवा की तरह उड़ती है, जैसे हमारी ज़िंदगी है — नाज़ुक, पॉलिश्ड, चमकती हुई, महंगी, ख़ूबसूरत। दिक़्क़त बस ये है कि उसको रोकना बहुत आसान है; जो चाहे रोक देगा। क्या चाहिए उसको रोकने के लिए? कोई भी आकर के बस एक इतना सा (ज़रा सा) पत्थर रख दे उसके सामने, वो रुक जाएगी। ये बहुत बड़ा बोल दिया मैंने, इतना (इशारे से और छोटा दिखाते हुए) काफ़ी होगा; इतना बड़ा भी अगर पत्थर है तो हमारी ज़िन्दगियाँ रुक जाती हैं।
रोडरोलर चाहिए! कुछ रख दे कोई सामने, आप चढ़ा दीजिए। और जब लगने लगे कि ये सामने रखने वाले रुक ही नहीं रहे तो फिर रोडरोलर से भी आगे जाकर — टैंक। जो कुछ भी सामने रखा होगा, जल है, थल है, जो कुछ है, सब चढ़ जाएगा और ज़्यादा परेशान करोगे तो ‘धाय’। हमारा आर्मर (कवच) है बड़ा मोटा, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। बस ये है कि कोई हमें ये नहीं बोलेगा कि ख़ूबसूरत बहुत है।
अर्जुन टैंक है, उसे देखकर कौन कहता है कि इतनी कमसिन हो? नाज़ुक है, आहा हा! कुछ नहीं। तो एक उद्दंड ज़िन्दगी जीने के लिए तैयार रहिए। ख़ूबसूरती नहीं चाहिए, ताक़त चाहिए। और फिर आप समझेंगे जब ताक़त आएगी, कि ताक़त ही सौंदर्य है। और जिस सौंदर्य में ताक़त नहीं है वो ऐसा ही है — उसके सामने चार गिट्टी रख दो, उसे दिशा बदलनी पड़ेगी या रुक जाएगा।
ये जो सामने रखे हुए छोटे पत्थर वगैरह की बात कर रहा हूँ मैं, ये बाहर वाले भी रखते हैं और अपना मन भी रखता है। उनकी परवाह करे बिना चढ़ जाइए और ऐसा नहीं कि आपको करना आता नहीं। हुआ है कि नहीं, कि ऑफिस जाना है या कॉलेज जाना है या फ्लाइट है या ट्रेन है या कुछ और है, कोई महत्त्वपूर्ण मुलाकात है और आठ बजे की है सुबह, और आप पाते हैं कि अलार्म था साढ़े छः का और वो बजता रह गया; पौने-सात पर धीरे से अपनेआप आँखें खुलती हैं और आप स्प्रिंग की तरह बिस्तर से उछलकर खड़े हो जाते हैं? हुआ है कि नहीं हुआ है? इसी को मैं कह रहा हूँ, रोडरोलर की तरह होना।
अभी तो शरीर गरम भी नहीं हुआ है, जाड़े के दिन हैं, बड़ी ठंडक है, आँखें ठीक से खुली भी नहीं हैं, मन अभी ठीक से सोच भी नहीं पा रहा है, बस आँखें खुली और इतना सा ख़याल आया और चढ़ गये। विचार नहीं किया, चढ़ गये। विचार नहीं करो, चढ़ जाओ। स्पष्टता इतनी होनी चाहिए कि विचार न करना पड़े, चढ़ जाओ। जैसे सामने पत्थर पड़े हों, कुछ भी पड़ा हो, चढ़ जाता है उन पर रोडरोलर। उसे स्पष्टता है उसे कहाँ जाना है और वो चलता ही जाएगा। उसके चलने में खास बात ये है कि वो ख़ुद तो जितना चलेगा तो चलेगा, दूसरो के लिए रास्ता बना देगा।
ज्ञानियों, ऋषियों, संतों का जीवन ऐसा ही रहा है — फ़रारी की तरह नहीं रोडरोलर की तरह। क्योंकि उनको बाधाएँ बहुत आती थी, वो चढ़ते जाते थे, चढ़ते जाते थे। फिर उनके पीछे जो आये, उनके लिए रास्ता सुगम हो गया। समझ में आ रही है बात?
दुख हो रहा होगा, दर्द हो रहा होगा; चढ़ते जाओ। गाड़ी आगे बढ़ रही है, दिख रहा है गाड़ी काँप रही है, अजीब-अजीब आवाजें आ रही हैं, साइलेंस ठुक गया नीचे से, कुछ भी हो गया, आप चलते जाओ, चलते जाओ; लग रही होगी चोट, बाद में देखेंगे। बाद में देखने की नौबत नहीं आती, बताओ क्यों? क्योंकि बाद में और ज़्यादा बड़ी लग जाती है तो पहली वाली छोटी चोट की परवाह नहीं रहती।
श्रद्धा रखो कि आपकी गाड़ी में इतनी ताक़त है कि कितनी भी उस पर चोटें लगती रहें, वो चलती रहेगी। ये नहीं मानता कोई, ख़ुद को भी यही लगता है। मैं इस पूरी यात्रा से गुज़र चुका हूँ इसलिए कह रहा हूँ। गुज़र रहा हूँ इसलिए कह रहा हूँ। तकलीफ़ें मिलेंगी, झटके मिलेंगे, गाड़ी काँपेंगी, थरथरायेगी; आपको चलते जाना है। कोई सुख-सागर नहीं लहराने वाला, कोई अप्रतिम आनंद आपको नहीं मिल जाने वाला, आप चलते जाइए। बीच-बीच में मज़े कर लिया करिए। जैसे कि इधर आ रहे हों शिविर में और रास्ते में क्या मिल गये?
श्रोता: मोमोज़।
आचार्य: ये देखिए, उसको पता है। रास्ते में मिल गये मोमोज़, वहाँ रुककर खा लिए। मुझे पता था यहाँ पर अपने जितने सब कार्यकर्ता, स्वयंसेवक हैं, टीम के लोग हैं यहाँ, अभी तनाव की हालत है। ये कोई ऐसा तो है नहीं कि चालीस साल से यही काम कर रहे हैं; सब अभी कम उम्र के ही हैं, सीख रहें हैं। तो तनाव चल रहा था। बहुत सारे लोगों को जिनको कहा गया था कि आरटीपीसीआर करा के आइए, वो करा कर नहीं आये थे तो फिर उनका यहाँ पर टेस्ट करवाना पड़ रहा था। और बहुत सारी छोटी-छोटी चीज़े जो प्रबंधन में ऊपर-नीचे होती रहती हैं, वो सब चल रहा था। ठीक है!
जब पता ही है कि जो काम कर रहे हैं, उसमे कष्ट आएँगे, तकलीफ़ें आएँगी, तो बीच-बीच में मज़े लेते चलो; बस वही आनंद है। ये मत सोचना कि बिस्तर मिल जाएगा और लेट जाएँगे, धूप लेंगे, कुछ नहीं। दौड़ते-दौड़ते थक गये, बीच में किसी चट्टान पर बैठ कर दो साँसे ले ली, एक सेल्फ़ी ख़ींच ली बढ़िया! क्या दिक़्क़त है? बस यही मज़े हैं। और इनका बड़ा लुत्फ़ आता है जब ये कष्टों के बीच मिलते हैं, मेहनत के बीच मिलते हैं।
ये पिछले दो-तीन दिन से ये सब (पंडाल) तैयार हो रहा था यहाँ पर। तो यहाँ जो लोग (स्वयंसेवक) रहते थे, यहाँ के कारीगर यहीं पर एक छोटा सा चूल्हा बनाकर के अपने लिए रोटियाँ बनाते थे और ये लोग उन्हीं के साथ जाकर खा लेते थे और बड़ा मज़ा रहता था। यहीं पर चूल्हा बनता था। कोई केटरर नहीं, जो यहाँ पर सब हमारे साथी-मजदूर होते थे वो यहाँ बना रहे होते थे, उन्हीं के साथ जाकर खा लेते थे। आनंद, यहीं आनंद है और क्या आनंद है? आनंद ये है कि बेईमानी का कमायेंगे, कमायेंगे, ख़ूब कमायेंगे और फ़िर जाकर के ताज में डिनर उड़ायेंगे? उसमें कोई आनंद नहीं है, करके देख लेना। मैंने दोनों करें हैं इसलिए बता रहा हूँ।
आपको अपने लिए प्रयोग करना हो, आप करके देख लीजिए। ताज में होंगे जो होंगे मज़े, इसकी बात अनूठी है। इसकी बात इसलिए नहीं अनूठी है कि ये यहाँ पर लकड़ी में पक रही है तो वुड बेक्ड पिज़्ज़ा है! नहीं, नहीं, वो नहीं है। मेहनत के बीच मिलता है इसलिए बड़ा मज़ा आता है।
इसी तरीक़े से, सही रास्ते पर चलोगे तो सौ तकलीफ़ें मिलेंगी ही मिलेंगी। उन सौ तकलीफ़ों के बीच जब राहत मिलती है तब धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। जब तकलीफ़ आती है तो आप मुस्कुराते हो, बोलते हो मज़ा आने वाला। मोमोज़ इसी में मिलेंगे बीच में।
यह पूरा आपको अपने भीतर का सिद्धांत बदलना होगा। हमें सिखा दिया गया है – सुख। हमें बता दिया गया है – ऐसे करो, ऐसे करो, फिर एक अच्छी लाइफ़ (ज़िन्दगी) आ जाएगी, उसमें सैटेल (स्थापित) हो जाना, सुख मिल जाएगा। और हमारे दिमाग़ में फिल्मों वगैरह ने छवि बैठा दी है, एंड दे लिव्ड हैप्पीली आफ्टर (फिर वे सदा के लिए खुशी से जीने लगे)।
कुछ नहीं, कुछ नहीं ऐसा होने वाला है। सारी फ़िल्में तो वहाँ पर ख़त्म कर देते हैं। शादी हो गयी, सुहागरात हो गयी, उसके बाद की दिखाते कहाँ है। उसके बाद का वो आपकी कल्पना के लिए छोड़ देते हैं। उन्हें पता है, आपकी कल्पना एक ही दिशा जाएगी। तो कहते हैं, 'ठीक है, हम पाप अपने ऊपर क्यों लें? इनकी कल्पना ही काफ़ी है। इन्हें कल्पना करने दो कि अब ये दोनों बहुत सुख में हैं'। कोई सुख नहीं; झूठी बात, छोटी बात।
हम जो हैं, हम जैसे पैदा होते हैं, हमारा जैसा मन होता है, हमारा जैसा मस्तिष्क ही है; दुख एक तरह से अनिवार्य है। वो हमारी शारीरिक संरचना में ही निहित है। आप कैसे भाग सकते हो दुख से जब वो आपकी हर कोशिका में बैठा है? कौन मूर्ख है जो आपको बता रहा है कि हैप्पीनेस इज़ अ फ़िज़िबल आइडल (खुशी एक संभावित आदर्श है)?
आपकी आँखों की पलकों में दुख है, आपकी नाक में दुख है, आपके बालों में दुख है, आपकी आंतों में दुख है, हृदय में दुख है, नाखूनों में दुख है, खाल में दुख है। जीवन अच्छा बस ऐसे ही हो सकता है कि आप उन सब चीज़ों को चुनौती देते चलें जो आपको दुख में और गहरा ढकेलते हैं। समझ में आ रही है बात?
हमारी शुरुआत ही ऐसे होती है जैसे टैनिस का मैच हो और दो सेट आप पहले ही हार चुके हों। आपने अभी कोर्ट पर कदम रखा और आप स्कोर बोर्ड की ओर देखते हैं और अब आप क्या देखते हैं? लव सिक्स, लव सिक्स और कहते हैं, 'अब मैच शुरू होगा, खेलो!'
जैसे दौड़ हो सौ मीटर की और आपके सब प्रतिस्पर्धी आपसे चालीस मीटर पहले ही आगे खड़े कर दिए गये हों – कि अब दौड़ो। जैसे परीक्षा हो तीन घंटे की और आपके हाथ में जब पर्चा दिया गया तब दो घंटे पहले ही बीत चुके हैं और कहा गया हो – अब लिखो। ऐसा है जीवन, हमारी शुरुआत ही गड़बड़ होती है और हम उससे बच नहीं सकते; हम क्या करें, हम पैदा ही ऐसे होते हैं।
तो आपको तो वो जो एक घंटा है आपका, जो मिला है तीन घंटे का काम करने के लिए, उसमें आपको बस तड़बक-तड़बक दौड़ते रहना है। और जो कुछ भी रास्ते में मिले — जिसे कहते हैं अंग्रेजी में, "राइड रफशोड ओवर इट" — परवाह नहीं करो रास्ते में क्या आ गया, उसके ऊपर से बिलकुल गुजरते चले जाओ, रुकने का समय नहीं है। और बात समय की नहीं है, रुक गये तो फिर रुक ही गये।
मैं यहाँ दूसरों के प्रति क्रूर या हिंसक होने की बात नहीं कर रहा हूँ — क्योंकि हमारी वास्तविक समस्या दूसरे नहीं होते; हमारी वास्तविक समस्या हम ख़ुद होते हैं — मैं यहाँ बात कर रहा हूँ आपके जो भीतर से आंतरिक विरोध उठता है, उसको लगातार कुचल करके, उसको पद-दलित करके आगे बढ़ते रहने की। अपने ही मन का एक तर्क आ गया अपने सामने, क्या करना है? उसको कुचल देना है और आगे बढ़ जाना है। वो आपके सामने है, उसके ऊपर जूता रख दीजिए अपना और आगे बढ़ जाइए।
घुटना कह रहा है, 'दर्द हो रहा है'। आप घुटने से कहिए, 'दौड़'। घुटने ने तर्क दिया है दर्द हो रहा है, पेट ने तर्क दिया है भूख लग रही है — मैं यूँहीं थोड़े ही कह रहा था कि मोमोज़ ले आता हूँ तुम सबके लिए, किसी ने कुछ खाया थोड़े ही है सुबह से, मैंने भी नहीं खाया है — पेट कह रहा है, 'भूख लग रही है'। तुम बोलो, 'दौड़ो'। और आप हैरान रह जाएँगे ये जानकर के कि बहुत चर्बी है शरीर में, आप दौड़ सकते हो।
हमारे सबके भीतर शक्ति के सोये हुए भंडार पड़े हैं। वो जगते इसलिए नहीं क्योंकि आप कभी भी उनका आह्वान नहीं करते। आप उन्हें बुलाइए, जगाइए। आप उनका कोई उपयोग तो दिखाइए। जैसे पुश्तैनी एफडी पड़ी हो, वो तभी टूटती है जब कोई आवश्यकता आ जाए। आप ऐसा जीवन जी ही नहीं रहे हैं कि उसकी कोई आवश्यकता आये। तो भीतर शक्ति की जो एफडी पड़ी है, वो टूटेगी भी नहीं, वो पड़ी ही रह जाएगी। आपको लगेगा कि मैं तो शक्तिहीन हूँ।
समझ रहे हो बात को?
और ये आपने बिलकुल ठीक कहा कि मेरी बात अगर आप दूसरों तक पहुँचाना चाहते हैं, तो उसका सर्वश्रेष्ठ ज़रिया यही है कि आप अपने जीवन में सच्चाई को फलीभूत करके दिखाएँ। दूसरे फिर ख़ुद ही पुछेंगे, 'तेरा डर कहाँ गया? तेरी हिचक कहाँ गयी? तेरा अज्ञान कहाँ गया? ये कुछ नयी सी बात रहती है तेरे चेहरे पर, बात क्या है?'
सूरज जब उगता है तो फिर उसे घोषणा नहीं करनी पड़ती, लोगों को दिखने लगता है कि कुछ चमक रहा है। पूछते हैं ख़ुद ही, 'कैसे हुआ ये? काया-कल्प कैसे हुआ'? और वो आएँगे पूछने क्योंकि उनके सबके जीवन में बहुत अंधेरा है। उन्हें मजबूर होकर आना पड़ेगा; आप अपनी रोशनी दिखाइए तो सही।
तो आपने पिछले शिविर की बात करी, मैं इस शिविर के लिए सबसे कह रहा हूँ,
कोई ये सोचकर के न जाए वापस कि आपकी मुसीबतें कम हो जाएँगी। यहाँ आकर के आपकी मुसीबत बढ़नी ही हैं। हाँ! मैं आपसे इतना ज़रूर कहूँगा कि आपकी ताक़त आपकी सब मुसीबतों से कहीं ज़्यादा बड़ी है। और ताक़त जगेगी तभी जब आप मुसीबतों को स्वीकार करें पहले।
बिलकुल भीतर से यह सिद्धांत निकाल दीजिए कि आध्यात्मिक शिविरों में तो आते हैं आनंद-मग्न होकर नृत्य करने के लिए। गंगा का तट है, धवल, शुभ्र, चँद्रमा की ज्योत्सना है, कैसे चाँदी से चमकते हुए ये बालू के कण हैं — आओ नाचें।
आप अभी आये हैं, बहुत सारे स्वयंसेवक यहाँ तीन-तीन, चार-चार दिन पहले से आकर के पड़े हुए हैं। क्यों भई, कितनी बार तुमने वहाँ पर नृत्य करा? अभी दो-चार दिन पहले तो पुर्णिमा भी थी, किस-किस ने नृत्य कर लिया? युद्ध है; नृत्य नहीं। या कह दो — युद्ध में ही नृत्य है। और जिस नृत्य में युद्ध नहीं है, वो नृत्य नहीं; नौटंकी है।
नाचने को मना नहीं कर रहा हूँ, मन करे तो नाच लेना। लेकिन जहाँ ईमानदारी नहीं, सच्चाई नहीं, दर्द नहीं, वहाँ नाच अय्याशी है न बस, कि नहीं? नाचना है तो बसंती जैसा नाचो कि काँच की बोतल तोड़ दी गयी है, अब फिर नाचना है उस पर। कुछ ख़ास है जिसे बचाना है। ‘जब तक है जान……।' उस नाच में कुछ बात होती है न फिर। वो अय्याशी का नाच नहीं होता। ख़ून बह रहा है, बेहोशी छा रही है, लेकिन नाच रहे हैं; वो नाच फिर युद्ध होता है।
दूसरी बात आपने पूछी बच्चों के बारे में कि शिक्षा व्यवस्था कैसी हो, छोटे बच्चों तक भी कैसे ले जा सकें। देखिए, फिर शुरुआत में ही आपसे कहूँगा कि हमारे सिद्धांत बड़े डगमग-डगमग हैं। हम कुछ समझते नहीं। हमें पट्टी पढ़ा दी गयी है कि बचपन तो मौज के लिए होता है। और यथार्थ ये है कि हमारा जितना नाश होना होता है, वो पाँच साल, सात साल हद-से-हद दस-बारह साल की उम्र तक हो चुकता है। और वो, वो उम्र है जब हमें कहा जा रहा होता है कि अभी तो इसके दूध पीने के दिन हैं, खेलने-खाने के दिन हैं, अभी तो इसको मौज-मस्ती, उद्दंडता करने दो।
और मुझे बड़ा ताज्जुब होता है, मैं देखता हूँ छः साल, आठ साल के लड़के-लड़कियाँ और मुझे दिख रहा होता है कि ये गये, ये गये, जीवनभर के लिए गये। और अब इनको अगर बचाना है तो किसी को अब बहुत मेहनत करनी पड़ेगी; जो कि इनके माँ-बाप तो नहीं कर सकते।
छः, आठ साल का लड़का होगा और उसको देखकर के बिलकुल काँप जाता हूँ। मुझे दिखाई देता है कि जीवित लाश जैसा है वो। मुझे दिखता है कि अभी इसका कद बढ़ेगा, शरीर, वज़न बढ़ेगा, लेकिन ये मर चुका है, इसकी मौत हो चुकी है। इतनी छोटी उम्र में ही मौत हो गयी इसकी, अब भले ही ये साठ-अस्सी साल और जिये।
आपमें से जो लोग अभिभावक हैं या जिनके घरों में छोटे बच्चें हैं जिनसे नाता हो आपका या जो लोग शिक्षक हैं, उनसे तो मैं ख़ासतौर पर कह रहा हूँ।
अपने मिशन की शुरुआत मैंने कॉलेज के छात्रों के साथ ही करी थी। स्कूल के बच्चों के साथ भी कुछ काम करने की कोशिश करी, उसमें बहुत सफ़ल नहीं हुआ। और बड़ी बेबसी का अनुभव होता था — बेबसी मुझे आज भी लगती है — मैं बात कर रहा होता था, ऐसे ही होता था, ऑडिटोरियम होते थे, कॉलेजेस, यूनिवर्सिटीज के, बैठे होते थे स्टूडेंट्स। और मैं उसको देखता था और मुझे लगता था कि मैं किसी तरीके से कुछ जाकर के अभी कर सकूँ। मुझे पता होता था कि मुझे ये दोबारा शायद नहीं मिलेगा। ये जो सामने लड़का है या लड़की है, इससे यहीं एक मात्र मेरा परिचय होने वाला है, आगे तो शायद मुलाक़ात भी न हो। साफ़ दिखता था कि ये ख़त्म होने की ओर बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।
कई बार लोग पूछते हैं, बोलते हैं, 'आध्यात्मिक आदमी तो बड़ा शांत होता है न, आप तो जब बात भी कर रहे होते हैं तो आप हिलडुल रहे होते हैं'। मैं हिलडुल नहीं रहा होता, मेरा शरीर काँप रहा होता है। वो मेरी लाचारी है, बेबसी है क्योंकि मुझे समझ नहीं आ रहा होता कि मैं क्या कर दूँ ठीक अभी कि कुछ हो जाए, अभी हो जाए। वो जो मेरे सामने बैठे होते थे, वो मुझे बहुत कम होता था कि दोबारा मिलते थे।
जो लोग शिविरों में भी आते हैं, कोई निश्चित नहीं कि मैं दोबारा उन्हें कभी देख पाऊँगा। मैं उनके चेहरे देख रहा हूँ, उनकी बातें सुन रहा हूँ और दृश्य बिलकुल वैसा ही है कि किसी घर में आग लगी हुई है और वहाँ कोई फँसा हुआ है। घर जल रहा है, वहाँ कोई फँसा हुआ है। शायद एक मौका है आपके पास कुछ करके उसको किसी तरह से बाहर निकाल लेने का, खींच लेने का और वो मौका बीत रहा है। आप क्या करोगे? आप शांत बैठोगे निश्चल बिलकुल? वहाँ पर ध्यान करोगे, मेडिटेटिव हो जाओगे, क्या करोगे? मेरा तो शरीर काँपता है।
बच्चे को आपने जन्म दे दिया, चलिए जैसे भी दे दिया। न दिया होता तो मैं आपसे एक बात करता, मैं कहता, 'रहने ही दो'। पर आप उसे अब ले आये हैं दुनिया में तो बहुत-बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। और हमको वो ज़िम्मेदारी निभानी बिलकुल भी नहीं आती। हम बहुत अज्ञानी लोग और इसलिए बहुत — क्षमा कीजिएगा — मूर्ख क़िस्म के अभिभावक हैं।
और मुझे बहुत ज़्यादा गुस्सा आता है जब मैं देखता हूँ कहीं भी, किसी भी सार्वजनिक जगह पर, सड़क हो, गली-मौहल्ला हो, कोई सभा हो, कोई शॉपिंग मॉल हो, और वहाँ एक माँ अपने बच्चे को बर्बाद कर रही होती है। वो छोटा है, इतना छोटा है, तुम उसका शोषण कर रही हो, तुम उसकी हत्या कर रही हो। तुम्हें हक़ क्या था उसको जन्म देने का? और वो कितना नासमझ है, कुछ नहीं जानता।
आपको नहीं पता मन के मूल सिद्धांत, कि हर छोटी-से-छोटी चीज़ जो एक बच्चे की इंद्रियों से उसके मन में जाती है, वो उसको ढाल देती है? और छोटा बच्चा तो एकदम ही सोखते जैसा होता है। उसे जो मिल रहा है, वो उसी को अपने भीतर लिए ले रहा है।
आपने देखा है गाड़ियाँ चल रही होती हैं, उसमें कई लोग अपने कुत्ते लेकर चलते हैं? कुत्ते क्या कर रहें होते हैं जब गाड़ी में होते हैं तो? वो शीशे से बाहर अपना मुँह निकालकर झाँक रहे होते हैं। उन्हें कितना मज़ा आता है न, देखा है? ऐसा ही छोटे बच्चें करते हैं। आप उन्हें गाड़ी में लेकर चलिए और पिछली सीट पर उन्हें बैठा दीजिए। वो खड़े हो जाते हैं, खिड़की से बाहर ऐसे देखने लगते हैं। कई बार वो पीछे से बाहर देखने लगते हैं।
आप चल रहें होंगे, आपके सामने से एक गाड़ी जा रही होगी और आपको उसमें दिखायी देगा कि एक छोटा बच्चा खड़ा हुआ है, ऐसे देख रहा है पीछे। वो क्या कर रहा है? उसे जो कुछ दिखाई दे रहा है उसको वो बहुत तेज़ी से अपने भीतर ले रहा है। वो अपने मन का निर्माण कर रहा है, एक-एक ध्वनि से जो उसके कान में पड़ रही है, एक-एक दृश्य जो उसकी आँखों में पड़ रहा है। वही वो समय है जब वो बन रहा है।
सत्रह की उम्र आते-आते जब मैं मिलता था कॉलेज के स्टूडेंट्स से, सत्रह के हो चुके होते थे तब तक वो। सत्रह फिर उसके आगे अट्ठारह, बीस, बाइस, पच्चीस तक। और सबसे छोटा भी उसमें छात्र होता था, सत्रह का होता था। सत्रह की उम्र के आते-आते तो लगभग असंभव हो जाता है अब उसको बचाना।
मैं फिर कह रहा हूँ, बड़ी असहायता का अनुभव होता था कि चाह रहा हूँ पर कुछ कर नहीं पा रहा। आपने उसके हाथ में मोबाइल दे दिया। कई बार घर में चाचा-चाची होते हैं या बूढ़े-बुजुर्ग होते हैं और घर में मोबाइल तो अब सबके पास होता है। वो लोग दिनभर घर में ही होते हैं, वो बच्चे के हाथ में मोबाइल दे देते हैं। बच्चा भी जान जाता है कि इनके पास जाओ तो मोबाइल देखने को मिलेगा। और वो वहाँ पर जाकर के — अब तो यूट्यूब पर बच्चों के लिए सामग्री की प्रचुरता है — वो वहाँ जाकर क्या देख रहा है, आपने कभी सोचा है? वहाँ पर उसको क्या दिखाया जा रहा है? आप कहेंगे, 'नहीं-नहीं जो बच्चों वाली सामाग्री होती है, वही देखते हैं हमारे बच्चे।' बच्चों वाली सामाग्री माने क्या?
जिन्होंने वो सामाग्री बनायी है, वो बड़े विवेकी लोग हैं? ये जो साधारण कार्टून वगैरह भी होते हैं, इनमें कितना ज़हर होता है, कभी गौर से देखिएगा! एक भालू आएगा, वो एक हथौड़ा लेगा, वो बंदर के सर पर मारेगा और बंदर का कद छोटा हो जाएगा। मैंने इसका नतीजा देखा कि वो बच्चा जो ये सबकुछ देख रहा था, वो रसोई से चीज़ें उठाकर लोगों को मार रहा है। क्योंकि उसने देखा कि मारने से किसी को चोट तो लगती नहीं है, सर पर हथौड़ा मार दो तो बस कद छोटा हो जाता है।
एक आता है *माशा एंड बीयर*। उसमें लोग जाते हैं, दीवारों से टकराते हैं, उन्हें कुछ होता नहीं है। बस टर्न-टर्न की आवाज़ आती है, ऐसे-ऐसे चक्कर बनता है और वो गिर जाते हैं, और फिर उठकर चल देते हैं। तो वो भी यहीं करता है। कभी इसको दीवार पर फेंक देगा, कभी कुछ करेगा। और ये सब हमको लगता है, ये तो सब बचपने की बातें हैं। बल्कि हँसने भी लग जाते हैं कि 'देखो, कितना क्यूट है बेबी।'
और फिर माँ-बाप की शक्लें। आप जितनी बातें कर रहे हैं घर में, उसके कान में नहीं पड़ रही हैं क्या? आप सोच रहे हैं कि उसको कुछ समझ में नहीं आता।
एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है बच्चा। उसको क्या पढ़ा रहे हैं, कैसे पढ़ा रहे हैं, बहुत-बहुत ख़याल रखना पड़ेगा। और अगर आप समझ जाएँ कि एक बच्चा वास्तव में कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, तो आप ख़ुद ही संतान-उत्पत्ति से बचने की कोशिश करेंगे। आप कहेंगे, 'इतनी, इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी है। अगर मैं इसको सही से निभा सकता हूँ तो ही मैं इसमें प्रवेश करूँ, नहीं तो मैं ये कर क्यों रहा हूँ?'
स्कूल आपने भेज दिया, मोटी फ़ीस आपने दे दी। आपको अब क्या पता, क्या हो रहा है स्कूल में। घर में आप माहौल ठीक रख भी लें, स्कूल में क्या हो रहा है, आपको बताइए न क्या पता? और इतना समझ लीजिए, मैं पूरे सम्मान के साथ बोल रहा हूँ शिक्षक समुदाय के प्रति, हमारे देश में आज भी जो प्राइमरी और मिडिल लेवल पर शिक्षक-शिक्षिकाएँ हैं — कुछ अपवाद होंगे निश्चितरूप से, मैं उनका सम्मान करता हूँ — लेकिन वो अपने काम को बहुत गंभीरता से नहीं लेते, न ही समाज उनके काम को बहुत गंभीरता से लेता है। बहुत सारे तो ऐसे ही होते हैं कि पार्ट टाइम।
आप अपने बच्चों को उनके हाथों में सौप रहें हैं, उनकी ख़ुद की उम्र कई बार बहुत कम होती है। हो सकता है आपकी उम्र पैंतीस की हो; आपने अपने बच्चे को जिस टीचर के हाथों सौंप दिया है, उसकी उम्र पच्चीस की ही हो। उसे क्या पता है? उसमें कितना बोध जागृत है? वो क्या बता रहा है या बता रही है? तो ये चीज़े हैं जिन पर आपका नियंत्रण नहीं; स्कूल तो भेजेंगे।
बहुत सजग रहना होगा। बाहर से तो व्यर्थ के प्रभाव उस पर पड़ेंगे-ही-पड़ेंगे। आपको उस तक सही साहित्य लेकर जाना होगा, समय देना होगा, उसके मन को समझना होगा। क्या सोचने लग गया है, कौन सी बात का इसके ऊपर प्रभाव पड़ गया है, और जो कुछ भी गंदगी उसके मन पर बैठ रही होगी, उसे लगातार साफ़ करते चलते रहना होगा, लगभग रोज़। बहुत समय लेगा ये काम और बहुत मेहनत का काम है। और ये काम आप नहीं करेंगे तो बच्चा बड़ा तो तब भी हो जाएगा लेकिन बड़ा होकर वैसा ही बन जाएगा जैसा राह पर चलता आम-आदमी। वैसा बनाना है क्या बच्चों को?
घर की दादियाँ-नानियाँ बोल देती हैं, 'अरे! बच्चे तो भगवान की देन होते हैं। जैसे पैदा हुए हैं, वैसे ही बड़े भी हो जाएँगे'। ये चीज़ जानवरों पर चलती है, इंसानों पर नहीं। जानवर कैसे भी पैदा हो जाता है, कैसे भी बड़ा हो जाता है; इंसान का निर्माण करना पड़ता है। और बहुत मेहनत से, बहुत लंबे समय तक इंसान का निर्माण करना पड़ता है, वो अपनेआप नहीं बड़ा हो जाएगा। और अपनेआप अगर बड़ा हो गया तो जानवर जैसा ही बड़ा होगा। उसका निर्माण कर पाने का समय हो आपके पास और योग्यता हो आपके पास, तो ही बच्चे को जन्म दें। और अगर जन्म दे दिया है, तो अब उसे बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मानें और निभाएँ।
हम बहुत स्थूल जीवन जीते हैं न! आप किसी व्यक्ति की हत्या कर दें तो हत्यारे कहलाएँगे। लेकिन आप किसी को जन्म दे दें और उसकी पूरी संभावना नष्ट कर दें, उसको एक बेकार, सड़ा हुआ, अभिशप्त जीवन जीने के लिए छोड़ दें, तो आपको हत्यारा क्यों नहीं कहा जाना चाहिए, मुझे बताइए? हत्या तो फिर भी आप जिसकी करते हैं, उसका खेल ख़त्म। उसे कुछ समय का कष्ट हुआ होगा, फिर उसका खेल ही ख़त्म हो गया। पर जिसको आपने जन्म दे दिया, अगर आपने उसे सत्तर-अस्सी साल की यंत्रणा भुगतने के लिए छोड़ दिया, तो आप कितने बड़े अपराधी हुए, या नहीं हुए, बोलिए?
बैड पेरेंटिंग (ख़राब परवरिश) से बड़ा कोई गुनाह हो सकता है? और आप भी यहाँ बहुत सारे लोग जो बैठे हों और अपने जीवन में गाँठें-उलझनें पाते हों, कष्ट पाते हों, डर पाते हों, आप ग़ौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि उसका कारण भी वो बैड पेरेंटिंग है। वो अपूर्ण परवरिश है जो आपको मिली।
बच्चों के साथ निरंतर सजगता!