जितना घटोगे, उतना बढ़ोगे || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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जितना घटोगे, उतना बढ़ोगे || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

प्रश्नकर्ता: भगवान श्री प्रणाम। आप कह रहे हैं कि जैसे मन घेरा है, अहम् केन्द्र है। तो अपने अन्दर तो कुछ नहीं दिखता, विचार तो दिख रहे हैं, कि विचार है, वस्तु से सम्बन्ध है, व्यक्तियों से सम्बन्ध है। तो क्या ये विचार ही कन्डैन्स्ड (घनीभूत) होकर अहम् है? ये जो सब सम्बन्ध, उसका अलग कोई अस्तित्व नहीं है, मतलब उस घेरे का, जो नॉट (गाँठ) हो गयी, जिसको कृष्णमूर्ति साहब कहते हैं, ‘इट इज़ अ नॉट ऑफ़ मेमोरी‘ (ये स्मृति की एक गाँठ है)।

आचार्य प्रशांत: एकदम ठीक! वास्तव में अगर आप उस घेरे को संकुचित करते जाएँ, करते जाएँ, तो भीतर जो बैठा है, जो केन्द्र पर है, उसका दम घुट जाएगा, वो जी नहीं पाएगा। इसीलिए तो वो अपने घेरे को और ज़्यादा विस्तृत करता रहता है न। हम अपनी ज़िन्दगी में और-और चीज़ें क्यों भरते रहते हैं, और ज़िन्दगी से कुछ भी निकालना मुश्किल क्यों पड़ता है, देखा है?

कभी कोई बोलता है कि मुझे अनासक्ति की समस्या है? सुना है, कि मुझे समस्या ये है कि मैं बहुत डिटेच्ड (अनासक्त) हूँ? समस्या हमेशा क्या होती है? कि भर लिया, भर लिया, और जो भर लिया फिर उसे बाहर नहीं फेंक पा रहे। भरने को हम आतुर रहते हैं, कभी ग़ौर तो करा करिए क्यों। क्योंकि जितना तुम भर रहे हो मन के घेरे में, उतना ज़्यादा मन को प्राण दे रहे हो।

और मन को तो प्राण चाहिए न, वो जीना चाहता है; कौन? जो मन के बीचों-बीच है। वो सामग्री माँगता है - ‘और दो सामग्री, और दो सामग्री।‘ जितनी चीज़ों को वो छू सकता है, जितनी चीज़ों का वो अनुभव कर सकता है या विचार कर सकता है, वो हर चीज़ उसके प्राण के लिए उपयोगी हो जाती है। उसके पास से चीज़ें हटा दोगे, तो फिर उसके पास कुछ नहीं बचता, उसके पास फिर जो आख़िरी विषय बचता है जीने के लिए, वो है ‘मैं’ ही।

और वो फिर अहम् की आख़िरी अवस्था होती है जब अहम् के पास जुड़ने के लिए, सम्बन्धित होने के लिए कुछ नहीं बचता, तब वो अवस्था आ जाती है जिसको बोलते हैं ‘मैं’ — मैं, आई। वरना अहम् क्या करता है? ‘आई बॉडी’ (मैं शरीर), ‘आई मैन’ (मैं आदमी), ‘आई रिच’ (मैं अमीर), और इसमें वो अपना काम चलाता रहता है। सब हटा दो तो फिर आख़िरी में क्या बचता है? ‘आई आई’।

और ये बहुत अस्थायी बात है, क्योंकि ‘आई आई’ जब होता है तो ये दोनों आई फिर हट ही जाते हैं। बिलकुल आख़िरी बात है ये - ‘आई आई , मैं मैं, अहम् मात्र’।

प्र: आपने कहा कि अपने ख़िलाफ़, अहम् के ख़िलाफ़ जाना। तो इसको जैसे मैं अपने जीवन में करने की कोशिश करता हूँ तो प्रतिरोध बहुत है। तो उसके लिए तो फिर बल ही, आत्मबल?

आचार्य: अहम् का ही बल, अहम् का ही बल अहम् के विरुद्ध प्रयोग करना है। देखिए अहम् को हम बहुत धिक्कार तो देते हैं, पर ये भूलिएगा नहीं कि उसे धिक्कारने वाला भी कौन है? अहम् ही है। और हम अहम् को इसीलिए धिक्कारते हैं — हम अहम् को माने अहम् अहम् को — अहम् अहम् को इसीलिए धिक्कारता है क्योंकि ये जो अहम् है ये अपना ही दुश्मन है। जैसे आप अपनेआप को ही चाँटा मारें, कि तुम क्या कर रहे हो अपने साथ।

आप कुछ ग़लती कर देते हैं तो अपनेआप को धिक्कारते हैं कई बार कि नहीं धिक्कारते हैं? ये क्यों धिक्कारते हैं? क्योंकि हम अपने ही दुश्मन हो रहे हैं न। तो जब हम कह रहे हैं कि अहम् को समाप्त करना है, तो इसलिए नहीं कह रहे हैं कि अहम् से अहम् को कोई दुश्मनी है, बल्कि इसलिए क्योंकि अहम् अपनी भलाई चाहता है। पूरा अध्यात्म ही इसीलिए है कि अहम् की भलाई हो सके। पर ये नाज़ुक, बारीक बात समझिए - अहम् की भलाई अहम् के विलोप में है, उसको अगर आपको बेहतर बनाना है तो आपको उसको मिटाना पड़ेगा।

ये थोड़ी अजीब सी चीज़ है अहंकार। बाक़ी चीज़ों को जब आप बेहतर बनाना चाहते हैं तो उनको चढ़ाते हैं, चमकाते हैं, समृद्ध बनाते हैं, बड़ा करते हैं, उनमें आप संवृद्धि लाते हैं; यही सब करते हैं न? दुनिया में और भी कोई चीज़ जब आप बेहतर करना चाहते हैं, तो आमतौर पर वो उसकी वृद्धि के माध्यम से होता है। अहम् अकेली शय है जिसकी बेहतरी उसकी वृद्धि में नहीं, उसके विलोप में है।

ये बात अहम् को ही समझ में नहीं आती, क्योंकि अहम् को अनुभव किसका है? वस्तुओं का, और वस्तुओं में कोई वस्तु ऐसी देखी है जिसकी बेहतरी इसमें हो कि वो वस्तु ही नहीं बची? दुनिया में कोई चीज़ ऐसी है जो जब बचती ही नहीं, शून्य हो जाती है, तो सर्वश्रेष्ठ हो जाती है, सर्वोच्च हो जाती है? दुनिया में ऐसी तो कोई भी चीज़ नहीं है।

आप ये ज़रूर बोल सकते हैं कि आपके पास एक अनगढ़ हीरा आता है खदान से निकलकर के तो फिर आप उसको तराशते हैं, तराशने में आप उसके कुछ हिस्से हटा देते हैं तो फिर वो निखर जाता है, चमक जाता है। लेकिन उसके बाद भी, उसके कुछ हिस्सों को हटाने के बाद भी हीरा बचा तो रहता है न? अहम् वो हीरा है जो सबसे ज़्यादा तब चमकता है जब वो पूरा ही तराश दिया जाता है, कुछ भी नहीं बचा।

‘क्या कर रहे हो? हीरा तराश रहे हैं।‘ तराशते जा रहे हैं, तराशते जा रहे हैं, वो कैसा होता जा रहा है? छोटा होता जा रहा है, छोटा होता जा रहा है, छोटा होता जा रहा है। और जब वो बिलकुल नहीं बचता, तब वो अमूल्य हो जाता है। जब तक छोटा होता जा रहा है, तब बस उसका मूल्यवर्धन हो रहा है, और जब उसमें कुछ नहीं बचता तब वो अमूल्य हो जाता है।

ख़ैर, हीरा तो फिर भी एक विशिष्ट उदाहरण है जिसमें कि चीज़ बेहतर तब होती है जब चीज़ छोटी होती है, बाक़ी तो उदाहरण आप दुनिया से ज़्यादातर वो उठाएँगे जिसमें जितना बड़ा उतना बेहतर माना जाता है। घर कैसा चाहिए? गाड़ी कैसी चाहिए? दुनिया में जो कुछ भी चाहिए, उसके साथ आमतौर पर आप विशेषण ‘बड़े’ का ही लगाते हैं - ‘बड़ी नौकरी मिली है,’ ‘बड़ा खूबसूरत है,’ ‘बड़ा स्वादिष्ट है’। तो आशय हमेशा वृद्धि से रहता है, कि बढ़ोतरी हो।

अहम् के साथ मामला दूसरा है, वहाँ पर घटोतरी चाहिए। घटोतरी का उसे कोई अनुभव नहीं, उसने दुनिया की ओर देखा हमेशा, उसने चीज़ों को बढ़ते हुए देखा हमेशा। वो घटने को राज़ी नहीं, उसको घटाना है, इसलिए मुश्किल पड़ता है। मुश्किल पड़ता है, लेकिन उस मुश्किल को जीतने के लिए ताक़त भी अहम् की ही आएगी। कब देगा वो ताक़त? अहंकार अपने ख़िलाफ़ जाने की ताक़त स्वयं देगा, पर किस शर्त पर देगा? जब उसको याद दिलाया जाए कि अपने ही ख़िलाफ़ जाकर अपना ही भला कर रहे हो।

छोटे-छोटे उदाहरण हैं। आपका वज़न बढ़ गया, आप दौड़ने जा रहे हैं, अच्छा लगता है क्या? पर फिर भी दौड़ जाते हैं। कौन देता है दौड़ने की ताक़त? कौन देता है? जब अपनेआप को याद दिलाते हैं - ‘बेटा, किसी और की ख़ातिर नहीं, अपनी ही भलाई की ख़ातिर कष्ट झेल रहे हो, चुपचाप झेल जाओ, किसी पर अहसान नहीं कर रहे हो दौड़कर। साँस फूल रही है, घुटने में दर्द हो रहा है, झेल जाओ, तुम्हारी ही बेहतरी है इसमें।’

जब आप सर्जन (शल्य-चिकित्सक) की टेबल पर लेटे होते हैं और अपना पेट खुलवा रहे होते हैं, तो ये जीवन के आनन्दप्रद अनुभवों में से है? कि आपके ऊपर एक अनजान आदमी और पाँच-सात और, एकदम मुँह ढककर के और हथियार लेकर के और आपको नशा करके, बेहोश करके, ये बहुत सुख की बात है? तो ये कष्ट कैसे झेल जाते हैं, कहाँ से आती है ताक़त? कहाँ से आती है?

इस बोध से कि अगर बेहतर होना है तो तकलीफ़ झेलनी पड़ेगी; ये तकलीफ़ तुम्हें परेशान करने के लिए, तुम्हारा शोषण करने के लिए तुम्हें नहीं दी जा रही है, ये तकलीफ़ तुम्हें तुम्हारी बेहतरी के लिए दी जा रही है। जो आदमी इस बात को जितना ज़्यादा निरन्तरता से याद रख लेता है, वो आदमी जीवन में उतनी ज़्यादा प्रगति करता है। वास्तव में प्रगति करने वाले और अवनति झेलने वाले लोगों में भेद ही बस इस बात का होता है।

ये अच्छे से सूत्र समझ लीजिएगा, प्रगति और अगति किस बात से निर्धारित हो जाती है? बस इसी बात से, उन्नति और अवनति इसी बात से निर्धारित हो जाती है कि कौन कितना कष्ट झेलने को तैयार है सही कारण के पीछे, कौन अपनी बेहतरी के लिए कितनी तकलीफ़ उठाने को तैयार है, कौन सुख की कितनी उपेक्षा कर सकता है।

यही दो तरीक़े के लोग हैं दुनिया में - एक वो जो अपने कर्मों का चयन सुख के आधार पर करते हैं, और दूसरे वो जो अपने कर्मों का चयन सत्य के आधार पर करते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि सत्य में सुख नहीं है, इसका मतलब ये है कि सत्य में साधारण सुख नहीं है। जो लोग सुख के पीछे जाते हैं वो सत्य तो नहीं ही पाते, सुख भी साधारण ही पाते हैं। जो लोग सत्य के पीछे जाते हैं वो सत्य पाते हैं, और सुख असाधारण पाते हैं।

तो ये बार-बार अपनेआप को याद दिलाना है - ‘हमारा जन्म सुख भोगने के लिए नहीं हुआ है, बेहतर होने के लिए हुआ है।’ और आप बेहतर नहीं हो पाएँगे अगर आपमें हिम्मत नहीं है और संकल्प नहीं है कष्ट झेलने का। जो तकलीफ़ों के आगे जल्दी झुक जाते हैं, जिनके लिए सुख बहुत बड़ी बात है, वो भूल जाएँ कि वो जीवन में किसी भी तरह की कोई प्रगति कर सकते हैं। लड़ाई है, अपने ही ख़िलाफ़ लड़ना होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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