कहीं उनका किसी से कुछ चल तो नहीं रहा? || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

Acharya Prashant

14 min
219 reads
कहीं उनका किसी से कुछ चल तो नहीं रहा? || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

प्रश्नकर्ता: मेरे पति एक ऐड इंडस्ट्री (विज्ञापन उद्योग) में काम करते हैं। तो उनका पूरा समय जवान और सुन्दर महिलाओं के साथ बीतता है। जिसके वजह से मैं बहुत स्ट्रेस (तनाव) में रहती हूँ, पजेसिव (अधिकारात्मक) हो जाती हूँ, इनसिक्योर (असुरक्षित) हो जाती हूँ। तो मैं सारे हथकंडे अपना चुकी हूँ, पर मेरे पति वह काम छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। मेरे पति का मानना है कि उनकी नीयत साफ़ है और जो भी महिलाएँ हैं उनसे सिर्फ़ काम से ही सम्बन्ध है। उसके अलावा कुछ नहीं। अब मुझे लगता है कि मुझे ख़ुद में ही बदलाव करना चाहिए। पर मैं क्या करूँ अभी?

आचार्य प्रशांत: बड़ी गरीबी की हालत है वैसे ये तो। कि मेरा पति है, वो कहीं ऑफ़िस में काम करता है। वहाँ उसके साथ आकर्षक महिलाएँ काम करती हैं, तो वो कहीं कुछ गड़बड़ ना करें। और इसको लेकर के पत्नी जी में बड़ा तनाव रहता है, डर रहता है।

सबसे पहले तो वही, बात बड़ी गरीबी और गरिमाहीनता की है। रिश्ता अगर कमज़ोर है बालू की बुनियाद पर बना हुआ है, तो आप उसको बचाकर भी क्या कर लेंगी। रिश्ता तो तभी सार्थक और थोड़ा स्थाई होगा जब दोनों पक्ष किसी दबाव या ज़ोर ज़बरदस्ती के कारण नहीं, बल्कि अपनी समझ-बूझ से और स्वेच्छा से एकसाथ हों। है न?

अब अगर इस सम्बन्ध में पतिदेव को कुछ मिल ही नहीं रहा है, तो उड़ तो वो जाएँगे ही; उनको आप वैसे भी नहीं रोक पाएँगी। और ज़्यादा बुरी बात ये हो सकती है कि वो उड़कर भी, आपका घोसला छोड़कर उड़ जाने के बाद भी आपको दाना डालते रहें। वो तो और ऐसा होगा जैसे गरीब पर दया दिखायी जा रही है।

मुझे नहीं मालूम कि इसमें एकदम स्पेसिफ़िक (विशिष्ट) स्थितियाँ क्या हैं। लेकिन आमतौर पर डर ज़्यादा तब लगता है जब महिला पुरुष पर आर्थिक रूप से भी आश्रित होती है। फिर जिसको पजेसिवनेस (अधिकारात्मकता) कहा जाता है, वो और कुछ नहीं होता वो इनसिक्योरिटी (असुरक्षा) होती है, डर। हम कहते तो ऐसे हैं कि हम पजेसिव हैं। अरे! मेरी बड़ी बीमारी है, मैं पजेसिव (अधिकारात्मक) हूँ। मैं अपने पति को लेकर बहुत पजेसिव (अधिकारात्मक) हूँ। मैंने पति को मुट्ठी में पकड़ रखा है, मैं पजेसिव हूँ।

आपने समस्या बिलकुल उल्टे तरीक़े से बतायी है। समस्या को बताने में ही झूठ है, तथ्य ये हो सकता है कि आप अपने पतिदेव की मुट्ठी में हैं क्योंकि आप उन पर हर तरीक़े से आश्रित हैं। तो आपको लगातार ये डर बना रहता है कि पतिदेव अगर कहीं सटक लिए, तो आपका क्या होगा। ये प्रेम नहीं है, ये तो सिर्फ़ किसी तरीक़े से अपनी व्यक्तिगत भलाई की चिन्ता है।

क्या होता है, आप चेहरा-मोहरा देखकर के ब्याह कर लेते हो। और भारत में ये खूब होता है। जब लड़की देखी जाती है तो अभी भी बहुत सारे पुरुष भारत में ऐसी मज़ेदार मानसिकता में जी रहे हैं कि वो लड़की की क्वालिफ़िकेशन (योग्यता) वगैरह पर बहुत ध्यान नहीं देते। गुण-दोष देखना तो दूर की बात है, वो इसको भी बहुत महत्व नहीं देते कि लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है। वो कहते हैं, ‘कोई इसे लेक्चर (भाषण) थोड़ी दिलवाने हैं।’

उन्हें अच्छे से पता होता है कि अगर वो शादी कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं। वो अपने घर एक स्त्री देह ला रहे हैं उसका उपभोग करने के लिए। तो ऐसे में ये बात बड़े कम महत्व की रह जाती है कि लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है। और कड़वा सच ये है कि ये बात लड़कियाँ भी जानती हैं कि शादी के बाज़ार में इस बात का बड़ा कम महत्व रहता है कि उन्होंने पढ़ाई कितनी करी है।

अगर लड़की सुन्दर है तो उसको मोटी आसामी मिल ही जानी है। बहुत सारे लोगों को मेरे इन वक्तव्यों से आपत्ति होगी। जिन्हें आपत्ति हो रही हो, मैं उनसे कहता हूँ कि भाई मुझे माफ़ कर दीजिए; पर मुझे जो तथ्य पता हैं उनको तो मैं कहूँगा ही।

लड़की अगर सुन्दर हो तो आमतौर पर उसको ये भरोसा रहता है कि पढ़ूँ कि न पढ़ूँ, डिग्री पूरी करूँ कि न करूँ, नौकरी मिले चाहे न मिले; मुझे तो बढ़िया कोई डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए., आई.ए.एस. मिल ही जाना है। ये भी हो सकता है कि लड़का विदेश में हो, तो सीधे कनाडा का वीजा लग जाए मेरा शादी के बाद; ये भी हो सकता है। तो पढ़ाई-लिखाई पर कौन ध्यान दे।

रूप-रंग काफ़ी होता है। अब रूप-रंग देखकर के शादियाँ होती हैं। मैं जैसे-जैसे बोल रहा हूँ, मुझे पता है कि अच्छा नहीं लग रहा होगा सुनने में। पर मैं क्या करूँ? या तो सवाल न पूछा जाता। रूप-रंग देखकर शादियाँ होती हैं।

अब ये जिन्होंने रूप-रंग देखकर शादी की है, इन्होंने अपने तो करियर (व्यवसाय) का पूरा ख़याल रखा है। ये इंजीनियरिंग भी करके बैठे होंगे, फिर एमबीए भी करके बैठे होंगे। जीवन भर इनका जो रवैया है वो बिलकुल प्रोफेशनल (पेशेवर) रहा है। है न! नो नॉनसेंस टू द पॉइंट (मुद्दे पर कोई बकवास नहीं)। बताओ अगली मस्त जॉब (नौकरी) कहाँ लगेगी, प्लेसमेंट, प्लेसमेंट, नौकरी; यही करते रहे हैं। ये सब चीज़ें इनके लिए बड़ी महत्वपूर्ण हो रही हैं। मेरा पैकेज कितना है, मैं किसी इंडस्ट्री में हूँ, आगे कैसे बढ़ना है; यही सब करा है इन्होंने।

और लड़की ये जानबूझकर ऐसी उठाकर लाते हैं जो मन से बिलकुल गरीब रह गई है, दरिद्र बिलकुल; बस तन से माला माल है। वो लड़की भी सोचती है कि मेरी लॉटरी लग गई। देखो! मुझे कितना अच्छा वर मिल गया। यही होता है न। एक साधारण मध्यम वर्गीय लड़की, उसको ऐसा बढ़िया कोई मिल जाए वर, दूल्हा। कितनी खुश होती है! सब उसकी क़िस्मत की तारीफ़ करते हैं, कहते हैं, ‘ये देखो, इतना अच्छा लड़का मिल गया उसको।

और लड़की ने ख़ुद क्या करा है। उसने कहीं ऐसे ही कहीं लोकल (स्थानीय) कॉलेज से कुछ कर लिया है। किसी तरीक़े से ग्रेजुएशन (स्नातक) पास कर लिया है। अपने दम पर उसको कहीं पाँच-दस हज़ार की नौकरी न मिले और लड़का उसको मिल गया है महीने के लाखों कमाने वाला। सब कहते हैं, ‘वाह! क्या क़िस्मत है, क्या तक़दीर लेकर आयी है। वो तक़दीर नहीं ज़िस्म लेकर आयी है, जिसकी वजह से उसकी ये शादी हो रही है।

अब क्या होगा आगे। अब क्या होगा, दो-चार साल बाद तन तो ढल जाना है, तन की यही फ़ितरत है। कब तक बचाओगे देह को? ख़ासतौर पर अगर लड़की रंग-रूप से आकर्षक है, तो बच्चे भी जल्दी होंगे। पतिदेव छोड़ेंगे ही नहीं, जब इतना सेक्स होगा तो बच्चे भी होकर रहेंगे। एक बच्चा, दूसरा बच्चा, चार साल में दो बच्चे। इंसान का शरीर कितना झेलेगा।

उस चार साल में उसकी उम्र बढ़ जाती है दस साल। पतिदेव को माल अब उतना आकर्षित नहीं करता फिर दैहिक क्योंकि पतिदेव ख़ुद तो अभी जवान ही हैं। वो ढल सी गई है और अब उसे दो बच्चों का भी ख़याल रखना है, तो अब पतिदेव जाएँगे इधर-उधर देखेंगे। लगभग वैसी किसी स्थिति से ये सवाल उठा है आज का।

मैं कह रहा हूँ—‘ये बड़ी गरीबी की हालत है।’ अब तुम क्या करोगी। काश! कि मेरे पास आपको देने के लिए सलाह के अलावा भी कुछ होता। सलाह के अलावा कोई सहारा नहीं दे पाएँगे अब हम। शिक्षा आपकी कोई बहुत ज़्यादा है नहीं, रूप-रंग था वो अब ढलने लगा है, साथ में आ गए हैं दो बच्चे। घर से बाहर का एक्सपोजर (संसर्ग) आपने न पिता के घर लिया न आपको पति ने दिया। पति भी बोलता था—‘धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए।’

तो लगातार आप घर में ही रहे, घर में ही रहे। पिताजी भी कहते थे कि भई इसकी पढ़ाई-लिखाई में कौन ख़र्च करे, वो पैसा अन्ततः देना तो दहेज में हैं। तो उन्होंने भी कभी न ठीक से पढ़ाया लिखाया, न किसी क़िस्म का अनुभव दिया, न एक्सपोजर दिया। है न! न पतिदेव ने दिया। बस ये बेचारी भावना में बहकर यही सोचती रहती थी कि मुझे तो देखो भगवान सा पति मिल गया है और जन्नत सा घर मिल गया है। और अब ये हालत है कि मैं बड़ी पजेसिव (अधिकारात्मक) हूँ, बल्कि इनसिक्योर (असुरक्षित) हूँ क्योंकि पति के ऑफिस में सुन्दर महिलाएँ काम करती हैं।

अब क्या करें, बताइए न अब क्या करें। पतिदेव तो शादी के चार साल में करियर में और आगे बढ़ गए। और किसी भी रिश्ते में जो पक्ष जितना सबल होता है, जितना पावरफुल (शक्तिशाली) होता है उसका हाथ उतना ऊपर होता है। ये आप जानते नहीं हो क्या। रिश्ते भी बराबरी वालों में ही बनते हैं न। और बराबरी अगर नहीं है, तो जो ताक़तवर होगा उसी की चलेगी, वो अपने हिसाब से चलाएगा; आप कर क्या लेंगी अब।

जब शादी हुई थी तब भी वो आपसे आगे थे। और शादी के चार साल में जब आप घर में बैठकर के ‘रूप की रानी’ हो रही थीं और बच्चे पैदा कर रही थीं। उस दरमियान वो और आगे बढ़ गया आपसे। और अब वो जो भी करना चाहेंगे, करेंगे। आप कैसे रोक लेंगी उन्हें। कोई नहीं रोक सकता, मैं क्या करूँ। क्या सलाह दूँ आपको? एक बच्चा तीन साल का, एक बच्चा एक साल का है, आप क्या करेंगी? दोनों के पोतड़े बदलने होते हैं लगातार, आप क्या करेंगी अब? पति पर चिल्ला भी नहीं सकती हो ज़ोर से, चिल्लाती हो तो बच्चे रोने लगते हैं। आप क्या करेंगी अब?

पतिदेव कमा-कमाकर के और जिम और स्पा और स्पोर्ट्स ये सब कर-करके और जवान हो गए हैं।आप सत्ताईस की उम्र में पैंतीस की लगने लगी हैं, वो अट्ठाईस की उम्र में पच्चीस के छोरे हो गए हैं। एक तो पच्चीस के छोरे जैसे लगने लगे हैं, ऊपर से हाथ में पैसा; पच्चीस साल का दिखने वाला आकर्षक, हैंडसम मर्द, वो भी पैसे वाला, उसकी ओर चार तितलियाँ काहे नहीं आकर्षित होंगी। फूल खिला है, आओ तितलियों। आप घर में बैठी हैं, बैठी रहिए।

ये ज़िन्दगी भर नहीं सोचा था? तब क्या कहा था—‘हाय! क्या क़िस्मत लेकर आयी है।’ अब देख लो अपनी गरीबी। और ज़्यादा मुँह चलाएँगी तो आप पर नोटों की एक गड्डी और फेंक देगा। कहेगा, ‘जाओ, शॉपिंग कर लेना।’ और जानते हो सबसे ज़्यादा गरिमाहीन, शर्मनाक और बेइज़्ज़ती की बात क्या है? आप वो गड्डी लपक भी लेंगी क्योंकि आपके पास और कोई चारा नहीं है।

एक दिन ऐसा आएगा जब आपको पता होगा कि वो घर से निकल रहा है उन्हीं महिलाओं के साथ जाकर डिनर (शाम का नाश्ता) करने के लिए। आप भलीभाँति जानती होंगी, वो भी जानता है कि आप जानती हैं। वो फिर भी आपके सामने निकलेगा और आपके पास कोई ताक़त नहीं होगी उसे रोक पाने की। आपके पास बस आपकी गरीबी, आपकी कमज़ोरी और आपके दो बच्चे होंगे।

अब रोक सकते हो उसको तो रोक लो, पर नहीं। स्कूल के दिनों से शुरू हो जाता है। अब तो ये लड़का-लड़की, निब्बा-निब्बी के खेल छठी क्लास से शुरू हो जाते हैं। जो थोड़ी सुन्दर लड़कियाँ होती हैं, उनका पढ़ाई से मन ही उठने लग जाता है। तो करना क्या है पढ़कर। पढ़कर के जो कुछ मिलता है, वो तो हमें बिना पढ़े ही मिल रहा है। हम पढ़कर क्या करेंगी। बल्कि जो साधारण नैन-नक्श वाली लड़कियाँ होती हैं वो पढ़ाई में आगे निकल जाती हैं।

थोड़ी वो आकर्षक हुई नहीं कि लड़के ही उसका दिमाग ख़राब कर देते हैं दिन-रात उस पर मँडरा-मँडराकर। और घर वाले भी— ‘घर की सारी लड़कियों में, पूरे ख़ानदान की सारी लड़कियों में सबसे गोरी हमारी बबली है और सबसे प्यारी हमारी स्वीटी है।’ अब ये बबली और स्वीटी मेडिकल और इंजीनियरिंग एन्ट्रेंस (प्रवेश) क्लियर करेंगी कभी। उनका दिमाग ही अब किसी और दिशा में चल दिया।

और शुरू में बड़ा अच्छा लगता है—साधारण लड़कियाँ बसों में धक्के खाती हैं धूप के नीचे। गर्मी में भी धूल झेलती हैं, लू चलती है, दफ़्तर जाती हैं बस में बैठकर के, कि स्कूटी में बैठकर के। मुझे तो पहले ही दिन से इन्होंने सिडैन (कार की एक ब्रांड) दिलवा दी थी शॉफर ड्रिवेन (चालक चालित)। और उसी सिडैन में बैठकर के जब शीशे से बाहर देखती थी कि साधारण कामकाजी लड़कियाँ बस पर सवार होकर के ऑफिस जा रही हैं, या पैदल या स्कूटी पर जा रही हैं। तो कितना मजा आता था न! कि देखो ये सब काम करेंगी, वो भी पैदल और स्कूटी पर धूप में जाकर के और मैं सिडैन में बैठकर के शॉपिंग करने जा रही हूँ। मैं तो शॉपिंग करने जा रही हूँ।

किसी बड़ी मॉल (ख़रीदारी केन्द्र) में चले जाइए, ख़ासकर जहाँ पर फॉरेन (विदेशी) ब्रांड्स हों; आप वहाँ वीक डेज (साप्ताहिक दिनों) पर चले जाइए दिन में। वीक डेज और दिन का समय; ये कौनसा समय होता है। ये ऑफिस का समय होता है, काम का। होता है न! वीक डेज में दिन का समय ऑफिस का काम का समय होता है। वीक डेज पर किसी मॉल में चले जाइए, वहाँ पर गिनिए कि कितने प्रतिशत पुरुष हैं शॉपिंग (ख़रीदारी) करते हुए, कितने प्रतिशत महिलाएँ हैं।

क्या पाओगे? ज़्यादा, सिर्फ़ ज़्यादा, नब्बे प्रतिशत महिलाएँ। अगर ये ऑफिस नहीं जा रहीं, तो शॉपिंग कैसे कर रही हैं। किसके पैसे पर, किसके पैसे पर। क्योंकि ये तो ऑफिस का टाइम है, ये ऑफिस के टाइम में शॉपिंग कर रही हैं तो किसके पैसे पर कर रही हैं। हो! वो ऑफिस में मेहनत कर रहा है, ये उसी के पैसे से शॉपिंग कर रही हैं। अब क्या होगा, अब क्या होगा।

देखो, पुरुष होने के नाते बता रहा हूँ। ठीक है! हम बोलते हैं कि महिला माया होती है, स्त्री का त्रिया-चरित्र होता है। लेकिन इतना बता दूँ पुरुष होने के नाते कि पुरुष भी बहुत चालू चीज़ होता है, उसको बेवकूफ़ मत समझो। वो अपना मतलब, अपना स्वार्थ निकालना बख़ूबी जानता है। उसको बिलकुल अच्छे से पता है कि आपकी पूरी हस्ती में कौनसी चीज़ उसके काम की है और कब तक। कि ठीक उसी चीज़ का वो सौदा करता है और जिस दिन वो चीज़ उसको मिलनी बन्द हो जाती है, या किसी दूसरी जगह वही चीज़ बेहतर मिलने लगती है वो भँवरा झट से उड़ जाएगा।

वो बहुत चालू है। तो इसलिए देवी जी इतने सालों से कभी हाथ जोड़कर के, कभी डाँटकर के आपसे निवेदन करता रहा हूँ कि अपनी ताक़त विकसित करना सीखिए। ज्ञान, गुण, अनुभव, कौशल, विवेक: ये आपकी असली ताक़त हैं। ये रूप का सौदा बहुत दिनों तक नहीं चलता। तन को मज़बूत बनाइए, बुद्धि को धार दीजिए और मन को अध्यात्म दीजिए। नहीं तो ये सवाल आते ही रहेंगे।

ये पजेसिवनेस (अधिकारात्मकता) पर है ही नहीं सवाल, ये सवाल कमज़ोरी पर है। जो जितना कमज़ोर होता है वो उतना मुट्ठी भींचता है न। बोलो! आप किसी के साथ जा रहे हो, जितना डरा हुआ होगा उतनी जोर से आपको भींचेगा। ऐसा ही होता है न। तो जिसको आप पजेसिवनेस बोलते हो वो वास्तव में सिर्फ़ डर है, इनसिक्योरिटी (असुरक्षा) और कमज़ोरी है। तो मैं पजेसिवनेस का क्या इलाज बताऊँ, पजेसिवनेस का कोई इलाज नहीं है। जो मज़बूत होता वो पजेसिव हो ही नहीं सकता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories