प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जीवन में आनन्द की परिभाषा हर रोज़ बदलती रहती है, हर पल भी बदलती रहती है। कई गुरु आये और चले गये, ऐसा क्यों कि किसी को भी मृत्यु से पहले परमानन्द नहीं मिल पाता? क्या परमात्मा ऐसा नहीं चाहता? या हमारे भ्रम हैं? बहुत ही उलझन है।
आचार्य प्रशांत: इतना कुछ अगर पता है, फिर जो प्रश्न है उसका समाधान भी पता होना चाहिए। आपने कहा, 'जीवन में आनन्द की परिभाषा हर रोज़ बदलती रहती है।' किसके लिए? आपने अपनेआप को जो बना रखा है उसके लिए। वो ही स्थायी नहीं तो उसकी परिभाषाएँ स्थायी कैसे हो जाएँगी!
जहाँ आप कहते हैं कि जीवन में आनन्द की परिभाषा हर रोज़ बदलती रहती है, इससे यही पता चलता है कि हमारा जीवन आधार के बिना है, केन्द्र के बिना है। किसी ऐसे सम्बल के बिना है जो कभी हिलता न हो, कभी डिगता न हो, कभी धोखा न देता हो। अन्यथा आनन्द की परिभाषा का रोज़ बदलना तो छोड़िए, आनन्द की परिभाषा का निर्धारण भी न सिर्फ़ असम्भव है, बल्कि एक अनौचित्य प्रयत्न है।
आनन्द जिन्होंने जाना उन्होंने कम-से-कम उसे परिभाषित करने की कभी कोशिश ही नहीं की। उनके पास एक परिभाषा नहीं थी और आप कह रहे हैं कि आपके पास अनन्त परिभाषाएँ हैं, ऐसी कि वो प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। आप तो उनसे कहीं आगे के ज्ञानी हो गये न। वो बेचारे तो मूढ़, खाली; वो बोले, 'आनन्द वो जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता', और आप कह रहे हैं कि, 'प्रतिपल मेरी परिभाषा बदल रही है।' ये तो ऐसा हो गया कि कोई कहे कि सामने ज़मीन ही नहीं है, और कोई दूसरा आकर कहे कि मैंने यहाँ पर दस मंज़िला भवन खड़ा कर दिया है।
उन बेचारों को तो परिभाषित करने के लिए ज़मीन ही नहीं मिली, मैं इनकी बात कर रहा हूँ (बुद्ध पुरुषों की तस्वीर की ओर इशारा करते हैं), और आपने वहाँ पर दस मंज़िला भवन खड़ा कर दिया है। जिज्ञासा करना ज़रूरी है कि वो भवन किसने खड़ा कर दिया। जिज्ञासा करना ज़रूरी है कि कौन है जो आनन्द को न सिर्फ़ परिभाषित किये हुए है बल्कि वस्तुओं के सन्दर्भ में परिभाषित किये हुए है।
वस्तुएँ ही बदलती हैं, मन ही बदलते हैं, मन के ही रंग हैं जो प्रतिक्षण ऊपर-नीचे, दायें-बायें होते रहते हैं। कौन है जिसने आनन्द को वस्तुओं से, संसार से, विचारों से और घटनाओं से जोड़कर रख दिया है? आनन्द वो जो न आये न जाए, जिसका किसी घटना से कोई लेना-देना न हो। ऐसा नहीं है कि आपको सुहाती हुई कोई ख़बर आयी और आपने कहा मैं आनन्द विभोर हो गया, और दिल दुखाती कोई ख़बर आयी और आपने कहा मेरा आनन्द चकनाचूर हो गया। ये कोई आनन्द नहीं है। ये तो सामान्य सुख-दुख का क्रम है। इसे आनन्द कहना ही भूल है।
आगे आप कहते हैं, 'कई गुरु आये और चले गये।' ज़ाहिर सी बात है, क्या कर पाएँगे बेचारे! गुरु रास्ता दिखा सकता है, आमन्त्रण दे सकता है, गीत गा सकता है, रिझा सकता है, मना सकता है, यहाँ तक कि विनीत होकर के आपके पाँव पकड़ सकता है कि सुन लो, मान जाओ। पर मानना या न मानना तो आपके हाथ में है न, गुरु बेचारे क्या कर लेंगे! गुरुओं को तो छोड़िए, परमात्मा भी क्या कर लेगा? आप बदल पायें, कोई वास्तविक तरक्क़ी हो पाये, अन्दर सत्य के लिए द्वार खुलें, उसके लिए आपकी सहमति आवश्यक है, आपको 'हाँ' बोलना पड़ेगा, आपको प्रयत्न करने के लिए राज़ी होना पड़ेगा। और आप राज़ी हों ही न, तो गुरु बेचारा क्या ज़बरदस्ती करेगा, ज़बरदस्ती तो परमात्मा भी नहीं करता।
आप अगर किसी दस मंज़िली इमारत से नीचे कूद पड़ें तो परमात्मा का हाथ आकर आपको बचा नहीं लेता। आपने कहा है कि आपको कूदना है तो परमात्मा कहता है, ‘कूद गये तुम, अब गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त काम करेगा, अब अगर तुम्हारी हड्डियाँ टूटनी हैं तो टूटेंगी।’ परमात्मा भी नहीं बचा सकता क्योंकि वो स्वयं प्रकृति के नियमों के ख़िलाफ़ कभी जाता नहीं, जादू इत्यादि करना उसका धन्धा नहीं। आपके साथ वही होगा जो आप चाहेंगे, इसमें गुरु, दैवीय इच्छा, ईश्वर, या परमात्मा के लिए कोई स्थान नहीं है। उनका बुलावा तो निरन्तर है, अनवरत है। आप सुनते हैं या नहीं, आप उसका मान रखते हैं या नहीं, ये आपको तय करना है।
फिर आपने कहा, 'किसी को भी मृत्यु से पहले परमानन्द क्यों नहीं मिल पाता?' अगर किसी को भी मृत्यु से पहले परमानन्द नहीं मिल पाता, तो फिर वो सारे गुरु झूठे रहे होंगे। अगर किसी को नहीं मिल पाता तो फिर उन गुरुओं को भी नहीं मिला होगा न। देखिए कि कैसे आपने वक्तव्य दिये, आप कहते हैं, 'कई गुरु आये और चले गये', फिर आप कहते हैं, 'किसी को भी मृत्यु से पहले परमानन्द नहीं मिल पाता।' किसी को नहीं मिल पाता, इतना यदि आपने व्यापक वक्तव्य दे दिया, तो आपने तो कह दिया कि गुरुओं को भी नहीं मिला, निसन्देह फिर वो यूँ ही छद्म गुरु थे।
सर्वप्रथम तो मानिए कि जिन्हें मिलना था उन्हें मिला, और जिन्हें वंचित रह जाना था वो वंचित रह गये। बारिश हुई, जिनकी प्यास तृप्त होनी थी, हुई, और जिन्हें सूखा और प्यासा रह जाना था, वो रह गये। अपनी मनोस्थिति को दूसरों के ऊपर प्रक्षेपित मत करिए।
यदि आपका ये कथन सत्य है, तो फिर तो न कोई कृष्ण न कोई राम, न कोई जीसस न कोई नानक, न कोई कबीर न कोई अष्टावक्र; सब बस यूँ ही थे। पहले तो मानिए कि हाँ, कुछ थे जिन्हें मिला, तब आपके भीतर ये प्रश्न उठेगा, ‘तो फिर मुझे क्यों नहीं?’ आप यदि कहें कि किसी को मिलता ही नहीं, तो फिर तो आप कह रहे हैं कि न मिलना ही नियम है, ऐसा नियम जिसका कोई अपवाद भी नहीं। और यदि न मिलना ही नियम है तो फिर आप पाने के लिए उतावले क्यों हो रहे हैं? नियम विरूद्ध तो कोई नहीं जा सकता।
सबसे पहले तो विनीत होकर के ये स्वीकार करिए कि हाँ, मिलता है, बहुतों को मिलता है, मेरी झोली में नहीं आ रहा। जब आप कहेंगे कि आपकी झोली में नहीं आ रहा तो आपको दृष्टि अपनी ओर मोड़नी पड़ेगी, फिर अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि मुझमें क्या कमी रह गयी, या मुझमें क्या अधिक रह गया।
कमी-भर से नहीं होता, आधिक्य अहंकार की ज़्यादा बड़ी चाल होती है, और आधिक्य ही यहाँ दिख रहा है। किसका? ज्ञान का, अभिमत का, धारणाओं का। आप बहुत सारी बातों को माने बैठे हैं, जब तक उन बातों को छोड़ेंगे नहीं तब तक वो जो सहज उपलब्ध है, होगा ही नहीं।
फिर आप कह रहे हैं कि क्या ये परमात्मा नहीं चाहता कि किसी को मृत्यु से पहले परमानन्द नहीं मिले? परमात्मा को क्या पड़ी है लुका-छिपी खेलने की। परमात्मा को क्या पड़ी है हाथ रोककर देने की! आप नहीं चाहते। और जब मैं कहूँ, ‘आप नहीं चाहते’, तो इस कथन को बहुत सूक्ष्मता से सुनने की ज़रूरत है। आप परमानन्द नहीं चाहते क्योंकि आप परमानन्द की अपेक्षा बहुत कुछ और चाहते हैं।
अभी यहाँ का माहौल कुछ ऐसा है, सात्विक है, सत्संग चल रहा है, तो आपने परमानन्द पूछ लिया, अन्यथा कभी आपके साधारण दैनिक क्रम में आपसे पूछा जाए कि बताइए अपनी दस चाहतें, बताइए दस बातें जो आप चाहते हों — दस व्यक्ति, दस वस्तुएँ, दस घटनाएँ, दस कुछ भी — उनमें कहाँ आएगा परमानन्द का स्थान? कोई कहेगा नया टीवी चाहिए, कोई कहेगा मुकदमे में जीत चाहिए, कोई कहेगा नयी दुकान खुलनी चाहिए, कोई कहेगा बीवी की अक्ल ठिकाने लगानी है, बड़ी-बड़ी चाहते हैं, बेटे की नौकरी लगवानी है, बिटिया की शादी करवानी है, ऐसी ही तो चाहतें होती हैं। आपने किसी को व्याकुल देखा है बाज़ार में परमानन्द के लिए?
जो चाहते हो, सो मिलता है।
परमानन्द तो छोड़ो जैसे कि आनन्द की भी कोटियाँ होती हों — निम्न आनन्द, मझौला आनन्द, फिर परमानन्द; एक बात करें आनन्द की। आनन्द हमारी वरीयता में कहीं आता है? कितने दिन लगाये आनन्द के ऊपर? और कितने दिन लगाये थे उस मकान को खड़ा करने में? बताओ। कितना व्यय किया आनन्द के ऊपर? और कितना व्यय करते हो घर पर, परिवार पर, लड़कों पर, बच्चों पर? मन में निरन्तर क्या चलता रहता है — ये प्रश्न कि आनन्द क्यों नहीं उपलब्ध, या ये कि तेल के दाम कब गिरेंगे? जो चाहते हो वो मिलता है।
परमानन्द की कोई विशेष चाह नहीं होती, जब तुम ध्यानपूर्वक अपनी सभी चाहों की निस्सारता देख लेते हो, जब जान जाते हो कि ये इतनी भी क़ीमती नहीं कि चौबीस घंटे दिमाग में घूमें, तो उस देखने को ही आनन्द कहते हैं। जहाँ तुमने जाना कि वो सबकुछ जो तुम चाहे बैठे हो, वो सबकुछ जिसकी न प्राप्ति की चोट खाये बैठे हो, वो सबकुछ जिसकी उपलब्धि की आशा बिठाये हुए हो, वो सबकुछ बस यूँ ही है। सापेक्ष जगत में कुछ मूल्य है उसका, पारमार्थिक तौर पर, वास्तविक तौर पर उसमें कोई मूल्य नहीं है, कामचलाऊ है। कुछ ऐसा नहीं उसमें कि हीरे-जवाहरात जड़े हुए हों, कुछ ऐसा नहीं उसमें कि उसके ऊपर जीवन क़ुर्बान कर दिया जाए, तब मन शान्त होकर के बैठ जाता है। उस शान्ति को ही आनन्द कहते हैं, चाहो उसे तो परमानन्द कह लो।
अपनी चाहतों के पीछे जब दीवानापन छोड़ देते हो, तो बौराये मन को, तनावग्रस्त मन को, हाँफते मन को, शताब्दियों से न सोये मन को विश्राम मिलता है। उसी को आनन्द कहते हैं। मन की सहज स्थिति है आनन्द, और मन को तो अपनी सहज स्थिति में रहना ही है। किसको पसन्द है कि वो दिन-रात हाँफे और पसीना बहाये!
मन तो नौकर है तुम्हारा, उसको तुम दौड़ाये हुए हो कि जा और बाज़ार से आनन्द ख़रीदकर ले आ। वो कहता है, ‘बाज़ार में नहीं मिला’, तो तुम कहते हो, ‘जा मोहल्ले-पड़ोस में कहीं और खोज, वहाँ मिलेगा।’ वो कहता है, ‘वहाँ भी नहीं मिला।’ तुम कहते हो, ‘अच्छा! फिर अब बाज़ार चला जा, क्या पता अब आ गया हो माल।’ कहता है, ‘वहाँ भी नहीं मिला’, तो कहते हो, ‘चलो, दूसरे बाज़ार चले जाओ, अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार चले जाओ।’ वो कहता है, ‘वहाँ भी नहीं मिला।’ और फिर मन आकर के हाथ जोड़ता है, कहता है, 'स्वामी, नहीं मिल रहा है', तो बोलते हो, ‘अरे अरे अरे! थोड़ी चूक हो गयी थी बताने में, अब ऐसा कर पहाड़ चला जा, वहाँ फ़लाने झरने में बह रहा है आनन्द, भर ला।’
फिर वो बेचारा जाता है, तुम्हारा हुक्म बजाता है, जो मँगाते हो लेकर आता है, उसमें भी आनन्द नहीं। तो कहते हो, ‘अब ऐसा करते हैं, कोई लड़की खोज ला, शादी कर लेते हैं। क्या पता वहाँ छुपा हो आनन्द!’ तो मन तो चाहता है कि शान्त हो जाये, मन तो चाहता है कि उसे इस व्यर्थ की दौड़-धूप से मुक्ति मिले, पर तुम ये मानने को तैयार तो होओ पहले कि जहाँ-जहाँ तुम उसे भेज रहे हो, वहाँ वो है नहीं जो तुम चाहते हो।
तुम गम्भीरता से अपनी चाहतों को, अपने खेल को, अपनी क्रियाओं को, अपने जीवन को, अपने पूरे चित्त को लेते ही इसीलिए हो क्योंकि तुम्हें बड़ा दम्भ है। तुम सोचते हो कि तुम जानते हो, तुम सोचते हो कि तुम्हें पता है। एक जो तुमने बड़ा भ्रम पाल रखा है, और उसको लेकर के भरोसा तुम्हारा बहुत मज़बूत है, वो ये है कि आनन्द और खुशी एक-दूसरे के पर्याय हैं। जो कुछ तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल बैठता है, उसमें तुम प्रसन्न हो जाते हो। और जब प्रसन्नता मिलती है — और प्रसन्नता मिलेगी, कोई नहीं है जिसका जीवन प्रसन्नता से बिलकुल खाली हो, क्योंकि कोई ऐसा नहीं जिसका जीवन दुख से बिलकुल खाली हो। दुख लगातार तो चल नहीं सकता, दुख तुम्हें अनुभव हो इसके लिए बीच-बीच में खुशी चाहिए। तो बीच-बीच में खुशी सबको मिलती रहती है, जैसे जेल में कैदी को खाना, एकदम ही नहीं दिया तो मर ही जाएगा, फिर कैद किसको करोगे! और उस खुशी को, दुख के उस क्षणिक अभाव को तुम आनन्द का नाम दे देते हो। वो क्षणिक है, चला जाता है, दुख फिर आ जाता है, तुम कहते हो, ‘अरे!’ ये नहीं देखते हो कि जिन-जिन दुकानों पर तुम आनन्द को तलाश रहे हो, वहाँ प्रसन्नता तो मिल सकती है, वहाँ उत्तेजना तो मिल सकती है, आनन्द नहीं मिलता।
आनन्द किसी दुकान पर नहीं मिलता। आनन्द इस बोध का नाम है कि आनन्द किसी दुकान पर नहीं मिलता।
हमारा जीवन दुकानों से ही पटा हुआ है। कभी इस द्वार दस्तक देते हो, कभी उससे जाकर पूछते हो, ‘तेरे पास क्या है?’ ये सब कर-करके अपने लिए थोड़ा-बहुत सुख ले आते हो। सुख जाता भी है तो स्मृति में अपनी छाप छोड़ जाता है, तुम्हें आशा से भरकर जाता है सुख। तो सुख तो नहीं है, पर सुख की आशा है। वो तुम्हें दुख में भी जिलाये रखती है, तुम जिये जाते हो, पर आदत नहीं बदलते अपनी।
दुख का निरन्तर ही अभाव हो जाए वो नौबत नहीं आने देते, जैसे दुख से प्रेम हो गया हो, जैसे दुख से नाता जोड़ लिया हो। अल्पकालीन विश्राम मिल जाए तुम्हें दुख से — इतना तो झेल लेते हो, दुख सर्वथा ही और सर्वदा ही मिट जाए — इसकी नौबत ही नहीं आने देते। जो कुछ करते हो, ऐसा ही करते हो जो कुछ समय चलेगा, और फिर फिस्स।
सुख के नाम पर अपने लिए दुख का ही प्रबन्ध करते रहते हो। आनन्द ये समझ जाने का नाम है कि सुख-दुख के खेल में न शान्ति है न तृप्ति है। ये दोनों मेहमान हैं, इन्हें मेहमानों की तरह रखो, इनसे मोह मत जोड़ लो, इनसे नाता मत जोड़ लो। ये आयें, इनको आतिथ्य दो, और नियत समय पर इन्हें विदा होने दो। जब मेहमान विदा हों तो पीछे शोक मत मनाना। सुख आया, ठीक है, सुख के दिन चल रहे हैं, आया है तो विदा भी होगा। जैसे आते हुए उसका स्वागत किया था, वैसे ही जाते हुए भी विदाई दो।
और मन खाली तो रहने तुम देते नहीं, सुख गया है तो तभी जब दुख आया होगा, एक और मेहमान आ गया, आपका भी स्वागत है, बैठिए, क्या लेंगे? और फिर दुख का भी वक़्त आएगा, वो भी चला जाएगा। जब न तुम सुख से प्रभावित हो जाते हो, न सुख में बह जाते हो न दुख में बह जाते हो, तो तुम आनन्दित कहलाते हो।
सुख के रहते हुए भी सुख के नीचे है आनन्द, और घोर दुख के रहते हुए भी दुख के नीचे है आनन्द। आनन्द वो मेहमान नहीं जो घर में आये और चला जाए। आनन्द तुम्हारे घर की बुनियाद है। जब तक घर है, तब तक जान लो उसके नीचे बुनियाद होगी ज़रूर। घर ढह भी जाये तो भी बुनियाद नहीं ढहती। घर में लोग आते-जाते रहते हैं, वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, दीवारों के रंग बदलते रहते हैं, बुनियाद थोड़े ही बदलती रहती है। और बहुत मुश्किल काम नहीं है ये देख पाना।
एक-एक बात जो मैंने बतायी, वो साधारण जीवन की है, आम अनुभव की है। चूँकि वो बात मुश्किल नहीं है, इसीलिए जिन्हें देखनी थी, उन्होनें खूब देखी। आईन्दा ये कभी मत कहना कि आनन्द की अनुभूति किसी को होती ही नहीं। जिन्हें आनन्द मिलना था, उन्हें छप्पर फाड़कर मिला, देने वाले ने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। अपने मन की ओर देखो, जीवन में तुमने जिन चीज़ों को केन्द्र बना रखा है, जिन बातों को सर्वोपरि रखा है, उनको देखो। उनको देखोगे तो समझ जाओगे कि किन झंझटों में फँसने के कारण तुमने अपने ही आनन्द को अनुपलब्ध कर रखा है।
जैसे कि अपने ही घर में दवाई सामने मेज़ पर रखी हो, लेकिन पचास झंझटों से फुरसत मिले तब न। जैसे मेज़ पर भी न रखी हो, जेब में रखी हो, पर हाथ में हो शराब की बोतल, और फिर हम कहें, ‘दवाई कहीं मिलती नहीं, और दवाई चूँकि मिलती नहीं, तो उसके दर्द में हम शराब पीते हैं।’ शराब रखो, हाथों को ज़रा छूट दो। जेब तो फिर भी दूर है, आनन्द यहाँ पर है। और दवाई के लिए तो हाथ चाहिए, उसको पाने के लिए तो हाथ भी नहीं चाहिए। तुम बस अपने नशों से बाज़ आओ। होश में जीने का ही दूसरा नाम आनन्द है। आनन्द कोई चहकती हुई अवस्था नहीं है, आनन्द कोई विशेष अवस्था नहीं है। तुम बौराये नहीं हो, तुम पगलाये नहीं हो, तुम स्वस्थ हो, तुम पहाड़ पर बहती गंगा जैसे हो — यही आनन्द है।