प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे पिछले पाँच-छ: महीने से हम आपको सुन रहे हैं, तो क्या जैसे अब कोई भी काम करते हैं न तो पहले तो कोई लगन होती थी कि भई, अपना ये काम कर लें, इसमें ऐसा कर लें। अब वो लगन नहीं रहती। तो वो काम करने का मन ही नहीं करता। उसका क्या करें?
आचार्य प्रशांत: बेटा, दो बातें हो सकती हैं। जो ज़्यादा सम्भावित है वो ये है कि जो काम तुम कर रहे हो, जो काम अभी तक करते आ रहे थे वो काम शायद ऐसा है ही नहीं कि उसको तुम मनोयोग के साथ कर पाओ। तो इसलिए फिर उस काम की निरर्थकता दिख रही है और उसमें बहुत शक्ति लगाने का मन भी नहीं कर रहा है। ये स्थिति तो असमंजस की होती है। नया अभी कुछ मिला नहीं होता है और पुराने की व्यर्थता दिख रही होती है। आदमी परेशान हो जाता है।
ऐसे समय पर ये मत कर लेना कि सुविधा की ख़ातिर, सुकून की ख़ातिर पुरानी आदतों को दोबारा जीवन में खींचकर बुला लो वापस। फिर मन करता है कि ये अध्यात्म के कारण इतनी उक-बीक हो रही है, उठा-पटक हो रही है, तो इस अध्यात्म से तो कहीं अच्छा वो समय था जब जैसे थे वैसे थे, अपना खाते थे पीते थे, ज़िन्दगी चल रही थी। ये मत कर लेना। कर इसलिए नहीं लेना क्योंकि कर पाओगे नहीं।
कुछ बातें ऐसी होती हैं जो एक बार समझ आ गयीं तो फिर तुम कभी आगे नासमझी नहीं कर सकते। एक बार दिख गयी तो अनदेखा नहीं कर सकते, सुन लिया तो अनसुना नहीं कर सकते। जो कुछ तुम समझ चुके हो अब उसे भुलाओगे कैसे? तो कोशिश भी करोगे अपने पुराने ढर्रों पर जाने की तो बड़ा बुरा सा रहेगा।
प्र: और बड़ा अनजाना सा लगता है।
आचार्य: और बड़ा अजीब लगेगा।
प्र: और जो अभी अनजाना है न, पता नहीं क्यों इतना प्यारा लगता है! ऐसा लगता है कि नहीं, जो भी होगा देखा जाएगा, वापिस तो उस पुराने ढर्रे पर जाने का तो नहीं मन है।
आचार्य: तो मैंने कहा कि ये पहली सम्भावना है। मैंने कहा था दो सम्भावनाएँ हैं, दूसरी सम्भावना भी सुन लो। ऐसा भी होता है कि आदमी अपने आलस के केन्द्र से संचालित हो रहा हो और आदमी के मन पर आलस इतना भारी हो कि वो किसी भी तरह से काम से पीछा छुड़ाने का बहाना खोज ही रहा हो। तमाम बहाने मिलते हैं, 'आज पेट ख़राब है, आज दाँत ख़राब है, आज बच्चा ख़राब है, आज मौसम ख़राब है।' तो एक बहाना और मिल गया, 'आज अध्यात्म ख़राब है। आज जो ख़राबी है वो आध्यात्मिक तल की है तो हम काम नहीं कर रहे।' क्यों? 'अब जी उठ गया ज़माने से।’ ये सम्भावना भी हो सकती है, पर इसकी सम्भावना कम है।
प्र: जैसे आप ही बताते हो कर्मफल की बात, पहले लगन से करते थे पैसे के लिए तो वो खूब करते थे काम। अब वो सोचकर करते हैं न कि फल की इच्छा न करें तो कर्म होता ही नहीं। हमारे मन में ये रहता है।
आचार्य: नहीं बेटा, फल की इच्छा सिर्फ़ वही नहीं कर पाएगा जिसके बन्धन सब कट चुके हैं। जो बन्धनों में जी रहा है वो तो अभी है न, अगर वो अभी है तो फिर कर्ता भी अभी शेष है। और कर्ता शेष है तो कर्मफल भी शेष है। मैं इस बारे में सबको सावधान कर रहा हूँ, समझना अच्छे से। तुम अपने ऊपर ये सिद्धान्त मत लगा लेना कि हमें कर्मफल की इच्छा नहीं करनी है।
एक आदमी जो क़ैद में हो, बेड़ियों से जकड़ा हुआ हो, वो कैसे कह रहा है कि उसे कोई कर्मफल नहीं चाहिए? उसको तो कर्मफल चाहिए, उसको तो क़ैद से मुक्ति चाहिए। उसको तो ऐसे कर्म करने पड़ेंगे जो उसको कर्ताभाव से मुक्ति दिला दे। उसकी ज़ंजीरें ही उसका वजूद हैं। उसका पूरा अस्तित्व क्या बन गया है? ज़ंजीरें। उसे ज़ंजीरों को काटना पड़ेगा न, ज़ंजीरें ही उसकी हस्ती हैं, उसको अपनी हस्ती से आज़ाद होना हो तो उसे ज़ंजीरों से आज़ाद होना पड़ेगा। तो उसे तो ऐसे कर्म करने ही पड़ेंगे जो उसे आज़ादी का फल दें।
तो तुम अभी से ये न कह दो कि मुझे कोई कर्मफल नहीं चाहिए, वरना बड़ी विचित्र स्थिति हो जाएगी कि कर्ता तो तुम बने ही हुए हो और ज़बरदस्ती कोशिश कर रहे हो कर्मफल मिटाने की। वो मिट ही नहीं सकता, वो एक नया कर्म बन जाएगा। कर्मफल का विलोप सिर्फ़ अकर्ता के लिए होता है। जहाँ कर्ता है वहाँ कर्मफल रहेगा-ही-रहेगा।
और कर्ता तुम हो अपनी दृष्टि में। उसका प्रमाण ये है कि पीड़ा भुगत रहे हो। अगर तुम कर्ता नहीं होते, अगर तुम मिट गये होते तो पीड़ा कौन भुगत रहा होता? अभी तुम्हें तकलीफ़ है न? तकलीफ़ है माने बन्धन है, तकलीफ़ है माने तुम हो। तकलीफ़ किसी को तो होगी, या कोई नहीं है जिसे तकलीफ़ है फिर भी तकलीफ़ है, ऐसा हो सकता है क्या? तकलीफ़ का होना ही ये साबित करता है कि तुम अभी हो, तभी तो तुम्हें तकलीफ़ है।
तकलीफ़ अगर है तो कर्ता है, कर्ता है तो उसे फिर सही कर्म करने पड़ेंगे। तुम अभी निष्काम कर्म की नहीं, सम्यक् कर्म की बात करो। सम्यक् कर्म करते-करते एक दिन तुम निष्काम कर्म तक पहुँच जाओगे। अभी तुम बात करो सम्यक् कर्म की।
अभी तुम्हारे लिए कौनसा कर्म उचित है? जो तुम्हारे बन्धन काटता हो। और तुम दोनों तरह के कर्म कर सकते हो। तुम ऐसे भी कर्म कर सकते हो जो तुम्हारी बेड़ियाँ और मज़बूत कर देते हों। अपने ही हाथों से तुम बेड़ियाँ पहन भी सकते हो और अपने ही हाथों से तुम बेड़ियाँ काट भी सकते हो, दोनों ही कर्म तुम्हारे हैं न! अभी सही कर्म करो, सम्यक् कर्म करो। फिर एक दिन निष्काम कर्म भी तुम्हें मिलेगा। अभी तो तुम कर्म करते जाओ और फल पर पैनी निगाह रखो कि मैं अपने लिए क्या फल पैदा कर रहा हूँ।
प्र: आचार्य जी, आपने कहा था कि जब हम सोये हुए होते हैं तब हम डरे हुए नहीं होते हैं, हमारे ऊपर कोई साँप लेट जाए तो भी पता नहीं होता। तो वो भी एक चेतना की अवस्था है। हम जागृत चेतना में ही डरते हैं।
आचार्य: नहीं, सपने में भी डरते हो, पर सपने में तुम जाग्रत विश्व के साँप से नहीं डरोगे। बिलकुल हो सकता है कि ठीक तब जब तुम्हारी छाती पर साँप लोट रहा हो, तुम बिस्तर पर सोये पड़े हो, तुम्हारी छाती पर साँप लोट रहा है। तुम डरे हुए हो लेकिन तुम किससे डरे हुए हो? सपने में तुमको एक कुत्ता दौड़ा रहा है, तुम डरे हुए हो कुत्ते से। तो डरे तो तुम हुए ही हो, लेकिन साँप से नहीं डरे, तुम स्वपन-देश के कुत्ते से डरे हुए हो। इसीलिए जानने वालों ने कहा है कि तुम आदमी ही दूसरे हो जाते हो सोते वक़्त, जब जग रहे हो तो तुम्हारा नाम दिया उन्होंने 'वैश्वानर', कि जब तुम्हारे लिए विश्व है और तुम विश्व के नर हो। और जब तुम सो रहे हो तो नाम ही तुमको दूसरा दे दिया, क्या नाम दे दिया तुमको? तब कह दिया तुम 'तेजस पुरुष' हो। तब तुम दूसरे हो।
तो सोते हुए का आदमी जगते हुए की चीज़ों से नहीं डरेगा। सोते हुए का आदमी भी डरेगा, लेकिन वो डरेगा अपने स्वप्न जगत की चीज़ों से। स्वप्न जगत में कुत्ता है तो वो तुम्हें खूब डरा देगा स्वप्न में। पर छाती पर साँप लोट रहा है, उसकी तुम्हें कोई फ़िक्र ही नहीं होगी। डर तब भी रहेगा, क्यों? क्योंकि डर और चेतना एक ही चीज़ है।
चेतना की अवस्थाएँ भले ही बदलती रहें, डर नहीं जाता। डर जागृति में भी रहेगा, डर स्वप्न में भी रहेगा और समझो कि सूक्ष्म रूप से डर सुषुप्ति में भी रहता है। सुषुप्ति में अगर तुमको डर बिलकुल नहीं बचता तो फिर जब तुम्हारा नाम पुकारा जाता है तो उठ कैसे जाते? अगर तुम्हारा नाम पुकारे जाने पर तुम उठ जाते हो तो इसका मतलब है कि अहम् तो विद्यमान है न। वो अहम् ही तो जान रहा है कि मेरा नाम बुलाया गया और वो गहरी नींद से भी उठ जाता है। और अहम् माने डर, सुषुप्ति में भी डर बना रहता है।
प्र: तो डर के पार जाने का कोई तरीक़ा?
आचार्य: डर से पार जाने का तो यही तरीक़ा है कि चेतना अपना काम करती रहे, तुम अपना काम करते रहो। चेतना का काम है डरना, तुम्हारा काम थोड़े ही है डरना।
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