मुक्ति मरने के बाद नहीं मिलती

Acharya Prashant

6 min
413 reads
मुक्ति मरने के बाद नहीं मिलती
धर्म इसलिए है कि अभी जिंदा हो तो जी लो। मरने के बाद कोई जीवन होता है *आफ्टर लाइफ* उससे धर्म का कोई रिश्ता नहीं है। धर्म कहता है जिंदा हो तो जी लो — ये है धर्म। तो मुक्ति भी अगर मिलनी है तो सिर्फ़ अभी मिल सकती है जीते जी। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सर इसी से रिलेटेड दूसरा सवाल है जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक क्रिमिटोरियम है जिसमें शरीर को नष्ट किया जा सकता है — विद्युत दाह। और दूसरा जो अपना ट्रेडिशनल तरीका है जहाँ पर लकड़ियों पर जलाया जाता है। तो जैसे अभी मैं श्मशान घाट गई थी। तो मैंने वहाँ पे देखा कि दो लाशें जल रही थी तो मैं ये साफ़ तौर पे देख पा रही थी कि जैसे — मांस जलता है जब तो बहुत सारा धुआँ निकलता है, और बहुत सारा एयर पोल्यूशन हो रहा था वहाँ पर।

लेकिन क्योंकि हिंदू धर्म में ख़ास करके मृत्यु के बाद शरीर को, मतलब जो डेड बॉडी है उसको कैसे हैंडल किया जाता है? कैसे जलाया जाता है? इसका पूरा संबंध लोगों ने बिठा दिया है उस जीव की मुक्ति के साथ। मतलब लोग सोचते हैं कि, अगर ये सब नहीं किया जाए तो उसकी आत्मा भटकती रहेगी। उसको गति नहीं मिलेगी, उसको मुक्ति नहीं मिलेगी।

आचार्य प्रशांत: अरे भैया, मुक्ति मरने के बाद नहीं मिलती। धर्म का कोई रिश्ता आपके मरने के बाद के किसी क्षण से नहीं है, ये अच्छे से समझो।

धर्म इसलिए है कि अभी जिंदा हो तो जी लो। मरने के बाद कोई जीवन होता है आफ्टर लाइफ उससे धर्म का कोई रिश्ता नहीं है। धर्म कहता है जिंदा हो तो जी लो — ये है धर्म। तो मुक्ति भी अगर मिलनी है तो सिर्फ़ अभी मिल सकती है जीते जी।

मैं जिंदा हूँ और मैं अभी दुख में हूँ, कष्ट में हूँ। ये दुख कैसे हटाया जाए? — धर्म इसका विज्ञान है। मर के कौन सी मुक्ति मिलेगी?

कह रहे मर के जब तक धुआँ देकर के मांस नहीं जलाओगे तब तक वो मुक्त नहीं होगा। मुक्त होने की तो उसकी अब संभावना ही समाप्त हो गई, वो तो मर गया। मुक्त सिर्फ़ तब तक हो सकते हो जब तक जिंदा हो, उसके बाद अवसर बीत गया।

इतना तो ज्ञानियों ने चेताया है कि, अवसर क्यों बिताई दे रहे हो? मानुष जन्म अमोल है। काहे ख़राब कर रहे हो? “हीरा जन्म अमोल है कौड़ी बदले जाए” तो जब तक जीवित हो तब तक मुक्ति मिल सकती है, उसके बाद कुछ नहीं है। कुछ है ही नहीं और मत करो मरने के बाद भी दुनिया को तबाह। जब तक जिए तब तक भी दुनिया बर्बाद करी है, मर के और जाते-जाते भी गंदगी फैला के जा रहे हो।

कह रहे हो मर भी जाएँगे तो भी हमारा मांस ऐसे जलाना कि कार्बन डाइऑक्साइड और बढ़ जाएगा धुआँ और बढ़ जाए। एकदम ही मतलब बर्बादी के आशिक़ हो क्या? जितने साधारण और सरल तरीके से हो सके देह को निपटा दिया जाना चाहिए। यही उच्चतम अंतिम संस्कार है।

प्रश्नकर्ता: और सर यही कारण है शायद कि लोग बॉडी डोनेट भी नहीं करना चाहते हैं, ना इलेक्ट्रॉनिक क्रेमेटोरियम का यूज़ करना चाहते हैं। क्योंकि उनको लगता है अगर बॉडी डोनेट कर दी, वो साइंस वाले अगर वो ले गए फिर वो चीरफाड़ करेंगे उसमें से। और एक्सपेरिमेंट करेंगे और फिर उसके बाद पता नहीं बॉडी कहाँ फेंक देंगे। क्योंकि लोगों ने इसका सीधा संबंध मुक्ति के साथ बिठा लिया है।

आचार्य प्रशांत: मूर्खता के कोई सींग और पूँछ तो होती नहीं। हमारे ही आपके जैसे लोग होते हैं उन्हीं में मूर्खता चलती फिरती है। या ऐसा होगा कि देखो — वो सींग दिख रही है और पूँछ दिख रही है इसलिए फलाना मूर्ख है। वो हमारे ही आपके जैसे होते हैं।

कर रहे हैं मूर्खताएँ जीवन भर और मरने के बाद भी। अरे मर रहे हो अपने सारे अंग दान करके जाओ बाबा, किसी का भला हो जाएगा। क्या करोगे? जीवन भर 100 चीज़ें पकड़ते रहे देह से। अब मर भी गए हो तो देह को बिल्कुल बस नष्ट होने दे रहे हो। देह किसी के काम आ जाएगी, तुम्हारा कुछ जाता है? कर दो अंगदान।

पर नहीं जीवन भर ये रहा — क्यों दूँ मुफ्त में? नहीं। इसमें मेरा क्या फायदा है? मेरे घर का खाना सड़ जाए तो सड़ जाए, किसी को दूँगा नहीं। ये करा है ना ज़िन्दगी में? कपड़ा पड़े-पड़े अगर ख़राब हो गया तो हो गया कोई बात नहीं, पर वो कपड़ा हम किसी को देंगे नहीं। खाना पड़े-पड़े सड़ गया कोई बात नहीं, खाना किसी को देंगे नहीं। वही रुख़ रहता है शरीर को लेकर के भी, शरीर जल जाए तो जल जाए अंगदान नहीं करेंगे।

वानप्रस्थ का क्या मतलब होता था? सन्यास का क्या अर्थ होता था? — जंगल जाना। महाभारत के युद्ध के बाद की बात है, धृतराष्ट्र गांधारी जंगल की ओर चले। कुंती बोली मैं भी चलूँगी। बात ये नहीं है कि आपके पुत्र नहीं रहे तो आप जा रहे हो। मेरे पुत्र विजेता भी हैं और — हैं भी, मैं तब भी चलूँगी। चले गए, और वहाँ जाकर के वो चुपचाप जंगल में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। कहते हैं दावानल था — फॉरेस्ट फायर थी। उसमें जल गए, ये तरीका था। ये थोड़ी था कि जो वृद्ध है वो बैठा हुआ है कि मेरा शरीर जला देना।

जब लगे कि मरने वाले हो तो चले जाओ और जाके जंगल में कहीं पर समाप्त हो जाओ। पशु-पक्षियों को भोजन मिल जाएगा। पारसियों का आज भी यही तरीका है, उनके टावर्स ऑफ साइलेंस होते हैं। वो कहते हैं — मृत देह को ऊपर ले जा करके रख दो टावर पर, आकर के पक्षी ख़ासकर गिद्ध वग़ैरह खा लेंगे। अब गिद्ध मिलते नहीं खाने के लिए वो समस्या हो गई है पर वो अलग बात है। चले जाओ। क्या तुम पकड़े बैठे हो कभी तो छोड़ना सीखो, जीते जी कुछ छोड़ना सीख नहीं पाए। आसक्ति बनी रही, मुट्ठी भची रही, पकड़ बनी रही, अब मर रहे हो कम से कम अब मरते-मरते तो छोड़ना सीखो। या अभी भी मरते-मरते भी देह को बांधे-बांधे मरोगे?

पांडवों का भी क्या बताया जाता है? वो सब चढ़ने लग गए पहाड़ पर और एक-एक करके गिरने लग गए। वहाँ कोई उनका संस्कार कर रहा था? बस हो गया। वो बर्फ़ में ही उनका बिस्तर बन गया, सो गए बर्फ़ में ही, दब गए बर्फ़ में ही। आ रही है बात समझ में?

प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories