जिसकी छाती में छुरा घुपा हो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जिसकी छाती में छुरा घुपा हो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे किसी आदमी की छाती में छुरा घुपा हुआ हो। और वो पूछ रहा हो कि इस शहर में सैंडविच कहाँ मिलता है। और जूतों का कोई नया ब्रांड आया है क्या बाज़ार में? और वो जो लड़की जा रही है, बड़ी ख़ूबसूरत है किस मोहल्ले में रहती है? और छाती में क्या उतरा हुआ है? ख़ंजर! और ख़ून से लथपथ, बलबला रहा है ख़ून और सवाल क्या है जनाब का? ‘बर्गर कहाँ मिलेगा?’ हम ऐसा ही जीवन जी रहे हैं, हम घोर कष्ट में हैं, हमारी छाती फ़टी हुई है लेकिन हम अपने ही प्रति बड़े कठोर, बड़े निष्ठुर हैं। हम जूतों के नये ब्रांड की पूछताछ कर रहे हैं।

अगर देह में छुरा घुपा रहता तो फिर भी ग़नीमत थी, तुम इधर-उधर बर्ग़र और जूता ढूँढते रह जाते और घंटे-दो-घंटे में प्राण उड़ जाते, ख़त्म ही हो जाते तुम, कुछ राहत तो मिल जाती। लेकिन हम में जो ख़ंजर उतरा हुआ है वो देह में नहीं है, वो मन में है, वो प्राण में है, तो आदमी मरेगा नहीं, शारीरिक तौर पर जिये जाएगा। पर ठीक उतनी ही तड़प, उतनी ही कठिनाई में जियेगा जिस कठिनाई में वो जीता है जिसकी छाती में छुरा उतरा हुआ हो।

तड़प उतनी ही है, कठिनाई उतनी ही है और संवेदनशीलता बिलकुल नहीं है। दर्द है भी पर प्रतीत भी नहीं हो रहा, छुपा हुआ दर्द है। हम छुपे हुए दर्द में जीने वाले लोग हैं। पूरी दुनिया के सब लोग छुपे हुए दर्द में ही जी रहे हैं, अगर उन्हें अपने दर्द का एक प्रतिशत भी ज्ञान हो जाए तो फूट-फूटकर रो पड़ेंगे।

ये सब जो हँसते हुए, मुस्कुराते हुए तुमको लोग चारों ओर दिख दे रहे हैं, ये हँस-मुस्करा सिर्फ़ इसलिए रहे हैं क्योंकि इन्हें अपनी छाती के दर्द का कुछ पता नहीं है। ये संवेदना-शून्य हो गये हैं। इनके अंगों की संवेदना चली गयी है, अगर किसी तरीक़े से थोड़ी सी भी संवेदना वापस आ जाये तो बहुत रोएँगे।

इन्हें पता चलेगा ये कितनी तकलीफ़ में जी रहे हैं और तकलीफ़ में सभी जी रहे हैं पर तकलीफ़ है और तकलीफ़ के साथ संवेदन-शून्यता, इनसेंसिटिविटी, नम्बनेस है। तो ऊपर-ऊपर से दिखाई देता है कि हँस रहे हैं, गा रहे हैं, बड़े मज़े कर रहे हैं जैसे किसी के हाथ-पाँव सब चिरे हुए हों और उसको एनेस्थीसिया (बेहोशी) दे दिया गया हो तो हाथ-पाँव का दर्द उसको पता नहीं चल रहा। हाथ-पाँव का दर्द नहीं पता चल रहा तो वो चुटकुले पढ़ रहा है और हँस रहा है। अगर ये एनेस्थीसिया (बेहोशी) थोड़ा भी उतरेगा तो ये आदमी रो पड़ेगा।

ये पूरी दुनिया ऐसा समझ लो कि एनेस्थीसिया (बेहोशी) पर चल रही है ताकि दर्द पता न चले। इसीलिए तो लोग इतने नशे करते हैं तरह-तरह के। ज्ञान का, सम्बन्धों का, शराब का, दौलत का। ये सब एनेस्थीसिया (बेहोशी) है ताकि तुम्हें तुम्हारे दर्द का पता न चले।

अपनी हालत से वाक़िफ़ हो जाओ, उसके बाद बहुत मुश्किल होगा भटकना इधर-उधर, फिर नहीं कहोगे कि कभी-कभी तो मैं केन्द्रित रहती हूँ पर अक्सर विचलित हो जाती हूँ, भटक जाती हूँ। वो सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि तुम्हें अपनी ही हालत का ठीक-ठीक कुछ जायज़ा नहीं, कुछ संज्ञान नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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