न कोई आदर्श न कोई आशा, युवा करे तो करे क्या? || आचार्य प्रशांत, गीता दीपोत्सव (2023)

Acharya Prashant

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न कोई आदर्श न कोई आशा, युवा करे तो करे क्या? || आचार्य प्रशांत, गीता दीपोत्सव (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, मेरा सवाल था कि एक समय था गाँव में जब शायद ही कोई नशे से ग्रस्त था लेकिन आज ऐसा चलन हो गया है कि कोई भी युवा शराब-कबाब से अछूता नहीं रहा। कॉलेजों में सभी स्टूडेंट्स के पास ड्रग्स मिलना आम बात हो गयी है तो सर, हमारे देश के युवाओं के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जिसे हम साधारण होश कहते हैं न, वो साधारण होश बड़ा दुखदायी होता है। वो जो साधारण होश है उससे ख़ासतौर पर एक जवान आदमी के लिए, एक ज़िन्दा आदमी के लिए समझौता करना थोड़ा मुश्किल होता है। साधारण होश का क्या मतलब होता है? चेतना की साधारण अवस्था और उस साधारण अवस्था में दिखाई देने वाला जगत का साधारण रूप। जैसा हम अपनेआप को आमतौर पर समझते हैं वो और हमारे सामने क्या? जैसी दुनिया हमें आमतौर पर दिखाई देती है वो। उसमें ऐसा क्या है कि एक जवान आदमी किसी भी तरीक़े से सन्तुष्ट अनुभव करे, बताइए।

जिसको आप आम ज़िन्दगी बोलते हो, उसमें ऐसा क्या है कि कोई कहे कि बहुत बढ़िया चल रहा है ये? ये जो पिक्चर दिखाई है, वाह! वाह! वाह! यही चलाओ। और इसी के और संस्करण बनाओ। जगत एक, जगत दो, जगत तीन, जगत छः, जगत आठ बनाओ। कोई ये चाहता है क्या? कोई नहीं चाहता क्योंकि ये जो हमारी दुनिया है ये हमने बना ही रखी है। बहुत अजीब सी क्योंकि दुनिया हमारा ही तो अक्स है न आईने में एक। दुनिया हमारी ही तो छवि है। जैसे हम हैं, वैसी हमारी दुनिया है। हम भी आधे-अधूरे, विकृत से और वैसी आधी-अधूरी और विकृत माने कुरूप सी हमारी दुनिया है।

तो एक लड़का है या लड़की है वो अब, पहले बच्चा था, अब बड़ा हो रहा है चौदह का, सोलह, अठारह का। वो इस दुनिया को देखता है, वो कहता है, ‘ये कहाँ आ गया मैं। ये क्या कर रहा हूँ। इसी को बोलते हैं यथार्थ? इसी को रियलिटी बोलते हैं? इसी को बोलते हैं? पहले तो मैं क्या करता था? पहले तो मैं अपनेआप को स्कूल की किताबों में रख लेता था। कार्टून शो में मैं अपनेआप को किसी तरह से समा देता था। मैं किसी तरीक़े से अपने लिए वैकल्पिक एक दुनिया का निर्माण किये हुए था, उसमें रहता था। परी कथाओं वाली दुनिया, द फेंटेसी फ़ेयरी वर्ल्ड।’

लेकिन जब आप बड़े होने लगते हो तो जिसको हम कहते हैं असली दुनिया, वो आपके सामने आने लगती है और वो जो असली दुनिया है वो सुन्दर नहीं है क्योंकि दुनिया क्या होती है वेदान्त में?

प्र: हमारी छवि।

आचार्य: हमारी छवि। दर्पण में जैसे हम ही खड़े हो गये हैं उसको हम कहते हैं, ‘हमारी दुनिया।’ हमें ही ठीक शिक्षा नहीं मिलती, हमें ही ठीक से परवरिश नहीं मिलती तो हमारी दुनिया कैसी होगी? कौनसा बच्चा है जिसको घर में सही परवरिश मिल रही है और कौनसा छात्र है जिसे स्कूल में सही शिक्षा मिल रही है? जब तक ये छोटे होते हैं तब तक उनकी जो भी करतूतें और कलाबाज़ियाँ होती हैं उनको हम कह देते हैं, ‘अरे! ये तो इनका बचपना है।’ एक दिन देखते-देखते आप पाते हो वो बड़ा हो रहा है, लड़की बड़ी हो रही है, लड़का बड़ा हो रहा है। उसके मूछें आ रही हैं, उसकी आवाज़ भारी होने लगी है, वो घर से बाहर भागने लगा है बात-बात में, कभी साइकिल लेकर कभी कुछ बाइक लेकर।

और अब जिसको हम असली दुनिया कहते हैं उससे उसका दिन ब दिन परिचय गहराता जा रहा है। और असली दुनिया कैसी होगी? असली दुनिया उन्हीं लोगों से बनी है जो कभी इस बच्चे ही जैसे थे लेकिन न उनको सही परवरिश मिली न शिक्षा मिली तो अब वो दुनियादार हो गये हैं। उन्होनें दुनिया का एक़दम बेड़ा गर्क़ कर रखा है। अब क्या करे ये? ये जो किशोर है, नौजवान है ये क्या करे? यही गन्दी दुनिया देखता रहे? निहारता रहे ऐसे?

आपको एक कूड़े के ढेर के सामने बैठा दिया जाए, आप क्या करोगे? उसकी खुशबू सूँघते रहोगे? उसको बिलकुल तन्मय होकर के ऐसे निहारते रहोगे, ‘वाह!’ कविता लिखोगे उसके सौन्दर्य पर। बार-बार उसको छुओगे, सहलाओगे, क्या करोगे? चाटना है क्या कूड़े को? क्या करोगे? और ये दुनिया ही अगर एक विशाल कूड़े का हिमालय हो तो क्या करना है फिर? दो रास्ते बचते हैं। या तो ठान लो कि ये जो इतना बड़ा दुख का पर्वत खड़ा है जिसको हम जगत बोलते हैं, इसको काट डालना है या घुटने टेक दो और कह दो, ‘इसको तो हम नहीं धराशायी कर सकते।’

तो हम अपनेआप को ये जता लेते हैं जैसे ये है ही नहीं। चेतना का तर्क़ समझिए अच्छे से। आपको एक ऐसी स्थिति में डाल दिया गया है जो है तो बहुत भयानक, विकृत, असहनीय लेकिन साथ-ही-साथ अपरिवर्तनीय। अब आप क्या करोगे बताओ। असहनीय भी है और अपरिवर्तनीय भी है, अब आप क्या करोगे बोलो। सहा भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता। बोलो क्या करोगे?

एक रास्ता तो होता है किसी शंकराचार्य का या किसी विवेकानंद का या किसी भगत सिंह का। ये तीनों ही जवान लोग थे। एक इनका रास्ता है— इन्होंने सामने देखा कुछ ऐसा जो सहा नहीं जाता, तो क्या बोले? बोले, ‘ जान जाये तो जाये, भिड़ जाएँगे। जितना ये कटेगा इसको काटेंगे और इसको काटते-काटते हम ही कट जाएँगे।’ एक तो ये रास्ता होता है। पर ये रास्ता आप तभी ले सकते हो जब आपके सामने कोई अच्छा प्रेरणा स्रोत हो, आदर्श हो जो आपको ये सम्भावना तो दिखाए कि इस पर्वत से भिड़ जाना सम्भव भी है।

जवान आदमी के पास ऊर्जा तो होती है, आदर्श नहीं होते। ऊर्जा है उसके पास। वो बिलकुल भिड़ सकता है। वही ऊर्जा तो आप पाते हो कि दंगों में, फ़सादों में, हड़तालों में, चक्का जाम, सड़क रोको, ट्रक जलाओ और भी तमाम तरह के काम दुनियाभर के ज़्यादातर अपराध हर तरीक़े के जवान लोग ही तो करते हैं। जेलों में आप जाओगे वहाँ ज़्यादातर जवान लोगों को ही पाओगे। वो ऊर्जा तो है ही उनके पास। ऊर्जा भी है, आक्रोश भी है, आदर्श नहीं है। जब जवान आदमी को एक आदर्श मिल जाता है तब वो फिर विवेकानंद बन सकता है।

कोई रामकृष्ण चाहिए जो उसको बता सके कि तेरी ऊर्जा का सार्थक उपयोग क्या है। जो उससे कह सके, ‘न-न-न-न-नइतना मत घबराओ, ये सब जो तुमको इतना बड़ा पर्वत दिखाई दे रहा है दुख का, अज्ञान का, कुरुपता का ये दिखने में बड़ा है, भिड़ो तो सही।’ कोई कृष्ण चाहिए जो कह सके कि तुम हार भी जाओ तो भी तुम्हारी जीत है, अर्जुन। सही कर्म अपनेआप में विजय होता है। विजय युद्ध के परिणाम में नहीं होती, विजय सही युद्ध के चयन में होती है। तुम सही युद्ध चुन लो, तुम जीत गये अर्जुन। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

ऐसा कोई मिलता नहीं। आप बताइए आप आठवीं, दसवीं, बारहवीं में थे या कॉलेज में थे या कॉलेज के बाद आपने जब अपनी नयी-नयी ज़िन्दगी शुरू करी थी पारिवारिक या व्यावसायिक। आप पच्चीस या तीस साल के थे तब आपको कोई मिला था जो आपसे रामकृष्ण की तरह या श्रीकृष्ण की तरह ये बातें कहे? कोई मिला था? नहीं मिलता तो करें क्या? सहा तो जाता नहीं। जिधर देखो ये दुनिया ऐसी है कि मन करता है कि आँखें बन्द कर लें।

आप जब, सवाल पूछ रहा हूँ कचरे के ढेर के बगल से निकलते हो और उसमें से बहुत घातक बदबू उठ रही होती है, तो आप क्या करते हो? करके दिखाइए। सब लोग करके दिखाओ। (श्रोतागण नाक बन्द करते हैं) हाँ, जानते हो ये एक तरह का नशा है जो आपने अभी-अभी करा। आपने अपनेआप को अभी-अभी यथार्थ जानने से रोका है। इसी को तो नशा बोलते हैं। यही हर जवान आदमी करता है। ये जो आपने करा, इसी को सौ गुना अगर कर दीजिए तो यही चीज़ तो नशा कहलाती है। आपने अभी-अभी अपनी इन्द्रिय को यथार्थ जानने से रोका है क्योंकि यथार्थ बहुत दुर्गंधपूर्ण है। आप कह रहे हैं, ‘मुझे नहीं जानना, नहीं जानना, नहीं जानना।’ (नाक बन्द करते हुए)

आपके सामने कोई एक़दम भयावह रक़्तरंजित दृश्य होता है। एक जानवर कट रहा है आपके सामने बेबस, निरीह। तुरन्त आप क्या करते हो? यहाँ पर है। छोटा सा कोई जानवर है और किसी ने उसकी गर्दन पर चला दिया चाकू। आप क्या करते हो तुरन्त? यहाँ हो रहा है, आप क्या करते हो? (दोनों आँखों को हाथ से ढँकते हुए)। ये करते हो कि नहीं? हाँ, ये नशा है।

आपने अपनी इन्द्रिय को यथार्थ जानने से रोक दिया क्योंकि यथार्थ है ही ऐसा कि नहीं जाना जा सकता, बर्दाश्त नहीं होगा अगर सच्चाई देखोगे तो। जब विवेकानंद वाली राह नहीं ली जाती तो ये राह लेनी पड़ती है। और ये राह लेना ही ज़्यादा साधारण लगता है। या तो सच से लड़ जाओ या फिर सच से मुँह फेर लो। सच से लड़ सकता है एक युवा चाहे जवान लड़का हो जवान लड़की हो, मैं कह रहा हूँ ऊर्जा भी होता है, आक्रोश भी होता है। सच जिसको हम कहते हैं, ‘बाहर का यथार्थ’, वो उसको चुनौती दे सकता है। कोई पथप्रदर्शक चाहिए होता है।

विजय तो छोड़ दो, युद्ध भी नहीं होता अगर कृष्ण नहीं होते। महाभारत के युद्ध जैसी कोई चीज़ होनी नहीं थी और अगर दुर्योधन के हाथ चला जाता हस्तिनापुर तो शायद आज ये सत्र भी नहीं हो रहा होता क्योंकि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है।

परिणाम भयावह होते हैं जब राजा भयानक हो। फिर धर्म का पूरे तरीक़े से ह्रास हो जाता है। दुर्योधन के हाथ सत्ता चली गयी होती, भारत का पूरा इतिहास बदल जाता। दुर्योधन को कौनसी रुचि थी गीता में? कि थी? जब गीता हो रही थी तो दुर्योधन बहुत रुचि प्रदर्शित कर रहा था क्या? तो हम, आप बैठकर कहाँ से गीता की बात कर रहे होते अगर दुर्योधन को राज्य मिल गया होता तो? कोई कृष्ण चाहिए होता है इतिहास बदल देने के लिये। युवा को वो कृष्ण नहीं मिलता। तो युवा फिर यही करने लग जाता है।

कोई आपके सामने व्यर्थ की और झूठ बातें और कर्कश स्वर में बोल रहा हो, आप तुरन्त क्या करते हो? (दोनों कानों में अँगुली डालकर बन्द करते हुए) कभी करा है कि नहीं करा है? करा है न? ये नशा ही तो है। (कान बन्द करके बोलते हुए) ‘मैं अपनेआप को चेतना की एक ऐसी स्थिति में ले जाना चाहता हूँ जहाँ जो सामने है वो मुझे पता चलना बन्द हो जाए।’ इसी को तो नशा कहते हैं न? जब आप नशा कर लेते हो तो थोड़ी देर के लिए सब भूल जाते हो न? जब नशा कर लेते हो तो सब भूल-भाल जाते हो न? हाँ, तो यही तो है सब। और जब बहुत परेशान हो जाते हो तो आप सोने चले जाते हो कि नहीं? जब परेशानी बहुत बढ़ जाती है तो कई बार एक ही समाधान समझ में आता है, क्या? जाकर सो जाओ। वो नशा ही तो है। नशा भी तो सुला ही देता है चेतना को।

लेकिन नशा इस जगत की कुरूपता के ख़िलाफ़ एक कायरता भरा उत्तर है। थोड़ी देर में आपको दोबारा होश में आना पड़ेगा। ये मजबूरी है आपकी। आप लगातार कानों में ऊँगलियाँ देकर नहीं जी सकते, कब तक आँख ढँक कर रहोगे? और कब तक मुँह दूसरी ओर को बिदकाकर जिओगे? इससे अच्छा ये है कि जो दिख रहा है कि नहीं होना चाहिए उसे बदल ही डालो न। या तो वो मिटेगा या उसे मिटाने के प्रयास में हम मिटेंगे।

हम मिट भी गये तो अच्छा है। ज़िन्दगी बिताने का इससे बढ़िया क्या तरीक़ा होता? वो जो सामने था, उसको मिटाना ख़ुद को मिटाने का बहाना हो गया और जीवन का इससे अच्छा क्या उद्देश्य होगा कि ख़ुद को मिटा दिया जाए। समझ में आ रही है बात ये?

मैं शत-प्रतिशत इस बात से सहमत हूँ कि हमारा संसार सुन्दर नहीं है। चाहे हम भवनों का आकार-प्रकार देखें, हम अपनी कलाओं को देखें, हम अपनी सड़कों को देखें, हम अपने मेलों को, तीज-त्यौहारों को देखें, हम अपने लोगों की शक़्लें देखें, हम चाहे अपनी ही शक्ल क्यों न देखें, कुछ सुन्दर नहीं यहाँ पर। और मन सौन्दर्य के लिए तड़पता है। उस तड़प का लेकिन समाधान नशा नहीं है। उस तड़प का समाधान ये है कि सौन्दर्य पैदा करो और सौन्दर्य आता है साहस से, जहाँ साहस नहीं है वहाँ सौन्दर्य नहीं हो सकता। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

अभी आजकल एक नयी चीज़ चल रही है सौन्दर्य के बाज़ार में। दस-बीस साल पहले तक चलता था, सौन्दर्य की एक पश्चिमी आवधारणा थी कि फ़ेयर इज़ ब्यूटीफ़ुल या स्लिम इज़ ब्यूटीफ़ुल। दो चीज़ों पर दुनिया मर रही थी। उसी को सौन्दर्य का पैमाना मान लिया गया था, एक फ़ेयरनेस , दूसरा स्लिम वेस्ट। लोगों की पूरी-पूरी ज़िन्दगियाँ इस बात पर तय हो जा रही थीं कि उनकी कमर कितनी पतली है या चेहरा कितना गोरा। अफ़्रीका तक में फ़ेयरनेस क्रीम्स का जलवा छाया हुआ था। फिर लोगों की बुद्धि थोड़ा हिली। लोगों ने कहा, ‘ये नहीं चलेगा।’ भारत में फ़ेयरनेस क्रीम्स के जो ब्रांड्स थे उनपर थोड़े आक्षेप लगाये गये, बोले, ‘ये सब क्या कर रहे हो तुम? फ़ेयर एंड लवली और ये सब बन्द करो।’

तो अभी आजकल बुद्धि की, विचार की जो नयी लहर है, वो बोलती है, ’एवरीबडी इज़ ब्यूटीफ़ुल’ (हर कोई सुन्दर है)। वो बोलते हैं, ‘हम भेद क्यों करें? सब सुन्दर हैं।’ तो कहते हैं, ‘सारी एथनिसिटीज़ ले आओ, सारे बॉडी टाइप्स ले आओ, सारे कलर्स ले आओ। सब सुन्दर हैं।’ नहीं, सब सुन्दर नहीं होते। सब सुन्दर नहीं होते। इसका अर्थ ये नहीं है कि जो मोटा है वो सुन्दर नहीं है। इसका अर्थ ये है कि जो कायर है, वो सुन्दर नहीं है। सौन्दर्य और साहस एक साथ-साथ चलते हैं।

पहले हम कह देते थे, कोई सुन्दर है, कोई असुन्दर क्योंकि एक गोरा है, एक काला है। अब हम कह रहे हैं, ‘नहीं, सभी सुन्दर हैं।’ मैं कह रहा हूँ, नहीं! अभी भी कोई सुन्दर है और कोई असुन्दर है। पर हमारे पास सही पैमाना नहीं है। मानदंड, क्राइटीरिया नहीं है, भेद कर पाने का। एक युवा व्यक्ति सौन्दर्य का ग्राहक होता है। उसकी आँखें लगातार तलाश रही हैं कहाँ है सुन्दरता। बताओ, ‘है कहाँ?’ कहीं नहीं है सुन्दरता। सुन्दरता चाहिए तो पैदा करो और उसके लिए बहुत साहस चाहिए।

बहुत आसान है इस अग्ली (कुरूप) दुनिया के सामने घुटने टेक देना और बिक जाना। और जितनी गन्दी, जितनी कुरूप, जितनी कुत्सित ये दुनिया है, ख़ुद भी उतने ही गन्दे हो जाना, विकृत हो जाना ताकि इन सब लोगों के साथ समायोजित हो सको, नहीं। अपनेआप को बचाकर रखो। बहुत साहस की बात है। अपनेआप को अनछुआ रखो, अस्पर्शित और कहो, ‘मैं भी साफ़ रहूँगा और तुझे भी साफ़ करूँगा। न तो मैं ख़ुद गन्दा होऊँगा और न मैं ये कहूँगा कि तू गन्दा रहा आये। ख़ुद गन्दा नहीं रहूँगा, ये बात मेरे साहस की है। तेरी भी सफ़ाई करूँगा, ये बात मेरी करुणा की है।’

जो ऐसी ज़िन्दगी जीने लग गया वो कहता है, ‘बहुत बड़ा नशा मिल गया। अब और कोई नशा नहीं चाहिए। मिल गया बड़ा नशा। बहुत बड़ा नशा है ये।’ और ये सचमुच बहुत बड़ा नशा होता है। जिसको इसकी लत लग जाती है तो फिर खाने, पीने, सोने, जगने, उठने, बैठने पचास जो रोज़मर्रा के धन्धे होते हैं उनकी सुध एक़दम छूट जाती है। आपने योजना भी बनायी होगी कि आपको नशा करना है, आप योजना भूल जाओगे।

तीन पुराने दोस्त — वो कहीं से आये, कहीं रहते थे, कहीं काम करते थे, वो भारत आये — ‘अरे! आना, आज बैठते हैं साथ में, लेट्स हैव ए ड्रिंक।' तुमने कहा, ‘ठीक है, आऊँगा। काम निपटा लूँ फिर आ जाऊँगा तुम्हारे पास।’ आप जाना भूल गये और फिर चले भी गये। उनका उधर से फ़ोन आया, वो ताने मार रहे हैं, ‘तुम आये नहीं।’ बोले, ‘हाँ, हाँ, मैं भूल ही (गया), आ रहा हूँ।’ और चले भी गये वहाँ पर। तो तुम्हारे पास अपने हौसलों के इतने क़िस्से हैं कि उन क़िस्सों के बीच में गिलास भरना भूल ही गये और गिलास अगर भर भी ली तो पीना भूल गये। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

और किसी ने कहा भी कि क्या कर रहा है, क्या कर रहा है? भरता है पीता नहीं! तो ठीक है, लिया, पिया। पी भी लिया तो नशे में आना भूल गये। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

दुनिया ख़ुद ही पीछे हट जाएगी, कहेगी, ‘इसपर अब कोई नशा काम करता नहीं, बेकार है, ये न जाने कौनसा नशा अब करके आ गया है!’ उसको राम ख़ुमारी कहते हैं। कहते हैं, ‘अब इसका यहाँ पर न (सिर की ओर संकेत करते हुए) राम का नशा चढ़ गया है। दूसरे नशे इसको करा भी दो तो इसपर चढ़ते ही नहीं हैं।’ फिर बाक़ी सब नशे ऐसे पीछे हाथ जोड़कर हट जाएँगे। हर जवान आदमी को राम ख़ुमारी चाहिए। राम ख़ुमारी। और वो नहीं मिलेगी तो यही मत सोचना जो तुम कह रहे हो कि शराब या ड्रग्स कर रहे हैं आजकल लड़के। शराब, ड्रग्स हो सकता है कि बहुत सारे न भी करते हों। अधिकांश तो नहीं ही करते हैं तो इसका क्या मतलब है वो नशा नहीं करते हैं?

अगर आप कहो भी कि नशा बहुत फैल गया है तो युवा वर्ग का कितना प्रतिशत नशा कर लेता होगा? एक-आध प्रतिशत होगा, दो प्रतिशत होगा और कितना होगा? पाँच प्रतिशत होगा। जहाँ बहुत फैला हुआ वहाँ दस प्रतिशत होगा। नब्बे प्रतिशत तो नशा नहीं करते न? नशा लेकिन करना पड़ेगा, अगर साहस के साथ अग्लीनेस् (कुरूपता) से लड़ नहीं सकते तो नशा तो करना पड़ेगा। हो सकता है वो नशा ड्रग्स का न हो, वो नशा किसी और चीज़ का होगा। पैसे का नशा नहीं होता है? रूप का नशा नहीं होता है? अज्ञान का नशा नहीं होता है?

और जितने लोग तोहमतें लगा रहे होते हैं किसी को देखकर — ‘वो देखो, नशा करके आ गया लड़का’, वो ख़ुद उससे ज़्यादा गहरे नशे में डूबे होते हैं। पिताजी, बेटाजी पर आक्षेप कर रहे हैं, ‘सुनती हो, ये देखो ये आज फिर पीकर आया है।’ और पिताजी से बड़ा भ्रष्टाचारी और घूसखोर कोई नहीं है। बोलो, नशा किसका ज़्यादा गहरा है? पिताजी का कि बेटेजी का? ये पिताजी लेकिन बहुत बड़ा मुँह फाड़कर बोल रहे हैं कि मेरा बेटा नशा करता है। बेटा तो नशा करता भी हो तो वो तो अपनी सेहत चौपट कर रहा है। पिताजी जो नशा करते हैं इसमें पूरा समाज चौपट कर रहे हैं। शिक्षा विभाग में हैं और स्कूलों का पैसा खा गये सारा। न जाने कितने इन्होंने युवा भविष्य चौपट कर दिये! बोलो, नशा किसका ज़्यादा गहरा है?

तो सही जीवन का एक ही विकल्प होता है। उसको नशा बोलते हैं। या तो सही ज़िन्दगी जी लो, नहीं तो नशा तो करना पड़ेगा। या तो बोतल का नशा करोगे, नहीं तो इस बोतल का (शरीर की ओर संकेत करते हुए) नशा करोगे (शरीर रूपी बोतल, पात्र)। संतों ने इसको घट ही तो बोला है न। हाँ, तो घट में मदिरा भी तो हो सकती है। घट माने, पात्र। घट माने पात्र, बर्तन। तो ये भी तो घट ही है। और इसमें नशा-ही-नशा तो भरा हुआ है।

ब्याह करने जाते हो तो क्या बोलते हो? ‘मदमस्त कर गये नैना।’ क्या कर गये? मदमस्त कर गये। मद माने क्या होता है? मद माने क्या होता है? गाने भी बनाते हो बोलते हो, ‘आँख तेरी मदिर-मदिर या क्या श्वाँस तेरी मदिर-मदिर, जैसे रजनीगन्धा।’ मदिर माने क्या होता है? नशा। शब्द न हो तो आधे से ज़्यादा फ़िल्मी गाने न बन पायें। तो नशा तो मजबूरी बन जाएगी अगर सही ज़िन्दगी नहीं जी रहे हो तो। सही ज़िन्दगी जियो। हज़ार तरीक़े के नशे होते हैं। गिनते-गिनते थक जाओगे, नशों के प्रकार खत्म नहीं होंगे।

कोई भी अपनेआप को एक नैतिक प्रमाण पत्र न दे दे कि साहब मैं तो किसी भी तरह का नशा, व्यसन, व्यभिचार नहीं करता। अज्ञान से बड़ा व्यभिचार कोई नहीं होता। जो अज्ञानी है, वो व्यभिचारी है। भले ही वो अपनेआप को बोलता रहे कि मैं बड़ा भारी पण्डित हूँ कि जनेऊधारी हूँ कि ये हूँ कि वो हूँ कि मैं पाँच वक़्त की नमाज़ करता हूँ कि मैं दस बार तीर्थ हो आया हूँ। वो अपनेआप को कितने भी प्रमाण पत्र देता रहे, जो अज्ञानी है, वो पापी है, नशेड़ी है, जो-जो बोलना हो वो सब बोल लो। समझ में आ रही है बात?

अध्यात्म माने चेतना का उठना। चेतना के लिए ही साधारण शब्द क्या होता है, उर्दू में? होश। और होश ही जो गिर जाए तो उसको क्या बोलते हैं? नशा। हाँ, तो जहाँ अध्यात्म नहीं है वहाँ नशा है। अध्यात्म माने नशे का छँटना। चेतना माने जैसे एक जगह जहाँ कोहरा छाया हुआ है। अध्यात्म माने, आत्मज्ञान माने उस कोहरे को हटाना। और उसी कोहरे का और बढ़ जाना नशा कहलाता है। हर अज्ञानी आदमी बेहोश है, कोहरे में है और नशे में है।

तो कोई किसी पर लाँछन न लगाए दूसरे पर कि फ़लाना नशे में है। यहाँ सब नशे में हैं ख़ासतौर पर वो जो दूसरों को कहते हैं कि वो नशे में हैं। बस हमने नशों के कुछ रूपों को नैतिक रूप से वर्जित कर रखा है। और बाक़ी नशे के सब रूपों को तो हमने सम्माननीय बना रखा है। एक राजनेता चला जा रहा है अपने सत्ता के मद में चूर। तुम कभी बोलते हो, ‘आ गया देखो एक नशेड़ी’? कभी बोला? जबकि उसकी शक़्ल देख लो, उसकी चाल देख लो, उसके तौर-तरीक़े, उसके कर्म देख लो, उसकी आवाज़ सुन लो, तुम्हें साफ़ दिखाई देगा ये आदमी सत्ता के मद में चूर है बिलकुल। है कि नहीं? कभी बोला कि नशेड़ी आ रहा है एक? कभी बोला उसको देखकर? नहीं बोला न! हाँ, यही ग़लती है भाषा की।

आप नशेड़ी बस उसको बोलते हो जिसके पास या तो पुड़िया होती है, खाने-सूँघने वाली या जो हाथ में प्याला लेकर घूम रहा होता है उसको नशेड़ी बोल देते हो। एक आदमी कहता है, ‘मैं तो साहब अपने परिवार के लिए ही जीता हूँ। बहुत ही सुन्दर मेरी पत्नी है, दो छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे बच्चे हैं।’ इस आदमी को कभी बोला कि तुझसे बड़ा नशेड़ी दूसरा नहीं होगा? कभी बोला? और क्या ये नशे में नहीं है? बोलो, हाँ या न? तो क्यों नहीं बोलते कि ये देखो चला आ रहा है यहाँ से चूर? ‘ओये, गिर पड़ेगा।’ कभी बोला उसको? ये नशे में कैसे नहीं है?

गीता, षड रिपु की बात करती है। उसमें मद तो बस एक ही ह, लेकिन जो बाक़ी पाँच हैं वो भी तो मद के भाई-बहन हैं। वो भी तो नशे ही हैं। एक आदमी है जो हमेशा डरा हुआ रहता है, कभी बोलते हो, ’लुक सच् अ ड्रंकार्ड’? (देखो कैसा नशेड़ी है) कभी बोलते हो? क्यों नहीं बोलते? उसको बस ये बोल देते हो, ‘अरे! ये तो बेचारा सीधा आदमी है इसलिए डरा हुआ रहता है।’ सीधा है इसलिए नहीं डरा हुआ रहता। जो सीधा होता है वो तो किसी से डर ही नहीं सकता।

जो आदमी लगातार डरा हुआ है कभी उसको बोलते हो कि इससे बड़ा नशेड़ी कौन? क्यों नहीं बोलते? जो आदमी हर समय लालच में है, उसको क्यों नहीं बोलते कि नशेड़ी है। जहाँ ख़ुद को साफ़ देखने वाली ईमानदार आँख नहीं है, वहाँ नशा होगा ही होगा। उसी स्थिति को नशा बोलते हैं। ख़ुद को न साफ़ देख पाना ही नशा है। सही ज़िन्दगी से कतराना ही नशा है। सच्चाई से दूर भागना ही नशा है।

जितना आपको बुरा लगता है संसार को, समाज को देखकर उतना ही मुझे बुरा लगता है लेकिन मैंने एक रास्ता चुना है और रास्ता बिलकुल सीधा है। सीधा रास्ता ये है कि अगर कुछ ठीक नहीं है तो उसको ठीक करो न भाई। इसमें कोई बहुत गहरा, ख़ुफ़िया, गोपनीय, आध्यात्मिक राज़ लग रहा है क्या आपको।

क्या बोल रहा हूँ? अगर कुछ नहीं है तो ठीक करो न भाई। ये मेरा नशा है। आप अपना देखिए। ज़रूरत तो सबको पड़ेगी क्योंकि चेतना के हम एक त्रिशंकु स्तर पर फँसे रहते हैं। न बिलकुल गिरे हुए, न बिलकुल उठे हुए और बीच में बहुत दुख है। नीचे गिर जाओ वहाँ भी दुख नहीं है। ऊपर उठ जाओ, वहाँ भी दुख कम होता है। बीच में बहुत दुख है।

नीचे गिरने का क्या मतलब हुआ? नशा। ऊपर उठने का क्या मतलब हुआ? साहस, आत्मज्ञान। अब आप देख लीजिए कौनसा रास्ता चुनना है, बीच में तो कोई भी फ़ँसा नहीं रह सकता। या तो नीचे गिरने की सोच लीजिए या ऊपर उठने की सोच लीजिए। समझ रहे हैं बात को? और जैसे-जैसे आप चुनते जाएँगे वैसे-वैसे उन जवान लोगों के लिए रास्ता थोड़ा आसान होता जाएगा जिनका उल्लेख़ प्रश्नकर्ता ने करा। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

वो कितने साल के होते हैं? फिर कह रहा हूँ, चौदह साल, अठारह साल, चौबीस साल। वो इधर-उधर देखते हैं। बिलकुल असहायता में इधर-उधर देखते हैं। कहते हैं कि जहाँ देखो वहीं बस बहुत विकृत क़िस्म के नमूने नज़र आ रहे हैं। वो कहते हैं, ‘अगर दुनिया फिर ऐसी ही है तो नशा बेहतर है।’ कहीं तो कोई उनको प्रकाश की किरण दिखाई दे। कहीं तो कोई हो जो उनका परिचय ऐसो से करवाए जो बुलन्द जी पाये, बुलन्द मर पाये। और उनका परिचय जब ऐसों से कराया जाएगा तो सब इंसानों के भीतर सम्भावना होती है। वो भी यही चुनेंगे कि हमें भी सही, सच्ची, साहसी, ज़िन्दगी जीनी है। ठीक है? बताइए। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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