प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मध्य प्रदेश में आपका स्वागत है।
आचार्य प्रशांत: मैं मध्य प्रदेश का ही हूँ। पर जब आप पैदा नहीं हुई थीं, मैं उससे पहले से मध्य प्रदेश का हूँ।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा सवाल अभी हाल ही में देखने को मिल रहा है कि कुछ महिलाएँ हैं, जो अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल करके पुरुषों को मानसिक रूप से, सामाजिक रूप से और कानूनी तरीक़े खोजकर — वो मानसिक तौर पर इमोशनल ब्लैकमेल करके और विक्टिम कार्ड खेल के, उनको प्रताड़ित कर रही हैं।
इसमें मेरा सवाल ये है कि क्या ये वाक़ई में कोई स्वतंत्र महिला है, या फिर ये भी एक तरीक़े से अंधविश्वास से ग्रस्त स्त्री है? एक दमित स्त्री में और एक मुक्त, भ्रमित स्त्री में क्या वास्तविक अंतर होते हैं? मैं वो आपसे जानना चाहती हूँ।
आचार्य प्रशांत: बढ़िया बैठिए। और अच्छा है कि एक महिला ने ये प्रश्न किया, पुरुष ने नहीं किया। क्योंकि पुरुषों में ये अभी बड़ा फैशन है कि, ये आधुनिक महिलाएँ बिगड़ गई हैं और तमाम तरीक़े से ये पुरुषों का शोषण कर रही हैं।
देखिए, जो आधुनिक लड़की है न, महिला — उसकी एक अजीब सी स्थिति हो गई है। जो पुरानी स्त्री रही है, उसको कभी ये बोध ही नहीं था कि उसको जो पारंपरिक ज़िंदगी दी जा रही है, वो दमन की है, संकीर्णता की है, उसकी संभावनाओं को बाधित करती है। उसको पता ही नहीं था। उसको लगता था यही ज़िंदगी है, ऐसे ही जीना होता है। और वो उसी में संतुष्ट रह जाती थी।
जैसे दादियाँ पुरानी — उनको ये थोड़ी रहता था कि “अरे! घर की चारदीवारी में ही हम पड़े रह गए! हमने कभी कुछ किया नहीं!” उनको ये विचार, ये कल्पना, ये संभावना भी नहीं उठती थी कि कुछ किया जा भी सकता है। तो वो अपने घर में हैं और जो भी व्यवस्था चल रही है, उस व्यवस्था में वो अपना काम कर रही हैं। उन्हें कुछ दिक्कत होती नहीं थी। पढ़ी-लिखी भी नहीं होती थीं अक्सर। तो शेष विश्व कैसे काम करता है, वहाँ महिलाओं की क्या स्थिति है, क्या विचार हैं, कैसे आंदोलन रहे हैं — ये सब भी वे जानती ही नहीं थीं। उन्हें कुछ नहीं, तो उनका अपना काम ठीक चलता था।
अब जो आधुनिक महिला है, वो जान गई है। वो पढ़ी-लिखी है और उसको पता चल गया है कि भारत का इतिहास क्या है, दुनिया का इतिहास क्या है। उसके सामने आँकड़े आ गए हैं प्रमाण के तौर पर, और उसकी आँखें कुछ खुल गई हैं। तो अपने चारों ओर देख भी पाती है कि, ये सचमुच चल क्या रहा है ज़मीन पर। उसको ये सब दिखाई पड़ता है, और दिखाई उसको ये पड़ता है कि पुरुषों ने बड़ा शोषण करा है। यही उसके दिमाग़ में आता है। क्योंकि जो किताबें भी हम पढ़ते हैं, वो कोई बहुत आध्यात्मिक लोगों ने तो लिखी नहीं हैं।
मान लीजिए आप समाजशास्त्र की कोई किताब पढ़ रहे हों, इतिहास की पढ़ रहे हों — वो हो सकता है उस क्षेत्र के विद्वानों ने लिखी हों। लेकिन वो विद्वान भी कोई आध्यात्मिक रूप से बहुत परिपक्व तो होते नहीं हैं। तो वो भी जो बात करते हैं, अक्सर वो बात द्वैत की भाषा में होती है। शोषक-शोषित ये डाइकोटमी दिखाई जाती है।
"ये महिला है और महिला का पुरुष ने इतिहास में सदा से ऐसे दमन किया, ऐसे शोषण करा है।" तो जो मॉडर्न लड़की होती है, उसके मन में ये कहानी, ये नैरेटिव बैठ जाता है कि "मेरा तो एक्सप्लॉइटेशन ही हुआ है और पैट्रिआर्की ज़िम्मेदार है। मेरा तो एक्सप्लॉइटेशन ही हुआ है, एक्सप्लॉइटेशन ही हुआ है।" ये बात उसके मन में बैठ जाती है। ये बात एक तल पर सही भी है, पर ये आख़िरी बात नहीं है। इसके आगे और भी बातें होती हैं। वो और जो बातें होती हैं, वो हमें किताबों में मिलती नहीं हैं।
तो अभी जो मॉडर्न लड़की होती है, उसकी हालत ये होती है कि — एक तरफ़ तो वो अभी पुरानी व्यवस्था से जुड़ी हुई है। वो बहुत आज़ाद सचमुच हो नहीं गई है। वो ऐसी नहीं हो गई है कि उसने अतीत को पूरा ही त्याग दिया हो। वो अधजगी है। ठीक है? वो अधजगी है। उसने पूरा नहीं त्याग दिया, उसे अतीत की परंपराएँ कुछ अभी भी चाहिए पर वो वाली चाहिए जो अब सुविधाजनक है। वो वाली चाहिए जिसमें उसका भी स्वार्थ जुड़ा हुआ है। तो वो सब उसको चाहिए है अभी।
लेकिन साथ ही साथ उसके मन में दुनिया के प्रति, पुरुषों के प्रति एक नफ़रत बैठ गई। एक ज़हर बैठ गया है, "ये लोग गड़बड़ होते हैं।" और अब वो डरी हुई भी रहती है और हिंसक भी रहती है। वो डरी भी रहती है और हिंसक भी रहती है। डरी ये रहती है कि, "पुराने समय में जिस तरीक़े से महिला का शोषण किया है पुरुष ने, कहीं मेरा भी ना हो जाए।" और वो इस कदर डरी रहती है कि जहाँ शोषण नहीं भी हो रहा, वहाँ उसको लगता है कि हो रहा है। और डर के साथ आक्रामकता चलती है, तो वो आक्रामक हो जाती है।
वो ऐसी आक्रामक हो जाती है कि आप उसके साथ मज़ाक भी नहीं कर सकते। आप मज़ाक भी करो, तो आपको ख़्याल रखना पड़ता है कि कहीं उसकी भावनाओं को ठेस न लग जाए। क्योंकि वो हर चीज़ को अब बस एक्सप्लॉइटर-एक्सप्लॉइटेड डाइकोटमी के फ्रेमवर्क में ही देखती है। वो अब अपनी नज़रों में एक ज़बरदस्त विक्टिम बन चुकी है। और जब आप विक्टिम अपने आप को घोषित कर देते हो ना, तो आपको हर तरह की हिंसा करने का हक़ मिल जाता है।
आप कहते हो — "मेरे साथ अतीत में बहुत बुरा किया है पुरुषों ने, तो अब अगर मैंने पलट के पुरुषों का कुछ बुरा कर दिया, तो कुछ ग़लत थोड़ी किया। अतीत में मेरे साथ पुरुषों ने बहुत बुरा किया है, पूरे समाज ने बहुत बुरा किया है, तो अब मैं अगर पलट कर के हिंसा कर देती हूँ, तो मैंने ग़लत क्या किया? हिसाब ही तो बराबर किया है।" ये स्थिति हो गई है।
अब यहाँ तक तो हमें हमारी शिक्षा ने बता दिया कि अतीत में पुरुष आक्रामक रहा है, स्त्री एक तरह से बंधक रही है और ये सारी बातें बता दीं। लेकिन ये नहीं बताया कि इसके आगे अब होना क्या चाहिए। ये हमारी शिक्षा ने नहीं बताया। इतना बता के छोड़ दिया कि देखो, “द हिस्टॉरिकल पोज़िशन ऑफ़ वुमन अक्रॉस द वर्ल्ड हैज़ बीन लाइक दिस, दिस एंड दिस।” इतना बता के छोड़ दिया। किसी को इतना बता के छोड़ दोगे, तो उसके मन में हिंसा, नफ़रत, डर, ज़हर, ये सब तो आएगा ही आएगा ना। तो ये उसके भीतर आ गया है।
पुरुष उसको अब, कोई भी पुरुष, वो उसे अब शत्रु की तरह ही लगता है। कि “ये जो भी है, ये है तो मेल ही ना तो ये ग़लत ही होगा। और कोई पुरुष ऐसा भी हो, जिसके सामने सिर झुकाया जा सकता हो, वो उसके सामने भी नहीं झुकाएगी क्योंकि उसके लिए हर पुरुष अब एक प्रतिद्वंदी है, शत्रु है। एक तरह की क्लास कॉन्फ़्लिक्ट पैदा कर दी है। “मेल है ना? नो नो नो। मेल है, तो अच्छा नहीं हो सकता गड़बड़ ही होगा।” ये होता है अधूरा ज्ञान। इसके आगे की जो बात है, वो बताई नहीं गई।
आगे की बात ये है, कि पुरुष ने तुमको “देह” बना-बना कर के बंधक बना दिया। पुरुष ने तुमको बंधक बनाया, "स्त्री की देह" कह-कहकर। तो मुक्ति ये है कि तुम अब देह बनकर ना जियो। पर वो पहले भी एक स्त्री थी, जो कि पुरुष की दासी थी। और उससे पलट करके, उससे विपरीत जाकर के अब हिसाब बराबर करने के लिए — वो अभी भी रहना एक स्त्री ही चाहती है, पर पुरुष की स्वामिनी बनकर।
कहती है, "ऐसे हिसाब बराबर हो जाएगा। पहले तुमने हमें दबाया, अब हम जिस भी तरीक़े से होगा तुम्हारी बराबरी कर रहे हैं।" इक्वालिटी की बात होती है ना फेमिनिज़्म में? कहते हैं, “अब हम बराबरी कर रहे हैं, तो अब हम तुम्हें भी दबा सकते हैं।” पर दोनों ही हालत में, पहले हो चाहे अब हो — आइडेंटिफाइड तो मैं अपने बॉडी से ही रहूँगी, और अपनी जेंडर से ही रहूँगी। ये है हालत।
तो अगर आप आइडेंटिफाइड अभी भी अपनी बॉडी से हो, तो वास्तव में कुछ बदला है नहीं। आपने बस ये किया है कि एक्सप्लॉइटेड का रोल छोड़कर अब आप कह रहे हो कि “मौक़ा मिलेगा तो हम भी एक्सप्लॉइट कर लेंगे।” आपने रोल बदला है, सेंटर नहीं बदला अपना। बात आ रही है समझ में? और जो अपने आप को विक्टिम कह लेता है ना, वो जानबूझ कर अपने भीतर की संवेदनशीलता मारने लग जाता है। वो कहता है कि, “मैं अभी तक विक्टिम रहा हूँ, शोषित रहा हूँ, तो अब आगे तो मुझे मारना-पीटना है।” तो भीतर से फिर कठोर हो जाता है। कठोर, और कठोर होना कोई अच्छी बात नहीं है।
इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि स्त्री को नाज़ुक, कोमल, मुलायम होना चाहिए। किसी के लिए भीतर से कठोर होना अच्छी बात नहीं है। हालत ये हो गई है कि जो बहुत सारी हैं, जिन्होंने बहुत हो सकता है फेमिनिज़्म पढ़ा भी ना हो — पर एक चलन है अपने आप को रेडिकल फेमिनिस्ट बोलने का। वो ऐसी हो गई हैं कि, अगर पुरुष कहीं पड़े हों उनका खून बह रहा हो, तो उसको बचाने भी न जाएँ। “सूट्स हिम, फाइन। इसने न जाने कितनी औरतों का इतिहास में खून बहाया है। अभी सड़क पर पड़ा है, दुर्घटना हो गई है, मरने दो इसको। पुरुष है ना।”
ये भी तुम क्या बनकर सोच रही हो? स्त्री की देह बन के ही सोच रही हो ना? इंसान तो पहले तुमको किसी ने नहीं बनने दिया। अब तुम ख़ुद को इंसान नहीं बनने दे रही। जबकि —
वास्तविक मुक्ति ये है, कि देह स्त्री की हो या पुरुष की तुम बनो इंसान।
ये वास्तविक मुक्ति होती है।
पुरुष आक्रामक रहा है, हिंसक रहा है। तुम कह दो, "बराबरी का मतलब ये है कि मैं भी आक्रामक हो जाऊँगी, बर्बर हो जाऊँगी, हिंसक हो जाऊँगी।" पुरुषों ने विश्व युद्ध लड़े हैं, "मैं भी विश्व युद्ध लड़ूँगी।" ये कौन सी बराबरी है?
विवाह में आमतौर पर ऐसा चला है कि पुरुषों ने स्त्रियों को मारा है। दहेज हत्याएँ हम जानते हैं। अब ये होने लग गया है कि, "मैं ऐसा उसके ऊपर मानसिक दबाव बना दूँगी कि वो लटक भी जाए। लटक भी गया तो ठीक है! तुमने भी तो न जाने कितनी लड़कियों को दहेज के लिए जलाकर मारा था ना। तो थोड़ा सा तुम पर भी पलटकर वापस आना चाहिए।"
ये कैसा विचार है?
आधुनिकता आपको मुक्ति नहीं देगी। अगर आप महिला हैं तो आपसे कह रहा हूँ कि सिर्फ़ आधुनिक आप व्यवहार करने लग जाएँ, आधुनिक कपड़े पहनने लग जाएँ, भाषा-शैली, ये सब आपकी आधुनिक हो जाए — तो उससे आप आधुनिक नहीं हो जाते। मॉडर्निटी की जो शास्त्रीय परिभाषा है वो भी है, फ्रीडम ऑफ थॉट से संबंधित। फ्रीडम केंद्रीय बात है। जो भीतर से मुक्त हुआ, बस वही मॉडर्न है। अगर आप अपने आप को मॉडर्न बोलना चाहती हैं, तो आपको आध्यात्मिक होना पड़ेगा। जो आध्यात्मिक है, सिर्फ़ वही मॉडर्न है। ये कैसी बात?
आध्यात्मिक लोग तो पीछे वाले होते हैं ना, बाबा जी की लुंगी टाइप। हमने तो यही देखा है, आध्यात्मिक माने वो जो आज से एक हज़ार साल पहले के कपड़े पहन के चले और आज की सबसे मॉडर्न महंगी गाड़ी में, लेकिन कपड़े होने चाहिए हज़ार साल पहले के — तभी तो वो आध्यात्मिक कहलाता है।
नहीं।
आधुनिक आधुना से आता है। आधुना माने अभी। अभी जो तथ्यों में जीता है, वो आधुनिक है। जो सत्य का सम्मान करता है, वो आधुनिक है। जो अतीत का कूड़ा नहीं ढो रहा, वो आधुनिक है। जो मूर्खता से मुक्त है — चाहे वो मूर्खता परंपरा की हो, चाहे शरीर की हो, जो मुक्त है वो आधुनिक है।
पुरुष बेवकूफी करते रहे हैं। वही बेवकूफियाँ आप भी दोहराएँ, तो आप आधुनिक नहीं हो गईं। पुरुष रिश्तों में शोषक रहे हैं, कठोर रहे हैं। आप भी रिश्तों में शोषक हो जाएँ, कठोर हो जाएँ, तो आप आधुनिक नहीं हो गईं। पुरुष चालाकी कर-कर के और कलाइयाँ उमेट-उमेट के दहेज वसूलते रहे हैं। आप भी किसी की कलाई मरोड़ के एलिमनी वसूलें, तो आप आधुनिक नहीं हो गईं। बात समझ में आ रही है?
ये टिट फॉर टैट वाला मामला आपको आधुनिक नहीं बना देगा। पहले स्त्री के शरीर की कमजोरी का इस्तेमाल करके पुरुष कहता था कि, क्योंकि तब बहुत ज्यादा एनर्जी का कोई सोर्स होता नहीं था, तो मस्कुलर एनर्जी बड़ी बात होती थी। मस्कुलर एनर्जी पुरुष के पास ज़्यादा है, तो वो स्त्री को कह सकता था कि तुम ये छोटे-मोटे काम करो, बड़े काम खेत के हैं, वो मैं करता हूँ। तुम घर की सफ़ाई-वफ़ाई करो, खाना-वाना बनाओ। ये छोटी एनर्जी के काम हैं। बड़ी एनर्जी का काम है — हल चलाना — वो मैं करूँगा। तो स्त्री के शरीर का इस्तेमाल करके पुरुष उसको दबा लेता था, उस पर छा जाता था।
अब आधुनिकता के नाम पर आप अपने शरीर को हथियार की तरह इस्तेमाल करो, वेपनाइज़ करो — क्योंकि वासना के तल पर पुरुषों को ज़्यादा आसानी से उत्तेजित किया जा सकता है स्त्रियों की तुलना में। तो कहो, “जिस शरीर की कमजोरी का तूने फायदा उठाया है, मैं उसी शरीर का इस्तेमाल करके सेक्शुअल तरीक़े से तुझको दबा दूँगी।” तो ये आधुनिकता नहीं हो गई।
और ये आधुनिकता के नाम पर खूब चल रहा है —सेक्शुअलिटी का वेपनाइज़ेशन। शरीर को हथियार की तरह इस्तेमाल करो। झुकेगा बंदा, झुकेगा। कैसे नहीं झुकेगा? सेक्सी बॉडी दिखाऊँगी, झुकेगा। और फिर मैं जो चाहूँगी, करेगा। मुझे पैसे चाहिए होंगे, पैसे भी देगा। इज़्ज़त भी देगा, ताक़त भी देगा, सब देगा। ये शरीर नहीं है, ये हथियार है। और यही पहले मेरी कमजोरी थी, लायबिलिटी थी, अब यही मेरा वेपन है। ये आधुनिकता नहीं है। ये तो जो पुराना ही काम चल रहा था, वही चल रहा है। बस सिक्का पलट दिया आपने। पर सिक्का वही आदिम, पुरातन, पाशविक सिक्का ही चला रहे हो आप। क्या किया बस सिक्के को? ऐसे पलट दिया है।
आप गीता पढ़ती हो। आप ख़ुद भी मुक्त जियो और दूसरे को भी मुक्ति दो। ये आधुनिकता है। ना किसी से डरेंगे, ना किसी को डराएँगे। ना किसी से दबते हैं, ना किसी को दबाएँगे। ये आधुनिकता है।
हाँ, प्रेम है अगर और सच्चाई है अगर, तो ज़रूरत पड़ी तो जान भी दे देंगे। लेकिन डर के नहीं, दब के नहीं। जितना परंपरा से कोई स्त्री करती आई है दूसरे के लिए, हम उससे ज़्यादा भी कर सकते हैं। आधुनिक होने का ये मतलब नहीं है कि किसी दूसरे के लिए कुछ नहीं करना। जितना आज तक होता आया है, ये तो छोड़ो कि उसकी बराबरी करेंगे — हम उससे ज़्यादा भी कर सकते हैं किसी दूसरे के लिए। लेकिन सिर्फ़ बोध में करेंगे, प्रेम में करेंगे। किसी ऐसे उद्देश्य के लिए करेंगे जो इस लायक है कि उसके सामने सर झुका सको।
सेवा करना कोई हीन बात नहीं होती है, पर सेवा करने में और दासता करने में अंतर होता है। समझ में आ रही है बात? मुक्ति का मतलब अपने हिसाब से, अपने स्वार्थ के लिए किसी आधुनिक विचारधारा का या प्राचीन ग्रंथ का अर्थ कर लेना नहीं होता।
मुझसे आकर कुछ बोलते हैं, “देखिए, बाक़ी सब बढ़िया है, बहुत अच्छा है। मैं छात्र हूँ आपका गीता में। लेकिन मेरी पत्नी जी, जिन्हें मैंने ही जोड़ा था, वो बाहर का काम तो कभी कुछ करती ही नहीं थी पूरी ज़िंदगी। कभी ज़िंदगी में उन्होंने बाहर का कुछ करा नहीं और कुछ हद तक मैं भी ज़िम्मेदार हूँ। मैंने भी न उनको और पढ़ाया, न प्रेरित करा कि तुम जाओ बाहर नौकरी वग़ैरह करो। तो बाहर नौकरी करना तो कभी है ही नहीं समीकरण में। हाँ, घर का काम वो कुछ कर लिया करती थी। तो अब वो घर का काम भी नहीं करती।” ये उन्होंने गीता का अर्थ समझा है। ये उन्होंने गीता का अर्थ समझा है कि बाहर का भी कुछ नहीं करेंगे और घर का भी कुछ नहीं करेंगे। ये तो मेरे मत्थे मत डाल देना।
मैं तो संघर्षों में उतरने के लिए बोलता हूँ न। मैं सीमाओं को चुनौती देने के लिए बोलता हूँ। मैं कहता हूँ, निकलो, संघर्ष करो। या मैं कहता हूँ कि और ज़्यादा आराम करो? और जिन्हें ज़िंदगी में अच्छा होना होता है, वो भले ही जान भी जाएँ कि तथ्य है कि कोई दूसरा ने हमारा नुकसान किया है — पर वो बहुत दिनों तक दूसरे को दोष देते नहीं बैठे रहते। वो कहते हैं, “हटाओ! अब जो हुआ सो हुआ। मुझे तो अपनी ज़िंदगी जीनी है। मुझे देखना है कि मैं आगे कैसे ”बढ़ूं।
वो यही नहीं कहते रहेंगे कि, “पतिदेव, तुम्हारी वजह से मैं पढ़-लिख नहीं पाई। 18 की थी तभी तुम मुझे उठा लाए, और 19 की थी तो बच्चा कर दिया। तो तुम्हारी वजह से ही मैं ऐसी रह गई हूँ, तो अब तुम मुझे ढोओ। तुमने ये सब करा है ना, तो अब तुम मुझे ढोओ। और आचार्य जी ने बता दिया कि ये घर का काम तो ऐसा ही होता है, तो वो भी नहीं करूँगी अब।” नहीं।
ठीक है, एक सीमा तक पता होना चाहिए कि जो काम हुआ, उसका कारण क्या है। किसी का दोष पता भी चल जाए, तो हो गया पता चल गया। अब आगे तो अपनी ज़िंदगी जीनी है न? पतिदेव ने नहीं पढ़ाया, तो ख़ुद पढ़िए। गीता का संदेश संघर्ष का है, दोषारोपण का नहीं है। पिता ने नौकरी नहीं करवाई, तो अब बाहर निकलिए। करिए। और नौकरी से मेरा अर्थ मात्र ये नहीं होता कि पैसा ख़ुद कमाने लगो। हालाँकि वो भी ज़रूरी है। नौकरी से मेरा अर्थ होता है, जीवन को कुछ तो तुम अच्छा उद्देश्य दो। फालतू की नौकरी करने के लिए भी नहीं कह रहा हूँ कि जाकर बूचड़खाने में नौकरी कर ली। लड़िए, ज़िंदगी से भागिए मत। दूसरे पर दोष डाल-डालकर — कि ये ज़िम्मेदार है, ये ज़िम्मेदार है।
और हो सकता है आप झूठ न बोल रही हों। बिल्कुल हो सकता है कि आपके पति ज़िम्मेदार हों, पिता ज़िम्मेदार हों, भाई ज़िम्मेदार हों, परंपरा ज़िम्मेदार हो, समाज ज़िम्मेदार हो, ये सब ज़िम्मेदार हो सकते हैं बिल्कुल। बिल्कुल हो सकता है कि इन्होंने आपका नुकसान किया है। एकदम हो सकता है। लेकिन इनको दोष देते रहने से कुछ नहीं होने वाला। अब अपनी ज़िंदगी अपने हाथों में लीजिए। परिपक्व होने के नाते अपनी ज़िम्मेदारी संभालिए, पहचानिए।
आमतौर पर दूसरे पर दोष लगाया भी जाता है मुआवज़े की मांग पर। कोई किसी को बहुत बोले ना कि "तुम ज़िम्मेदार, तुम ज़िम्मेदार," उसको ऐसे सुनो — मुआवज़ा दो, मुआवज़ा दो। भीतर ही भीतर ये जो मांग आ जाती है मुआवज़ा उगाहने की, इस मांग को छोड़िए। गरिमा, आत्मसम्मान बहुत बड़ी चीज़ होते हैं। मुआवज़े की ज़िंदगी जियोगे तो आत्मसम्मान खो बैठोगे। बुरा लग रहा है?
यही है। “पुरुष है ना, आज इसके असली रंग सामने आ ही गए। आज आचार्य जी नहीं एक पुरुष बोल रहा है। भेड़ की खाल में भेड़िया, आ ही गया सामने। और वो भी एक ब्राह्मण पुरुष। तुम ही लोगों की बनाई मनुवादी व्यवस्था थी, जिसने स्त्रियों का सदा दमन करा।” अरे क्या? हो ही नहीं सकता कि ये मन में न आए। तो क्या करना है?
ज़िंदगी भर बस दूसरों पर इल्ज़ाम डालते रहना है और कहना है, "तुमने मेरा बहुत बुरा करा है। चलो, मुआवज़ा दो, मुआवज़ा दो।" यही करना है? इसमें कोई गरिमा है? ये आपको बहुत भीतर से खोखला बना देगी चीज़। और भूलिएगा नहीं, स्ट्रॉन्ग होने का मतलब आक्रामक होना नहीं होता। आपको निश्चित रूप से एक मजबूत मनुष्य होना है। पर मजबूती इसमें नहीं है कि, "अरे बहुत तेज-तर्रार है, बच के चल न भैया, झपकते रैपटा मारती है!" ये कौन-सी मजबूती है भाई?
आक्रामकता तो डर को इंगित करती है। जो जितना डरा हुआ होता है, वो बाहर से उतना ज़्यादा तेज-तर्रार बनने की कोशिश करता है। मैडम जी बहुत मॉडर्न हैं। क्या है वो? फेमिनिस्ट वग़ैरह हैं। किसी की नहीं सुनतीं। जो किसी की न सुने, वो कोई अच्छा आदमी है? बोलो, जो किसी की नहीं सुनता, फिर वो गीता की भी कैसे सुनेगा? आधुनिकता का मतलब ये नहीं है "किसी की नहीं सुनना"। आधुनिकता का मतलब है — विवेक। पता होना चाहिए किसकी सुननी है और किसकी नहीं सुननी है।
किसी ने मेरे साथ बुरा किया — अगर मैं एक बेहतर इंसान बनी हूँ, तो मैं कहूँगी, "क्षमा, जाओ-जाओ।" मैं अपनी ऊर्जा इन ख़्यालों में नहीं जला सकती कि बदला कैसे लूँ। और न ही लगातार ग्लानि में जल सकती हूँ कि, "देखो, मेरे साथ कितना बुरा हुआ, कितना बुरा हुआ। क्षमा, जाओ। मुझे मेरी ज़िंदगी देखने दो। मुझे आज जीने दो। मुझे समझने दो कि मुझे आज क्या करना है। मुझे हिसाब बराबर नहीं करना है, मुझे एक नया हिसाब तैयार करना है।” है ना? तो एक नया हिसाब तैयार करिए।
आप लोगों की वजह से मुझ पर लांछन लगने लगे हैं। कह रहे हैं कि, "ये अब जो कई-कई हज़ार महिलाएँ आपके साथ, आपने ही बिगाड़ा है।"
और ये अभी कल की ही बात है। शाम को एक अपरिचित महिला थी, उन्होंने आकर कहा, बोली — "ये है, वो है। बहुत-बहुत सुनती हूँ आपको, ऐसा है।" फिर अपनी सोसाइटी का बताया कि आज सुबह ही प्रसूति के समय एक महिला की मृत्यु हो गई। बोली —"उसी वक़्त मुझे याद आया जी आपने कहा था कि ये जो पूरा फंक्शन होता है बर्थ का, ये क्यों ज़रूरी है कि स्त्री के शरीर के भीतर ही केंद्रित रहे, जब इसमें इतना ख़तरा होता है और इसमें इतने तरीक़े के शारीरिक बर्डन आ जाते हैं।"
बोली — "मुझे वो सब याद आ रहा था, तो धन्यवाद वग़ैरह दिया, ये सब करा। फिर बोलती है, लेकिन एक बात बोलनी है।" मैंने कहा, "क्या?" बोली, " इन्हें डाँटा करिए।" मैंने कहा, "जो डाँटने लायक होगा, उसे डाँट भी देंगे।" अब मैं सबको एक जैसा तो नहीं सोच सकता कि सब महिला हैं, तो माने सब महिलाएँ एक जैसी हो गईं। कोई-कोई, सब अलग-अलग होते हैं। जहाँ ज़रूरत होगी, वहाँ कुछ बोल भी दूँगा।
अब आपने आज सवाल ऐसा पूछ लिया कि ज़रूरत आ गई, तो बोल दिया। अरे यार, जो काम एक अच्छे इंसान को शोभा नहीं देता — जो काम इस लायक नहीं है कि एक अच्छा इंसान उसे करे। कोई महिला वो काम करेगी, तो वो काम अच्छा हो जाएगा? बोलो ना। पर हम सोचते हैं कि कई बार ऐसा हो जाता है। हम सोचते हैं कि, "मैं महिला हूँ, तो मुझे कुछ ख़ास अधिकार है।” ऐसे नहीं। मैं ऐसा कर सकती हूँ।
और पुरुषों ने भी जिन्होंने, क्योंकि महिलाओं के अधिकारों के लिए ज़्यादा संघर्ष पुरुषों ने ही करा है। बेटी के लिए अक्सर माँ से ज़्यादा बाप करके दिखाता है। जहाँ होता है कुछ, जहाँ नहीं होता, वहाँ तो कुछ नहीं होता। पर माँ से ज़्यादा कई बार बाप सोचता है कि बेटी को कैसे आगे बढ़ाएँ। तो उसमें ये हो जाता है कई बार कि घर में बेटी है और बेटा है, तो बाप बेटी का बहुत पक्ष लेना शुरू कर देता है। वो तो इसलिए लेता है क्योंकि उसको पता होता है कि उसके लिए ख़तरे कितने बड़े-बड़े हैं।
तो इस कारण वो बेटी को थोड़ा ज़्यादा लाड़ दे देता है। पर बिटिया बिगड़ सकती है। वो इसलिए नहीं कि फिर वो रोल रिवर्सल कर लें — "कि पहले मुझे गुंडों ने परेशान करा था, तो अब मैं गुंडी बन जाऊँगी।" कुछ समझ में आ रही है बात? भला इंसान बनिए। स्त्री-पुरुष पीछे छोड़िए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मेरा ये क्वेश्चन है इसी से रिलेटेड कि कठोरता, डर और बदलाव — ये तीनों जैसे एक साथ ही चलते हैं। कि जब बदलाव की बात आती है तो महिलाएँ बहुत जल्दी बदलाव स्वीकार कर लेती हैं। बचपन से ही अगर देखा जाए, तो बच्ची ही रहती है वो और अगर उसको भाई की ज़िम्मेदारी या परिवार की ज़िम्मेदारी आती है, वो अपना बचपन छोड़ के और जल्दी से हर चीज़ को एक्सेप्ट कर लेती है।
बड़े होने पर तो कॉम्प्रोमाइज़ चलते ही रहते हैं। तो स्वीकार करती ही जाती है। करती ही जाती है। उम्र की कोई सीमा नहीं रहती, कॉम्प्रोमाइज़ चलते ही रहते हैं। लेकिन यही जब बदलाव पुरुष को करना होता है, तो वो इतनी कठोर उनकी मेंटालिटी क्यों रहती है कि वो कोई अच्छा अगर बदलाव है तो वो भी नहीं करना चाहते हैं? कहीं कोई अच्छी राह है, अच्छा कुछ उन्हें करना है जीवन में, तो वो नहीं करना चाहते। तो ये कौन-सा डर रहता है उनको? वो बात समझ नहीं आती मुझे।
आचार्य प्रशांत: ये तो बहुत आपने जनरलाइज कर दिया। लेकिन हाँ, महिलाओं को जिस तरह के बदलाव स्वीकार करने पड़ते हैं, वो हम समझ पा रहे हैं। पुरुष भी बदलाव स्वीकार करते हैं, पर वो दूसरे तरह के बदलाव होते हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष देश बदलना स्वीकार कर लेगा। पुरुष कहेगा कि मैं जा रहा हूँ। मैं पंजाब-हरियाणा का था, मैं जा रहा हूँ, मैं अब कनाडा में रहूँगा क्योंकि वहाँ मेरे लिए बेहतर भविष्य है। वो स्वीकार कर लेता है। पर ये बात कम से कम उसने अपने निर्णय से करी होती है। भले ही उसका निर्णय उसकी अपनी कामना से आ रहा हो, वो देश बदल लेता है। वहाँ उसकी अपनी कामना होती है।
लड़की को बचपन से ही पता होता है कि उसे घर बदलना पड़ेगा। ये सबसे बड़ा बदलाव होता है जो उसकी जिंदगी में आता है कि उसको उखाड़ करके, उसके घर से उखाड़ के उसे दूसरी जगह पर फेंक दिया। ये आता है।
तो ये जो बदलाव स्वीकार करने वाली बात है, ये आवश्यक रूप से कोई अच्छी बात नहीं है, कि लड़कियाँ बदलाव स्वीकार कर लेती हैं। इसमें से आधी तो "मरता क्या न करता" वाली बात है। नहीं स्वीकार करोगी तो क्या होगा? तुम्हें कहा जा रहा है कि घर छोड़ दो, विदाई हो गई, जाओ उधर। नहीं जाओगी तो माँ-बाप ही निकाल देंगे। इसमें आपके पास विकल्प थोड़ी है कि मुझे बदलाव नहीं स्वीकार करना है।
बेटी है, दो-तीन बेटियाँ कर ली थी बेटे की चाहत में। अब वो पैदा हुआ है, तो वो राजकुमार है। वो राजकुमार है, तो तीनों बहनें मिलके उसको पाले। और ज़रा सी भी उसके रोने की आवाज आ गई, तो तीनों बहनें थप्पड़ खाएँगी। अब ये तुम स्वीकार नहीं करोगी तो क्या करोगी? थप्पड़ खाओगी? तो ऐसा नहीं है कि महिलाएँ बड़े प्रेम से और बड़ी स्वेच्छा से बदलाव स्वीकार करती हैं। मजबूरी है। मजबूरी में स्वीकार करती हैं। महिलाएँ मजबूरी में स्वीकार करती हैं, पुरुष कामना में स्वीकार करते हैं।
प्रश्नकर्ता: जो सालों से चला आ रहा है, उनके साथ टॉर्चर, तो उसी चीज़ को लेके वो शायद सोचती कि चलो ये कुछ चेंज हो जाएगा, तो शायद मेरी लाइफ बेहतर हो जाएगी। शायद वो बेहतरी के लिए स्वीकार कर ले।
आचार्य प्रशांत: बेहतरी के लिए क्या स्वीकार करती हैं? बेहतरी अपनी चाहने के लिए भीतर अपनी सत्ता होनी चाहिए ना, तब मैं अपनी बेहतरी चाहूँगी। उनके भीतर उनकी सत्ता, उनकी एजेंसी होती ही बड़ी अविकसित है।
महिलाएँ तो ज्यादातर ऐसी ही होती हैं, बस कि हमारे देश का हाल पेड़ का पत्ता। किसी पेड़ पर लगा। हवा यहाँ बहा ले गई। ऐसे हो रहा है, वैसे हो रहा है। जाकर पानी में पड़ गया। पानी कहीं ले गया। वहाँ से मिट्टी पर पड़ गया। वहाँ से कुछ और हो गया। पति के यहाँ चली गई। पति ने कहा कि नहीं, मुझे विदेश में मिल रहा है, तो विदेश भी चली गई। अपना क्या है? उसकी अपनी जिंदगी, अपनी हस्ती तो होती नहीं है ना।
तो बदलाव स्वीकार कर लेना, मैं तो कह रहा हूँ कुछ भीतर बदलना चाहिए ना। बाहर का बदलाव आप स्वीकार कर रहे हो क्योंकि भीतर से तो आप अभी दास ही बने हुए हो। और बिगर्स कान्ट बी चूज़र्स। तो आपको बोला गया, आप यहाँ जाओ, यहाँ जाओ, यहाँ जाओ। जहाँ जाने को बोला गया, आप चले गए।
और पुरुष अपनी कामनाओं का दास है। महिला अपनी परिस्थितियों की दास है। पुरुष अपनी कामनाओं का दास है, बहुत मोटे तौर पर। इसके बहुत-बहुत अपवाद भी होते हैं, मोटे तौर पर। तो कुछ बदल थोड़ी ही रहा है। भीतर की जो गुलामी है, जो दासता है, वो तो वैसी की वैसी है। सारे बदलाव बाहर हो रहे हैं बस। सारे बदलाव बाहर हो रहे हैं। क्या भीतर क्या बदला है?
तो ये आप जो कह रहे हैं, "लड़कियाँ बदलाव स्वीकार कर लेती हैं।" कोई बदलाव हो नहीं रहा है। मैं नौकर हूँ। कल मुझे बोला गया जाओ चवन्नी मार्केट फलानी चीज़ें लेकर के आओ। आज कहा गया नहीं, रास्ता बदलो, तुम उधर जाओ, ठन्नी मार्केट वहाँ से चीज़ें लेकर के आओ। चवन्नी का ठन्नी हो गया, दाएँ का बाएँ हो गया, पर क्या सचमुच बदला कुछ? क्या नहीं बदला? मैं कल भी गुलाम थी, मैं आज भी गुलाम हूँ। तो कुछ नहीं बदला।
यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। आज इस नौकरी में थे, कल उस नौकरी में जा रहे हैं। घर की महिला बहुत नहीं जम रही, तो बाहर भी कहीं कुछ कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है बाहर चीज़ें बदल रही हैं — शहर बदल रहा है, नौकरी बदल रही है। ये वो 50 चीज़ें बदल रही हैं। भीतर तो कुछ नहीं बदला ना। बाहर के बदलाव भ्रामक होते हैं, बाहरी बदलावों से नहीं समझना चाहिए कि कुछ बदल रहा है। भीतर हमारे जो ठोस अहंकार बैठा होता है, वो नहीं बदलता।
स्त्री के मामलों में ज्यादातर वो अहंकार मजबूरी का रूप ले लेता है — ”आय ऐम अ हेल्पलेस विक्टिम।” और पुरुष के मामले में वो अहंकार ज्यादातर एक कामना का रूप ले लेता है — “आय ऐम अ डिज़ायरस अचीवर।"
”आय ऐम अ हेल्पलेस विक्टिम। आय ऐम अ डिज़ायरस अचीवर।"
और इस केंद्र से वो अपनी स्थितियाँ बदलती पाती रहती है और वो पाता है, उसकी भी बाहरी स्थितियाँ बदल रही हैं। बाहर-बाहर बदल रहा है। भीतर जो कुछ है, वो थोड़ी बदल रहा है। तो महिलाएँ अपने आप को इस बात का श्रेय तो कदापि न दें कि हम बहुत तेजी से बदलाव स्वीकार कर लेते हैं। आप स्वीकार नहीं करते हो, आप मजबूर हो। और आप अपनी उस मजबूरी के ख़िलाफ़ कोई संघर्ष भी नहीं करते हो। आप कहते हो, हवाएँ मुझे जहाँ उड़ाकर ले जा रही हैं, मैं तो उड़ गई।
हाँ, कुछ साथ में सुविधाएँ मिल जाती हैं उड़ जाने से। कुछ साथ में उड़ जाने से सुविधाएँ मिल जाती हैं। बदलाव हमें चाहिए भीतरी और उस भीतरी बदलाव के आसपास फिर जो बाहरी बदलाव हैं, बहुत अच्छे हैं। पर बाहर-बाहर चीज़ें बदल रही हैं — चाहे घर बदल रहा है, शहर बदल रहा है, कपड़े बदल रहे हैं — पर भीतर कुछ नहीं बदल रहा, तो सब बेकार है।
श्रोता: प्रणाम आचार्य जी। सभी बातों के प्रश्न, सभी जवाब मौजूद ही हैं। बस अनंत प्रेम है आपसे इसलिए कुछ लिखा है। और सिर्फ़ दो-तीन पंक्तियाँ ही हैं।
बुद्धि में ज्ञान की चमकीली धार आपने दी। लोकधर्म, जिसकी आज ज्यादातर बात ही हुई है। लोक धर्म को काटने और इसे संवारने की, ताक़त बेशुमार आपने दी। निराश हो निर्मम बनो ताप रहित बस युद्ध हो, युद्धस्व की ये शिक्षा आपने दी। कहानियाँ और वेदों के पीछे छिपे, प्रतीकों की सच्ची समझ आपने दी। आत्मा को विवेक पूर्वक मुझ अहंकार ने स्वामी बनाया, ऐसी क्षमता अपार आपने दी। आपने कबीर जी को साहब कहा है, और मेरे लिए आप साहब हैं।
धन्यवाद।
श्रोता: प्रणाम आचार्य जी। मैं अन्नपूर्णा मेरा नाम है। मैं भोपाल से हूँ। बेसिक मैं सतना जिले से हूँ और मायका मेरा शहडोल जिले से है। आचार्य जी आपको मैं सामने से देख पा रही हूँ, मेरे लिए सपने जैसा है। मैंने सोचा नहीं था कि मैं अपने जीवन में सामने से देख पाऊँगी। मेरे मन में था कि मैं हो सकता है दिल्ली आऊँगी, पूरी कोशिश। पर आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और पूरी टीम का बहुत-बहुत धन्यवाद करना चाहूँगी, जिन्होंने ये कार्यक्रम भोपाल में आयोजित किया और मेरी एक बहन है जो शहडोल जिले से आई है। पूरा सफर करके सिर्फ़ आपको सामने से सुनने के लिए सर। मैं उसे भी मिलवाना चाहती हूँ।
सर और आपकी बदौलत मैं मेरी बेटी जो कराटे सीख रही है आपको सुन के मेरी बेटियों को कराटे सीखने प्रशिक्षण के लिए प्रेरित किया। और मैं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हूँ सर तो मैं रूरल एरिया में काम करती हूँ। वहाँ के जितने भी बच्चे बच्चियाँ हैं सभी को मैं प्रेरित करती हूँ कि वो कराटे प्रशिक्षण ले और जितना भी हो सकता है सर गीता की भी मैं चर्चा करती हूँ। और जो भी कर रही हूँ सर उसकी प्रेरणा स्रोत सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं।
क्योंकि जिस दिन से मैंने सुना है आपको मुझे याद है वो पहला दिन और आज मैं आपको सामने देख रही हूँ कोई भी दिन ऐसा नहीं हुआ सर, जिस दिन मैंने आपके एक भी वीडियो ना देखे हो। तो बहुत-बहुत धन्यवाद हम सबकी की तरफ़ से शायद सबको मौका ना मिले सर, लेकिन मैं सभी की तरफ़ से आपको तहे दिल से बहुत बड़ा धन्यवाद पूरी टीम को देना चाहूँगी सर।
प्रणाम सर।