प्रश्नकर्ता: मैं कर्मयोग को समझना चाहता हूँ, कर्मयोग को जीवन में उतारना चाहता हूँ क्योंकि ज्ञान की बात आती है तब मन विचलित हो जाता है और जब भक्ति की बात आती है तब निष्क्रिय हो जाता हूँ, आलसी हो जाता हूँ, और भौतिक तल पर भी खाने के भी लाले पड़ जाते हैं, ऐसी भी स्थिति आती है। तो भौतिक तल पर भी आज़ादी बनी रहे और इसमें भी आगे बढ़ूँ, इसलिए मैं कर्मयोग को समझना चाहता हूँ।
आचार्य प्रशांत: कर्मयोग का सीधा-सीधा, ज़मीनी और बिलकुल साफ़, सरल अर्थ है — जो कुछ भी कर रहे हो, ऊँचे-से-ऊँचे मकसद के लिए करो। कहो कितना कठिन है यह? अच्छा, हम सब लोग बहुत सारे काम करते हैं। हममें से कोई भी ऐसा तो यहाँ है नहीं जिसके पास ज़िंदगी में एक ही लक्ष्य हो, कोई भी ऐसा है? कभी आप किसी लक्ष्य के लिए काम करते हो, कभी किसी, कभी किसी; ऐसा होता है न? कहिए। अच्छा, किसी ग्रंथ की, किसी गुरु की ज़रूरत नहीं, आपसे ही कहा जाए कि आप अपने जीवन के दस लक्ष्यों को लिख दीजिए तो आप लिख देंगे न, छोटे-बड़े सब मिलाकर दस तो लिख ही देंगे। उसके बाद आप ही से कहा जाए कि अच्छा ख़ुद ही बताइए इनमें से सर्वोच्च लक्ष्य कौन सा है, तो आप ये भी बता दोगे। आप से ही कहा जाए कि यह बताइए कि इनमें से सबसे हीन लक्ष्य कौन सा है, तो भी आप ही बता दोगे। इसी तरीके से आप से कहा जाए कि यह जितने लक्ष्य हैं, सबको एक वरीयता दे डालिए। इन सब को वरीयता के क्रम के अनुसार प्रतिष्ठा दे दीजिए – एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ; तो वो आप कर डालोगे कि नहीं कर डालोगे? तो आप ख़ुद ही जानते हो न कि आपके जीवन में कुछ बातें ज़्यादा ऊँची हैं और कुछ चीज़ें नीची हैं। कुछ बातें ऊँची हैं और कुछ चीज़ें नीची हैं।
आपने पैसा कमाया, ठीक है? एक दिन आपने पैसा कमाया और उससे जाकर के आप अपने बच्चे के स्कूल की फीस दे आए तो उस दिन पैसा कमाने का आपका लक्ष्य क्या था? बच्चे की शिक्षा। एक दिन आपने पैसा कमाया और आप उस पैसे से जाकर के अपने बच्चे की फीस दे आए तो उस दिन का लक्ष्य हुआ बच्चे की शिक्षा। अगले दिन आपने पैसा कमाया और उससे आप जाकर के अपने लिए ही कोई आभूषण ले आए, कह रहे हैं कि "आज ज़रा गले में एक सोने की चेन कर लेते हैं या पत्नी के लिए अंगूठी ले लेते हैं", तो उस दिन की कमाई का क्या लक्ष्य हुआ? सोना इकट्ठा करना, ठीक है? तीसरे दिन फिर आपने कमाया और उस दिन आप उस सारे पैसे की शराब ले आए; तो तीसरे दिन की कमाई का क्या लक्ष्य हुआ? शराब पीना। कमाने वाले आप ही हैं लेकिन तीन दिन में तीन अलग-अलग लक्ष्य हो गए न, और लक्ष्य इस पर निर्भर करता है कि वह कमाई उड़ाई कहाँ। कमाई का लक्ष्य वही है जिस जगह कमाई उड़ाई, वही तो कमाई का लक्ष्य हुआ न, कि कमाओ ताकि फीस दे सको, चाहे सोना खरीद सको या चाहे शराब खरीद सको। वही तो लक्ष्य हुआ कमाने का। अब इन तीनों लक्ष्यों में आपको अच्छे से पता है न कि सबसे ऊँचा कौन सा है और सबसे नीचा कौन सा है। आप जानते हो न?
कर्मयोग का मतलब हुआ तुम्हारी ज़िंदगी में जितना भी तुम्हें पता है उसके हिसाब से ऊँचे-से-ऊँचे लक्ष्य के लिए काम करो, बस यह है। जो भी ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य हो सकता है आपकी सामर्थ्य के मुताबिक वही आपके लिए कृष्ण है। तो कर्मयोग को जब शास्त्रीय तरीके से बताया जाता है तो कहा जाता है कि सारा काम कृष्ण के लिए करो, ठीक? फिर हमें समझ में नहीं आता, हम कहते हैं, “अरे! कृष्ण? कृष्ण के लिए कैसे काम करें? कृष्ण कहाँ हैं?” समझ में ही नहीं आती बात, कृष्ण हैं कहाँ, कृष्ण के लिए कैसे काम करें। तो व्यवहारिक जीवन में कर्मयोग का मतलब यह नहीं है कि जो करो वह कृष्ण को अर्पित कर दो या जो करो वह कृष्ण को लक्ष्य करके करो, व्यवहारिक जीवन में कर्मयोग का अर्थ है जो करो वह उच्चतम लक्ष्य के लिए करो और उच्चतम लक्ष्य कौन सा? जो भी तुम्हें उच्चतम समझ में आता हो क्योंकि आपके पास और चारा क्या है? अब आपसे कहा जाए कि उच्चतम लक्ष्य है संसार में अध्यात्म को प्रतिष्ठापित करना, तो वह उच्चतम लक्ष्य आपको समझ में ही नहीं आएगा, आप कर ही नहीं पाओगे उसमें कुछ, नहीं कर पाओगे न? या आप को कोई और उच्चतम लक्ष्य बना दिया जाए कि दुनिया में पशुओं की इतनी सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं और उच्चतम लक्ष्य इस वक़्त ये है कि ये जो जीवों का महासंहार हो रहा है, इसको किसी तरह रोकना। वो उच्चतम लक्ष्य भी आपके लिए बस बातचीत की चीज़ रह जाएगा क्योंकि आपको उसका कुछ पता ही नहीं, आप उसमें दखल ही नहीं दे पाओगे, है न? तो आपके लिए तो ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य वही है जो आपके सामने हो, जो आपकी निजी ज़िंदगी में मौजूद हो।
अगर यह तीन चीज़ें मौजूद हैं ज़िंदगी में – फीस, सोना, शराब तो आप ख़ुद ही जानते हो कि उच्चतम कौन है। इन्हीं तीनों में तुलनात्मक रूप से उच्चतम कौन है, आपको पता है। तो कर्मयोग का मतलब हुआ जो करो वो ऊँचे मकसद के लिए करो, नीचे उद्देश्य के लिए मेहनत करो ही मत। नीचे उद्देश्य को दाना-पानी, पोषण दो ही मत और कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता जब तक तुम उसमें अपनी ऊर्जा ना सींचो। सोना मिलेगा क्या अगर तुम रुपैया नहीं दिखाओगे? बोलो। रुपैया क्या है? वह आपका श्रम है न, तो वो सोना कहाँ से आया? आपके श्रम माने आपके कर्म से आया। सोना कहाँ से आया? कर्म से आया। शराब भी कहाँ से आई? शराब मिलेगी मुफ़्त में? शराब भी तब मिलती है न जब तुम कर्म करके जाते हो। दिनभर कर्म किया, दिनभर कर्म करके क्या मिला? पैसा। दिन भर क्या किया? कर्म, कर्म से क्या मिला? पैसा। फिर गए और उस पैसे से शराब ले आए। तो वो सब कर्म, वो सारा पैसा किसको समर्पित कर दिया? शराब को, कृष्ण को नहीं किया न — यह कर्मयोग का अभाव हो गया कि तुम जो कुछ कर रहे हो वो ग़लत जगह समर्पित कर आ रहे हो। तो अपनी-अपनी ज़िंदगी में जो कुछ भी उच्चतम दिखता हो उसको और ज़्यादा और ज़्यादा सम्मान देना शुरू करें, उसे और पोषण देना शुरू करें, ठीक है?
दो काम एक साथ होंगे। जो ऊँचे-से-ऊँचा है नंबर एक वाला उसको फुला देना है, उसको आप जितनी भी राशि देते हैं उसका अनुपात बढ़ा देना है। भाई, हम सब जीवन में बजटिंग करते हैं न, बजट , हम कहते हैं, “मेरे पास इतना है खर्च करने को”, और खर्च करने को आपके पास जितना भी है वह कहाँ से आया है?
प्र: श्रम से।
आचार्य: श्रम माने कर्म से, तो इतना है (हथेलियों से इशारा करते हुए) फिर हम इसकी क्या करते हैं? बजटिंग * । हम कहते हैं, "अब इसका इतना हिस्सा इस काम को दूँगा, अब मैं इसका इतना हिस्सा इस काम को दूँगा।" ये करते हैं न, तो कर्मयोग का मतलब हुआ वो * बजटिंग सही से करो भाई। जो चीज़ आवश्यक है उसको अपने कुल संसाधनों का बड़े-से-बड़ा हिस्सा दो और जो चीज़ अनावश्यक है उसका हिस्सा कम-से-कमतर करते जाओ। यह कर्मयोग है। अब ये बहुत कठिन है क्या? बात बिलकुल सीधी है न? यह ख़ुद ही आप कर लीजिएगा। आज के सत्र के बाद बना लीजिएगा कि आपका जितना संसाधन है, संसाधनों का आपका जो पूरा समुच्चय है, जो पूरा सेट है, वह कहाँ खर्च होता है, ठीक है? उसमें संसाधनों में आप चाहे तो बस दो से ही शुरुआत कर लीजिए — पैसा और समय। पैसे में बहुत सारी चीज़ें आ गई, पैसा माने श्रम भी आ गया, बिना श्रम के तो पैसा आएगा नहीं। तो देख लीजिए कि आपका जो पैसा है वह किन दस जगहों पर जाता है, लिख लीजिए, ठीक है? और फिर उनको प्राथमिकता के क्रम में अवस्थित कर लीजिए। जिसकी सर्वोच्च प्राथमिकता हो वो सबसे ऊपर, फिर उसके नीचे, फिर उससे नीचे ऐसे करके उनको आप एक व्यवस्था दे दीजिए। ऐसे ही समय देख लीजिए कि किन दस जगहों पर जा रहा है। वहाँ भी प्राथमिकता के आधार पर सूची बना लीजिए, ठीक है? और फिर यह संकल्प उठा लीजिए कि जो नीचे की दो-तीन चीज़ें हैं इनको क्या करता चलूँगा? कम-से-कम। तुरंत हटा नहीं पाएँगे, तुरंत हटा सकते होते तो अब तक हटा दी होती, वो मौजूद ही नहीं होतीं। तो अभी संकल्प बस ये करना है कि "नीचे वाला जो है उसका बजट सिकोड़ दूँगा, छोटा कर दूँगा; बीस प्रतिशत जाता था तो बारह कर दूँगा। और जो ऊपर वाला है उसको अगर बीस प्रतिशत जाता था तो तीस कर दूँगा।" यह मत कहिए कि ऊपर वाले को बीस से अस्सी कर देंगे, अगर कर सकते होते तो अब तक कर दिया होता। यकायक कुछ नहीं होता, वो सब फ़िल्मी मामले होते हैं जिसमें एक मिनट के अंदर सब बदल जाता है और टन-टना-टन; वैसा होता नहीं है। साधना का मतलब ही है कि जो होगा क्रमशः होगा, शनै-शनै, इंक्रीमेंटली , ठीक है?
प्र२: आचार्य जी, इसी के ऊपर एक और सवाल है। आपने बताया कि जो भी सर्वोत्तम लक्ष्य है वो आपको अपने हिसाब से निश्चित करना है, तो मैं अपने पालकों की बात कर रहा हूँ जो मेरे अंकल और मेरे पापा हैं, वो अपने हिसाब से अपने सर्वोत्तम लक्ष्य पर काम करते हैं दिन-रात। उनके लिए यही है कि घर अच्छे से चले, बच्चों की पढ़ाई हो। वो तो उन्होंने सब कर भी दिया है। घर भी है, सब कुछ है, पर अब उनके पास और कुछ है ही नहीं, जीवन में और कुछ प्रगति भी नहीं है तो क्या वो कर्मयोग कर रहे हैं?
आचार्य: ये उत्तर उनके लिए था ही नहीं। यह उत्तर उनके लिए था जिनके जीवन में कम-से-कम इतनी ईमानदारी है कि इस तरह की एक वार्ता में मेरे सामने आकर बैठे हैं। क्योंकि मैं यह मान रहा हूँ कि फ़ैसला तो आपको ही करना है कि नंबर एक पर कौन बैठेगा और नंबर दस पर कौन बैठेगा, ठीक है न? और वह फ़ैसला आपके अलावा कोई कर भी नहीं सकता, मैं तो नहीं कर सकता। मैं वह फ़ैसला मान लीजिए कर भी दूँ एक बार को तो आप वो फ़ैसला मानोगे क्यों? मैं जो भी फ़ैसला दे दूँ उस फ़ैसले को निष्पादित कौन करेगा, एग्जीक्यूट ? आप ही तो करोगे न। आप दिल से अगर राज़ी नहीं हो मेरे फ़ैसले से तो क्या आप उसको अपनी ज़िंदगी में कार्यान्वित करोगे? नहीं करोगे न। तो इसलिए यह बात मैं सिर्फ़ उन लोगों से बोल रहा हूँ जो कि दाम चुका करके, मेहनत करके, दूरी तय करके, समय लगा कर के आधी रात को इस वक़्त मेरे सामने बैठे हुए हैं। यह संदेश सबके लिए नहीं है। आप यहाँ सामने बैठे हो इसी से तय हो जाता है कि आपमें इतनी ईमानदारी तो है कि आप मानते हो कि आपको बदलाव की और सुधार की ज़रूरत है। आप मानते भी हो और आप उसका मूल्य भी चुका रहे हो। यूँ ही आकर के नहीं बैठ गए हो। ऐसे ही नहीं था कि यहाँ से चले जा रहे थे हाईवे से और पता चला कि "अच्छा यहाँ कुछ हो रहा है क्या, चलो झाँक आते हैं", ऐसा नहीं है। आपने यहाँ आने के लिए श्रम किया है, आपने यहाँ आने के लिए मूल्य चुकाया है। आपने जो मूल्य चुकाया है वही आपकी प्रगति का कारण बनेगा। बात समझ रहे हो न, मूल्य बराबर ईमानदारी से यह मानना कि मुझे सुधरने की और बदलने की ज़रूरत है। जो लोग अपने घर पर बैठे हुए हैं, वह तो ये मान ही नहीं रहे न कि उन्हें सुधरने, बदलने की ज़रूरत है। वो कह रहे हैं, “आधी रात हो रही है, खाओ-पियो और जाकर सो जाओ। बोल भी रहे होंगे आचार्य जी तो कभी-न-कभी वीडियो में आ ही जाएगा। ये तो जो कुछ बोलते हैं वह देर-सवेर उसका वीडियो मिल ही जाता है, तो वीडियो में देख लेंगे। ज़रूरत क्या है सामने जाकर बैठने की!” उनके लिए मेरी बात नहीं है, ठीक है? तुम समझ लो। क्योंकि एक बिंदु पर आकर के कोई भी हो मार्गदर्शक, वह मजबूर हो जाता है। वह बिंदु होता है तुम्हारी आंतरिक ईमानदारी का, वो थोपी नहीं जा सकती न किसी पर। मैं तुम्हारी कनपटी पर बंदूक रखकर थोड़े ही बोलूँगा कि, "चल ईमानदार हो जा, चल ईमानदार हो जा!" वह तो भाई तुम्हारी मर्ज़ी की बात है।
अब तुमसे मैंने कहा कि बच्चे के विद्यालय का शुल्क, सोना और शराब; और फिर मैंने थोड़े ही ख़ुद ही बता दिया कि इनमें से सबसे ज़्यादा प्राथमिकता किसकी है, आपकी ईमानदारी ने आपको बताया न। और आपमें से पाँच लोग यहाँ खड़े हो जाएँ और कहें, “थम जाओ आचार्य, इन तीनों में सबसे ज़्यादा जो महत्वपूर्ण है वह तो मुझे शराब लगती है”, तो मैं मजबूर हूँ, मैं क्या कर सकता हूँ? फिर मैं भी तो आप पर ही निर्भर कर रहा हूँ न कि आप स्वयं ही यह समझेंगे कि इन तीनों में सबसे ज़्यादा कीमती क्या है। जो ख़ुद ही यह समझने को तैयार नहीं, उसका कोई उपचार नहीं।
और एक बात जाने रहो, पता सब को सब कुछ होता है। बात इसकी नहीं है कि पता हो जाए, बात इसकी है कि मानना चाहते हो या नहीं। जानते तो सब हैं, बस कुछ लोगों में थोड़ी नरमी होती है, थोड़ा पानी होता है, थोड़ी सत्यता होती है तो वो मान लेते हैं। जो लोग यह भी कहते हैं न कि, "नहीं, हम नहीं कुछ जानते" या, "हमें तो यही लगता है कि इन तीनों में शराब ही सबसे ऊपर है", जानते वो भी सब कुछ हैं, बस अभी उनकी अकड़ के दिन चल रहे हैं। तो अभी अकड़े रहने दो, धीरे-धीरे आएगी नरमी, वक़्त और किस लिए है? या फिर इंतज़ार करो कि ऊपर से ही कुछ अनुग्रह बरसे, कुछ हो जाए। या फिर कोई विचार ही मत करो, तुम चुपचाप अपनी प्रगति का ख्याल करो। और तुम्हारी प्रगति ही वह कारण बन जाएगी जो औरों की भी तरक्क़ी कराएगी। ये जो आखिरी बात मैंने बोली, यह मुझे सबसे ज़्यादा रुचती है। जहाँ पर तुम देखो कि तुम्हारे आसपास के लोग अपनी ज़िद, हठ, अकड़ छोड़ ही नहीं रहे, वहाँ तुम उनकी ओर ध्यान देना बंद करो, अपने पर ध्यान लगाना शुरू करो। एक सीमा तक ही कोई किसी को समझा सकता है देखो, छोटे बच्चे थोड़े ही हैं कि जहाँ उठा कर बैठा दोगे वहाँ लोग बैठ जाएँगे, जो कपड़ा पहना दोगे पहन लेंगे, ऐसा तो है नहीं। सब वयस्क हैं, सबको अपनी ज़िंदगी ख़ुद जीनी है, तो एक सीमा तक ही कोई किसी को बता सकता है, समझा सकता है। कोई ना सुने फिर उसके बाद तो बलात् कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने पर ध्यान दो, वह ज़्यादा अच्छा तरीका है दूसरे में बदलाव लाने का। तुम बदलोगे तो तुम वो रौशनी बन जाओगे जिसकी मदद से दूसरे भी अपना रास्ता देख पाएँगे, ठीक है?