प्रश्नकर्ता: जिस व्यक्ति के जीवन में चैन नहीं है, उत्तेजना बहुत ज़्यादा है। इसका मतलब ये है कि वो पदार्थों के तल पर ही जी रहा है। सर, प्रश्न ये है कि उसको अगर शिफ्ट करना है तो कैसे करें?
आचार्य प्रशांत: जाँच करें, थोड़ा प्रयोग करें। जो कुछ बहुत कीमती लगता है, उससे अपने आप को ज़रा सा दूर करें। जो कुछ बहुत डरावना लगता है उसके ज़रा नज़दीक आएँ और देखें कि क्या हो जाता है। क्या वास्तव में उतना फायदा या उतना नुकसान है, जितने की कल्पना कर रखी है? क्या मिल जाता है? क्या खो जाता है?
आप जब किसी चीज़ को महत्वपूर्ण बना लेते हैं तो आप उस पर किसी भी तरह का प्रश्न उठाना छोड़ ही देते हो। आप कहते हो "ऐसा तो है ही।" आप ये जाँचना ही छोड़ देते हो कि क्या वास्तव में ऐसा है?
आप ये प्रयोग करके देख लीजिएगा। जिसे आप कीमती समझते हो वो आपके अनुमान से बहुत कम कीमती है।
और जिसे आप भयावह समझते हो वो आपकी आशंका से बहुत कम डरावना है। प्रयोग करके देख लीजिए।
आप जिसकी अपेक्षा में जी रहे हो, उससे आपको आपके अनुमान से कहीं कम लाभ होने वाला है। और आप जिससे दूर भाग रहे हो, उससे आपको आपके अनुमान से कहीं कम हानि होने वाली है।
ये तथ्य ज्यों ही सामने आता है, त्यों ही वो सब कुछ जो आपके लिए महत्वपूर्ण था; और महत्वपूर्ण माने या तो आकर्षक था या भयानक था, दोनों में से किसी भी तरीके से महत्वपूर्ण था, उसकी महत्ता कम हो जाती है।
कोई तीसरी चीज़ आपके लिए महत्वपूर्ण होती भी नहीं है। दो ही चीज़ें हैं जो आपके लिए महत्वपूर्ण हैं। एक वो जिनसे आकर्षण का रिश्ता है, खींचती हैं; दूसरा, जिनसे विकर्षण का रिश्ता है, जिनसे बचते हो, दूर भागते हो। दोनों में ही दिख जाएगा कि, "उतना ज़ोर ही नहीं, उतनी खासियत ही नहीं, जितना मैं इन्हें महत्व, ऊर्जा, ख्याल देता था।"
“जिसको दिन रात पाने के बारे में सोच रहा हूँ, ध्यान देता हूँ तो पता चलता है कि वो मिल भी जाएगा तो कुछ मिला नहीं, और जिसको दिन रात बचा रहा हूँ कि खो न जाए, ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ कि अगर वो खो भी गया तो कुछ खोया नहीं।” तो अब बताओ कि महत्वपूर्ण क्या बचा? जब महत्वपूर्ण कुछ बचा नहीं तब नज़र साफ़ रहती है, तब साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है, क्या? कुछ भी नहीं क्योंकि दिखता तो आपको वही सब कुछ था जो आपके लिए महत्वपूर्ण था। तो क्या दिखाई पड़ता है? कुछ भी नहीं।
जब कुछ भी न दिखे, तो समझो देखा। अँधा कौन? जिसे बहुत कुछ दिखाई देता है। पागल कौन? जो ऐसी-ऐसी चीज़ें देख रहा है जो आप कभी देख ही नहीं सकते। जिसने सत्य का दर्शन किया, वो ‘वो’ है, जिसे अब दिखाई देना बंद हो गया। उसे अब दिखाई ही नहीं देता।
संसारी, साधक और समाधिस्थ में यही तो मूल अंतर है। संसारी को चारों तरफ़ वैविध्य ही वैविध्य दिखाई देता है, सब कुछ अलग-अलग अलग-अलग। साधक को बस दो दिखाई देते हैं, सत्य और असत्य। और समाधिस्थ को बस एक दिखाई देता है, सत्य।
आप तो चारों ओर देखते हैं तो आपको हज़ारों चीज़ें दिखाई देती हैं हज़ारों, “ये है, ये है।” जो उन्नत साधक होता है उसे बस दो दिखाई देते हैं, वो कहेगा “सत्य है और माया है। सत्य है और असत्य है।” उसे दो दिखाई दे रहे हैं। और जो वास्तव में सत्य तक पहुँच गया, जो समाधि के आसन पर बैठ गया, उसे फिर दो भी नहीं दिखाई देते, उसे बस एक दिखाई देता है। तो उसे दिखाई देना ही बंद हो जाता है, इसीलिए कह रहा हूँ जिसकी आँखें खुलती हैं उसे दिखना ही बंद हो जाता है।
दिखने का तो अर्थ ही यही है न, अलग-अलग दिखें, बहुत सारी चीज़ें दिखें। वो दिख ही नहीं रहा, वो तो जिधर देख रहा है उधर बस एक प्रगाड़ शून्यता, ‘जित देखूँ, तित तू।’ अब जिधर देख रहे हो, एक ही चीज़ दिखाई दे रही है, तो फिर दिख क्या रहा है? कुछ नहीं दिख रहा। इस कुछ नहीं दिखने को ही वास्तविक दृष्टि कहा जाता है। अब, ‘देखा’ तुमने। यही सरलता है।
जीवन बड़ा हल्का हो जाता है। आपको कदम-कदम पर सावधान नहीं रहना पड़ता, आपको कदम-कदम पर चुनाव और विश्लेशण नहीं करना पड़ता। आपके निर्णय बड़े आसान हो जाते हैं, आप कहते हो “दो ही तो हैं। सत्य को चुन लो; असत्य को छोड़ दो” और जब और आगे बढ़ते हो तो आप कहते हो “चुनने की ज़रा भी ज़रूरत क्या है, जो ही आएगा वो सत्य ही होगा।”
हाँ, जो संसारी है उसे बहुत चुनना पड़ता है “ऐसा करेंगे तो ऐसा हो जाएगा, ऐसा होगा तो ऐसा हो जाएगा, ऐसा तो ऐसा करें, फिर ये करें, फिर वो करें, यहाँ ये ऊँच है, यहाँ ये नीच है, दाएँ चलें, कि बाएँ चलें, फिर थोड़ा सा मुड़ लें, इससे भी पूछ लें, ये खरीदें कि न खरीदें, ये बेंचे कि क्या करें?” उसको हज़ार तरीके के दंद-फंद और पचास तरीके के विचार करने पड़ते हैं। तमाम शक़ रहेंगे, शुब्हे रहेंगे, “ये है तो ये है, देखो ऐसा है।” वो ज़िन्दगी को बिंदास नहीं जी पाएगा। वो ऐसे नहीं जी पाएगा, “ठीक, हो गया ठीक चलो, आगे बढ़ो।” ये भाव ही नहीं रहेगा, "आगे बढ़ो।"