प्रश्नकर्ता: ओशो जी से ये बात सुनी है है कि कर्मफल कर्म के बिलकुल साथ में आता है। कृपया इसे समझाने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: झूठ कोई ऐसे ही तो बोलता नहीं न। हिंसा कोई यूँ ही तो करता नहीं। जितने भी कृत्य होते हैं जिनको तुम पाप कहते हो, वो कोई आनंदित होकर तो करता नहीं। तो दण्ड पहले मिलता है, पाप बाद में होता है।
एक तो भूल है ये सोचना कि पाप का दण्ड पाप के बाद मिलेगा, और ये भी सोचना कुछ बहुत सटीक नहीं है कि पाप का दण्ड पाप के साथ मिलेगा। मैं तो कहता हूँ कि दण्ड पहले मिलता है कर्म बाद में होता है। तुमने विचार किया नहीं हिंसा का कि दण्ड मिल गया न, हिंसा का विचार ही तो दण्ड है। अब हिंसा तो बाद में होगी, जो स्थूल हिंसा है - मान लो तुमने ख़्याल किया कि आज किसी जानवर का गला काटेंगे - वो स्थूल हिंसा तो बाद में होगी, ये जो विचार किया तुमने ये अपने-आपमें बहुत बड़ा दण्ड है।
अब गड़बड़ कहाँ होती है? अगर मामला इतना त्वरित है, तुरत-फुरत न्याय हो जाता है, तो फिर गड़बड़ कहाँ होती है? गड़बड़ ऐसे होती है कि तुम इतने भोंदू हो कि तुम्हें पता भी नहीं चलता कि तुम्हें किस बात का दण्ड मिला है।
समझना। तुमने ख़्याल किया कि आज बकरा काटेंगे और ठीक उसी वक़्त तुम्हें दण्ड मिल गया। दण्ड क्या मिला? मन ख़राब हो गया, पचास तरह की हिंसा भीतर आ गई, तमसाएँ, वासनाएँ उठ गईं, किसी से लड़-भिड़ लिए, भीतर उपद्रव उठ गए, शंकाएँ-चिंताएँ आ गईं या किसी का शोषण करने का ख़्याल आ गया। जो बकरे का गला काटने की सोच सकता है वो अपना गला कटने के प्रति भी तो बड़ा शंकित रहेगा न? और किसी और का गला काटने की भी सोचेगा ही। हिंसा तो एक ही है।
तो ये सब उसके साथ हो गया लेकिन उसमें इतनी भी बुद्धि नहीं है कि वो ये तुक बैठा पाए कि, "मेरे ऊपर ये जो आपदाएँ आ रही हैं, वो इसीलिए आ रही हैं क्योंकि मैंने बकरा काटने का विचार किया।" चूँकि वो ये सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता इसीलिए बकरा काटने से अपने-आपको रोक भी नहीं पाता। वो बकरा काटने का ना सिर्फ़ विचार करेगा, बकरा काट भी देगा।
अगर उसको किसी तरीके से ये स्पष्ट हो जाए कि उसकी ज़िन्दगी के दुःख हैं ही इसीलिए क्योंकि वो तमाम तरीके के हिंसक विचार करता है और कृत्य करता है, तो वो अपने कृत्यों को तत्काल रोक देगा। पर वो ये सम्बन्ध नहीं बैठा पाता ठीक से, और वो सम्बन्ध ठीक से बैठ पाए इसकी सम्भावना भी बहुत कम है।
अब समझना। तुम सोच रहे हो कि कल अपने पड़ोसी को गाली दोगे सुबह उठते ही। तुम्हारे दरवाज़े के सामने पार्किंग कर देता है रोज़। तो तुमने तय कर रखा है कि सुबह उठते ही इसको आज गरियाना है। और उसी वक़्त तुम पाते हो कि रसोई में थे और अपने ही पाँव पर तुमने चाकू गिरा लिया है। तुमको क्या लगेगा? कि चाकू तुम्हारे पाँव पर गिरा है बस संयोगवश, या ये कह दोगे अधिक-से-अधिक कि असावधानीवश। ये ही कहोगे न?
तुमको बताने कोई आएगा ही नहीं कि ये चाकू तुम्हारे पाँव पर गिरा ही इसीलिए क्योंकि अभी-अभी तुमने एक घटिया ख़्याल किया है। उस घटिया ख़्याल ने तुम्हारे भीतर तमाम तरह की उथल-पुथल मचा दी। उसी उथल-पुथल में तुम्हारे पाँव पर चाकू गिर गया। तुम ये सम्बन्ध नहीं स्थापित कर पाओगे कि पाँव पर चाकू गिरने का सम्बन्ध तुमने जो कल सुबह की योजना बनाई है उससे है।
अब सेठ जी बैठे हैं और पानी पी-पीकर सरकार को और बाज़ार को गरिया रहे हैं, "ये बुरा है, वो नालायक है, वो बेईमान है, ऐसा है, वैसा है।" और गाली देते जा रहे हैं और डकार मारते जा रहे हैं। उनको ये कौन बताए कि तुम्हारे पेट में ये जो तूफ़ान आया हुआ है उसकी वजह ही यही है कि तुमने अपने दिमाग को बिलकुल आंदोलित कर रखा है, तुमने अपने दिमाग में उथल-पुथल मचा रखी है। उसी के कारण पेट हरहरा रहा है और डकार-पे-डकार मार रहे हो। लेकिन तुम ये सम्बन्ध नहीं बैठा पा रहे कि तुम्हारे शरीर में जो बीमारी उठ रही है, वो इसलिए उठ रही है क्योंकि तुम कोई पाप कर रहे हो। और कोई डॉक्टर भी तुमको ये बता नहीं सकता क्योंकि डॉक्टर तुम्हारी ज़िन्दगी से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं होता।
प्र: मनोदैहिक रोग।
आचार्य: डॉक्टर इतना बता देगा कि मनोदैहिक है, पर बिलकुल उंगली रखकर ये थोड़े ही बता पाएगा कि तुम्हें ये कौनसे पाप की सजा मिल रही है।
भाई, तुम्हारे पेट में कोई विकार आ गया, अलसर (छाले) बनने लग गए, कुछ और हो गया। डॉक्टर तुम्हें अधिक-से-अधिक यही तो बता देगा कि, "देखिए, इन चीज़ों का सम्बन्ध मन से भी होता है।" इतना बता कर डॉक्टर रुक जाएगा, उसके आगे उसे क्या पता। और तुममें इतनी तीक्ष्णता नहीं है, इतनी शार्पनेस नहीं है कि तुम सीधा सम्बन्ध बैठा पाओ कि, "मेरे पेट में ये जो ज़हर पैदा हो रहा है, वो पैदा ही इसीलिए हो रहा है क्योंकि मैं जीवन में कुछ पाप कर रहा हूँ। अगर मैं वो पाप रोक दूँ, तो भीतर ये सब जो चल रहा है ये भी बहुत हद तक रुक जाएगा।"
तो मैं कह रहा हूँ कर्मफल तत्काल ही नहीं मिलता, अग्रिम मिलता है, एडवांस में मिलता है। ये तो कोई ख़्याल करे ही नहीं कि कर्मफल से बच सकता है। बुरा कर्म बाद में होता है, बुरे कर्म की सज़ा पहले मिल जाती है।
उसकी एक और वजह है। कई बार तुम्हारे पापी इरादे कार्यांन्वित होते ही नहीं। तो विचार तो होता है कि कल पड़ोसी का सर फोड़ूँगा पर तुम्हारा पत्थर निशाने पर लगता ही नहीं। तो अगर देखा जाए, टेक्निकली , तो बुरा कर्म तो हुआ ही नहीं, तो कर्मफल भी नहीं मिलना चाहिए।
कई बार तुम इरादा करते हो कि सुबह किसी को गाली दूँगा, पर सुबह तुम्हारी हिम्मत बोल जाती है। तुम उसके सामने पहुँचते हो कि आज तू-तू मैं-मैं हो ही जाए, पर जहाँ देखते हो तुम उसके चौड़े कंधे, तो कहते हो, "नमस्कार जी, कैसे हैं आप?" तो टेक्निकली तो बुरा कर्म हुआ ही नहीं। विचार बस किया तुमने, इरादा बनाया, कर्म तो तुम कर ही नहीं पाए। जब कर्म ही बुरा नहीं किया तो कर्मफल क्यों मिले? और मैं कह रहा हूँ कर्मफल कर्म पर आश्रित होता ही नहीं। कर्मफल की सज़ा तुमको कर्म से पहले ही मिल जाती है।
तो अब कर्मफल तुमको मिल चुका है, अब कर्म चाहे तुम करो, चाहे ना करो। तुमने विचार तो किया न, तुमने भीतर ये इरादा तो उठने दिया न कि, "कल किसी का सर फोड़ूँगा"? इतने में तुमको सज़ा मिल गई। अब चाहे तुम सर फोड़ो, चाहे ना फोड़ो।
अच्छा, दुनिया का कानून तुम्हें सिर्फ़ तब सज़ा देगा जब तुम किसी का सर फोड़ दो। तब अगर जिसका सर फूटा है वो गवाह वगैरह ले आए तो तुम्हें जेल हो जाएगी। लेकिन अस्तित्व का कानून इस बात की परवाह करता ही नहीं है कि तुम अपने इरादों को कार्यान्वित कर पाए या नहीं। तुमने इरादा बना लिया, सज़ा मिल गई।
प्र२: आचार्य जी, कल आपने कहा था कि परमात्मा ना आपको सुख देता है और ना ही दुःख, तो ये कर्मफल क्या हमें प्रकृति द्वारा दिया जा रहा है?
आचार्य: तुम्हारे ही द्वारा तुमको दिया जा रहा है।
प्र२: परमात्मा तो नहीं दे रहा है न?
आचार्य: परमात्मा नहीं दे रहा है, तुम ही खुद को दे रहे हो। मुक्ति की इच्छा किसकी है? तुम्हारी। और तुम ऐसे काम करो जो तुम्हें मुक्ति की जगह बंधन दें, तो तुम्हें सज़ा किसने दी? तुम्हीं ने तो दी। मुक्ति की इच्छा तुम्हारी ही है और तुमने ही वो हरकत कर दी जो तुम्हें मुक्ति की जगह बंधन दे रही है, तो फिर तुम्हें सज़ा किसने दी? तुमने खुद दी। परमात्मा तो ऊपर बैठकर देख रहा है, कह रहा है, "बढ़िया, दिए चलो।"
मन मैला होता देखो तो तुरंत समझ जाओ कि ये सज़ा भी है और अपराध भी है। मन का मैला होना सज़ा भी है और अपराध भी। सज़ा ऐसे है कि, "मन यूँ ही नहीं मैला हो जाता, ज़रूर मैंने पहले कोई कुकृत्य किया है।" और अपराध ऐसे है कि अब मन मैला हुआ, तो आगे और सज़ा मिलेगी। तुम दोनों तरफ़ से मारे गए। जैसे कि सज़ा मिलना ही अपराध हो। और ये कोई नई बात नहीं है। छोटे बच्चे होते हैं वो घर आते हैं और हाथ दिखाते हैं माँ को कि आज टीचर ने स्केल से मारा। माँ पूछती है, "काहे को मारा?" बोले, "हम नालायकी कर रहे थे", तो माँ एक और चमाट देती है।
तुम्हें सज़ा मिली यही तुम्हारा अपराध है। समझना बात को। तुम्हें सज़ा मिली यही अपराध है तुम्हारा, तो तुम्हें सज़ा मिली तो अब और मिलेगी। सज़ा खाकर काहे को आए?
प्र३: कर्म को करने में तो हम लोग अपने विवेक का इस्तेमाल कर लेते हैं, लेकिन सोचते समय तो कोई भी विचार आ सकते हैं मन में।
आचार्य: वो आ सकता है लेकिन उसको बल तुम ही देते हो। बल मत दो।
प्र३: हमें बल नहीं देना उसे। क्या यही आध्यात्मिक प्रयास है?
आचार्य: हाँ।
प्र४: विचार तो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही आते हैं, उसकी सज़ा क्यों मिलती है?
आचार्य: सज़ा मिलती है जब तुम उसके साथ चल देते हो। तुम्हारे घर के आगे से शराबी निकल गया, तुम्हें कोई सज़ा नहीं मिलेगी। तुम्हारे घर के आगे से जुआरी निकल गया तुम्हें कोई सज़ा नहीं मिलेगी। पर जब तुम उसके साथ चल दिए, तो पुलिस जब जुआरी को डंडा लगाएगी तो तुम्हें भी लगाएगी क्योंकि उसके साथ तुम भी चल रहे हो।
प्र५: विचार के साथ संयुक्त नहीं होना है?
आचार्य: विचार के साथ चल नहीं देना है। वो तुम्हारे घर के आगे से निकल रहा है, उसको निकल जाने दो न।
प्र३: वृत्ति के तल पर?
आचार्य: वही बात है। वृत्ति का आवेग आएगा, आवेग को निकल जाने दो सामने से। तुम्हारे घर के सामने से ट्रक निकल रहा है, तुम्हें कोई सज़ा नहीं मिलेगी। तुम जाकर ट्रक के आगे कूद गए, तुम्हें सज़ा मिल जाएगी। उसको निकल जाने दो न, उसका बड़ा आवेग है, वो ट्रक है। कुछ मत करो।
क्रोध उठा है बिलकुल ज़बरदस्त, तुम बस एक ही काम कर सकते हो अब — कुछ मत करो। बैठ जाओ, उसको निकल जाने दो। रेलवे फाटक पर क्या करते हो? बहुत कुछ करते हो क्या? बहुत कुछ करोगे तो गड़बड़ हो जाएगी। कुछ मत करना। ये जो चीज़ जा रही है, इस माता का आवेग बहुत ज़बरदस्त है, इससे छेड़खानी मत करना। इसको बस चुपचाप निकल जाने दो, तुम चुप बैठो। वो निकल जाएगा, तुम अपने रास्ते जाओ।