प्रश्नकर्ता: क़रीब सात साल पहले लॉ ऑफ एट्रेक्शन के टच में आया, उसको समझा। तो समझ में आया कि मन पर काम किया तो ज़िन्दगी अपनेआप ठीक हो जाएगी। तो पिछले सात साल से मन पर काम करने की कोशिश कर रहा हूँ, पिछले पाँच साल से क्रियायोग भी कर रहा हूँ।
लेकिन क़रीब सात-आठ दिन पहले आपका कोर्स देखा 'मेडिटेशन ट्वेंटी फोर इंटू सेवन' (सातों दिन चौबीसों घंटे ध्यान में)। तो उससे पहले डुअलिस्टिक पीस (द्वैतात्माक शांति) आया, मोमेंट्स आए। डिजायर बढ़ी कि वह शांति पूरे दिन रहे। बहुत ट्राई किया। तो जितनी देर ध्यान में बैठूँ — पाँच-पाँच घंटे बैठता था — तो तब तक शांति रहती थी, फिर जब उठूँ तो वापस मन अशांत हो जाता था।
पर सात-आठ दिन पहले ही, जब आपका कोर्स देखा, तब फील किया कि बिना ध्यान में बैठे ही ध्यान में रहा जा सकता है। इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। और पिछले सात-आठ दिन से लगभग चौबीस में से कई सारे घंटे मेडिटेटिव फील कर पा रहा हूँ।
और सामान्य जीवन बहुत ही समस्याग्रस्त है, एक अनवॉन्टेड मैरिज (अवांछित विवाह) में हूँ, जॉब (नौकरी) फुलफीलिंग (संतोषप्रद) नहीं है। तो प्रश्न यह है कि सिर्फ़ मन पर काम करने से ज़िन्दगी पर काम करने की ज़रूरत ख़त्म हो सकती है क्या? संक्षेप में कहूँ तो क्या आपके सातों दिन चौबीसों घंटे ध्यान की विधि से जीवन में साहस आएगा?
आचार्य प्रशांत: उसी से तो आता है। और शुरुआत यहाँ से करो कि ये नहीं अनुभव करना होता कि मैं मेडिटेटिव हूँ। तुमने कहा कि मैं अब दिन में बहुत लंबे समय तक अनुभव कर पाता हूँ कि मेडिटेटिव हूँ। अनुभव ये करना होता है कि अब मेडिटेटिव नहीं रहा।
जब आप वास्तव में मेडिटेटिव होते हो तो उसका कोई अनुभव नहीं हो सकता। इस बात को भी बिलकुल पकड़ो सूत्र की तरह, ये एक्सियम (सिद्धांत) है। जो असली चीज़ है उसका अनुभव नहीं होता। और ये बहुत खैरियत की, राहत की, प्रसन्नता की बात है।
प्र: शांति अनुभव हो रही है।
आचार्य: शांति अनुभव नहीं होती। अनुभव अशांति होती है। जिस भी चीज़ का अनुभव हो, समझो वो अशांति है।
प्र: एक राहत सा अनुभव हो रहा है।
आचार्य: हाँ, वो जो राहत अनुभव हो रही है, वो समझ लो कि अपेक्षाकृत कम अशांति अनुभव हुई है। उस राहत पर रुकना नहीं है क्योंकि अब जो आगे बताऊँगा थोड़ा सा टेक्निकल लगेगा। क्योंकि राहत भी अनुभव हो रही है, माने अभी बचे हुए हो अनुभव करने के लिए, पूरे तरीक़े से डूबे नहीं हो।
प्र: हाँ, डर भी अनुभव हो रहा है बहुत। लगातार बहुत तेज़ डर और ये सब भी अनुभव हो रहा है।
आचार्य: तो अपने सिस्टम को, अपनी आंतरिक व्यवस्था को ऐसा बनाना है कि वो बहुत सजग रहे, अलर्ट रहे अशांति के ख़िलाफ़, लैक ऑफ मेडिटेटिवनेस (ध्यान की कमी) के ख़िलाफ़।
समझ रहे हो?
जैसे नींद से कोई जगा दे, ऐसा अनुभव हो। तुम गहरी नींद में हो और कोई जगाने लग जाए तो कैसा लगता है, अच्छा लगता है? तो दिनभर ऐसे रहना है जैसे गहरी नींद में हो। उससे मतलब क्या है? समझना अच्छे से, नींद का मतलब यह नहीं है कि तुम बेहोश हो, सोये पड़े हो; नींद का मतलब है बहुत गहरी शांति में हो।
और उस शांति का तुम्हें कोई अनुभव नहीं हो रहा है लेकिन जब भी कोई उस शांति में खलल डाल रहा है, बाधा डाल रहा है तो उसका तुम्हें अनुभव हो रहा है। और जैसे ही तुम्हें उसका अनुभव हो रहा है, वैसे ही तुममें अपनेआप करेज (साहस) पैदा हो जाती है — तुम्हारा दूसरा सवाल था — अपनेआप करेज पैदा हो जाती है, उसको हटाने की। पूछो क्यों? क्योंकि वो जो अनुभव की अनुपस्थिति थी वो बड़ी प्यारी चीज़ थी।
वो है न, वो थोड़ा-सा पकड़ती है, पूरा चढ़ती है। तो उसको छोटी उँगली भी नहीं थमाते, पूरा ही ऊपर चढ़ जाती है। जो इसमें तरीक़ा होता है, अगर उसे तरीक़ा कह सकें तो, वो यही होता है कि शांति को, या मौन को — जो भी तुम्हारा पसंदीदा शब्द हो दे लो — उसको एक आदत सी बना लो। वो आदत नहीं है, पर मेरे पास कोई और शब्द नहीं है इसलिए बोल रहा हूँ। उसको एक आदत बना लो। और उस आदत से तुम्हें प्यार हो गया है। अब जब भी उस आदत में बाधा पड़ेगी तुम चिहुक उठोगे। चिहुक उठोगे से मतलब कि 'ये किसने किया!' और जिस भी चीज़ ने किया उसको तुम तत्काल हटा दोगे या तत्काल उसके ख़िलाफ़ खड़े हो जाओगे; यही साहस है।
तत्काल इसलिए खड़े हो जाओगे उसके ख़िलाफ़ क्योंकि वो तुम्हारी बहुत प्यारी अंदरूनी चीज़ में हस्तक्षेप कर रही है।
समझ में आ रही है बात?
भई, अगर शांति अच्छी चीज़ है, तो लगातार उसे क्यों नहीं साथ रखेंगे। नहीं तो बड़ा दोगलापन हुआ न कि कह रहे हैं कि शांति चीज़ तो अच्छी है पर कभी-कभार। यह कैसी बात है! फिर कह रहा हूँ, शांति छोड़ो, अपना जो पसंदीदा शब्द है वो उठा लो, प्यार, सच्चाई, जो भी तुम्हें अच्छा लगता है, आज़ादी।
अगर वो चीज़ बढ़िया है, तो कभी-कभार ही क्यों चाहिए? कुछ भी एबसोल्यूट नहीं रखोगे, अनकंडीशनल नहीं रखोगे जीवन में? या हर चीज़ बस टुकड़ों-टुकड़ों में रहेगी, एक खंड यहाँ, एक फ्रेगमेंट वहाँ?
प्र: यह कहा जाता है कि एक घंटे ध्यान को दो और वो तुम्हारे बाक़ी तेईस घंटे को बदल देगी।
आचार्य: तुम्हें उठना पड़ेगा न जो भी चीज़ें तुम्हें बेचैन कर रही हैं उनके ख़िलाफ़। और जब उठोगे तो ज़िन्दगी अपनेआप बदलेगी, ऐसे ही तो ज़िन्दगी बदलती है।
प्र: लॉ ऑफ अट्रैक्शन का क्या करें?
आचार्य: लॉ ऑफ अट्रैक्शन कुछ नहीं है, बेकार है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आपको शांति चाहिए, ठीक है? लेकिन आपने अपने जीवन में चीज़ें भर रखी हैं जो आपको करती हैं अशांत। और उसी अशांति को और उन्हीं चीज़ों से घिरे होने को आप बोलते हो मेरी ज़िन्दगी, ठीक? सबकी हालत है ये, समझें! चाहिए क्या है? शांति। और जीवन में भर क्या रखी है?
प्र: अशांति।
आचार्य: अशांति कैसे भर रखी है? इस तरह की चीज़ें और स्थितियाँ और व्यवस्थाएँ जीवन में भर रखी हैं जो कदम-कदम पर अशांत करती हैं। ठीक है? और ये हमारी ज़िन्दगी हो गई। यही ज़िन्दगी है मेरी कि ये है, वो है, ऐसा, वैसा।
अब अगर आप शांति के प्रति दृढ़ हो जाते हो। उसे दृढ़ता भी बोल सकते हो, प्रेम भी बोल सकते हो। शांति की तरफ़ अगर आप दृढ़ हो जाते हो, तो अशांति करने वाली पहली चीज़ आपके सामने आएगी, आप उसको क्या करोगे? 'भग यहाँ से, भग यहाँ से!' अंजाम की परवाह नहीं कर रहे, यही हिम्मत है बस।
तेरा दोष क्या है? तूने हमारी शांति में खलल डाला, तो हट! तुझे हटाने पर बुरा-से-बुरा क्या हो सकता है? बुरा-से-बुरा तो ये हो सकता था कि शांति भंग हो जाती। तो तुझे हटा कर जो भी बुरा होगा, वो फिर भी अच्छा होगा। क्योंकि जो बुरा-से-बुरा हो सकता था वो नहीं हुआ।
भई, जो भी क़ीमत देनी पड़ी तुझे हटाने की, शांति तो बच गई न। तो ये चीज़ हटा दी। जब ये चीज़ हटा दी ज़िन्दगी से, तो क्या ही चीज़ बदल गयी? ज़िन्दगी ही बदल गयी। फिर अगली चीज़ आयी ऐसी, उसको भी हटाया, ज़िन्दगी थोड़ी और बदल गयी।
फिर अशांत करने वाली एक और चीज़ सामने आयी, उसको भी हटाया, ज़िन्दगी और बदल गयी। क्योंकि इन्हीं सब चीज़ों के संकलन को तो हम क्या नाम देते थे? ज़िन्दगी। तो यही सब चीज़ें जब एक-एक करके हटने लग रही हैं, तो क्या बदल रही है? ज़िन्दगी।
एक लड्डू तो खाकर दिखा दो ऐसे। करो जितना अट्रैक्ट करना हो मेंटली , लड्डू को। (आकर्षण के सिद्धांत के विषय में कहते हुए)
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: कई बार हो जाता है।
आचार्य: कई बार हो जाता है, पर जितनी बार नहीं होता, वो काहे नहीं गिनते? ये तो गिन लोगे कि हाँ फ़लाने शहर में ऐसा हुआ था कि एक ने लड्डू, लड्डू, लड्डू स्मरण करा और लड्डू उसको किसी तरीक़े से मिल भी गया। पर ये भी तो बता दो कि ऐसा दस हज़ार में से एक के साथ हुआ था। इस चक्कर में बाक़ी नौ-हज़ार-नौ-सौ-निन्यानवे काहे बलि चढ़ा दिए?
वो भी यही सोचते रहे कि हमारे साथ भी होगा, हमारे साथ भी होगा। और एक के साथ तो हो ही जाएगा भाई। यह तो सीधे-सीधे प्रोबेबिलिस्टिक इवेंट (संभाव्य घटना) है। दस हज़ार में तो एक के साथ कुछ भी हो सकता है। ये भी हो सकता है कि तुम बैठे हो, बैठे हो अचानक तुम्हारी एक आँख गायब हो जाए। तो इसका मतलब थोड़ी है कि वो बाकियों के साथ भी होगा।
और ये सारा जादू-टोना, अंधविश्वास, भूत-प्रेत और सारी बेवकूफ़ियाँ वो इसी तरीक़े से चलती हैं कि एक-दो-चार बता दो किस्से जहाँ फ़लाने के साथ हुआ था। और ये कभी मत बताओ कि कितने करोड़ लोगों में से एक के साथ ये हुआ है; ये कभी मत बताओ।
फ़लाने ज्योतिषी बाबा की तीन भविष्यवाणियाँ बिलकुल सच निकली हैं। और ये न बताओ कि उन्होंने तीस लाख करी थीं। तीस लाख करी थीं, तीन सही निकली हैं, बाक़ी बिलकुल दबा दो। नहीं, बाक़ी सामने नहीं आनी चाहिए।
सच में और झूठ में यही अंतर होता है। सच लापरवाह हो सकता है, झूठ लापरवाह नहीं हो सकता। क्योंकि सच का स्ट्राइक रेट क्या होता है? हंड्रेड परसेंट। झूठ का होता है, प्वाइंट वन परसेंट। तो उसको वो जो प्वाइंट वन परसेंट है, वो ही निकालना पड़ता है और वो दुनिया को दिखाना पड़ता है।
सेंटर पर ध्यान दो। अगर अट्रैक्ट करना भी चाह रहे हो तो कौनसी चीज़। रिपेल करना भी चाह रहे हो तो क्या बनकर के रिपेल कर रहे हो। हू आर यू वेन यू आर ट्राइंग टू रिपेल समथिंग। (आप कौन होते हो जब आप किसी चीज़ को विकर्षित करने की कोशिश कर रहे होते हो।)
सेंटर पर ध्यान दो। कोई भी चीज़ हो, उसमें बस ये पूछ लो कि ये करते वक़्त मैं कौन हूँ।
प्र: ये अलग बात पिछले सात-आठ दिन में हुई कि जब भी मेडिटेटिव फील कर रहा हूँ, तो वही चीज़ जो परेशान कर रही थी जिसको मैं रिपेल करना चाह रहा था, अब नहीं करना चाह रहा या मतलब नहीं है। मतलब बेपरवाही-सी हो रही है, है भी तो कोई दिक्क़त नहीं है। तो सेंटर शिफ्ट होता है तो वही चीज़ परेशान करना भी बंद कर देती है या वो सिचुएशन अब तकलीफ़ नहीं देता।
तो काफ़ी इम्प्रूवमेंट है। अब यह जानना था कि अब मेहनत करनी पड़ेगी या ख़ुद ही ठीक हो जाएगा? मतलब क्लैरिटी चाहिए।
आचार्य: जिस चीज़ से दिक्क़त है, उससे क्यों है दिक्क़त? चोर को ताले से दिक्क़त होती है, तो ये नहीं देखना है कि मैं आँख बंद करके चाबी कैसे अट्रैक्ट कर सकता हूँ। कि आँख बंद करे रहूँगा, करे रहूँगा, ऐसे करूँगा तो चाबी आ जाएगी (आँख बंद करके हाथ में चाबी आने का अभिनय करते हुए)।
यह देखना है कि जब मैं इस ताले की चाबी अट्रैक्ट करना चाहता हूँ, तो मैं कौन हूँ, मैं चोर हूँ। और अगर मैं चोर हूँ, तो मुझे चोर नहीं होना है।
समझ में आ रही बात?
तुम जब भी अट्रैक्ट करना चाहते हो, कभी सोचा भी है कि उसमें कौनसी कामना, कौनसी वासना बैठी है? लॉ ऑफ अट्रैक्शन से कौन है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश को अट्रैक्ट कर रहा है भाई?
जो आपकी सबसे ज़्यादा दबी, छुपी इच्छाएँ होती हैं, उन्हीं को तो आँख बंद करके अट्रैक्ट करोगे न। वो तुमको मिल भी गया तो उससे तुम्हारा फ़ायदा क्या होगा, बताओ तो?
जो कुछ तुम अट्रैक्ट करना चाह रहे हो, वो तुमको किसी जादू से मिल भी गया तो उससे तुम्हारा फ़ायदा क्या होगा, बताओ? उससे यही होगा कि तुम जो हो वही तुम और बने रहोगे।
अहंकार कभी अपना नाश अट्रैक्ट करेगा क्या, बोलो? मक्खी क्या अट्रैक्ट करेगी? शक्कर। शराबी क्या अट्रैक्ट करेगा? शराब। वो तुम्हें मिल भी गई चीज़ तो क्या फ़ायदा! तुम्हारा सेंटर , तुम्हारा केंद्र तो बदला नहीं न, जो तुम हो वो तो वैसा ही रह गया बल्कि और ताक़तवर हो गया।
तो यह पूछा करो कि फ़लानी चीज़ मुझे चाहिए ही क्यों है। बाक़ी उसको पाने की तरक़ीबें तो हज़ार हो सकती हैं।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी। आपके एक विडियो में सुना था कि पल-प्रति-पल अवलोकन करते रहना है, मन का। तो इसमें जब हम लोग बहुत ध्यान देते हैं, मतलब अपने लाइफ़ के हर पल-पल का जब बहुत अच्छे से विश्लेषण कर रहे होते हैं तो एक द्वंद्व सा उत्पन्न होता है कि भाई कर कौन रहा है और किसको एनालाइज कर रहा है। सेंटर है ही क्या? मतलब अभी जो आप इतनी देर से बता रहे थे सेंटर के बारे में, तो ये मन किसको देख रहा है, और कौन है जो ऑब्जर्व्ड हो रहा है? तो ये द्वंद्व जो है ये बार-बार चलता रहता है। और इस द्वंद्व के कारण मैं उस लूप से बाहर आ जाता हूँ, फिर रिलैक्स हो जाता हूँ। जो अलर्टनेस है वो चली जाती है।
आचार्य: नहीं, तुम ये क्यों पूछ रहे हो कि कौन देख रहा है, किसको देख रहा है। जो दिखाई दे रहा है, उसको देखकर के कोई प्रतिक्रिया नहीं उठ रही है?
प्र२: शुरू में उठती है।
आचार्य: बस उस तक सीमित रहो न। देखता तो हमेशा मन ही है, मन को। प्रश्न यह है कि तुम्हारी रुचि इतनी ज़्यादा इसमें कैसे हो गई कि मन के किस हिस्से ने मन के किस हिस्से को देखा। जो कुछ भी देखा उसको देखकर के भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठी?
प्र२: उठती है।
आचार्य: उसकी बात करो। जो दिखाई दिया न, वो पूछो अपनेआप से कि ऐसे ही चलने देना है।
प्र२: जब नॉर्मल डे टू डे लाइफ़ में ये सब देखते हैं तो बिलकुल छोटी-छोटी चीज़ें जो हैं, वो तो दिखती हैं कि ये ग़लत कर रहा हूँ, ये ग़लत कर रहा हूँ, ये सही नहीं है, ये मिस्टेक है मेरा।
लेकिन जब फिर सत्य की बात आती है या कुछ थोड़ा ऊँची बात जब आने लगती है, तो अब वहाँ पर लगता है कि उसको तो पिक्चराइज कर नहीं सकते। तो मन को टैंजिबल चाहिए होता है। अब वहाँ से एक कनफ्यूजन उठता है।
आचार्य: जो दिख रहा है, जो टेंजिबल है, उसी तक सीमित रहो। उसमें जो अचिंत्य है, अकल्प है उसकी बात ही कहाँ से आ गई। वो तो ये बताने के लिए बोलता हूँ कि जो तुम्हारे चिंतन में है और कल्पना में है, कहीं तुम उसको सच न मानने लग जाओ। उसको तुम सच न मानने लग जाओ इसलिए बार-बार कहा जाता है कि सच अचिंत्य है।
इसका मतलब ये थोड़ी है कि तुम इस बात पर चिंतन करना शुरू कर दो कि सच अचिंत्य है — उल्टा चल दिए बिलकुल।
तो जिन चीज़ों पर चिंतन हो सकता है, उन पर चिंतन करो न। जो दिखाई पड़ रहा है, जो समझ में आ रहा है, दुनिया कैसी है, मैं क्या कर रहा हूँ, रिश्ते कैसे हैं, काम कैसा है, रोटी कहाँ से आ रही है — इन चीज़ों पर चिंतन करो।
और सत्य और मुक्ति इन पर चिंतन छोड़ो। उन पर चिंतन करके यही कर रहे हो कि असली काम से बच गए। जिस चीज़ पर ध्यान लगाना चाहिए था उस पर नहीं लगाया। ध्यान किस पर लगा दिया? सत्य पर।
झूठ चारों ओर से घेरे हुए है, ध्यान सत्य पर लगा रहे हो। झूठ ही अंदर भी बैठा हुआ है और अपनेआप को वो बचाने के लिए ध्यान किस पर लगा रहा है?
प्र: सत्य पर।
आचार्य: तो मज़ेदार बात हो गई, सत्य पर ध्यान लगा-लगाकर के झूठ बचा जा रहा है। तो सत्य पर नहीं ध्यान लगाओ। झूठ के लिए ज़रूरी है कि वो स्वयं पर ध्यान लगाए।
ध्यान का मतलब साफ़ समझना — झूठ को देखना सच के ध्येय के साथ, ये ध्यान है। ध्येय है सच और देख रहे हैं झूठ को, ये ध्यान है।
ध्यान बिलकुल ये सब नहीं है कि कुछ देखेंगे ही नहीं, कुछ सोचेंगे ही नहीं, मौन में चले जाएँगे। वो चीज़ अधिक-से-अधिक एक तरह का इंटरनल एनेस्थीज़िया (आंतरिक बेहोशी) है, उससे तुमको कोई गहरा या असली लाभ नहीं मिलने वाला कि दर्द बहुत हो रहा था तो अपनेआप को आध्यात्मिक एनेस्थीसिया दे दिया। उससे कुछ नहीं होता।
समझ में आ रही है बात?
दर्द जब हो रहा हो तो जहाँ दर्द हो रहा है उसकी जाँच करनी होती है। जाँच में भी दर्द बढ़ता है और उपचार में भी थोड़े समय के लिए दर्द बढ़ता है। वो जो दर्द बढ़े, उसको झेलना पड़ता है।
एनेस्थिसिया कहाँ से उपचार हो गया?
प्र२: टेम्परेरी (अस्थायी)।
आचार्य: टेम्परेरी भी, उपचार है वो? उपचार कहाँ से है?
ये दोहरा काम करना है — साफ़ पता हो कि झूठ में जी रहे हैं, मायावी दुनिया है तो उससे आँखें नहीं बंद कर लेनी है, डर नहीं जाना है, हर चीज़ में गहरे पैठना है और समझना है। और जब गहरे पैठना है तो लिप्त नहीं हो जाना है। क्योंकि गहराई में जाने में यह बड़ा ख़तरा रहता है। क्या? कि माया को समझने गये थे और उसी ने गले लगा लिया।
और उसके पास किसलिए गये थे? 'वो तो समझना है न, तो जाएँ ज़रा जाँच-पड़ताल करें।' और जाँच-पड़ताल किया तो वह ऐसी मोहिनी निकली कि एकदम उससे गले लग गए। नहीं, उसमें गहरे तो जाना है लेकिन ध्येय हमेशा सच रहे।
आँखें, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि ये सब लगातार किस पर केंद्रित हैं? झूठ पर। लेकिन उद्देश्य क्या है? सच जानना। ये ध्यान है।
प्र२: आपने बोला दर्द इतना है जो इससे तो इलाज़ होगा नहीं। लेकिन इतना दर्द है, इतनी सारी चीज़ें हैं जो पेन (दर्द) दे रही हैं। मतलब लाइफ़ के अलग-अलग एस्पेक्ट्स में कहीं-न-कहीं इतनी सारी चीज़ें हैं, किसको-किसको इग्नोर करें, किसको देखें? तो कई बार वो भी उलझा देता है।
आचार्य: उन्हें पैसे देना बंद कर दो, वो पेन देना बंद कर देंगे। पेन भी इस दुनिया में कोई मुफ़्त नहीं देता, हम तो पेन खरीदते हैं। हम ऐसे कारीगर थोड़ी हैं कि एक तरफ़ की चोट खाएँ, हम दो तरफ़ा खाते हैं।
हम पहले बड़ी मेहनत करते हैं, पैसे वग़ैरह जमा करने की। और फिर उसी का इस्तेमाल करते हैं पेन , दर्द, दुख खरीदने के लिए। तुम्हारी ज़िन्दगी में जितनी भी समस्याएँ हैं, उनको निवाला बेटा तुम ही खिला रहे हो। तुम उनको खिलाना बंद करो, वो तुम्हारे साथ खेलना बंद कर देंगी।
कोई समस्या नहीं हो सकती आपकी ज़िन्दगी की जिसको आप पोषण न दे रहे हों फिर भी मौजूद हो। ठीक है? ग़ौर से देखिएगा, आपके समर्थन के बिना समस्या बचेगी ही नहीं।
देखो क्या होता है न, जब तुम्हारे अंदर ही कोई बीमारी बैठ गई हो, एकदम अंदर से पकड़ लिया हो बीमारी ने, तब जब तुम खाना भी खाते हो न, वो खाना तुमने किसको खिलाया?
प्र२: बीमारी को।
आचार्य: बीमारी को खिलाया। तुमने अपने लिए खुशी का प्रबंध किया, वो खुशी भी तुमने किसको दी?
प्र२: बीमारी को दी।
आचार्य: तो तुम अपने लिए जो भी कर रहे होते हो, तुम बीमारी के लिए ही कर रहे होते हो। तो बीमारी हटानी है तो अपने लिए कुछ भी करना बंद करना पड़ेगा। क्योंकि तुम बीमारी बन चुके हो, बीमारी 'तुम' बन चुकी है। अपने लिए जो भी कुछ करोगे, तुम बीमारी के लिए करोगे।
तो फिर तरीक़ा यही है; क्या? हम अपने लिए कुछ करेंगे ही नहीं। क्योंकि अपने लिए हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वो बस कहने को हमारे लिए है, वो हो किसी और के लिए रहा है। लग ऐसा रहा जैसे अपने लिए कर रहे हैं, पर वो जा किसी और की सेवा में रहा है। तो हम अपने लिए ही नहीं करेंगे।
जब तुम अपने लिए कुछ नहीं करोगे तो तुम बीमारी के लिए अनुपयोगी हो जाओगे, यूजलेस हो जाओगे, तो बीमारी भग जाएगी।
तो तुम्हें लगता है तुम बड़े सत्यप्रकाश हो, बीमारी दूर बैठी है। 'हम अपने लिए कर रहे हैं, बीमारी के लिए थोड़ी कर रहे हैं, बीमारी तो वहाँ बैठी है।' बीमारी वहाँ नहीं बैठी है, बीमारी अंदर बैठी है, तुम ही बीमारी हो। तो तुम अपने लिए करोगे माने किसके लिए करोगे?
प्र२: बीमारी के लिए।
आचार्य: तो मत करो।
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