न हुआ न हो रहा न होने के आसार,पर होता खूब प्रतीत होता ये संसार || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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न हुआ न हो रहा न होने के आसार,पर होता खूब प्रतीत होता ये संसार || आचार्य प्रशांत (2014)

श्रोता: सर, जो भी होता है, कोई कारण या फिर किसी तरह का कोई तरीका है क्या? एक घटना का एक हिस्सा है जो पूर्वनिर्धारित है?

वक्ता: ये सब न एक हार्मोनी है जो स्वतः ही चल रही है। स्टैंडिंग वेव्स पढ़ीं थी ना क्लास 12 में?

दो हिस्से होते हैं, आप जैसे दो पोल्स ले लीजिए, उस में रस्सी बांध दीजिये और उस रस्सी को वाइब्रेट करिए। अब वो जो वेव है वो कहीं आ जा नहीं रही है, पर फिर भी एक लहर है। अस्तित्व भी कुछ ऐसा ही है। कुछ प्रत्यक्ष नहीं हो रहा होता पर फिर भी भरपूर नाच-गाँ चल रहा है। आपकी ये जो लाइन होती है, कपड़े सुखाने वाली, क्लोथिंग लाइन, उसको आप दो, दो ऐसे लीजिए डंडे, उसमें बाँध दीजिए, टाइट बांध दीजिए बिलकुल। उसके बाद उसको वाइब्रेट करिए, तो क्या होगा?

श्रोता: लहरें बनेंगी, जब हलचल होगी तो?

वक्ता : और वो वेव्स कहीं जा रही है क्या? वो खड़ी हुई है तब भी डांस कर रही है, अस्तित्व भी कुछ ऐसा ही है। कुछ प्रत्यक्ष नहीं हो रहा होता पर फिर भी भरपूर नाच-गान चल रहा है। तो दोनों ही चीज़ें वास्तविक हैं कि कुछ भी नहीं हो रहा और नाच-गान हो रहा है, शोरगुल है भरपूर अस्तित्व भी कुछ ऐसा ही है। कुछ प्रत्यक्ष नहीं हो रहा होता पर फिर भी भरपूर नाच-गाँ चल रहा है। और इस सब में एक गहरा सद्भाव है। इन सब में बहुत गहरा सद्भाव है। हम यह सब देख नहीं पाते क्यूँकी हम सीमित हैं।

जो स्रोत है, केंद्र है, वो बड़ा ही चंचल है। उसका स्वभाव आनंद का है। कोई वजह नहीं, कोई कारण नहीं, कोई जल्दी नहीं, कोई चिंता नहीं, और कोई कारण उस तक नहीं पहुँच सकता। एक तरह से तो स्रोत एक छोटे बच्चे की भाँति है, अपने में ही व्यस्त, चंचल, चिंतारहित और कुछ नहीं। स्रोत को एक छोटे, नंगे बच्चे की तरह भी अवधारित कर सकते हैं — अगर अवधारित ही करना है — जिसे कोई मतलब ही नहीं है, वो क्या कर रहा है? समझ लीजिये कि वो कहीं खड़ा है, कहीं पर रेत पर खड़ा है, किसी समुद्रतट पर खड़ा है। उसको फ़र्क ही नहीं पड़ रहा कि उसके दौड़ने से, रेत पर क्या निशान पड़ रहे हैं, और जो रेत पर निशान पड़ रहे हैं, उसको हम अपना जीवन कहते हैं। ये जो अस्तित्व है, उसकी रचना है ना? यही तो कहते हैं न हम? स्रोत की रचना है ये अस्तित्व। बच्चा रेत पर दौड़ रहा हो और रेत पर उसके कदमों के निशान पड़ते जा रहे हों, वैसा है हमारा पूरा *अस्तित्व*। बच्चा दौड़ रहा है, मज़े ले रहा है, और उसके मज़े लेने से जो हो रहा है, वो ये सब कुछ है। वो बड़ा अमर्यादित है। वो कुछ भी एक योजना के तहत नहीं कर रहा, न ही कोई योजना बना रहा है।

आप देखें, आपको कोई पैटर्न दिख जाए तो अलग बात है, पर उसकी कोई इच्छा नहीं है पैटर्न बनाने की।

उसको तो मज़े लेने हैं, मौसम अच्छा है।

श्रोता: सर, ये जो विनाश हो रहा है, ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, ये..

वक्ता: अब मन नहीं कर रहा। अब धूप निकल आई है, जितने घरौंदे बनाए थे, सबको लात मार के तोड़ रहा है। यही तो है ना, कुन फाया कुन। जब कहा तो बन गया, जब नहीं चाहिए तो तोड़ भी दिया। कृष्ण क्या बोल रहे थे? प्रभव से प्रलय तक। बना भी दिया, फिर तोड़ भी दिया। कभी बनाने का मन होता है बना देते हैं; कभी तोड़ने का मन होता है, तोड़ देते हैं। अभी बड़ी बेबसी आ गई है। अरे! हमसे पूछोगे भी नहीं? घर तो हमारा है ना? जब चाहते हो बना देते हो; जब चाहते हो तोड़ देते हो!

ऐसा ही है।

तुमसे पूछ के कोई क्षुद्ग्रह थोड़ी टकराएगा धरती से? बेचारे इतने सारे डायनासोर थे, उनकी क्या गलती थी? बाहर से एक आ रहा है इतना विशाल पत्थर, वो पृथ्वी से टकरा गया , सारे मर गए!

श्रोता: सर, ये जो अहंकार है न, ये उसकी सबसे ख़तरनाक रचना है। उसी का, उसी से डराता है, मतलब, दूसरे के अन्दर ये भाव डाल दिया कि तुम कर रहे हो।

वक्ता: नहीं, ये उसको चाहिए। असल में, उसकी भी एक प्रकार से मजबूरी है, अहंकार बनाना क्योंकि अहंकार के बिना, वो खुद कैसे दुनिया को देखे? दुनिया को देखने के लिए, अपने ही ऐश्वर्य को, अपने ही ग्लोरी को देखने के लिए भी, उसे अपने आप को दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा ना? इसी बाँटने का नाम अहंकार है। ‘’मैं सर्वशक्तिमान हूँ, पर सिर्फ़ मैं हूँ तो मुझे खुद को ही दो हिस्सों में बांटना होगा अपनी ही ताकत देखने के लिए।’’ तो वो अपने आप को इसी लिए बांटता है, कि उसे खुद पता चल सके कि, ‘’मैं कितना मजेदार हूँ।’’ अपनी ही क्षमता जांचने के लिए।

श्रोता: अगर आप दुनिया के राजा बन गए, तो लड़ोगे किससे?

वक्ता: कोई और है ही नहीं, तो आप ताकतवर महसूस ही नहीं करते, तो अब क्या करें?

श्रोता: किसी को थोड़ी ज़मीन दे दो।

वक्ता: और फिर उसी पर आक्रमण करो। क्या?

श्रोता: मुझे नहीं लगता है कि उसका यह तर्क होगा!

श्रोता: नहीं, लॉजिक तो कुछ भी नहीं है। हम तो अपना मन बहला रहे हैं, अभी ये। हम तो अपना मन बहला रहे हैं; इसमें कोई तर्क नहीं है।

भाई, ऐसा होगा मनीष (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए), आपको कहा जाये किसी पाँच साल के बच्चे से रेस लगाने को तो आप क्या करते हो? आप उसे बोलते हो, ‘’चल ठीक है तू बीस कदम आगे चला जा. फिर दौड़ेंगे।’’ तभी तो मज़ा आता है ना? कुछ करना पड़ता है ना, थोड़ा! तो उस तरह का उसने काम कर रखा है। आपको उसने एक विश्वास दे दिया है कि आपमें कुछ ताक़त है।

तो अब आप अपनी ताक़त आज़मा रहे हो। वो छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, वो पूरी ताक़त से आ के घूसे मार रहे हैं, सब कर रहे हैं, और आप बैठे हुए हो। वो तीन-चार साल वाले होते हैं — कई बार वो बड़े होते हैं दबंग टाइप के — वो आ रहे हैं, घूंसे मार रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, और आप, ‘’हाँ, मार!’’

श्रोता: हाँ सर, कुछ ऐसा है कि वो बहुत बड़ा आदमी है, उसने चार-पाँच बच्चे खड़े कर दिए, अब उनको वो खिला रहा है।

वक्ता: अब वो खिला रहा है। जो भी करना है वो कर। बच्चे कभी आपस में खेल रहे हैं, कभी बुड्ढे को दो-चार चमेट लगा रहे हैं। कभी रो रहे हैं, कभी कुछ कर रहे हैं। वो कह रहा है, ‘’हाँ ठीक है, कर लो जो करना है।’’ और जब बहुत परेशान हो जाता है बच्चों से तो कहता है, ‘’फू!’’ और सारे बच्चे गायब। फिर बोर हो जाता है, तो कहता है, ‘’चलो पाँच-सात और बना देते हैं।’’ बना दिए, पाँच-सात और बना दिए। चलो ऐश करो। ‘’तो ये हमारे बच्चों के बच्चे हैं ना, इन्होनें बहुत उत्पात कर रखा है। इन्होनें पूरी छीछा-लेदर कर रखी है। तो अब इसी लिए समय आ गया है, प्रलय का। अब ये सारे बच्चे साफ़ कर दिए जाएँगे। इतने सारे हो गए। चार-पाँच बनाये थे, सिर्फ़ एक गृह पर इन्होनें दस अरब कर दिए। कह रहा है, ‘’हद कर दी तुमने यार। पहले तो तुम ये बताओ कि इतने तुमने पैदा क्यों करे? तुम्हें ढील किसने दी इतने हो जाने की? अब मरो!’’

श्रोता: फिर पैदा करने का सिस्टम ही क्यों दिया उसने? चार-पाँच ही रखता ना?

वक्ता: हाँ, तो इसीलिए तो वो नालायक है! तभी तो भक्ति में, गाली भी खूब पड़ती है। भक्ति में, ईश्वर को खूब गालियाँ दी जाती हैं। ज्ञान मार्ग में नहीं दी जाती, पर जो भक्त होते हैं, वो तो गाली देने से पीछे नहीं हटते। तुम्हीं ने किया है ये; ये नाटक जो है ना, ये सारा रायता तुम्हीं ने फैला रखा है!

श्रोता: सर, ऐसे ही देखना चाहिए इसको, ये जो हम बहुत पोसिटिव बन बन के देखते हैं ना, इसको सारा ऐसे ही देखना चाहिए। असत्य में भी वही है।

वक्ता: और क्या? हाँ, तो खूब होता है। कई पंथ हैं, जिसमें ये सब प्रचलन है कि जब दुःख बहुत आता है, तो जा कर के, मूर्ती उठा कर ले आएँगे। डब्बे में बंद कर देंगे कि, ‘’जब तक हमारी अब हालत नहीं ठीक होगी, तुम बाहर नहीं निकलोगे। अब सड़ो यहाँ पर! क्योंकि, करा तो तुम्हीं ने है, ये पक्का है। जो हो रहा है, सब तुम ही कर रहे हो, तो ये भी तुम्हारा ही करा हुआ है।’’ सांकेतिक ही है, डब्बे में बंद करने से कुछ हो नहीं जाना पर जो उसमें समझ है, वो यही है कि, ‘’बेटा, दुःख देने वाले तो तुम ही हो, ये मुझे अच्छे से पता है क्योंकि पत्ता भी तुम्हारी मर्ज़ी के बिना तो हिल नहीं सकता। जो हो रहा है, करने वाले तो तुम ही हो।’’

श्रोता: बड़ा मुश्किल है सर, ये ग्रहण करना कि हम कुछ कर ही नहीं रहे और कुछ कर भी नहीं सकते।

वक्ता:

बेबसी में भी एक हल्कापन है। अपनी बेबसी के प्रतिरोध में न खड़े होने में ही हल्कापन निहित्त है।

इसको थोड़ा अनुभव करिएगा। जब आप अपनी बेबसी का प्रतिरोध नहीं करते हो, तो एक हल्कापन महसूस हो जाता है।

श्रोता: यही, मतलब, समर्पण में आता है?

वक्ता: यही समर्पण है। एक और चीज़, जो बहुत हल्कापन महसूस कराता है, वो है जब आप अलगाव के भाव को त्याग देते हो। जब ये दिखाई देने लग जाता है ना कि एक ही बीज है, जो सब अलग-अलग रूपों में मुझे दिखाई देता है क्योंकि मैं सिर्फ़ भेद ही देख सकता हूँ अपने मन से। तो जब ये समझ में आने लगता है कि, ‘’एक ही चीज़ है जो प्रकट हो रही है, तो आपके लिए, आपकी छोटी-छोटी चिंताएँ बड़ी कम हो जाती हैं। आपको एक पत्थर पर सोने में कोई परेशानी नहीं होगी मतलब आप जो महत्त्व दोगे, एक साफ़ चादर को और एक बिस्तर को, वो महत्ता बड़ी कम हो जाएगी। कोई अंतर है नहीं; कुछ भी असल में अलग है ही नहीं।

गॉडलीनेस कोई गंभीर कार्य नहीं है। कोई उसको अगर ये कहे कि, ‘’ये एक विशिष्ट धर्मयुद्ध है,’’ जो होता है न कि दुनिया में धर्म का साम्राज्य स्थापित होना चाहिए, और ये बातें भी बहुत बड़े-बड़े लोगों ने कही हैं। ये पागलपन की बात है। कोई साम्राज्य नहीं स्थापित करना, कुछ नहीं करना है। तुम करोगे क्या साम्राज्य स्थापित? अरे! जिसका है, वो कर लेगा। ये तो आपकी श्रद्धाहीनता का सबूत है, अगर आप कह रहे हो कि ‘आपको’ दुनिया में धर्म का साम्राज्य स्थापित करना है। अरे! जब एक परम है, जो परम शक्तिमान है, तो उसे जो करना होगा वो कर लेगा ना! हाँ, तुम्हारे माध्यम से करना होगा तो कर लेगा, पर उसमें भी तुम्हें ये पता होना चाहिए कि तुम माध्यम भर हो। और धर्म के अलावा और काहे का साम्राज्य होता है? या तो तुम ये कहना चाहते हो कि कोई दूसरा भी है, जिसका साम्राज्य बीच-बीच में आ जाता है?

जब एक ही है, तो उसके अलावा और किसका साम्राज्य है? वो कभी दाएँ बाजू से नियंत्रित करता है, कभी बाएँ बाजू से नियंत्रित करता है, पर नियंत्रित करने वाला तो एक ही है ना? आप गाड़ी चला रहे होते हो, कभी-कभी होता है ना? एक हाथ आप रेस्ट करते हो। आप दायें हाथ से चला रहे हो, चलो ठीक है। अब बाएँ बाजू से आपने स्टीयरिंग चलानी शुरू कर दी, तो इसका मतलब ये हो गया क्या कि ड्राईवर बदल गया है?

तो धरती पर कुछ भी हो रहा हो, साम्राज्य तो एक का ही है ना? ‘’मैं वो कर रहा हूँ, जो मुझे करना है। जो मेरे माध्यम से होना है, वो मैं कर रहा हूँ, पर मेरे सफल होने या मेरे असफल होने से कोई बड़ा अंतर नहीं पड़ जाना है। ऐसा नहीं है कि मैं हार गया तो, सब ख़त्म हो जाएगा।’’ अरे! तुम्हारे जैसे सौ आए, सौ गए यार। तुम जीतो, तुम हारो, क्या फर्क पड़ जाना है? और ज़िन्दगी बड़ी हल्की होती जाएगी। जैसे-जैसे ये ख्याल सहज होता जाएगा।

मतलब इतना सहज हो जाए कि आप दरवाज़ा खोलें, आप घुसें और एक छिपकली आप के ऊपर गिर पड़े, और आपकी पहली प्रतिक्रिया ये हो कि, ‘’वही तो है।’’ जब ये बात आपके मन में, इतने गहरे बैठ जाएगी, तो, ज़बरदस्त हल्कापन आ जाएगी, ज़बरदस्त! फिर चिढ़ किसी हालत में आपको हो नहीं सकता। आप चिढ़ कर दिखा दीजिये फिर। ऐसा नहीं है कि तुरंत होने लगेगा। पहले ऐसा होगा कि कम-से-कम कुछ समय बाद आपको ये ख्याल आने लगेगा। पहले लगेगा, ‘’यार ये क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है?’’ फिर चलो, पाँच मिनट बाद, या आधे घंटे बाद आपको लगेगा, ठीक है!

श्रोता: सर, जैसे हम अभी करते हैं, तो हमारे लिए छिपकली अभी ऐसी होती है कि..

वक्ता: हाँ! पर धीरे-धीरे आप महसूस करने लगोगे कि कुछ क्षणों में यह भाव स्वतः आ जाता है, पर इसका चमत्कार देखना। कुछ बहुत गंद हुआ और आप मुस्कुराने लगे कि, ‘’यार ये क्या करा रहा है?’’ आपने ये कहा ही नहीं कि कोई नवीन कर रहा है, या शुभंकर (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) कर रहा है। आपने कहा, मतलब, नवीन और शुभंकर होते कौन हैं कुछ करने वाले? बात समझ में आ रही है? ये चिढ़ा रहा है, और आप इसकी ओर देख भी नहीं रहे। आप क्या कह रहे हो? “क्या करा रहा है यार?’’ क्या चाहते हो? इससे बोल ही नहीं रहे क्योंकि ये है कौन? ये तो निमित्त है, माध्यम, इसकी क्या बिसात है?’’ बड़ा हल्कापन आ जाता है। ये ऐसे, जैसे जानवरों को आप देखना शुरू करें, आप जानवर को देख रहे हैं और ख्याल ये ना आए कि जानवर को देख रहे हैं। बात ज़रा उससे आगे की दिखाई दे। और जानवरों के साथ सुविधा ये होती है, कि वहाँ आपको पता होता है कि आपका मजाक नहीं उड़ा सकता, तो आप वहाँ थोड़ी बेवकूफ़ी कर सकते हैं। तो आप उससे बात कुछ इस तरह से कर रहे हैं कि किस रूप में आए हो? क्या चाहते हो? यही एकत्व है।

जानवरों के साथ तो बड़े मज़े में, आसानी के साथ कर सकते हैं आप ये। उनकी आँखों में देखिए और एक क्षण को आप महसूस करेंगे कि वो कह रहा है कि, “बात समझ में आ गई है ना?, ठीक है।” अभी कुत्ता ही हूँ, कुत्ता ही रहने दो। खुलासा मत करना और ना ही चालाक बनना। मुझे पता है कि तुम समझ गए हो बस अब चालाक मत बनना।’’

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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