न जाने कल क्या हो || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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न जाने कल क्या हो || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में अनिश्चितता (अनसर्टेनिटी) से डर क्यों लगता है?

आचार्य प्रशांत: अनसर्टेन (अनिश्चित) क्या है? तीन गुणों की दुनिया है, तीन ही गुणों की रहेगी। समय है, समय ही रहेगा। शरीर है, शरीर ही रहेगा। पैदा हुए हो, जियोगे, मरोगे। उसमें अनिश्चित क्या है? अनिश्चित तो कुछ भी नहीं है। दिक्क़त ये है कि अहंकार को कुछ सुनिश्चित चाहिए क्योंकि भीतर-ही-भीतर वो डरा हुआ है, कहीं-न-कहीं वो जानता है कि वो ग़लत है, बल्कि वो नहीं है। तो वो अपने लिए, अपनी नज़र में एक सुनिश्चित, एक सर्टेन (निश्चित) कोना खोजना चाहता है। उस कोने के सन्दर्भ में तुम्हें सबकुछ अनसर्टेन लगता है, वरना अनसर्टेन क्या है? बात को समझो।

तुम ये मत कहो कि ज़िन्दगी अनिश्चित है, अप्रत्याशित है, अनपेक्षित है। नहीं, तुम पहले ये बताओ कि ये शब्द ही तुम्हारे मन में आया क्यों? तुम्हें ज़िन्दगी पूर्व नियोजित, सुनिश्चित चाहिए क्यों? तुम्हें इसलिए चाहिए क्योंकि तुम ऐसे नहीं हो जो हर स्थिति में सम और स्वस्थ रह पाएगा, क्योंकि तुम झूठ हो।

सच की पहचान क्या होती है? वो मिटता नहीं, वो टूटता नहीं। झूठ की पहचान क्या होती है? कि वो कुछ ख़ास परिस्थितियों में ही वैध, क़ायम, वैलिड (वैध) रह सकता है। परिस्थितियाँ बदल दोगे तो वो क़ायम नहीं रह पाएगा, वो चूर हो जाएगा।

तो इसलिए तुमने अपने चारों ओर बड़ी मेहनत करके कुछ कृत्रिम परिस्थितियाँ जमा करी हैं। उन कृत्रिम परिस्थितियों के भीतर तुम जब तक हो, तब तक तो तुम बचे हुए हो, तुलनात्मक रूप से। बचे तो तब भी नहीं हो, पर तब तक तुम तुलनात्मक रूप से सुरक्षित हो जब तक उन कृत्रिम परिस्थितियों के भीतर हो। उन परिस्थितियों को एक धक्का लगा, वो गिरीं कि तुम्हारी हालत ख़राब हो जाती है, पता है कि अब तुम पर ख़तरा आ गया। इसलिए तुम चाहते हो कि बाहर सर्टेनिटी (निश्चितता) रहे, इसलिए तुम चाहते हो कि बाहर जो वो कृत्रिम परिस्थितियाँ हैं वो क़ायम रहें।

उदाहरण के लिए, तुम इज़्ज़तदार आदमी हो अपनी नज़र में, अब ये इज़्ज़त जो भी चीज़ होती है। तुम इज़्ज़तदार कैसे हो? तुम अपनी इज़्ज़त करते हो, इसलिए तुम इज़्ज़तदार हो? तुम इज़्ज़तदार ऐसे हो कि दुनिया तुम्हारी इज़्ज़त करती है। तो तुम क्या करोगे? अब तुम ये करोगे कि तुम किसी अनजानी जगह पर जा रहे हो जिसका तुम्हें पहले से ही कुछ पता नहीं, तो तुम अपने साथ अपने छः आदमी लेकर जाओगे। ताकि उस जगह पर तुम्हें और कोई इज़्ज़त दे रहा हो, न दे रहा हो, ये छः आदमी तुम्हें इज़्ज़त देते रहें और ये छः आदमी बाक़ियों को भी बोलते रहें कि ये बड़े साहब हैं, बड़े इज़्ज़तदार हैं, इन्हें इज़्ज़त देते रहना।

ये तुम क्या कर रहे हो? तुमने अपने इर्द-गिर्द तुम्हें इज़्ज़त देने वालों का एक जमावड़ा तैयार करा है जिसमें मान लो साठ लोग हैं। तुम इसी के भीतर रहते हो। जब तक तुम इसके भीतर हो, तुम क्या कहलाते हो? इज़्ज़तदार। अब तुमको ये स्थिति सर्टेन, माने तय, माने निश्चित, करके रखनी है। 'ये इज़्ज़त बनी रहे, मैं कैसा रहूँ!' दिल-ही-दिल में जानते हो, इज़्ज़तदार तो तुम कुछ भी नहीं हो। क्या है इज़्ज़तदार में? इज़्ज़त, पूरा जो ये सिद्धान्त है वही अजीब सा है। इसमें कुछ रखा नहीं, खोखली बात है। ठीक है?

तो अब तुम डरते हो कि कहीं स्थितियाँ इस प्रकार न बदल जाएँ कि मैं बेइज़्ज़त हो जाऊँ। अब तुम हर तरह की कोशिश करोगे स्थितियों को अपने अनुसार सर्टेन माने निश्चित करने की। वो कर नहीं पाओगे। बेइज़्ज़त तो तुम तभी हो जाते हो जब तुम इज़्ज़त पाने की कोशिश करते हो। वही क्षण हो गया बेइज़्ज़ती का। ये समझ में आ रही है बात?

और एक आदमी ऐसा हो सकता है जो अपनी ही नज़र में सम्माननीय हो गया, क्यों? क्योंकि वो सब मानों-प्रतिमानों के अतीत हो गया, तो वो अतिशय सम्माननीय हो गया। उसका मान ही अब मापा नहीं जा सकता। अब उसको ज़रूरत पड़ेगी क्या अपनी इज़्ज़त, अपना सम्मान सुनिश्चित करने की? वो तो बेख़ौफ़, बेखटके कहीं भी घूमेगा-फिरेगा। वो कह रहा है, ‘कोई इज़्ज़त दे, न दे, हमें क्या फ़र्क पड़ता है। हम तो अपनी नज़र में जान गए, सो हम तो आत्मज्ञानी हैं। हमें कोई दूसरा क्या इज़्ज़त देगा? हमारा मान कोई दूसरा क्या करेगा?’

जिसका मान कोई दूसरा नहीं कर सकता, उसका अपमान कोई क्या करेगा।

समझ में आ रही है बात?

झूठ को ज़रूरत पड़ती है बचाव की, सुरक्षा की, क्योंकि वो झूठ है, क्योंकि वो है ही नहीं, क्योंकि वो कुछ विशेष परिस्थितियों में ही कृत्रिम रूप से बचा रह सकता है, बस। उसको तुम खुले आसमान में छोड़ दोगे तो वो मिट जाएगा। जैसे कि तुमने जून की गर्मी में फ्रीज़र में बर्फ़ जमा रखी हो। वो बहुत परेशान रहती है— ‘बिजली तो नहीं कटने वाली आज? बिजली तो नहीं कटेगी?’ अब बिजली कटना तो फिर भी छोटी बात है, कहीं तुमने कह दिया— ‘नहीं, आज न दोपहर में थोड़ा सड़क पर टहलने चलेंगे अपन दोनों साथ में।’ वो दिल का दौरा आ जाएगा बर्फ़ को, क्योंकि वो क़ायम ही रह सकती है बस कुछ सुनिश्चित, विशेष, सुरक्षित परिस्थितियों में। और वो परिस्थितियाँ, वो बहुत मेहनत माँगती हैं। बाहर पैंतालीस डिग्री है, अन्दर तुमको रखना है शून्य से दस डिग्री नीचे। बहुत मेहनत लगेगी।

हम ऐसे ही हैं। अहंकार ऐसा ही है इसीलिए वो इतनी मेहनत करता है।

अहंकार जून में फ्रीज़र में जमी बर्फ़ की तरह है। जब तक फ्रिज़ है, जब तक बिजली है, जब तक बिजली का बिल दिया जा रहा है, तब तक तो अहंकार बचा रह सकता है।

इसीलिए तो अहंकार जीवन भर मेहनत करता रहता है। और जहाँ वो खुली हवा में, खुली आकाश के नीचे आया नहीं कि पिघल गया, मिट गया, झूठ दिख गया। तुम थे ही नहीं, तुम कृत्रिम थे, तुम्हें ज़बरदस्ती बनाया गया था। तुम नित्य हो ही नहीं सकते, तुम पल-दो-पल के हो इसलिए तुम असुरक्षित हो।

अब या तो तुम मान लो कि तुमने फ़िलहाल अपना जो हाल बना रखा है वो झूठा है, और स्वेच्छा से गल जाओ, पिघल जाओ। या फिर तुम कोशिश करते रहो कि नहीं, मैं फ्रिज़ में जितने दिन तक चल सकता हूँ, चलूँ। जितने दिन चल सकता हूँ, चलूँ। बहुत लोग ऐसे ही फ्रिज़ की बर्फ़ की तरह साठ-अस्सी साल चल भी जाते हैं। उसके बाद सीधे वो चिता की आग में पिघलते हैं। सोचो, बर्फ़ की अर्थी निकल रही है। क्योंकि उसको जलाने वाली आग तो बर्फ़ के भीतर ही मौजूद है न। कितने दिन फ्रिज़ में रहेगी? कभी-न-कभी तो टूटेगी।

जितनी कम सुरक्षा की माँग करके जी सको, उतना अच्छा। जितना कम तैयारी और बन्दोबस्त के साथ जी सको, उतना अच्छा। जितना तुमको अपने चेहरे पर कम लीपापोती करनी पड़े, उतना अच्छा। जितना तुम विशेष परिस्थितियों की कम माँग करो, उतना अच्छा। मिल गया तुमको बिज़नस क्लास फ़्लाइट में, ठीक है! चले जाओ, काहे को मना करना है। लेकिन ऐसे मत हो जाना कि रेल के जनरल डब्बे में चलने लायक़ ही नहीं बचे। “कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा, कोई दिन फाक़म-फ़ाका जी।” ये मत हो जाना कि अगर फ्रीज़र में से तुम्हें किसी ने बाहर निकल दिया, तो तुम बिलख रहे हो, कलप रहे हो और बर्फ़ की तरह फिर रो रहे हो, पिघलते ही जा रहे हो, पानी-ही-पानी। ये नहीं होना चाहिये।

जिस शान से तुम बिज़नस क्लास में बैठो, उतनी ही शान से जनरल के भीड़ भरे डब्बे में खड़े भी हो जाओ। वो शान तुम्हारी अपनी होनी चाहिए, बिज़नस क्लास की नहीं होनी चाहिए। वो बिज़नस क्लास की अगर शान है, तो जनरल के डब्बे में गायब हो जाएगी। जितनी शान से महँगे कपड़े पहनो उतनी ही शान से नंगा खड़ा होना भी आना चाहिए। कपड़ों की शान नहीं होनी चाहिए, कपड़े शानदार लगने चाहिए क्योंकि तुम्हारे ऊपर हैं। ये बात बहुत अलग है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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