मनुष्य वही जो मनुष्यता की सीमाओं के पार जाए || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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मनुष्य वही जो मनुष्यता की सीमाओं के पार जाए || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: सर, आपका एक विडियो था उसमें बोला था कि *बीइंग ह्यूमन इज़ इंटेलिजेंस, बिकॉज़ अदरवाइस इट इज़ कंडीशनिंग*और सर, मानुष जन्म का मतलब भी यही हुआ कि अभी में स्थापित हो गए,बीइंग इन नाउ। तो वो भी और यह भी एक हैं?

वक्ता: उसमें कहीं कोई अंतर दिख रहा है? कोई विरोध है?

श्रोता: सर, पहले में मुझको लग रहा है कि शाब्दिक अर्थ में ह्यूमन से..

वक्ता: देखिए बीइंग ह्यूमन , हमारे दिमाग में जब भी यह शब्द आएगा न ‘*ह्यूमन’*, तो एक छवि कौंधती है शरीर की। आपसे कहा जाए मनुष्य या ह्यूमन बीइंग तो तुरंत एक छवि आ जाती है न सामने? लेकिन जब आप वास्तव में ह्यूमन होते हो, उस समय आप भूल जाते हो कि आप ह्यूमन हो। उस समय आपको यह याद नहीं रह सकता, बात को समझिए। उस समय आप कुछ नहीं होते हो। यदि आत्म-चेतना बची हुई है तो सांसारिक चेतना भी बची है और फिर चेतना म्विन होने जैसा कुछ नहीं होगा।

आप गौर करिएगा, आपके ध्यान के गहरे क्षण में आपको यह बिल्कुल याद नहीं रहेगा कि आपका रूप, रंग, आकार क्या है? आपकी पहचान क्या है? आप हो कौन? *ह्यूमन बीइंग*का अर्थ बिल्कुल भी वो नहीं है जो आँखों के सामने चित्र उभरता है, कि एक मनुष्य शरीर खड़ा हुआ है, और उसका प्रमाण एक ही है- प्रमाण है ध्यान। प्रमाण यही है कि आप अपने आप से पूछें कि “जब वास्तव में गहरे उतरा होता हूँ, तब यह सब याद रहता है कि ‘कौन हूँ’? ‘कहाँ से आया हूँ’? भूल जाते हैं।

और मैंने कहा कि आत्म चेतना औरसांसारिक चेतनाएक साथ ही चलती हैं। कोई आपके सामने भी खड़ा है और उससे आपका सम्बन्ध वाकई आत्मिक है, वाकई; छिलके-छिलके भर नहीं है, सतह-सतह पर नहीं है। तो आप पाएँगे कि आपके लिए महत्वहीन होने लगेगा कि वो कौन है, बिल्कुल महत्वहीन होने लगेगा। क्योंकि ‘कौन’ से तो हमारा अर्थ ही होता है दुनिया भर के नाम, लेबल , रिश्ते, पहचानें; यह महत्वहीन होना शुरू हो जाएगा। ध्यान वाकई गहरा है तो आपके लिए यह भी महत्वहीन हो जाएगा कि सामने वालाह्यूमन बीइंग है या नहीं है और तब आप वास्तव में ह्यूमन हैं।

जब मनुष्य होने के भाव से छुटकारा मिल जाए, तब समझिए कि मनुष्य हुए।

मनुष्य वास्तव में वही; मनुष्य जन्म की सार्थकता वास्तव में उसको ही, जिसने मनुष्य होने के भाव से ही छुटकारा पा लिया।

और यह छुटकारा कुछ कर-कर के नहीं पाया जाता। आप बैठ कर साधना करते रहें तो उससे छुटकारा नहीं पाएँगे, यह तो सहज ध्यान का फल होता है। प्रेम की, एक होने की गहरी अनुभूति आप में चाहे किसी पदार्थ के लिए उठे, चाहे एक बिल्ली के बच्चे के लिए और चाहे किसी इन्सान के लिए, प्रेम जैसे-जैसे गहराता जाएगा वैसे-वैसे यह बात गौड़ होती जाएगी कि प्रेम का विषय क्या है?

अब प्रेम का विषय महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा, मन महत्वपूर्ण रह जाएगा, प्रेम आपके मन का माहौल बनता जाएगा, प्रेम मनोस्थिति है। जो सतही प्रेम होता है वो अलग-अलग विषयों के लिए अलग-अलग होता है, विषय अभी महत्वपूर्ण है।

जो गहरा प्रेम होता है वो एक होता है, विषय कोई भी हो।

फर्क नहीं पड़ता किसके प्रति है, एक है। रूप, रंग, आकार जब कीमती न लगें, जब उनकी ओर इतना भी ध्यान न जाए कि आप कहें कि ‘’कीमती नहीं हैं”, क्योंकि यह कहना कि “कुछ कीमती नहीं है” कम से कम उस वस्तु के होने का एहसास तो कराता है; चाहें आप कहें “कीमती है” चाहें आप कहें “कीमती नहीं है।”

जब यह विचार ही आना बंद हो जाए कि कीमती है कि नहीं है, बस आपकी मौजूदगी है, आपका होना है, आपकी सत्ता का सहज प्रस्फुटन है, सहज सम्बन्ध है उस समय कौन मैं और कौन तू? याद किसको है? दूसरे शब्दों में ऐसे भी कह लीजिए तुम ‘तुम’ ना होते कोई और भी होते, तो भी जो अभी घटना घट रही है वो ऐसे ही रहती क्योंकि वो व्यक्ति सापेक्ष है ही नहीं, उसमें हम बदल क्या देंगे? वो वैसा ही रहता और फिर उसका यह भी अर्थ है कि अभी जो है वो बस तुम्हारे लिए ही नहीं हो सकता, वो समष्टि के लिए है।

समष्टिके लिए है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे लिए कुछ कम हो गया। सूरज पूरी दुनिया को रौशनी दे रहा है इसका यह अर्थ नहीं है कि उसकी रौशनी आपको कम पड़ जाती है? तो

मनुष्य होने का वास्तविक अर्थ है– मनुष्यत्व की साधारण सीमाओं का अतिक्रमण।

हमें लगता उल्टा है, हम सोचते हैं- मनुष्य होने का अर्थ ही यही है कि सीमाओं में रहो। जो सीमओं में ही है, जो खंडित में ही है, जो नकली में ही जी रहा है उसने अभी क्या जाना मनुष्य होना?

श्रोता: सत्र शुरू होने से पहले एक विडियो चल रही थी जिसमें एक प्रश्न होता है कि *व्हेन वाज़ यूनिवर्स बोर्न*? तो आपने कहा है ‘नाउ’ और फिर बात आगे बढ़ी कि समय की निरंतरता एक झूठ है, अवधारणात्मक झूठ है। अभी हम बात कर रहे हैं कि प्रवाह ही सत्य है और प्रतिसत प्रतिपल मृत्यु, तो यह दोनों बातें एक साथ कैसे?

वक्ता: हमने कहा

जो प्रवाह को समझ लेगा, जो प्रतिपल मृत्यु को समझ लेगा, वो अमृत तक पहुँच जाएगा।

प्रवाह सत्य नहीं है, पर प्रवाह ही सत्य का द्वार है क्योंकि आपके पास जो साधारण उपकरण है जानने का, जिससे आपके जानने की बहुदा शुरुआत होती है, वो तो प्रवाह को ही देखता है। आप शुरुआत तो इन्द्रियों से ही करोगे, आप शुरुआत तो मन से ही करोगे, आपके जानने की शुरुआत तो इन्द्रियों से, मन से ही होगी वो प्रवाह को ही देखेंगे, आपकी आँख खुलेगी आपको वस्तुएँ और विषय यही सब दिखाई देगा। आपके कान सुनेंगे आपको शब्द ही दिखाई देगा, मन में विचारों के अलावा क्या उठेगा? शुरुआत तो यहीं से करोगे और चाहे वस्तुएँ हों, चाहें शब्द हों, चाहें विचार हों, यह सब प्रवाहमान हैं। इन्हीं प्रवाहों में जो गहरे उतर जाता है, जो ध्यान से देख लेता है उनको, वहीं उसे सत्य दिख जाता है।

अब यह बात थोड़ी सी मन को कठिन लगती है। यह कह दिया जाए कि जो भी कुछ इन्द्रिगत है, उसको छोड़ दो, जो भी कुछ बदल रहा है उसको छोड़ दो तो बात थोड़ी आसान लगेगी कि “चलो भाई, एक निष्कर्ष आ गया कि जो भी कुछ बदल सकता है उसको त्याग ही देते हैं, ठीक सिद्धांत मिल गया”। यह बात आसान लगती है, पर यह बात जितनी आसान है उतनी ही मुर्दा भी है, क्योंकि सभी कुछ तो बदल रहा है। क्या-क्या त्यागोगे? तुम्हारे हाथों में जो कुछ पकड़ में आएगा वो धूल ही होगा, धूल को कहाँ तक त्यागोगे? तो बात इसी लिए चुनने की नहीं है।

यहाँ पर हमारे पास यह सुविधा है ही नहीं कि हम चुन सकें कि जो कुछ भी बदल रहा है उसमें जीना है या जो स्थिर है, अकंप है, अचल है उसमें जीना है। दोनों जुड़े हुए हैं, जैसे बीज और छिलका, यहाँ चुनने का सवाल नहीं पैदा होता। एक से होकर ही दूसरे में प्रवेश किया जा सकता है। तुम कौन हो? ईमानदारी से इस बात का जवाब दोगे तो यही कहोगे कि “मैं वो हूँ, जिसके पास एक शरीर है, शरीर ही हूँ, शरीरधारी हूँ” यही जवाब है कि नहीं? शरीर से हमारा रिश्ता इतना गहरा है कि मुझे यह जवाब भी देना है तो तुम्हारे शरीर की ओर देखना पड़ रहा है। मैं किसी और दिशा में मुँह कर के यदि जवाब दूँ तो तुम्हें अटपटा लगेगा।

तो ईमानदारी से इस बात को मानिए कि हमारा बड़ा तादात्म्य है शरीर से, शुरुआत वहीं से करो। “ठीक है प्रतिपल बदल रहा है पर मैं तो इसी से जुड़ा हुआ हूँ और मुझे तो दिखाई भी नहीं पड़ता कि बदल रहा है और कोई आ कर के सिद्धांत भर सुना दे कि “यह ऐसा है और वैसा है और इसकी प्रकृति बदलने की है, उससे मुझे कोई बोध नहीं हो जाएगा। ठीक है, एक जानकारी मिल गयी, कोई बोध तो नहीं हो जाएगा। तो मैं वहीं से शुरुआत करता हूँ जो मुझे लगता है कि है, और मुझे लगता है कि मैं शरीर हूँ” ठीक है वहीं से शुरुआत करो।

अपनी आँखों से तो देखो न बदलना, उसके लिए श्रद्धा चाहिए, थोड़ा निर्भीक होना पड़ता है, क्योंकि जितना तुम बदलाव को देखोगे उतना तुम्हें यह समझ में आएगा कि जो भी कुछ तुम मानते हो झूठा है। मानना तो हमेशा ठहरा हुआ होता है न? और बदलाव का अर्थ ही है कि कुछ ठहरा हुआ नहीं है। तो बड़ी हिम्मत चाहिए यह स्वीकार करने के लिए कि बदला, कि बदला, कि बदल गया। जानते हो ‘सब बदल रहा है’ इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे पास कोई संपत्ति नहीं हो सकती, इसका अर्थ यह है कि तुम नितांत नंगे हो क्योंकि अतीत का तुम कुछ लेकर के आगे बढ़ ही नहीं सकते। जो अतीत का था वो गया, तो सम्पत्ति कैसे? कुछ इक्कठा किया ही नहीं जा सकता।

हिम्मत चाहिए अपने इस अकेलेपन में जीने के लिए, पर मज़ा भी बहुत है उसमें, खुमारी है। डर लगता है शुरू में, यह स्वीकार करने में कि जो है वो जाएगा, जा रहा है, थोड़ा भी नहीं ठहर रहा; पर ज्यों उसके निकट आते हो तो पाते हो कि “डर मुझे इस बात का नहीं रहता है कि जो मेरी संपदा है, जो मैं इक्कठा कर रखा है, चाहे स्थूल रूप में, चाहें स्मृति रुप में वो खो जाएगा। डर मुझे कभी संपदा के खोने का नहीं रहता है, डर हमेशा मुझे अपने खोने का रहता है।

पर खोने की इस प्रक्रिया के निकट आओ, साहस करके इसके निकट आओ, इसको देखो कि हाँ, खो रहा है; तो तुम्हें दो बातें दिखाई देंगी- पहला यह कि खो रहा है, इसमें कोई शक नहीं और दूसरा यह कि जो खो रहा है उसे खोने के बावजूद भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं रहा है। हम आम तौर पर दूसरी बात भूल जाते हैं, पहली याद रह जाती है कि खो जाएगा, वो ठीक है खो जाएगा; दूसरी याद नहीं रहती है। हमने पकड़े हुए के साथ अपने आप को इतना जोड़ रखा है कि हमें शक रहता है कि हमारे विचार खोएँगे, हमारी पहचान खोएगी तो हम भी खो जाएँगे, यह हमारा गहरे से गहरा डर है।

हमें लगता है “यह गया, वो गया, रिश्ते गए, नाते गए, ज्ञान गया, सब बदल ही रहा है अगर, तो मैं कहाँ बचा?” लेकिन नहीं बदलते हुए के पास आकर के इसी चमत्कारीक तथ्य का उद्घाटन होता है कि सब बदल रहा है, सब खो रहा है लेकिन फिर भी तुम नहीं खो रहे, तुम हो, वो एक नया ‘तुम’ होता है। वो, वो ‘मैं’ नहीं होता जो बदलने के साथ बदल जाए, वो एक नए ही ‘तुम’ होते हो, जिसके परितह, इर्द-गिर्दसब कुछबदल रहा है, पर वो अचल है। यह मन ने आत्मा को जाना।

मन आम तौर पर स्वयं को ही आत्मा माने रहता है, तो इसी कारण डरा रहता है। आत्मा माने सत्य, आत्मा माने मैं, मेरा होना। मन आम तौर पर यह ही माने रहता है कि जो है सो मैं ही हूँ, तो इसीलिए डरा रहता है। और यह मानने में तो उसे ख़ास तौर पर डर लगता है कि सब परिवर्तनशील है। “सब परिवर्तनशील है, तो मैं बचूँगा कैसे?” संतो ने आपसे कहा है- “परिवर्तनशीलता के तथ्य को निडर होकर जानो, स्वीकारो! जो जाता है उसे जाने दो, जो आता है उसे आने दो। जाने के बाद भी तुम बचते हो और कितना भी कुछ आता रहे उससे तुम्हारे होने में कुछ जुड़ नही जाता, तुम ‘तुम’ हो। पर यह बात मानसिक नहीं है, यह बात गहरे आत्मिक अनुभव की है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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