क्या अधिक पैसा बंधन है?

Acharya Prashant

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क्या अधिक पैसा बंधन है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या हमें सिर्फ़ इतना कमाना चाहिए कि जिससे मात्र पेट भर सके? क्या इससे अतिरिक्त पैसा बंधन है?

आचार्य प्रशांत: तुमने कहा ज़्यादा कमाना नहीं; ज़्यादातर लोग ज़्यादा नहीं कमाते। पर वो ज़्यादा क्यों नहीं कमाते? क्या इसलिए कि वो संन्यस्थ हैं? या इसलिए कि तेजहीन हैं, प्रतिभाहीन हैं, श्रमहीन हैं, बताओ तो मुझे।

तुमने कहा ज़्यादा कमाना नहीं; ज़्यादातर लोग ज़्यादा नहीं कमाते, पर ज़्यादातर लोग जो ज़्यादा नहीं कमाते हैं क्या इसलिए नहीं कमाते ज़्यादा क्योंकि उनको धन से विरक्ति हो गई है? क्या वो दौड़ से बाहर हो गए हैं? या ऐसा है कि वो हैं तो दौड़ में ही, पर ऐसे अकर्मण्य हैं कि दौड़ में रहते हुए भी दौड़ नहीं पा रहे हैं।

पिछले साल की बात है, मैं एक दिन एक शॉपिंग मॉल में गया। एक स्वयंसेवी मेरे साथ था। हम शॉपिंग मॉल में घुसे, वह स्वयंसेवी ड्राइव कर रहा था, तो जहाँ पर पार्किंग का टिकट कटना था वहाँ पर उसने (टिकट काटने वाले व्यक्ति ने) कुछ युक्ति करके तीस रुपए की जगह पचास रुपए का काट लिया। चलो ठीक है, दिया उसको। जो वहाँ पर बैठा हुआ था वो, वो था जिसे आप अपनी भाषा में कहोगे ‘साधारण आदमी’; एक साधारण आदमी जो कि टिकट काटने के लिए बैठा है पार्किंग का।

फिर हम अंदर गए, वहाँ एक दुकान थी जहाँ से हम कुछ मूर्तियाँ लेना चाहते थे। और उन मूर्तियों के जो दाम वहाँ लगाए जा रहे थे वो ज़ाहिर सी बात थी, बहुत स्पष्ट था, कि धोखाधड़ी के दाम हैं। जो चीज़ हजार की न हो, वो छह हजार की। वहाँ से जब बाहर निकले तो मैंने उस स्वयंसेवी से कहा, मैंने कहा कि देखो तुम, तुमको मॉल में घुसते हुए जिसने लूटने की कोशिश की वो एक तथाकथित छोटा आदमी है और मॉल के अंदर तुम्हें जो दुकान लूट रही है वो तथाकथित रूप से एक बड़ा आदमी है। ये दोनों एक हैं, इन्हें तुम अलग-अलग मत समझना। इनमें से किसी एक को छोटा समझ के उसके साथ सहानुभूति में मत आ जाना, ये दोनों एक हैं। बस ये है कि दौड़ में एक ज़रा आगे है, एक ज़रा पिछड़ा हुआ है।

दौड़ एक है दोनों की; धारणा एक है, वृत्ति एक है दोनों की। इनमें से दोनों में से कोई ऐसा नहीं है जिसका पैसे से मन उठा हुआ हो, जिसका लूटने से मन उठा हुआ हो, जिसका ठगने से और हिंसा से मन उठा हुआ हो। ये आदमी जो आज बाहर तुमसे तीस से पचास कर रहा है, इसको मौका मिले तो कल ही अंदर बैठा हुआ होगा और तीस-पचास की जगह तीन हजार-साठ हजार कर रहा होगा।

सिर्फ़ इसलिए कि कोई दो रोटी खाता है, सादा जीवन जीता है, उसे श्रेय मत दे दीजिएगा। सवाल ये नहीं होता कि आपके पास कितना है, सवाल ये होता है कि आपके पास जो भी कुछ है उससे आपका संबंध क्या है। पाना-खोना तो चलता रहता है, जो पाया उससे रिश्ता क्या था? जो खोया उससे रिश्ता क्या था? ये ज़रूरी बात है।

ये आदर्श बनाओ ही मत कि ये सादा रखना है, वो सादा रखना है, कम में जीना है। प्रकृति को देखो अपने चारों ओर, वहाँ तुम्हें बहुत कुछ ऐसा भी मिलेगा जो बहुत छोटा है, क्षण-भंगुर है, और वहाँ तुम्हें बहुत कुछ ऐसा भी मिलेगा जिसकी महत्वाकांक्षा का कोई ठिकाना नहीं। मोर को देखो कैसा अघाया रहता है अपने पंखों में, रंगों में। कभी इंद्रधनुष को देखो। ये लोग तुम्हें अल्पाहारी लगते हैं क्या? ये तो वो हैं जो इतरा रहे हैं। ये तो वो हैं जिन्हें नाज़ है अपने सौंदर्य पर। ये सीमा थोड़ी लगा रहे हैं जीने पर।

छोटे-छोटे कीड़े भी हैं प्रकृति में, दो दिन जीते हैं मर जाते हैं। इसी में उनका सौंदर्य है, क्षणभंगुरता में। लेकिन इतना ही भर नहीं है प्रकृति में, और भी बहुत कुछ है जो वृहद है, विशाल है। हिमालय को देखो, तुम्हें लगता है कि वो विनम्र होकर झुक जाना चाहता है? वो तना खड़ा है और इतना कुछ लिए हुए हैं, धारण किए हुए है। जब हिमालय को लाज नहीं आ रही तन कर खड़े होने में, तो तुम्हें क्यों तन कर खड़े होने में लाज आती है?

बिलकुल ठीक है कि साधारण मिट्टी और बालू भी बहुत है अस्तित्व में, पर हीरों की और सोने-चाँदी की खदानें भी तो हैं। तुम किसी भी पक्ष से कन्नी मत काटो। ‘कोई दिन लाडू कोई दिन खाजा, कोई दिन फाकम फाका जी’। कभी लड्डू, कभी खाजा और कभी फाकम फाका। ठीक?

लगातार निर्धनता में रहने का व्रत भी सुरक्षा की ही माँग है। तुम चाहते हो एक सा जीवन जियो। कैसा जीवन? कि, "हम तो लगातार साधारण ही बने हुए हैं, हम तो लगातार निर्धन ही बने हुए हैं", क्यों भाई? गर्मी आती है घास बिलकुल सूख जाती है, धरती फट जाती है और बारिश आती है वहाँ पर घास लहलहा उठती है। उसने कोई व्रत नहीं ले रखा है एक सा ही रहे आने का।

कभी हो जाओ बिलकुल गरीब, कि एक तृण भी नहीं है तुम्हारे पास, और कभी लहलहा उठो हरीतिमा से, सब कुछ है मेरे पास, हर तरफ हरा हूँ। जब बंजर रहो, सूखे रहो तब सूखेपन से कोई आसक्ति नहीं होनी चाहिए; जब बूंदें पड़े, बारिश पड़े तो दोबारा हरे रहने के लिए तैयार रहना। और जब हरे हो तो पता होना चाहिए कि दो-चार दिन की बात है बारिश जाएगी, ये हरीतिमा भी जाएगी।

एक धनी आदमी है वो बड़ा सजग है कि, "मेरा धन न खो जाए", और एक साधारण आदमी है वो बड़ा सजग है कि, "मेरा साधारण होना न खो जाए।" दोनों में कोई अंतर हुआ क्या? बोलो, दोनों में कोई अंतर हुआ? दोनों को ही जिस चीज़ की आदत पड़ गई है, लत पड़ गई है उसी में जीना चाहते हैं।

मैं एक बच्चे को जानता हूँ। उसकी गणित ज़रा कमजोर थी। कभी उसके साठ नंबर आएँ, कभी पैंसठ। बहुत करे तो सत्तर आ जाएँ। तो मैंने उसको महीने-दो महीने पढ़ाया। साधारण सी गणित थी और बच्चे में प्रतिभा थी तो सीख गया, जान गया। परीक्षा के दिन आता है, मैंने पूछा, "कितना किया?" बोला, "खूब किया, बढ़िया किया।" मैं प्रसन्न हुआ, मैंने कहा "दिखाओ!" दिखाया। मैंने कहा, "ये तो सवाल सब करे हुए हैं, कैसे लगे?" बोले, "सब बढ़िया, आते थे।" मैंने कहा, "तो पूरा करके आए न?" बोला, "नहीं, तीन घंटे का पर्चा था, दो ही घंटे में पचहत्तर अंक का कर दिया। पहले तीन घंटे में पचहत्तर करता था इस बार आपने तैयारी कराई थी तो दो ही घंटे में पचहत्तर का कर दिया। तैयारी से फायदा तो हुआ ही। बस हो गया।"

आदत लगी हुई है पचहत्तर पर रुकने की। प्रगति हुई है पर प्रगति कैसे हुई है? कि पहले पचहत्तर तीन घंटे में पहुँचता था अब पचहत्तर दो घंटे में पहुँच गए, पर पचहत्तर हो गया न, इससे आगे थोड़ी ही जाना है। लेकिन अध्यात्म ने आमतौर पर दूसरे पक्ष की बात करी नहीं है। दूसरा पक्ष ये है कि देखो हमें अपनी गरीबी से, अपनी हीनता और दीनता से कितनी आसक्ति रहती है। वो आसक्ति नहीं मानेंगे क्या आप? कि दो घंटे में पचहत्तर हो गया तो आगे अब करूँगा ही नहीं। इससे ज़्यादा कौन माँगे? ‘संतोषम् परमं सुखम्’; इन चक्करों में मत फँसना।

ऊँचे से संबद्ध हो जाना तो तादात्म है ही, जाल है ही: ऊँची ख्वाहिश रखना, महत्वाकांक्षा रखना; साधारण से संबद्ध हो जाना, निचले के फेर में फँस कर रह जाना वो भी महा-आसक्ति है, महा-तादात्म है। और वो ज़्यादा खतरनाक है क्योंकि उसमें तुम्हें आलस की सुविधा है।

एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति होता है उसे अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए कम-से-कम मेहनत तो करनी पड़ती है, और अध्यात्म के नाम पर हम कह देते हैं कि नहीं साहब! दो रोटी खाकर काम चल जाएगा। पहली बात तो ये कि तुम्हें दो रोटी की स्थिति से ही लगाव हो गया है और दूसरी बात ये कि उस दो रोटी के लिए तुम्हें कोई बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ती तो तुम्हें खूब सुविधा है। गरीबी से पहचान मत बैठा लेना, आईडेंटिफिकेशन हर तरह का गड़बड़ होता है।

ईश्वर से शब्द निकला है ऐश्वर्य, प्रभु से शब्द निकला है प्रभुता, और ये सब महाविलास के शब्द हैं, ये सब सौंदर्य और रास के शब्द हैं। परमात्मा को देखो, तुम्हें लगता है कि वो आसानी से संतुष्ट हो जाने वाला कोई है? देखो, फूलों को कैसे रंग दे रहा है, जैसे पगलाया हुआ बच्चा, जिसे संतोष ही ना होता हो। यहाँ तमाम तरह के पक्षी होंगे, पक्षियों को देखना और तुम हैरान रह जाओगे कि ये करा किसने? इतने रंग एक ही छोटे से जीव में! आँख किसी और रंग की है, परों पर पाँच-छह रंग छितरा दिए हैं। ये तो कोई बहुत ही मनचला चित्रकार है।

जब परमात्मा आसानी से संतुष्ट नहीं हो जाता तो तुम क्यों आसानी से संतुष्ट हुए जा रहे हो? तुमसे किसने कहा है कि तुम एक आधा-अधूरा, अध-कचरा, गुनगुना सा जीवन जियो? वो कभी थमता नहीं है लगातार परिवर्तित करता रहता है, तुमसे किसने कहा है कि तुम परिवर्तन से डरो?

आमतौर पर तुम देखोगे कि जितनी चीज़ों का तुम विरोध करते हो नैतिकता के नाम पर, परमात्मा उन सब में उतरा हुआ है। जो-जो तुम्हें गलत और बुरा लगता है परमात्मा ठीक वही-वही कर रहा है। तुम जिस-जिस चीज़ के ख़िलाफ हो वो सारी चीज़ें परमात्मा को अति प्रिय हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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