प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। आचार्य जी, हम सब आपकी सेहत को लेकर काफ़ी चिंतित हैं। तो आप कैसे हैं अभी?
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे सामने बैठा हूँ, बात कर रहा हूँ, कैसा हूँ? क्या प्रश्न है? अगर खराब हो जाऊँगा तो सामने नहीं आऊँगा। जब तक सामने आ रहा हूँ तो ठीक ही है। कोई इसमें ऐसी दिक्कत की बात नहीं है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा जो सवाल है, जो मेन सवाल, वो जो हमारे जन-सामान्य सब लोग हैं, उनसे काफ़ी रिलेटेड (संबंधित) है। ये सवाल इस प्रकार है कि क्या जो ये काला जादू या जो काली शक्तियाँ जिसकी बात हम करते हैं, क्या ये सही में एग्ज़िस्ट (अस्तित्व) करती हैं? जैसे कि किसी इंसान के ऊपर काफ़ी वशीभूत हो जाना, या किसी आदमी को ज़िंदा लाश बना देना, या किसी लाश को ज़िंदा आदमी बना देना।
आचार्य प्रशांत: इस पर कई बार बात की है न? प्रकृति के नियमों में बेटा, कोई नहीं छेड़-छाड़ कर सकता। लोहे को जिस स्थिति में और जिस प्रक्रिया से जंग लगता है, वो लगेगा ही। ये नियम है प्रकृति का। उसमें ये थोड़े ही होता है कि कभी ऐसा होगा, कभी वैसा होगा। बँधा हुआ ठोस नियम है, ऐसा होगा तो ऐसा ही होगा। वैसे ही शरीर भी भौतिक है, उसके भी अपने नियम हैं। उन नियमों को कोई नहीं बदल सकता।
आप ऐसे आदमी को देखते हो तो ऐसा लगता है जैसे कि कुछ खास चीज़ है। चेतना हो सकती है खास, लेकिन ये सब क्या है? तुम इसका (देह का) एनालिसिस (विश्लेषण) करोगे तो इसमें बहुत सारा पानी है, कार्बन है, नाइट्रोजन है। और फिर जाओगे तो फिर जो तुम्हारे मेटल्स (धातुएँ) और मिनरल्स (खनिज) होते हैं, उनके ट्रेसेज़ (सुराग) मिलेंगे।
ये और क्या है?
ये (देह) पूरे तरीके से ऑर्गैनिक केमिस्ट्री (कार्बनिक रसायन) है, ये (देह) तो। और आदमी का शरीर ले लोगे तो सत्तर परसेंट तो उसमें से पानी ही है। उसके बाद जो बचा है, वो बहुत सारा कार्बन है, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फिर उसमें आयरन मिल जाएगा, मैग्नीशियम मिल जाएगा। ये सब ज़िंक, ये सब मिल जाएँगे, छोटे-छोटे।
अब इस पर क्या कोई किसी का जादू-टोना चलेगा? अगर मनुष्य के शरीर पर चल सकता है तो फिर ज़िंक पर भी चल सकता है। ऐसे जादू-टोना करते हैं उनको बोलो, ‘ये ज़िंक है इतना, ये ले लो, और ये कार्बन है, ये ले लो, कोयला।’ उनके सामने कार्बन रख दो और मनुष्य के शरीर में नमक होता है, नमक रख दो। और हाँ, शक्कर भी होती है, शक्कर रख दो। और बोलो, ‘जो करना है इस पर कर दो।’ इस पर अगर कर सकते हो तो ही मनुष्य के शरीर पर भी कर पाओगे, क्योंकि इंसान का शरीर भी ये ही है। इन्हीं से बना नहीं, यही है। ‘यही तो है, लो, कर दो, इस पर कुछ करके दिखा दो।’
नाइट्रोजन, या वाटर, या किसी भी ऑर्गैनिक कंपाउंड (कार्बनिक मिश्रण) के साथ जो हो सकता है, वो केमिस्ट्री (रसायन शास्त्र) के नियमों के अंतर्गत ही हो सकता है। हो तो सकता है, पर वही होगा जिसको रसायन शास्त्र अनुमति देता हो, टोना शास्त्र से थोड़े ही होगा। टोना शास्त्र लेकर नहीं तो फिर तुम किसी केमिस्ट्री की लैब (प्रयोगशाला) में घुस जाओ।
चलता था बहुत समय तक, ऐल्केमी चलती थी। जानते हो ऐल्केमी क्या होती है? अब ये मुश्किल से न्यूटन के समय तक था। न्यूटन खुद ऐल्केमी में लगे हुए थे, बाप रे! न्यूटन के अपने जो नोट्स मिले हैं, न्यूटन ने बहुत सालों तक कोशिश की ऐल्केमी की। ऐल्केमी माने किसी साधारण चीज़ को सोना बना दूँगा। लोहे को, किसी चीज़ को सोना बना दूँगा।
तो बहुत बड़ी मान्यता थी, बस अभी कुछ सौ सालों पहले तक यूरोप में कि ऐल्केमी होती है। और न्यूटन जैसे लोग भी मानते थे कि ऐल्केमी होती है। और वो कहते थे कि ये धर्म ग्रंथों में लिखा है। न्यूटन अपने शुरूआती दिनों में और शायद बाद तक भी बड़े धर्मपरायण आदमी थे।
तो वो भी लगे हुए थे कि… कितनी उन्होंने इक्वेशन्स (समीकरण) लिखीं, ये लिखीं कि कैसे लोहे को या ताँबे को सोना बनाया जाए। अब वो नहीं बन सकता तो नहीं बन सकता, लिखा हो किसी धर्मग्रंथ में। धर्मग्रंथ की तो बात ही नहीं है। हाँ, केमिस्ट्री के किसी ग्रंथ में लिखा हो तो हो सकता है। पर केमिस्ट्री के ग्रंथ में तो तभी लिखा जाएगा जब पहले प्रयोगशाला से साबित होकर आएगा। फिर लिखा जाएगा। समझ रहे हो?
तो ये... क्या बोलूँ इन सब बातों के बारे में?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें सवाल जो ज़्यादा बड़ा यही आता है कि जब जैसे अपने बात की, आइन्स्टायन, वो भी इसमें करते थे। कि मतलब…
आचार्य प्रशांत: न्यूटन, न्यूटन, न्यूटन।
प्रश्नकर्ता: अगर कोई साईंटीफ़िक टेम्परामेंट (वैज्ञानिक रवैया) रखता है, उसके बाद भी अगर इसमें यकीन रखता है, वहाँ पर सवाल फिर थोड़ा सा…
आचार्य प्रशांत: साईंटीफ़िक टेम्परामेंट उसका इतना ही है कि बाहर-बाहर से काम चलता रहे। सबसे बड़ा अंधविश्वासी आदमी भी फ़ोन को तो बटन दबाकर ही चलाता है न? इतना तो साईंटीफ़िक टेम्परामेंट उसका भी होता है।
दुनिया का सबसे बड़ा अंधविश्वासी आदमी होगा, लेकिन अगर उसने अपना फ़ोन में पासवर्ड सेट किया है वन, वन, ज़ीरो, ज़ीरो, तो वो सेवन, नाइन, एट, फ़ोर नहीं डालेगा। वो ये थोड़े ही बोलेगा कि मैं अपने प्रभु का नाम लेकर सेवन, एट, नाइन, फ़ोर डालूँगा तो फ़ोन खुल जाएगा। इतना साईंटीफ़िक टेम्परामेंट तो मजबूरी होता है, सबको रखना पड़ता है। नहीं तो ज़िंदगी ही नहीं चलेगी। तो उतना साईंटीफ़िक टेम्परामेंट, उतना वैज्ञानिक रवैया तो हम सभी रखते हैं कि जितने में हमारी ज़िंदगी की पोल न खुल जाए।
लिफ़्ट में चढ़े हो और दूसरी मंज़िल तक जाना है तो माइनस टू (दो) थोड़े ही दबाओगे। और बोलो कि जाको राखे साईंया मार सके न कोय? करोगे क्या? खाना (का ऑर्डर) देना है किसी रेस्ट्रॉं में तो रेस्ट्रॉं के नंबर की जगह सौ या एक-सौ-एक डायल कर दिया और बोल रहे हो, ‘नहीं, आएगा तो होम डिलीवरी वाला ही।’ “अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
ऐसे तो नहीं करोगे?
या फ़्लाइट पर चढ़े हो, वो (एयर होस्टेस) बोल रही है कि भैया सीट बेल्ट बाँध लो। बोले, “साँचे गुरु का बालका, मरे न मारा जाय।” ऐसा तो नहीं करते? कोई नहीं करता। वो उतारकर नीचे फेंक देगी।
तो साईंटीफ़िक टेम्परामेंट आज के युग की मजबूरी है। नहीं रखोगे तो लतियाए जाओगे। फ़ोन काम नहीं करेगा, फ़्लाइट से फेंक दिए जाओगे, पुलिस उठा ले जाएगी, सड़क पर पीटे जाओगे। तो उतना साईंटीफ़िक टेम्परामेंट तो विवश होकर रखना पड़ता है। पर हम बस उतना ही रखते हैं। रखते हैं, पर उतना ही।
जब बात आती है ऐसी चीज़ों की जहाँ पर हर तरीके की मूर्खता चल जाएगी, कोई पकड़कर प्लेन (हवाई जहाज़) से नीचे नहीं फेंकेगा, वहाँ हम कहते हैं कि यहाँ हम अपने अंधविश्वास को राज करने देंगे, यहाँ हमारा अंधविश्वास काम करेगा।
बड़े-से-बड़े अंधविश्वासी को बोलो कि आज प्लेन उड़ाने पंडित जी, या मौलवी जी, या पादरी जी आएँगे और वो आकर बोलेंगे ‘बम फट’ और प्लेन ऐसे उड़ेगा (एकदम लंबवत उड़ने का इशारा करते हुए), तो तुम बैठोगे ऐसे प्लेन में? तुम देखो, कॉकपिट (वायुयान में चालक-कक्ष) में कोई घुसा जा रहा है धर्माचार्य, किसी भी धर्म-मज़हब का हो, किसी का भी, तो तुरंत क्या करोगे? और वो घुस रहा है सब मंत्र पढ़ते हुए, या कुछ भी…, तो क्या करोगे? फट से भागोगे, क्यों? क्यों भाग रहे हो? क्योंकि पता है कि नहीं चलेगा।
पर उसी प्लेन में जब बैठ जाते हो और टेक ऑफ़ करने वाला होता है तो मैंने कितने ही लोगों को आँख बंद करके मंत्र बुदबुदाते देखा है। खासकर वो लोग जो पहली-दूसरी बार चल रहे होते हैं। समझ में आ रही है बात?
क्योंकि यहाँ तुम्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। यहाँ तुमको पता है कि मामला चल जाएगा। विज्ञान ने हमें मजबूर कर दिया है कि हम वैज्ञानिक मति रखें, पर पूरी तरह मजबूर नहीं कर पाया है। तो जिस हद तक मजबूर कर दिया है, उस हद तक तो रखते हैं। पर जहाँ अभी मजबूरी नहीं, वहाँ हमने अपना भीतरी एक काला, गुप्त तहखाना सुरक्षित रखा है। और उसमें हम अपनी सब मान्यताएँ और अंधविश्वास, वो सब पकड़कर बैठे हैं। क्योंकि वहाँ विज्ञान अभी हमको मजबूर नहीं कर पाया है।
फ़ोन चार्ज़ क्यों करते हो? अपनी आँखों के तेज से उसको एक बार निहार भर दो, वो सिर्फ़ चार्ज नहीं होगा, गर्म होकर फट जाएगा? और एकदम घोर अंधविश्वासी आदमी होगा जो बोलता होगा, ‘कलियुग चल रहा है, ये है, वो है’, वो भी लगाएगा चार्ज़र में ही। मैं तो कहता हूँ, ‘इनके चार्ज़र फेंको सबके, बोलो, तुम्हारे भीतर जो तुमने इतनी ऊर्जा उत्पन्न की है, हर समय ऊर्जा-ऊर्जा, एनर्ज़ी-एनर्ज़ी करते रहते हो। बहुत एनर्ज़ीबाज़, ज़बरदस्त हैं? हमारी ऐसी ऊर्जा उठती है, हमारी वैसी ऊर्जा उठती है। फिर थोड़ी सी ऊर्जा से वो फ़ोन भी चार्ज़ कर लो।’ पर पता है कि वहाँ फँस जाएँगे, तो वहाँ नहीं करते। जहाँ पता है, कोई प्रमाण नहीं माँगने वाला, वहाँ करेंगे। कहेंगे, ‘आज यहाँ (कमर) से ऊर्जा उठी है, यहाँ (पेट की ओर) आ गई है।’ ऐसों को लिटाओ और उनके घुटने ऐसे मोड़ दो उनके पेट के ऊपर (दबाने का इशारा करते हुए), और भड़भड़ाकर जो डकार निकलेगी। बताओ, ‘ये ही थी ऊर्जा तुम्हारी जो उठ रही थी?’
तो विज्ञान हमें मजबूर करता जा रहा है। विज्ञान ने ही हमें मजबूर किया कि कोई भी जाति हो, तुम उसका खून लोगे। हो गए न मजबूर? स्वेच्छा से मानते कभी? स्वेच्छा से जिसकी रोटी नहीं खाते, उसका खून खाते क्या कभी? शरीर में जिसके यहाँ की रोटी नहीं जाने देते, शरीर में उसके शरीर का खून जाने देते क्या कभी? विज्ञान ने मजबूर किया तो मानना पड़ा।
ऐसी ही विज्ञान और पचास चीज़ों के लिए मजबूर करेगा, सब मानोगे? ‘फलाने लोग हमें छूएँ नहीं।’ अच्छा बताओ, जो कपड़ा पहना है किसने बनाया है? वो कपड़ा तुम्हें दिन-रात छू रहा है। ऑव! अब क्या करें? अच्छा, जो खाना देने आता है गेट पर, बताओ, उसकी जाति, धर्म, मज़हब, कुछ बताओ, पता है? पायलट पर वापस आओ, पायलट की जाति कौन-कौन पूछता है? विज्ञान ने मजबूर कर दिया कि हटाओ ये सब नलायकी।
हम ऐसे ही हैं, तमीज़ से नहीं मानेंगे। मजबूर कर दिए जाएँगे, तो मान लेंगे। जहाँ-जहाँ मजबूर नहीं किए जा रहे, वहाँ हम अभी भी अपने पुराने सब अँधेरे लेकर के ज़िद पर अड़े हुए हैं, सब वो ही। धीरे-धीरे सब मजबूर हो रहे हैं, सबको मानना पड़ रहा है। आ रही है बात समझ में?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें कई लोग ऐसे भी होंगे जो कहेंगे कि आपकी तबियत भी किसी टोटके की वजह से, या ऐसे किसी कारण की वजह से खराब हुई है तो?
आचार्य प्रशांत: बेटा, आचार्य तो फिर मैं भी हूँ। तुम अगर मंत्र ही मारोगे तो सबसे बड़ा मंत्र तो गीता का होता है। उससे बड़ा तो कुछ नहीं है। उससे अगर किसी की तबियत खराब की जा सकती तो मुझे पता होता। वो मेरी करते होते तो मैं तुम्हारी कर देता।
सबसे ऊँचा क्षेत्र है चिंतन और चेतना का, उसमें हमने अपनी सबसे घटिया वृत्ति घुसेड़ दी, दर्शन को अंधविश्वास बना दिया। कोई बड़ी बात नहीं है कि बिल्कुल ऐसा होता हो कि लोग गीता के श्लोक लेकर भी बोलते हों कि ये श्लोक मारूँगा तो तेरे बाल उड़ जाएँगे। अंतर्जगत की बात है अध्यात्म। ये जो बाहर का जगत है, ये तो प्रयोग-परीक्षण पर ही चलता है। और ये बात समझना अध्यात्म का हिस्सा है। प्रकृति — बार-बार आपको क्या समझाया जा रहा है — एक नियम है। क्या है?
श्रोता: नियम है।
आचार्य प्रशांत: जिस नियम का कोई अपवाद…
श्रोता: नहीं हो सकता।
आचार्य प्रशांत: नो एक्सेप्शन्स (कोई अपवाद नहीं), नो एक्सेप्शन्स, नो एक्सेप्शन्स। गिवन नॉर्मल टेम्प्रेचर एंड प्रेशर, वॉटर विल बॉइल एग्ज़ैक्टली एट (सामान्य तापमान और दबाव की स्थिति में, पानी ठीक किस तापमान पर उबलेगा)?
श्रोता: हंडरेड (सौ) डिग्री सेल्सीयस।
आचार्य प्रशांत: तुम उसे सौ दशमलव एक नहीं कर सकते यार। क्यों ज़बरदस्ती लगे हुए हो? कोई अपवाद नहीं होते। और कोई आकर ये सब दिखा रहा है कि ये मेरा खास पानी है और ये सौ दशमलव एक पर उबलता है, तो उस पानी में कुछ मिला होगा, या इस आदमी का थर्मामीटर गड़बड़ होगा बस, या इसकी नीयत गड़बड़ होगी।
सौ डिग्री की परिभाषा ही यही है, जब पानी उबल जाए, उसको सौ डिग्री बोलते हैं। तो सौ पर कैसे नहीं उबलेगा? शून्य डिग्री की परिभाषा ही यही है...
श्रोता: पानी जम जाता है।
आचार्य प्रशांत: कोई बोले, ‘नहीं, साहब।’ अरे, तो फिर आपकी जगह पर कुछ प्रेशर कम-ज़्यादा हो सकता है। नॉर्मल ऐटमॉस्फ़ेरिक प्रेशर (सामान्य वायुमंडलीय दाब) नहीं होगा। या आप नमक वगैरह मिला दो पानी में तो उसका फ़्रीज़िंग पॉईंट (हिमांक) ऊपर-नीचे होता है। वो अलग चीज़ होती है।
एक मेरे से बोला, ‘मैं सोता हूँ तो रात में जब सब लाइट-वाइट बंद हो जाती है, लेटता हूँ तो कोई भी खटका होता है तो मैं झटसे दरवाज़े की ओर देखता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे दरवाज़े पर कोई है, वो आने की कोशिश कर रहा है भीतर।’ ये साईंटीफ़िक टेम्परामेंट है, आधा। ये साईंटीफ़िक टेम्परामेंट ही है, पर आधा है।
साईंटीफ़िक (वैज्ञानिक) क्यों है? कि जो आएगा वो दरवाज़े से ही आएगा। पर आधा क्यों है? क्योंकि दरवाज़ा लॉक है। या तो तुम ये कह दो कि आने वाला इतना ज़बरदस्त है कि वो दीवार से भी आ सकता है। तो दरवाज़े की ओर ही काहे को देखते हो बार-बार मुड़-मुड़कर बिस्तर से? और जैसे ही कुछ हवा चली, कुछ हुआ, चूहा है कमरे में, उसने कुछ खट कर दिया, तो खट से किधर को देखा? अगर भीतर घुसने वाला सचमुच वही है, तो दरवाज़े से काहे को आएगा? वो तो ज़मीन फाड़कर आएगा।
पर देखते… दरवाज़े की ओर देखना है क्या? पार्शियल साइंटीफ़िक टेंपरामेंट (आंशिक वैज्ञानिक स्वभाव), कि आएगा तो दरवाज़े से ही। पार्शियल क्यों है? क्योंकि दरवाज़ा तो...
श्रोता: लॉक है।
आचार्य प्रशांत: तो आ सकता तो नहीं है। तो फिर क्यों देख रहे हो? ये हमारी ज़िंदगी है आधी-अधूरी। साइंस (विज्ञान) हमने उतनी ही ली है जितनी हमारी मजबूरी है। जहाँ हमारी मजबूरी नहीं, उसके आगे हमने साइंस ली ही नहीं। वहाँ हमारा अपना फिर किस्सा-कहानी चलता है।
और भी बात है, कोई घुसेगा तुम्हारे कमरे में तो उन्हीं फ़्रीक्वेंसीज़ (आवृत्तियों) पर साउंड (ध्वनि) क्यों एमिट (निकलना) करके आएगा जो तुम सुन सकते हो? जो पूरा ओरल स्पेक्ट्रम (कर्ण स्पेक्ट्रम) है, रेंज़ है पूरी, तुम उसका इतना सा सुन सकते हो हिस्सा, एक प्रतिशत भी नहीं। जो घुस रहा होगा, वो उसी रेंज में आवाज़ काहे को निकालेगा? आवाज़ निकालेगा ही काहे को?
दूसरी बात, आवाज़ निकालने के लिए मटीरियल टू मटीरियल कोलीज़न (पदार्थ की पदार्थ से टक्कर) होना चाहिए। जो घुस रहा है वो मटीरियल तो है ही नहीं, तो आवाज़ क्यों आएगी? आवाज़ तो तभी आ सकती है न जब एक मटीरियल से दूसरा मटीरियल टकराए। जो घुस रहा है वो मटीरियल तो है ही नहीं तो आवाज़ क्यों करेगा? ये पार्शियल साइंटीफ़िंक… तुम साइंस के कारण इतना तो मान गए हो कि घुसने वाला आवाज़ करता है।
इतना तो तुमने मान लिया है, तो आवाज़ होती है तो तुम देखते हो। पर तुम ये नहीं अभी मानने को तैयार हो कि घुसने वाला मटीरियल बीइंग (भौतिक चीज़) ही हो सकता है। और अगर मटीरियल बीइंग है तो दरवाज़े पर लगा हुआ है ताला। नॉन मटीरियल बीइंग (अभौतिक चीज़) के लिए स्पेस (अंतरिक्ष) भी नहीं होता पागल। स्पेस इज़ अ कॉन्सेप्ट ऐप्लिकबल ओनली टू द मटीरियल (अंतरिक्ष एक अवधारणा है जो केवल भौतिक वस्तुओं पर ही लागू होती है)।
अगर कुछ नॉन मटीरियल है जिसका दैहिक अस्तित्व नहीं है, जो एम्बॉडीड (अवतीर्ण) नहीं है, उसके लिए स्पेस भी नहीं होगा। पर इतनी साइंस अभी तुमने स्वीकार नहीं की है। तुम कहते हो, ‘इसी स्पेस में नॉन मटीरियल बीइंग्स घूम रहे हैं।’ अगर वो नॉन मटीरियल हैं, तो वो स्पेस में नहीं हो सकता। जो कुछ स्पेस में है, उसकी डेफ़िनिशन (परिभाषा) ये है ही कि वो मटीरियल है। मटीरियल की डेफ़िनिशन ही क्या है, ’दैट व्हिच एग्ज़िस्टस इन स्पेस’ (वो जो अंतरिक्ष में विद्यमान है)। अगर कुछ नॉन मटीरियल है या डिसएम्बॉडीड (देहमुक्त) है, तो वो स्पेस में नहीं होगा। वो होगा फिर कहीं और। तो वो फिर तुम्हारे स्पेस में तो आएगा नहीं।
तो तुम खुश रहो, सो जाओ। पर उतनी साइंस हम नहीं मानते। हम उतनी ही साइंस मानते हैं जितने में मोबाइल फ़ोन चार्ज़ हो जाए और हम इंस्टा ऐप्स देख लें, वो रील्स देख लें। वो भी विज्ञान है पूरा-पूरा। उतना हम मानते हैं। वहाँ काहे नहीं करते हो, ‘बम-बम-भू!’, गूगल में सर्च क्यों करते हो? गूगल में फूँकते क्यों नहीं? उतना विज्ञान तो मानते हो कि जब तक सही सर्च फ़्रेज़ नहीं दोगे तब तक सही… लॉज़िक है, वहाँ तो लॉज़िक मानते हो। पर ज़िंदगी में लॉज़िक नहीं मानते।
गूगल तुम्हें सही कुछ जवाब दे, इसके लिए तुम गूगल को सबसे पहले सही बात बोलते हो और अपनी ज़िंदगी में ऐसा नहीं करते। कहते हो, ‘हम तुम्हें नहीं बताएँगे, तुम खुद ही समझ लो।’ करते हो, नहीं? तुम न बताओ तो गूगल भी कुछ समझेगा? तो तुम न बताओ तो तुम्हारा बॉयफ़्रेंड कैसे समझेगा? पर वहाँ तो ये बोलते हो, ‘तुम इतनी सी भी हमारे दिल की बात नहीं समझते? हमें अगर बताना ही पड़ा, तो हमारा रिश्ता कैसा?’
यही गूगल को बोलो। उसके सामने बैठ जाओ, बोलो, ‘तू मेरा दिल पढ़ ले।’ गूगल के सामने चलेगा नहीं, मजबूर हो। तो गूगल के सामने ये नालायकी करते भी नहीं। बॉयफ़्रेंड के सामने ये नालायकी चल जाती है। तो इसलिए वहाँ खूब करते हो। ‘क्या बात है?’ ‘नहीं, कोई बात नहीं है।’ ‘नहीं, बता तो दो, क्या बात है?’ ‘नहीं, कोई बात नहीं है। नहीं, जब तुम समझते ही नहीं तो हम क्या बताएँ तुम्हें, क्या बात है?’
यही वार्तालाप आप गूगल से करिए। और जिस दिन बॉयफ़्रेंड भी मजबूर कर देगा, उस दिन उसके साथ भी ये वार्तालाप नहीं करोगे। अभी वो स्वार्थी बैठा हुआ है। उसके भी अपने कुछ स्वार्थ हैं और इरादे हैं। तो वो सब झेल लेता है। तो उसके साथ ये चल जाता है कि इनपुट बिना आउटपुट चाहिए।
बाहर क्या है — अध्यात्म से पूछ रहा हूँ — बाहर क्या है? प्रकृति। जो कुछ भी इंद्रियगत है, वो क्या है?
श्रोता: प्रकृति।
आचार्य प्रशांत: और प्रकृति किस पर चलती है?
श्रोता: नियम पर।
आचार्य प्रशांत: उन नियमों का कोई अपवाद?
श्रोता: नहीं होता।
आचार्य प्रशांत: बस, खत्म बात। और उन्हीं नियमों को जानने को कहते हैं विज्ञान। बस, और कुछ नहीं। तो विज्ञान अध्यात्म का ही एक क्षेत्र है। विज्ञान में, अध्यात्म में कोई लड़ाई नहीं है। अध्यात्म में दोनों आते हैं न, दृष्टा भी और दृश्य भी। तो दृश्य के संधान को कहते हैं विज्ञान। दृष्टा और दृश्य, दोनों को जानने को कहते हैं अध्यात्म।
तो ये दोनों कोई ऐसा थोड़े ही है कि अरे, तुम तो बहुत मॉडर्न (आधुनिक) हो गए और साइंस की बात करते हो। हम पुराने लोग हैं, हम स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) की बात करते हैं। ऐसा कुछ नहीं है कि मॉडर्निटी (अधुनिकता) माने साइंस और बैकवर्डनेस (पिछड़ापन) माने स्पिरिचुअलिटी। स्पिरिचुअलिटी माने साइंस प्लस सेल्फ़ नॉलेज़ (विज्ञान और आत्मज्ञान), विद्या और अविद्या दोनों। इधर (बाहर) अविद्या, इधर (भीतर) विद्या।
बहुत गलत नहीं होगा अगर आप कहो कि साइंस इज़ अ सबसेट ऑफ़ स्पिरिचुअलिटी (विज्ञान अध्यात्म का एक उपसमुच्चय है)। कहीं भी देखो कि साइंस और स्पिरिचुअलिटी में कोलीज़न (टक्कर) हो रहा है, कॉन्ट्रडिक्शन (विरोधाभास) दिख रहा है, तो जान लेना कि वो स्पिरिचुअलिटी नकली है। जहाँ कहीं भी देखो कि कोई अध्यात्म के नाम पर बोल रहा है कि विज्ञान तो बेकार की बात है, जान लेना वो आदमी नकली है।
असल में नकली ग्रंथ को, या नकली साधक को, या नकली आध्यात्मिक गुरु को पहचानने का ये एकदम रामबाण तरीका है। ये देखो कि उसका साइंस, विज्ञान के प्रति रुख क्या है। जिस स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) ग्रंथ में, या टीचर में साइंस के लिए इज़्ज़त न हो, वो आदमी साइंस को ही नहीं स्पिरिचुअलिटी को भी इज़्ज़त नहीं देता। उसको ऐसे ही करो, क्या? क्रॉस (उँगलियों से क्रॉस का निशान बनाते हुए)।
अगर आपको कोई स्पिरिचुअल लीडर मिला जो साइंस का मज़ाक उड़ाता है, या साइंस के महत्व पर ज़ोर नहीं देता, तो वो आदमी साइंस ही नहीं स्पिरिचुअलिटी से भी अनभिज्ञ है। उसको पूरी तरह हटाओ। और और हमारे देश में खासकर, दुनिया में भी, अमेरिका में भी वैसा ही है, ये बन गया है कि जो लोग साइंस से घबराते हैं वो स्पिरिचुअलिटी में घुस जाते हैं। क्योंकि साइंस की दुनिया न बड़ी सख्त है, वहाँ आपकी भावना और आपकी कल्पना और आपके गुलाबी अरमानों के लिए कोई जगह नहीं होती। है न?
मैं यहाँ से गेंद फेकूँगा, गुलाबी गेंद, तो वो गुलाबी गेंद मैंने जिसकी तरफ़ और जिस गति से फेंकी है और जिस कोण पर फेंकी है, वो वहीं जाएगी। आप कितना भी अरमान कर लो कि मेरी गुलाबी गेंद आपके पास आए, ऐसे अरमान से नहीं आएगी आपके पास। वो तो जो नियम है उसी नियम के अनुसार जैसे फेंकी होगी, वैसे ही पहुँच जाएगी।
चूँकि विज्ञान हमारे अरमानों को महत्व नहीं देता, तो इसलिए बहुत लोग, खासकर जो इमोशनल (भावनात्मक) किस्म के लोग होते हैं, वो विज्ञान से बहुत चिड़ते हैं, बहुत। क्योंकि वहाँ तर्क चलता है। वहाँ कारणता चलती है, कॉज़ैलिटी चलती है। कॉज़ैलिटी का मतलब है जो करोगे वो भरोगे। और बहुत लोग होते हैं जो कहते हैं, ‘नहीं, हमने किया तो कुछ नहीं है, पर हमें मिलना इतना चाहिए।’ अब ये लोग साइंस से नफ़रत करेंगे। तो वो नफ़रत करेंगे। समझ में आ रही है बात?
कारणता, कॉज़ैलिटी। तो इसलिए लोग फिर साइंस से मुँह छुपाने के लिए आते हैं एक नकली किस्म की आध्यात्मिकता में। जहाँ बोला जाता है साइंस कुछ नहीं होती, मटीरियल वर्ल्ड (भौतिक जगत) भी मिस्टिकल (रहस्यमय) बम-फट से चलेगा। मटीरियल वर्ल्ड, मटीरियल लॉज़ (भौतिक नियम) से चलेगा, वो मिस्टिकल फूँ-फाँ से नहीं चलेगा।
मिस्टिकल फूँ-फाँ करने वाले बस एक मोबाइल चार्ज़ करके दिखा दें। बोलो, ‘गुरुजी, बाकी सब तो ठीक है, आपकी ज़बरदस्त ऊर्जाएँ हैं, ये मेरा मोबाइल डिसचार्ज़ हो गया है। थोड़ा… और आपको जो दान-दक्षिणा देनी थी, वो यूपीआइ से ही देते, पर देंगे तभी जब आप अपनी गुप्त ऊर्जाओं से मेरा मोबाइल चार्ज़ कर दें। चार्ज़ कर दीजिए, हम अभी सब सर्वस्व अर्पित कर देंगे।’
जितने-के-जितने ये सारे ये ही... ‘ऐसा हो सकता है, ऐसा किया जा सकता है, देयर इज़ अ पॉसिबिलिटी (सम्भावना है), देयर इज़ अ पॉसिबिलिटी।’ ‘अरे, पॉसिबिलिटी तो है, करके तो दिखा दे। पॉसिबिलिटी तो कुछ भी हो सकती है। ये भी दैट यू आर इन्सेन (कि तुम पागल हो)। एनीथिंग इज़ पॉसिबल (कुछ भी संभव है)। कम ऑन, प्रूव इट, डेमन्स्ट्रेट (आइए, इसे साबित करें, प्रदर्शन करें)। देयर इज़ नो डेमन्स्ट्रेशन (कोई प्रदर्शन नहीं है)। जस्ट अ बिविल्डरिंग पोरस ऑफ़ टेम्प्टिंग पॉसिबिलिटीज़ (बस, आकर्षक संभावनाओं का एक विस्मयकारी झरना)।
वो जो पॉसिबिलिटी है वो सारी मालूम है क्या होती है? कामना। ताकि आपके भीतर आपको बोला जाए, ‘देयर इज़ अ पॉसिबिलिटी।’ ताकि आपकी कामना को लगे, ‘कुछ संभावना है।’ और कामना होती ही मूर्ख है, उसको बस इतना बोल दो, ‘इट इज़ पॉसिबल’ (ये संभव है)। तो वो दस साल आपके चक्कर लगाएगी जिसने बोल दिया हो, ’इट इज़ पॉसिबल।’ दस साल चक्कर लगाएगी। उसको बस इतना बोल दो, ‘देयर इज़ अ पॉसिबिलिटी।’
वैसे, बात तो उसने (प्रश्नकर्ता ने) सही बोली। अब जैसे-जैसे ये होगा कि कुछ हो गया है इनको, वैसे-वैसे बहुतों की बाँछें खिलेंगी। ये जो इसने चुनौती दी थी न कि भूत-प्रेत कुछ कर सकते हैं तो करें। और वो जो अभी चुड़ैल वाला वो बोला था, ‘छम्मो चुड़ैल’, तो छम्मो चुड़ैल ने दिखा दिया।
संस्कृत का कोई ऊँचा ग्रंथ नहीं जो मैंने नहीं पढ़ा। और ज़्यादातर न सिर्फ़ पढ़े बल्कि पढ़ाए। आप जिसको धर्म बोलते हो, दशकों से उसी के ग्रंथों को पढ़ता हूँ, पढ़ाता हूँ। मेरे ऊपर मंत्र मारेगा? सारे मंत्र तो मेरे पास हैं। और इतना ही नहीं, छम्मो चुड़ैल तो देसी है, मैंने तो जो विदेशी मंत्र हैं वो भी पढ़े हैं, वो भी पढ़ा रहा हूँ।
छम्मो चुड़ैल को ज़ुआंग ज़ू (चीनी दार्शनिक) का कुछ पता है? घबरा जाएगी, पता है उसे? मैं अभी रूमी को खड़ा कर दूँ, बोलूँ, ‘अपना सूफ़ी व्हिर्लिंग शुरू कर दीजिए।’ घूमेंगे रूमी, छम्मो चकरा जाएगी। मेरे पास तो इम्पोर्टेड (आयातित) मंत्र भी हैं, क्या करेगी छम्मो मेरा?
और धार्मिक के अलावा जो, जिन्हें तुम बोल लो, मात्र दार्शनिक, वो मंत्र भी हैं। जिनका नाम ही नहीं सुना होगा छम्मो ने। वोल्टायर (फ्रांसीसी लेखक) थे, वो बड़े रंगीन मिज़ाज थे। वो छम्मो को ही छेड़ देंगे। मेरी दोस्ती तो वोल्टायर से भी है। मार्क्स (जर्मन दार्शनिक) को ले आऊँगा। छम्मो को बोलेंगे, ‘तू अंदर जाएगी, अफ़ीम चटाती है सबको।’
छोड़ो!