मन सही लक्ष्य से भटक क्यों जाता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मन सही लक्ष्य से भटक क्यों जाता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: मन सही लक्ष्य से क्यों भटक जाता है? जीवन के लक्ष्य के प्रति हमेशा एकनिष्ठ कैसे रहें?

आचार्य प्रशांत: प्रेम।

कामना इतनी तीव्र होनी चाहिए कि एक पल को भी भूलो नहीं, कुछ और याद ही न आए। अपनी पीड़ा के प्रति बड़ी संवेदनशीलता होनी चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम तड़प रहे हो; बड़े वियोग में हो। अब तुम कुछ और कैसे याद रख सकते हो? छोटी-मोटी क्षुद्र बातों में मन कैसे लगा सकते हो?

तुम्हारे प्राण अटके हुए हैं गले में, न जी पा रहे हो, न मर पा रहे हो, तो अब तो तुम बस एक ही आशा कर सकते हो न – राहत की। तुमने पाँच-दस आशाएँ कर कैसे लीं? निश्चय ही अपने प्रति बड़े निष्ठुर हो।

अपनी स्थिति के प्रति तुम में कोई सद्भावना ही नहीं है।

तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे किसी आदमी की छाती में छुरा घुंपा हुआ हो, और वो पूछे, “इस शहर में सैंडविच कहाँ मिलता है?” और, “जूतों का कोई नया ब्रांड आया है बाज़ार में?”,”वो जो लड़की जा रही है, वो बड़ी ख़ूबसूरत है। किस मोहल्ले में रहती है?” और छाती में क्या उतरा हुआ है? ख़ंजर। और ख़ून से लथपथ हैं। और सवाल क्या है जनाब का? “बर्गर कहाँ मिलेगा?”

हम ऐसा ही जीवन जी रहे हैं। हम घोर कष्ट में हैं, हमारी छाती फटी हुई है, लेकिन हम अपने प्रति बड़े कठोर, बड़े निष्ठुर हैं।

हम जूतों के नए ब्रांड की पूछताछ कर रहे हैं। अगर देह में छुरा घुंपा होता तो फिर भी ग़नीमत थी। तुम इधर-उधर बर्गर और जूता ढूँढ़ते रह जाते, और घंटे-दो घंटे में प्राण उड़ जाते। ख़त्म ही हो जाते तुम। कुछ राहत तो मिल जाती।

लेकिन हम में जो ख़ंजर उतरा हुआ है, वो मन में है, वो प्राण में है। तो आदमी मरेगा नहीं शारीरिक तौर पर, जिए जाएगा। पर ठीक उतनी ही तड़प, उतनी ही कठिनाई में जिएगा, जितनी कठिनाई में वो जीता है, जिसकी छाती में छुरा उतरा हुआ हो। तड़प उतनी ही है, कठिनाई उतनी ही है, और संवेदनशीलता बिलकुल नहीं है। दर्द है भी, पर प्रतीत भी नहीं हो रहा; छुपा हुआ दर्द है। हम छुपे हुए दर्द में जीने वाले लोग हैं।

पूरी दुनिया के सभी लोग छुपे हुए दर्द में ही जी रहे हैं। अगर उन्हें अपने दर्द का एक प्रतिशत भी ज्ञान हो जाए, तो फूटफूट कर रो पड़ेंगे। ये सब जो हँसते हुए, मुस्कुराते हुए लोग तुम्हें चारों ओर दिख रहे हैं, ये सब मुस्कुरा सिर्फ़ इसलिए रहे हैं क्योंकि इन्हें अपनी छाती के दर्द का कुछ पता नहीं है। ये संवेदनाशून्य हो गए हैं। इनके अंगों की संवेदना चली गई है।

अगर किसी तरीक़े से इनकी थोड़ी-सी भी संवेदना वापिस आ जाए, तो ये बहुत रोएँगे। इन्हें पता चलेगा कि ये कितनी तकलीफ़ में जे रहे हैं। और तकलीफ़ में सभी जी रहे हैं। पर तकलीफ़ है, और तकलीफ़ के साथ संवेदनशून्यता भी – इंसेन्सिटिविटी, नंबनेस।

तो ऊपर-ऊपर से दिखाई देता है कि हँस रहे हैं, गए रहे हैं, बड़े मज़े कर रहे हैं – जैसे किसी के हाथ-पाँव सब चिरे हुए हों, और उसे एनेस्थेसिया दे दिया गया हो। तो हाथ-पाँव का दर्द उसको पता नहीं चल रहा है। हाथ-पाँव का दर्द उसको पता नहीं चल रहा है, तो वो चुटकुले पढ़ रहा है, और हँस रहा है। अगर इस एनेस्थेसिया का असर थोड़ा भी उतरेगा, तो ये आदमी रो देगा।

ये पूरी दुनिया, ऐसा समझ लो, एनेस्थेसिया पर चल रही है, ताकि दर्द पता न चले। इसीलिए तो लोग इतने नशे करते हैं, तरह-तरह के। ज्ञान का, सम्बन्धों का, शराब का, दौलत का। ये सब एनेस्थेसिया है, ताकि तुम्हें तुम्हारे दर्द का पता न चले।

अपनी हालत से वाक़िफ़ हो जाओ, उसके बाद मुश्किल होगा इधर-उधर भटकना। फिर नहीं कहोगी कि, “कभी-कभी केंद्रित रहती हूँ, पर अक्सर विचलित हो जाती हूँ, भटक जाती हूँ।” वो सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि तुम्हें अपनी ही हालत का ठीक-ठीक जायज़ा नहीं, कुछ संज्ञान नहीं।

अभी देखा मैंने, एक बकरे को काटने के लिए कुछ लोग उसे लिए जा रहे थे। और अगस्त का महीना, घास ख़ूब है। राह के इधर भी घास, और राह के उधर भी घास। वो उसको काटने के लिए ले जा रहे हैं, और वो रुक-रुक कर क्या कर रहा है? घास खा रहा है, और बड़ी प्रसन्नता मना रहा है – “क्या रास्ता है? क्या घास है?” और जो उसको काटने के लिए ले जा रहे हैं, उनके हाथों में क़त्ल का सामान है। और सामने जब दो-चार बकरियाँ दिख गईं, तो अब तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना ही नहीं। वो कह रहा है, “मज़े ही मज़े। आज उत्सव है, पार्टी। घास और बकरी दोनों दिख गईं।”

पूरी दुनिया की हालत ऐसी ही है – गले में रस्सी, मालिक है क़ातिल। और क़ातिल के हाथ में मौत का सामान। और हम घास पर उत्सव मना रहे हैं। कह रहे हैं, “वाह। आज का दिन तो बड़ा शुभ है। क्या घास मिली है!”

और घास है वहाँ क्योंकि, तो वहाँ कुछ बकरियाँ भी हैं।

किस्से को और आगे बढ़ा सकते हो। रास्ते में एक बकरा मिल गया, वो भी घास के लालायित। और इस बकरे और उस बकरे की लड़ाई भी हो गई। और जो दूसरा बकरा है, उसके भी गले में रस्सी है। और वो रस्सी भी क़ातिल के हाथ में है। ऐसी हमारी दोस्तियाँ, ऐसी हमारी दुश्मनियाँ। सिर्फ़ क्यों? क्योंकि हमें अपनी असली हालत का कुछ पता ही नहीं है।

बकरे को पता ही नहीं है उसकी हालत का। वो घासोत्सव मना रहा है। बकरियों को सन्देश भेज रहा है और वादे कर रहा है, “जन्म-जन्म का साथ है हमारा-तुम्हारा,” “तुमको देखा तो ये ख़याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया।”और बकरी भी कह रही है, “तुझे देखते ही मुझे पता चल गया कि मेरी जन्मों की प्यास मिटेगी आज।” न बकरी जानती है बकरे की हालत, और बकरे को तो अपना कुछ पता ही नहीं है। हम सब वो बकरे हैं।

अपनी हालत को गौर से देखो तो, चित्त भटकना बंद हो जाएगा। फिर एक ही चीत्कार उठेगा – “आज़ादी, आज़ादी। और कुछ नहीं चाहिए, बस आज़ादी।”

“न बर्गर चाहिए, न जूता चाहिए, न लड़की, न लड़का, बस आज़ादी।”

अपनी हालत का पता ही नहीं है।

हम जीवन के तथ्यों से ही परिचित नहीं हैं। हम बड़ी अँधेरी दुनिया में जी रहे हैं। और जहाँ अँधेरा होता है, वहाँ सपने होते हैं। प्रकाश बुझा नहीं कि सपनों का उदय हो जाता है।

जितने अँधेरे में तुम जिओगे, उतने तुम्हारे पास सपने होंगे। ज़रा प्रकाश तो जलाओ। हटाओ सपने, ज़िंदगी की हक़ीक़त देखो। फिर बताना मुझे कि – क्या मन अभी-भी इधर-उधर विचलित होता है, भटकता है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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