प्रश्नकर्ता: शिविर से आने के बाद जो प्रक्रिया बताई गयी थी, उसका पालन ईमानदारी से किया गया। ऐसे बहुत से क्षण आये जब लगा कि जो शांति की स्थिति है, वो जा रही है। कई बार विचारों ने घेरने की कोशिश की, पर फिर मन शान्त हुआ और पुनः ध्यान में आया।
कई ऐसे दिन आये जब लगा कि बड़ी मुश्किल स्थिति है, पर पता नहीं कैसे सब होता चला गया, शान्ति से सब ठीक होता गया। पहले जो चीज़ इच्छाशक्ति से होती थी, प्रयास करना पड़ता था अब सहजता से सब हो रहा है। ध्यान की स्थिति एक अलग ही आनंद देती है। कई बार सवाल उठते हैं पर फिर अपने आप खत्म हो जाते हैं। विचारों का द्वन्द्व होता है पर लगता है ये भी चला ही जाएगा।
आचार्य प्रशांत : जो प्रक्रिया बताई गयी थी वो अनवरत चले। एक माह ही इसलिए बोला गया था, क्योंकि बहुत दूर की बात करना पास की बात से बचने का बहाना बन जाता है। तो नहीं कहा गया तुमसे कि अनन्त-काल तक प्रक्रिया का पालन करो। एक माह में तुमने अनुभव किया है, स्वाद लिया है, रस लिया है। अब जो तुमने जाना है, वही तुम्हारी प्रेरणा बननी चाहिए। पहले मेरे कहने पर तुमने प्रक्रिया का पालन किया, अब अपने बोध से करो। अगर वाकई प्रक्रिया के प्रति ईमानदार रहे हो, अगर वाकई प्रक्रिया सफल रही है तो वो स्वयं ही रुकेगी नहीं।
जानते हो ये सब प्रक्रियाएँ कैसी होती हैं? कि जैसे पिंजड़े में बन्द पक्षी से कोई कहे कि जाना ज़रा और उस पेड़ पर जो फल लगा है, वो ले आ देना। मुझे वो फल चाहिए तू फल ले आ दे, तुझे खिलाऊँगा बड़ा मीठा फल है। फल का लालच देकर पिंजड़े के पक्षी को कहते हो, ‘जाओ उस पेड़ तक।’ पक्षी जाता है पेड़ तक, फल कौन जाने मिलता है कि नहीं मिलता, पर दो चीज़ें मिल जाती हैं — पिंजड़े से आज़ादी और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण उड़ान का अनुभव। किसी भी वजह से पेड़ की चोटी तक गये फल के लिए, विश्राम के लिए उड़कर गये। तुमने उड़ना तो जाना।
तो शुरुआत तो कुछ यूँही तुम्हें बहाना देकर कराई जाती है। पहली उड़ान तुमसे न होती अगर तुमसे कहा जाता कि उड़ने के लिए उड़ो। पहली उड़ान तो तब थी जब तुमसे कहा, ‘फल के लिए उड़ो।’ पहले तुमने प्रक्रिया का पालन तब किया जब मैंने कहा, ‘मेरे लिए करो।’
पहले पक्षी उड़ा फल के लिए, अब वो उड़ेगा उड़ने के लिए। फल अब अप्रासंगिक हो गया, फल मिले-न-मिले क्या करना है, उड़ने में बड़ी मौज है। इसी तरीके से पहले प्रक्रिया का पालन किया मेरी बात रखने के लिए। अब मेरी बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं होनी चाहिए। जो तुमने किया है वही प्रमाण होना चाहिए, वही प्रेरणा होनी चाहिए। अगर उड़े हो वाकई तो अब और उड़ोगे।
प्र२: मेरी बहुत हास्यास्पद समस्या है। जानते हुए भी कि क्रोध एक विचार है; वाहन चलाते हुए मुझे बहुत क्रोध आता है, और यात्रा हमेशा कष्टप्रद रहती है। अन्य कठिन परिस्थितियों में भी क्रोध जल्दी नहीं आता। कैसे इसे पार पाए?
आचार्य प्रशांत: जहाँ जा रहे हैं, उस मंज़िल को बदलिए। क्रोध वाहन चलाते समय इसलिए आता है क्योंकि कहीं-न-कहीं आप जानते हैं कि ये आना-जाना गड़बड़ है। जिस वजह से जा रहे हैं, जिधर को जा रहे हैं, जहाँ से जा रहे हैं, वो सब गड़बड़ है। गुस्सा आप वाहन पर, सड़क पर और सहयात्रियों पर निकाल रहे हैं।
ये गुस्सा निष्प्रयोजन नहीं है, ये पैगाम है, कोई आपको कुछ समझा रहा है। अभी जो आप जानते हैं, वो बात सूक्ष्म है। पर मैं उसको ज़रा एक स्थूल उदाहरण से बता देता हूँ, उदाहरण सटीक नहीं है पर इशारा समझिएगा। आप सोना चाहते हैं और आपको उठाकर के कहा जाए, ‘जाओ, ज़रा बाजार से पकौड़े लेकर आओ’, और पकौड़ों से आपको कोई मतलब नहीं। तो आप गाड़ी कैसे चलाएँगे?
श्रोतागण: गुस्से में।
आचार्य प्रशांत: और गाड़ी के साथ भी क्या व्यवहार करेंगे?
श्रोता: अटपटी चलाएँगे।
आचार्य प्रशांत: कोई आपसे पकौड़ेबाज़ी करवा रहा है। वाहन को बख्श दीजिए, वाहन का उसमें कोई दोष नहीं। सारी यात्राएँ उल्टी-पुल्टी हैं हमारी। जिधर को जाना चाहिए, उधर को नहीं जा रहे हैं, कहीं और को चले जा रहे हैं। समस्या सिर्फ़ आपकी नहीं है, ये बहुत लोगों के साथ होता है। जो लोग अन्यत्र, अन्यथा शान्त भी रहते हैं, सड़क पर आप उनका गुस्सा देखिए; और गुस्सा लाज़मी है।
आप दिनभर गुलामी करके शाम को लौट रहे हो। दिमाग तो आपका पका हुआ ही है न, उबला ही हुआ है। और घोर ट्रैफ़िक और उसमें सब आप ही के जैसे, और उनको देखकर आपको अपनी दुखद स्थिति याद आती है। आपकी गाड़ी रुकी हुई है, धुआँ आप रस ले-लेकर ग्रहण कर रहे हो तभी आप गर्दन मोड़ते हो, वहाँ देखते हो बगल वाली गाड़ी में भी आप ही के जैसा बैठा है। गुस्सा आपको अपने ऊपर है और वो बिलकुल आपके जैसा है। अपना मुँह फोड़ नहीं सकते तो उसका फोड़ दोगे, कहोगे, ‘तुझको मारा तो खुद को ही मारा, वो भी बिना दर्द के।’
आप मौज में कहीं जा रहे हो फिर आएगा गुस्सा? मौज में हो तो भी गुस्सा नहीं आएगा और अति महत्त्वपूर्ण यदि कार्य हो तो भी गुस्सा करने का वक्त ही नहीं रहेगा। किसी की जान बचाने के लिए अस्पताल चले जा रहे हो, गाड़ी रगड़ गयी, रुककर लड़ोगे, बोलो?
दोनों ही स्थितियों में नहीं परेशान होओगे। जान बच गयी है तो भी किसी से लड़ने का मन नहीं करेगा, ऐसा आनन्द है और जान बचाने जा रहे हो तो भी लड़ने का मन नहीं करेगा, ऐसा कीमती काम है। काम ऐसा ज़रूरी है कि उलझने का, बहसबाज़ी का वक्त किसके पास है।
लेकिन पकोड़े लेने जा रहे तो ज़रूर लड़ोगे, वो भी पता हो कि रोज़ यही करना है। बासी तेल के गन्धाते पकौड़े और रोज़ तुमको रवाना कर दिया जाता है, ‘जाओ लेकर आओ।’ सोचो, मरो तो क्या शिलालेख रहेगा? सन् १९७५/ 1975 में अवतरित हुए, जीवनभर पकौड़े ढोये और यही करते-करते एक दिन तेल में मुँह डालकर मर गये।
अब ऐसा जीवन जियोगे तो गुस्सा तो आना ही चाहिए। मैं कहता हूँ, ‘कम क्यों आता है और ज़्यादा आना चाहिए।’ उड़ा दो एक दिन, सब अखिल ब्रह्मांड को गाड़ी से तोड़ दो। क्या तुम किसी बेचारे साइकिल वाले को, किसी बाइक वाले को, ट्रक से तो भिड़ाते नहीं होओगे, इतनी तो हिम्मत है नहीं। कोई बेचारा पैदल जा रहा है, उसको ज़रा सा; मैं कह रहा हूँ, ‘तुम पूरे समूचे ब्रह्मांड में ले जाकर के गाड़ी घुसेड़ दो। सब विलीन हो जाए, एक विस्फोट में सब विनष्ट — न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।’
इशारा समझो, एक दिन गाड़ी फिर ऐसी निकालो कि सही मंज़िल तक जाए, उस दिन गुस्सा नहीं आएगा। उस दिन वही गाड़ी ऐसा लगेगा जैसे पुष्पक विमान है जो राम अयोध्या लौटते हैं, देवयान है जो तुम्हें उठाकर स्वर्ग को ले जाता हो, वही गाड़ी।
प्र३: आचार्य जी प्रणाम। हमें ईर्ष्या क्यों होती है? क्यों ऐसा लगता है कि कोई दूसरा किसी ऊँचे मुकाम पर पहुँच गया, वैसे ऊपर-ऊपर से तो हम खुशी ही दिखाते हैं?
आचार्य प्रशांत: ईर्ष्या तुम्हें इसलिए होती है ताकि तुम छोटे बने रहो। ईर्ष्या के केन्द्र में होती है तुलना। तुम तुलना कर रहे हो और कह रहे हो, ‘दूसरा बड़ा है।’ तुम कह रहे हो, ‘मैं छोटा हूँ।’ तुमने अपने छोटे होने को सत्य मान लिया, तभी तो ईर्ष्या हो रही है न।
ईर्ष्या हो इससे पहले क्या होगी? तुलना। और तुलना में तुम किस बात को सच मान ही रहे हो? कि मैं छोटा हूँ, तो तुम्हें छोटे बने रहना है तो तुम ईर्ष्या करते हो। तुम्हें ईर्ष्या करते रहना है इसलिए ईर्ष्या करते हो। ईर्ष्या गलत नहीं है, भ्रान्ति है। तुम वो हो भी क्या जो तुम अपनेआप को सोच रहे हो? वो दूसरा है भी क्या तुम उसे जो सोच रहे हो? तुमने तुलना कैसे कर ली?
एक आदमी तुमसे रूसी में बोलकर गया, एक आदमी तुमसे जर्मन में बोलकर गया और तुमने कहा, ‘वो जो रूसी में बोलकर गया, उसकी बात इससे श्रेष्ठ थी।’ पता तुम्हें दोनों का नहीं है और तुमने तुलना भी कर मारी। पता भी है तुम कौन हो? तुम तुलना किसकी कर रहे हो? छोटू, नन्हू, गोलू; एक तो घरवाले सब बिगाड़ देते हैं, नाम ही ऐसे रखते हैं। तुम्हारा भी कुछ होगा सोमू, क्या हो तुम छोमु। अब छोमु छोटा नहीं होगा तो क्या होगा।
इतना बढ़िया तुम्हारा नाम था सोमनाथ राय, बन गये तुम छोमु या तो नाम रखो मत अपना, ‘हमारा कोई नाम नहीं’, या नाम रखो तो सोमनाथ राय जैसा रखो। और खासतौर से तुम्हारे जो दोस्त वगैरह होंगे, वही नाम बिगाड़ते हैं। उन्होंने ही बनाया न छोमु या कोई लड़की पकड़ ली होगी, उसने छुम्मू बना दिया होगा, छुम्मू बेबी। तुम्हारी और कहाँ से आती हैं धारणाएँ अपने छुटपन की? किसने तुमको सिखायी क्षुद्रता? और समाज माने कौन वो जो अफ्रीका में बैठा है, रूस में बैठा है? समाज माने कौन? कौन है जो तुम्हें सिखा रहा है? वो जो तुम्हारे बगल में बैठा है, और आसपास कौन है? वही जो तुम्हें छोमु-छोमु करते हैं, उन्होंने ही तुम्हें क्षुद्रता सिखा दी है।
अब छोटा जब बना दिया तो छोटे तुम रहोगे, ईर्ष्या तो होगी। और तुम्हारे व्राहद्य से, तुम्हारी विराटता से उन्हें डर लगता है क्योंकि उन्हें तुम्हें गोद में लेना है, उन्हें तुम्हें बाहों में लेना है, तुम बहुत बड़े हो गये तो तुम उनके घर में नहीं आ पाओगे, तो उनकी बाहों में नहीं आ पाओगे, उनके बिस्तर में नहीं आ पाओगे। उनका स्वार्थ है इसमें कि तुम छोटे बने रहो, क्योंकि उन्हें छोटा बना रहना है। अब छोमी है, छोमी के हाथ इते-इते तो वो हाथी के गले थोड़ी लग पाएगी?
चींटी को हाथी से प्रेम होगा तो हाथी को भी क्या बोलेगी? चिंटू। वो अपना नाम थोड़ी बदलेगी कि आज से मैं हथनी कहलाऊँगी। वो उसका नाम चिंटू कर देगी, ‘मैं चींटी, तू चिंटू।’ और यही काम अब तुम दूसरों के साथ करोगे, अनवरत श्रृंखला है — पीछे वालों ने तुम्हें छोटा सा कर दिया, अब तुम अपने से आगे वालों को छोटा करते चलोगे।
तुम वो नहीं हो जो तुम अपनेआप को सोचते हो। तुम वो भी नहीं हो जो तुम अपनेआप को नहीं सोचते हो, तुम ठीक हो। तुम ठीक हो, तुम मुस्कुरा भी वैसी रहे हो जैसे छोमू मुस्कुराता है। मैंने कहा तुम ठीक हो, तुमने दाँत काढ़ दिये। कितने साल के हो?
प्र३: पच्चीस।
आचार्य प्रशांत: पच्चीस में ऐसे मुस्कुराते हैं, ऐसे पाँच में मुस्कुराते है। पच्चीस में तो मुस्कान भी दहाड़ती है। दहाड़ कहाँ है? राजा बाबू, क्या हँस रहे हो बेटा, सब वही हैं। और दुर्भाग्य की बात ये है कि ये काम अपनेपन के नाम पर किया जाता है। जिसको संगत देना, उसे आकाश देना, पिंजड़ा नहीं। जिसे संगत देना, उसे पहाड़ देना, उसे पहाड़ का चूहा मत बना देना।
जो तुम्हें अनुभव कराए कि तुम कमज़ोर हो, दीन हो, दुर्बल हो, हीन हो, उसकी संगत तुम्हारे लिए विषैली है। जो किसी भी तरह से तुममें दासता भरे, दौर्बल्य भरे, लचरता भरे, वो इस काबिल नहीं कि तुम्हें संगत दे सके। उसे अभी उपचार चाहिए, वो संक्रमित रोग से ग्रस्त है। अपना संक्रमण वो हर जगह फैला रहा है। उसे लगता है वो छोटा सा है, वो सबको यही एहसास करा रहा है, ‘तुम भी छोटे।’ तुम भी छोटे।’
हीनता संक्रामक बीमारी है। संक्रामक शूरता भी होती है पर शूरता हो तो न। जब शूरता है ही नहीं, चारों दिशा हीनता-ही-हीनता है, दुर्बलता, असहायता यही है तो फिर इन्हीं का संक्रमण व्याप्त है।
एक नियम बाँध लो जिस जगह पर, जिस माहौल में, जिस व्यक्ति के साथ, जिस विचार के साथ, जिस वस्तु के साथ, जिस ग्रन्थ के साथ, जिस पल में तुम्हें ये अनुभव हो कि मुझे छोटा बनाया जा रहा है, वहाँ से भाग लेना, भले ही वो सबकुछ तुम्हारी सहायता के नाम पर किया जा रहा हो। तुम्हारी सहायता के नाम पर अगर तुम्हें कमज़ोर साबित किया जा रहा है, तो तुम वो सहायता मत लेना फिर ईर्ष्या वगैरह बिलकुल दूर रहेंगे। ठीक है?