प्रश्नकर्ता: आचार्य जी आपने कहा था कि कर्म को नहीं, उसके पीछे के कर्ता को देखना चाहिए, लेकिन उसके लिए वैसी नज़र भी तो चाहिए। हम तो सिर्फ़ कर्म ही देख सकते हैं। कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: पर अगर तुम्हारी नज़र ही यही है कि, "मुझे काम को देखना है" तब तो ये पक्का ही हो गया न कि कर्ता नहीं दिखेगा क्योंकि काम को तो जब भी देखोगे अपने द्वारा तय पैमानों से देखोगे। तुमने पहले से मापदंड तय कर दिए होंगे कि, "मुझे इस इस तरह से काम को परखना है।" कैसे तुम्हें काम को परखना है, ये तुम्हें भी पता है और काम करने वाले को भी पता है। लोगों को कहते हैं न कि आओ साथ में बैठ लें ताकि एक्सपेक्टेशन मिसमैच ना रह जाए। हर कार्यालय में ये होता है — काम कराने वाला बैठता है और काम करने वाला बैठता है और दोनों पहले बैठ कर क्या तय करते हैं? कि भई हम क्या चाहते हैं तुमसे और तुम किस चीज़ की हमको डिलीवरी दोगे। यही तो होता है।
तो अब तुम उसके काम का निर्धारण कैसे करने वाले हो? उन पैमानों पर जिन पैमानों का तुम्हें पहले से पता है और उसको पहले से पता है। अब तुम ये थोड़े ही देखोगे कि जब वो ये कर रहा था उसकी मनोदशा कैसी थी। तुम बस ये देख लोगे कि, "जो मैं चाहता था वो उसने कर लिया कि नहीं।" तुम खुद बड़ी सतही तरीके से देख रहे हो तो तुम उसकी सतह ही देख पाओगे। इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि चूँकि तुम्हारा इरादा ही सिर्फ़ उसकी सतह को देखने का है इसीलिए तुम्हें मजबूरन सतही बने रहना पड़ेगा।
एक दृष्टि चाहिए, एक द्रष्टा चाहिए जिसकी ये नीयत हो ही ना कि, "मैं सतही में उलझा रह जाऊँ।" जो चलते-फिरते आम दृश्यों को भी देखे, आम आवाज़ों को भी सुने तो उन दृश्यों के पार का कुछ देख ले, आवाज़ के पार का कुछ सुन ले। और इसमें एक और मज़ेदार बात है, अब तो तुम बिलकुल भ्रम में पड़ जाओगे — कर्म के पार देखने के लिए कर्म को बारीकी से देखना पड़ता है। कर्म के पीछे जो कर्ता बैठा है उसको देखने का और कोई तरीका नहीं है। एक ओर तो मैं कह रहा हूँ बस कर्म को मत देखो, दूसरी ओर मैं ये भी कह रहा हूँ कि कर्म के पीछे के कर्ता को देखने का एक ही तरीका है — कर्म को देख लो, वरना कर्ता को जानोगे कैसे?
तो फिर कर्म को देखने की दो दृष्टियाँ होती हैं। एक सतही, एक गहरी। वो जो दूसरी दृष्टि होती है उसका कोई तरीका नहीं हो सकता है, मैं तुम्हें कोई विधि नहीं दे सकता हूँ। हाथ जोड़ो, प्रार्थना कर लो — यही है। और अपने-आपको ये पक्का बता दो कि, "वो जो गहरा है वो मिले-न-मिले - हमें नहीं पता वो तो देने वाली की बरक़त है, जब देगा तब देगा - जो गहरा है हमें मिले-न-मिले हमें नहीं पता। जब वो मिल भी जाएगा तो हमें क्या पता चलने वाला है। वो तो अज्ञेय है। लेकिन एक चीज़ तो हमें पता लग ही सकती है, जो उथला है। तो उथले के साथ समझौता नहीं करेंगे। गहरा तू (परमात्मा) कब देगा तेरी मर्ज़ी। उथला हम नहीं लेंगे ये हमारा संकल्प।" ये बात समझ आ रही है?
सच्चाई कब बरसेगी हम पर, हम नहीं जानते लेकिन झूठ नहीं खाएँगे ये हमारा संकल्प है। भूखे रह जाएँगे, झूठ का सेवन नहीं करेंगे ये हमारा संकल्प है। बाकी तू जान सत्य हम पर कब बरसेगा। हम इंतज़ार कर लेंगे। हम इंतज़ार कर लेंगे लेकिन झूठ का सेवन नहीं करेंगे।
झूठे पैमानों से, झूठी दृष्टि से आज़ाद हो लो इतना ही तुम्हारा दायित्व है, इतना ही तुम्हारा बस है, इससे अधिक की तुममें शक्ति भी नहीं। इससे आगे का काम अपने आप होता है।
अक्सर तुमलोग स्टॉल वगैरह पर खड़े होते हो तो विवाद में फँसते हो। धार्मिक यात्रा की शुरुआत हमेशा नकार से होती है। और तुम जब भी किसी से बात करोगे और जो प्रचलित जीवनशैली है उसको नकारोगे, जो आम मनोदशा है उसको नकरोगे, जो आम तर्क-कुतर्क हैं उनको नकरोगे तो बदले में तुम्हारे ऊपर एक प्रश्न दागा जाएगा कि "अच्छा ठीक है, ये सब ग़लत है तो सही क्या है ये बताओ?" वहाँ हाथ जोड़ कर कह देना, "सही हम नहीं जानते। सही हम नहीं जानते लेकिन फिर भी जो ग़लत है उसको हम स्वीकार नहीं करेंगे। ग़लत क्या है ये पक्का पता है। सही का कुछ तो ऐसा है कि हम जानते नहीं और कुछ ऐसा है कि जानते भी होंगे तो बताएँगे क्या ख़ाक, हमारी क्या औक़ात कि हम आपको सत्य बता दें। लेकिन फिर भी हम ये दुस्साहस तो करेंगे ही कि जो ग़लत है उसको ग़लत बोलेंगे।" तो वो कहेगा, "ये कोई बात हुई! ग़लत-ग़लत बताए जा रहे हो और सही क्या है वो बताते नहीं।" बोलो, "बस ऐसा ही है।"
हमें नहीं दिख रहा कि सही रास्ता कौन सा है, इसका यह मतलब थोड़े ही है कि जो ग़लत रास्ते हैं उनमें से ही कुछ चुनकर उनपर चल दें। ये मूर्खता है। हम खड़े रह जाएँगे, हम इंतज़ार कर लेंगे। भूखे रह जाएँगे, ज़हर थोड़े ही खा लेंगे। इंतज़ार कर लेंगे कभी तो पानी आएगा, कभी तो अन्न आएगा और कोई पूछे तुम्हें कि, "कैसे पता आएगा ही?" तुम कहो, "उसे आना ना होता तो वो अपनी जगह खाली क्यों करवाता?"
भाई आप किसी रेस्टॉरेन्ट में खाने जाते हो। वहाँ आप पहले से ही फ़ोन करके अपनी सीट रिज़र्व करवा देते हो। अब उस सीट पर कोई बैठा नहीं है पर उसपर किसी दूसरे को भी नहीं बैठने दिया जाता है। ऐसी ही बात है। कह दो, "उसने दूसरों को बैठने की मनाही कर दी है इसी से पक्का है वो आएगा, कभी तो आएगा। कभी तो आएगा हम इंतज़ार करेंगे। लेकिन ये बड़ी गुस्ताख़ी हो जाएगी कि वो आए और अपनी जगह को भरा हुआ पाए। तो हम कुतर्क को इसपर नहीं बैठने देंगे। हम अहंकार को उसके आसन पर नहीं बैठने देंगे। उनको हम हटाते चलेंगे, हटाते चलेंगे, हटाते चलेंगे और इंतज़ार करेंगे कि वो सबको हटवा रहा है तो इसीलिए हटवा रहा होगा ताकि वो आए।"
और बात अगर और आगे बढ़े तो कहना, "देखिए, समझिए, सबको उसने हटवा रखा है, झूठ को अगर हम नकारते जा रहे हैं तो क्या बच रहा है? खाली स्थान। वो खाली स्थान को मानिए निराकार, निर्गुण सत्य आ ही गया है। हाँ बस ये है कि वो अभी इतना निराकार, इतना निर्गुण, इतना अदृश्य, इतना अलभ्य है कि हम उसको देख नहीं पा रहे हैं, हम उसके बारे में कुछ कह नहीं पा रहे हैं। हम इंतज़ार करेंगे कि कभी वो ज़रा अवतरित भी होगा। कभी वो ज़रा रूप भी धारण करेगा, कभी वो ऐसा हो जाएगा कि हम दर्शन लाभ कर पाएँगे।"
जब तक दर्शन लाभ नहीं कर पा रहे तब तक उसकी गद्दी पर तो किसी और को नहीं बैठने देंगे। हम तब तक यही मानेंगे कि ये जो खाली जगह है इसी का नाम सत्य है। राम जब तक नहीं लौटे थे तो उनकी पादुकाओं की पूजा कर ली, लेकिन ये तो नहीं किया न कि ख़ुद बैठ गए उस (सिंघासन) पर। तो पहले भी राम मौजूद हैं। चौदह वर्ष तक भी अयोध्या के सिंहासन पर थे राम ही, पर कौन से राम? अदृश्य राम। और चौदह वर्ष बाद कौन आए? साकार राम, सरूप राम।
और इस बात में बिलकुल शर्म नहीं करना, "हमें नहीं पता है!" साफ़ कह देना। कोई पूछे भी कि, "अच्छा, बताइए मुझे क्या करना चाहिए?" या पूछे कि, "बताओ कि सत्य क्या है?" या पूछे कि, "ये नहीं तो क्या विकल्प है?" तो हाथ जोड़ कर कह दो, "हम नहीं जानते।" तो फिर तुम पर आरोप लगेगा कि "फिर तो तुम बस निगेटिव (नकारात्मक) बातें करते हो, फिर तो तुम बस नकारते चलते हो। अरे, कुछ सकारात्मक भी बोलो।" तुम कहो, "नकारात्मक-सकारात्मक हम नहीं जानते हम तो बस इतना जानते हैं जिसकी जगह है उसी को देंगे।"
जिसकी जगह है वो आएगा नहीं, जिसकी जगह है वो नज़र आएगा। है तो वो पहले से ही। अभी कैसा है? अदृश्य है। जो आज अदृश्य है वो कल नज़र भी आएगा और नज़र नहीं भी आए तो हम अपनी नज़र ऐसी कर लेंगे कि जो अदृश्य में भी देख ले। क्योंकि सही बात तो ये है कि उसे अदृश्य रहने का कोई शौक़ नहीं। हमारी नज़र ऐसी है कि उसको देख नहीं पा रही।