कर्मफल से बचने का उपाय || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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कर्मफल से बचने का उपाय || आचार्य प्रशांत (2014)

आचार्य प्रशांत: विषय-वासना, विषय माने ऑब्जेक्ट। जब भी आप विषय बनते हो तो आप किसी चीज़ को वस्तु बना देते हो। विषय और वस्तु बनने का मतलब ही यही होता है कि आप अधूरे हैं, कुछ है जो बाहर है और आपसे अलग है। अलग होने का अर्थ ही यही है न कि मैं अधूरा हो गया। विषय जहाँ है, वहाँ वासना रहेगी ही – वासना, ‘पूरा होने की’। हर वासना ‘पूरा होने’ की वासना है। वासना का अर्थ ही यही है कि मुझे पूरा होना है, पूरा होना है!

वास करने का अर्थ समझते हैं? रहना। वासना – जो आपके होने में ही समाहित है; रहती है वो, आप हैं तो रहती है। आप जब तक हैं, तब तक ये चाह रहेगी ही कि कुछ मिल जाए। क्योंकि जो बाहर है वो आपसे अलग है नहीं, आप दीवाल तो नहीं हो न, दीवाल का आकर्षण रहेगा — आकर्षण रहेगा, विकर्षण रहेगा — कोई न कोई इस तरह का सम्बन्ध रहेगा, इसी का नाम वासना है। वासना का मतलब वो है जो आपके होने में ही निहित है। ‘विषय’ का होना ही वासना है। आप कुछ हो, तो विषय होगा। जहाँ विषय होगा, वहाँ वासना होगी।

प्रारब्ध कर्म; कर्मो को दो-तीन तरीकों से बांटा गया है, उनमें से एक प्रारब्ध कर्म है। सही बात तो यह है कि जितने कर्म होते हैं, वो सब प्रारब्ध कर्म ही होते हैं।

प्रारब्ध कर्म का जो दृष्टांत दिया जाता है शास्त्रों में, वो यह है कि तीर चला दिया, और चलाते ही याद आया कि गलत चला दिया है। गलत दिशा में, गलत लक्ष्य पर चला दिया है, पर अब उस तीर को रोक नहीं सकते। वो जा कर के निशाने पर लगेगा ही, यह प्रारब्ध कर्म है। कर दिया है, तो अब तो परिणाम भुगतना पड़ेगा। भले ही पता चल गया करते ही कि गलत हो गया, पर अब परिणाम भुगतना पड़ेगा। जैसे कि कुछ लोग आते हैं कि समझ में तो आ गया कि गड़बड़ हो गयी है, पर अब ये दो छोटे- छोटे बच्चे हैं, इनका क्या करें?

(श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य प्रशांत: तो ये वही है, प्रारब्ध कर्म है।

प्रारब्ध कर्म के विरुद्ध, उससे अलग हट कर जो कर्म होता है, वो होता है संचित कर्म।

प्रारब्ध कर्म है जिसका अभी फल आया नहीं है, पर आएगा ज़रूर, क्योंकि अब तीर चल चुका है, अब रोक नहीं सकते।

संचित कर्म होता है जो पुराना है, पहले से बैठा हुआ है, जैसे देह है, जैसे जितनी भी आपके दिमाग में भरी जा चुकी हैं वृत्तियाँ, वो सब हैं, वो संचित कर्म कहलाती हैं।

इन दोनों ही प्रकार के कर्मों का जो विलय होता है, शास्त्र जिसको बोलते हैं, वो ज्ञान में होता है। वो यही होता है कि हाँ ठीक है, यहाँ से तीर चलाया, अब वो अपना काम करेगा, पर वो अपना काम करे, उससे पहले तुम ये जान लो कि तीर चलाने वाले तुम हो ही नहीं। तो उससे जो कष्ट पैदा होगा, जो दुःख पैदा होगा, वो भी फ़िर तुम्हें अब लग नहीं सकता। तो अब तुम्हें कर्म से मुक्ति मिल गयी। अब तुम उस कर्म से मुक्त हो गए।

वही जो आप पूछ रहे थे न, कि ‘पीड़ा कैसे हो? पीड़ा तो विषय को होती है, वस्तु को नहीं।’ तुम जान लो कि तुम विषय हो ही नहीं, तो बस ये ही है। उसका भी जो उदाहरण दिया जाता है वो ये ही है कि तुमने चोरी की, और तुम जीवन भर चोरियां ही करते आये हो, और तुमने हत्याएं करी हैं और दुनिया भर के अपराध करे हैं, ठीक है? और एक दिन पुलिस आती है तुम्हें पकड़ने के लिए, और जब वो पकड़ने आती है तो पाती है कि तुम मरे हुए पड़े हो, तो अब तुम्हें सजा नहीं मिल सकती, तुम सजा से बच गए। जो कर्मफल होता, जो कष्ट होता, जो पीड़ा होती, उससे तुम बच गये। कर्म का फल होता न? सज़ा मिलती, उससे तुम बच गए, पीड़ा से बच गए। तो शास्त्र यही कहते हैं, कि पीड़ा से बचने का यही तरीका है कि तुम मर जाओ।

मरने का अर्थ समझ रहे हो न? वो रहो ही नहीं जिसने ये कर्म करा था, तो अब तुम्हें उस कर्म का फल भी नहीं मिल सकता। क्योंकि कर्म का फल उसको ही मिल सकता है जिसने वो कर्म किया हो। जिसने वो कर्म किया था वो एक आइडेंटिटी(पहचान) थी, तुम उस पहचान के पार चले जाओ, तुम्हें उस कर्म का फल नहीं मिलेगा, तुम बच गए। इसीलिए मरने पर इतना ज़ोर दिया गया है कि मरो, मर जाओ! तो पुराना जितना तुमने किया था वो सब माफ़ हो जायेगा – मर जाओ। एक बार तुम मर गए, अब कोई क़ानून तुम्हें सज़ा नही दे सकता, मर जाओ!

श्रोता १: सर, कहते है न कि पुराने जन्मों का कर्म का फल…

आचार्य: आप मरे नहीं हो पूरे तरीके से, मर जाओ।

“मरण मरण सब करें, मरण ना जाने कोई” (कबीर साहब का वक्तव्य कहते हुए)

पूरे तरीके से मरो।

वो मरना नहीं कि शरीर से मर गये। मन को पूरा साफ़ कर दो। शारीरिक रूप से मरने में कुछ ख़ास नहीं है, मन को पूरा साफ़ कर दो। मन को पूरा साफ़ कर दो, अब पुराने जितने भी कर्म थे उनका दुःख तुम्हें नहीं भोगना पड़ेगा। तुमने करे होंगे घन-घोर अपराध, पर मन को एक बार पूरा साफ़ कर दो, पूरे मर जाओ, अब कुछ नहीं। अब ना संचित कर्म, ना प्रारब्ध कर्म, कोई कर्म अब तुम्हारे ऊपर लागू नहीं होता।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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