माया से बचने के दो तरीक़े || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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माया से बचने के दो तरीक़े || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में माया की प्रचुरता साफ़ दिखती है। यह सुना है कि माया को सक्षित्व से नियंत्रित कर लो। और यह भी सुना है कि माया को अवेयरनेस (ध्यान) के साथ भोगने से इससे बाहर आया जा सकता है। कृपा करके सत्य दिखाने का कष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: ये जो दोनों बातें हैं इनमें कोई अंतर नहीं है। जो साक्षी है, वही सम्यक भोग कर सकता है। हमने बात करी कि तुम अपनी पहचान याद रखो – मन नहीं हो, शरीर नहीं हो तुम। भोगने का काम शरीर का है और मन का है। उनका भी भोग अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित, उपद्रवपूर्ण तब हो जाता है जब तुम उनके साथ तादात्म्य कर लेते हो। तुम तादात्म्य नहीं करोगे तो वो भी सुव्यवस्थित तरीक़े से सम्यक भोग ही करेंगे।

उदाहरण समझना। शरीर भोजन माँगता है, पर जब तुम शरीर के साथ एक हो जाते हो तो तुम शरीर को उतना भोजन दे देते हो जितने कि उसको ज़रूरत भी नहीं है। जंगल चले जाओ, वहाँ सब जानवरों के लिए पर्याप्त भोजन है, पर वहाँ तुम्हें कोई मोटा जानवर नहीं मिलेगा। क्योंकि किसी जानवर को देह के माध्यम से शान्ति नहीं चाहिए। उसकी देह की अपनी एक व्यवस्था है, उसका वो पालन कर रहा है। शेर ने हिरण को मारा है, वो उतना ही खाएगा जितना उसको खाना है; बच जाएगा जो, वो छोड़कर चल देगा। फिर सियार वगैरह आकर के भक्षण करते रहते हैं। मैदान में बहुत सारी घास होगी, लालचवश कोई गाय पूरी घास नहीं चर लेगी। वो उतनी ही चरेगी जितनी उसके पेट को चाहिए और चली जाएगी।

आदमी का किस्सा दूसरा है। आदमी को जितना चाहिए वो उससे कहीं ज़्यादा का भोग करने लग जाता है। जब मैं कह रहा हूँ आदमी को कितना चाहिए, तो मेरा आशय है शरीर को कितना चाहिए। इसलिए तुम्हें आदमियों में मोटापा दिखता है।

जब तुम साक्षी हो जाते हो शरीर के तो तुम शरीर को छोड़ देते हो। अब शरीर उतना ही भोग करेगा जितना उसे करना है। नहीं तो तुम फिर कहते हो कि मैं शरीर हूँ, मुझे तृप्ति चाहिए तो मुझे फिर शरीर के माध्यम से तृप्ति चाहिए। तो भीतर की ये जो बेचैनी है उसको मिटाने के लिए तुम भोजन का सहारा लोगे। तुम सोचोगे खा-खाकर अंदरूनी बेचैनी मिट जाएगी। तुम कहोगे एक पिज़्ज़ा और लाओ।

बात ये है कि जीवन में कमी है बोध की और प्रेम की। जीवन में प्रेम नहीं है। और उस कमी को तुम पूरा किससे करना चाह रहे हो? पिज़्ज़ा खाकर के। अब पिज़्ज़ा खाकर के प्रेम तो नहीं ही मिलेगा, पेट इतना बड़ा निकल आएगा। हो गया न भोग ख़राब?

सम्यक भोग का मतलब ही यही होता है कि पेट पेट है, शरीर शरीर है और मैं मैं हूँ। उसके माध्यम से मुझे तृप्ति नहीं मिल सकती। पेट में अगर कुछ जाएगा तो उससे मुझे तृप्ति नहीं मिल जाएगी। तो पेट को उतना ही दो जितना पेट को चाहिए। पेट में और ठूँस दोगे या ज़बान को और स्वाद दे दोगे, तो उससे आन्तरिक बेचैनी मिट नहीं जाएगी।

तो साक्षित्व कहो और चाहे कहो सम्यक भोग, दोनों एक ही बात हैं। भोग असम्यक होता ही तब है जब साक्षी रहने की जगह तुम लिप्त हो जाते हो। एक तरह से देखो तो तुम्हारी नाक और तुम्हारे फेफड़े भी हवा का भोग कर रहे हैं, कर रहे हैं न? नाक और फेफड़े हवा को भोग रहे हैं कि नहीं? और वो जानते हैं कितना भोगना है, यही सम्यक भोग है।

पर अगर तुम्हें किसी तरह से ये धारणा हो जाए कि ज़्यादा हवा भोगने से इज़्ज़त ज़्यादा मिलेगी या ज़्यादा हवा भोगने से मन की बेचैनी दूर हो जाएगी, तो तुम सब ख़राब कर दोगे। तुम लगोगे साँस को ऊपर-नीचे करने, अव्यवस्थित करने। पूरी प्रक्रिया ख़राब कर दोगे। तुम साँस से दूर बैठे हो। तुम कह रहे हो साँस अपना काम कर रही है, मैं अपना काम कर रहा हूँ।

अभी तुम मुझे सुन रहे हो, ये तुम्हारा काम है। और साँस चल रही है, ये साँस का काम है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं। तुम साँस के साथ हस्तक्षेप नहीं कर रहे न? यही सम्यक भोग है। साँस को जितना भोगना है वो भोग रही है। तुम निर्लिप्त रह करके मुझे सुन रहे हो। ठीक? दोनों अलग हैं। अब सम्यक भोग हो रहा है। तुम अलग रहो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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