प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। माय क्वेश्चन इज (मेरा सवाल है), थोड़ा-सा मैं हिंदी में बोलूँगी, थोड़ा-सा इंग्लिश में, आई एम इन अमेरिका एंड हिअर द सिचुएशन इज लाइक दैट यू हैव टू वर्क इन ऑर्डर टू, यू नो, हैव योर सोशल सिक्योरिटी सेटअप। यू नो फॉर वन्स यू आर सिक्सटी, यू कैन स्टार्ट विदड्राइंग दैट एंड माय क्वेश्चन इज कमिंग फ्रॉम मायसेल्फ एंड द एनवायरमेंट अराउंड मी, व्हेअर आय सी दैट पीपल हू डोंट वर्क बट हैव नॉट वर्क्ड इन देअर यूथ एंड दे आर नाउ सिक्सटी, सेवनटी इवन सेवेन्टी फाइव, एट्टी, दे आर वर्किंग लाइक ए थ्री जॉब्स। बिकॉज दे डोंट हैव द सोशल सिक्योरिटी, मनी। एंड बिकॉज द एक्सपेंसेस इंफ्लेशन इज हाई एक्सपेंसेस आर देयर दे डोंट हैव इंश्योरेंस, सो दे हैव टू मीट देअर एंडस। फॉर मीटिंग देअर एंडस, उनको तीन या तीन-चार जॉब्स (रोज़गार) में काम करना पड़ता है उस एज (उम्र) में।
(दरअसल मैं अमेरिका में रह रही हूँ और स्थिति कुछ ऐसी है कि लोगों को यहाँ इसलिए भी काम करना पड़ता है ताकि वो अपनी सोशल सिक्योरिटी स्थापित कर सकें। ताकि जब वो साठ साल के हो जाएँ, तो उन पैसों का इस्तेमाल कर सकें। और मेरा सवाल निजी है और मेरे आसपास के माहौल से संबंधित है। फिर मैं देखती हूँ कि जो लोग काम नहीं करते थे, उन्होनें अपनी जवानी में काम नहीं किया और अब वो साठ, सत्तर यहाँ तक कि पचहत्तर या अस्सी साल के हो गए हैं, उनको अब तीन-तीन नौकरियाँ करनी पड़ रही हैं। क्योंकि उनके पास सोशल सिक्योरिटी का पैसा नहीं है। और क्योंकि खर्चे और महंगाई बहुत बढ़ गई है, उनके पास बीमा भी नहीं है, तो उन्हें दो वक्त की रोटी जुटाने में भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ रही है।)
और जब मैं उस सिचुएशन (परिस्थिति) को देखती हूँ, तो मुझे लगता है कि अगर मैं उस एज तक पहुँचूँ और मुझे भी चार-चार, तीन-तीन जॉब में काम करना पड़े और मेरे पास भी मनी नहीं है। बहुत सारे होमलेस है यहाँ पर, बहुत सिचुएशन खराब है। तो तब कैसे इस चीज़ को मैं अपने आप को आंसर करूँ और कैसे देखूँ कि भविष्य के बारे में सोचना है या नहीं सोचना है। लाइक हाउ आय आंसर टू दिस स्ट्रगल बिटविन मी एंड इन द एनवायरमेंट अराउंड? आई डोंट नो इफ़ आय एम एबल टू आस्क।
( तो दरअसल मेरा सवाल इसी बात से आ रहा है कि मैं अपने आसपास के इस माहौल के बीच में जो संघर्ष का अनुभव कर रही हूँ, उसका जवाब कैसे दूँ? आशा है मैं अपना प्रश्न सही ढ़ंग से आपके समक्ष रख पाई। कृपया मार्गदर्शन दीजिए।
आचार्य प्रशांत: सोचने के लिए समय चाहिए। सोचने के लिए अभी जो है, उससे परायापन चाहिए। चलिए, मैं आपसे एक सवाल कर रहा हूॅं। आप अगर किसी ऐसी चीज़ में डूबी हुई हों, जिससे आपको बेइंतहा प्यार हो गया हो, बेइंतहा प्यार। नहीं मिल रहे डॉलर बहुत। तो भी पहली बात, क्या आपके पास वक्त होगा सोचने के लिए कि अस्सी की उम्र में क्या होने वाला है? दूसरी बात, कभी कोई दूसरा आकर आपको ये बोल भी दे कि अस्सी में तुम्हारा क्या होगा, तो इस बात से आपके और उस चीज़ के रिश्ते में फ़र्क पड़ेगा जिसमें आप डूबी हुई हैं?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: तो समस्या फिर भविष्य की है या वर्तमान की है?
प्रश्नकर्ता: वर्तमान की।
आचार्य प्रशांत: भविष्य के बहुत खयाल आ रहे हों, तो समस्या भविष्य की नहीं है, वर्तमान की है। जो वर्तमान के साथ पूरा इंसाफ़ नहीं कर रहे होते, पूरी वफ़ा नहीं कर रहे होते, उनको ही भविष्य को लेकर चिंता होती है। फिर उदाहरण भी एक ही दिशा से आते हैं। बहुत कुछ हो सकता है।
पचहत्तर का होने पर ये भी हो सकता है कि मेरे पास पैसे ना हो। ये भी हो सकता है, हो। ये भी हो सकता है कि मैं ऐसा हो गया हूँ कि मुझे पैसे की परवाह ना हो। हो सकता है मैं मर गया हूँ। हो सकता है मैं ज़िंदा हूँ। पता नहीं क्या हो सकता है, मुझे नहीं मालूम। जो भी हो सकता होगा, मुझे सोचना नहीं क्योंकि अभी मेरे पास जीने के लिए एक बहुत सुंदर वजह है। और ये वजह मुझे आगे का नहीं सोचने देगी। मैं कहाँ से समय निकालूँ आगे का सोचने के लिए?
आगे का सोचने की बात भी बहुत ज़्यादा तब पैदा होती है ना, वही जो पर्सनल टाइम (व्यक्तिगत समय) होता है। ये जो हमने एक व्यवस्था बनाई है ना, जिसमें आप इतने घंटे काम करके इतने पैसे ले लेते हो और उसके बाद घर जाकर के अपना पर्सनल टाइम एंज्वॉय (आनंद) करते हो और कह देते हो, ‘डीएनडी, डू नॉट डिस्टर्ब (परेशान मत करो) मेरा पर्सनल टाइम चल रहा है।ʼ ये नर्क है व्यवस्था। और यही व्यवस्था है जो सब तरीके के घटिया कामों को ज़िंदा रखे हुए है।
क्योंकि आप घटिया काम करके भी अपने आप को ये बहाना दे लेते हो कि अभी मेरे पास पर्सनल टाइम तो मिलेगा ना रिकवर करने के लिए। ये दुनिया ऐसी हो जाए कि ये जो व्यक्तिगत और व्यवसायिक है मामला, दफ्तर का और घर का, पर्सनल, प्रोफेशनल (पेशेवर), ये एक हो जाएँ, तो कोई घटिया काम फिर कर कैसे पाएगा? वो घटिया काम जब एक हो गया, घर और दफ्तर, तो घटिया काम अब चौबीस घंटे चलेगा ना। चौबीस घंटे कोई घटिया काम कर ही नहीं सकता।
घटिया काम तभी हो पाता है जब वीकेंड फ्री (सप्ताहांत खाली) मिल जाता है। जब शामें और रातें फ्री मिल जाती हैं। और जिसकी ज़िंदगी में जितनी घटिया चीज़ें होंगी, वो उतना ज़्यादा चाहेगा कि मैं अपने प्रोफेशनल टाइम को कम कर दूँ। और बहुत झीकेगा अगर प्रोफेशनल काम बढ़ा दिया जाएगा, तो उसको बहुत चिढ़ लगेगी।
उससे पूछो कि चिढ़ क्यों लग रही है? क्या इतना काम दे दिया कि चौबीस घंटे कम पड़ गए? नहीं। क्या इतना काम दे दिया कि अट्ठारह घंटे कम पड़ गए? नहीं। तो फिर ये जो काम है, ये काम तुम्हें बाधा किस जगह दे रहा है?
कहेंगे, ‘वो और, मेरे और भी तो काम होते हैं ना, वो भी करने हैं। मुझे और भी तो काम करने हैं ना। मुझे इस पर इधर मुँह डालना है, इधर करना है। इंस्टाग्राम पर कुछ करना है। घटिया किस्म की चीज़ें इकट्ठा करनी हैं। उनको नॉलेज बोलना है कि मैं भी तो अपनी पर्सनल चीज़ का नॉलेज लेता हूँ।ʼ
आप के सवाल का जवाब यही है कि ये सवाल आए ही नहीं। जिसको ये सवाल आ गया, अब उसको कोई जवाब नहीं दिया जा सकता। समझ रहीं हैं ना? मैं उम्मीद करता हूँ समझ रही होंगी। क्योंकि ये सवाल ही अपने आप में एक तरह की बेवफाई है। ये सवाल ही अपने आप में एक तरह की, क्या बोलूँ मैं, मुझे अनुमति दीजिए कि बोल सकूँ कि चोरी है एक तरह की ये। तो ये कोई करके आ गया है। अब मैं उसको कैसे बोलूँ कि इसको अन डू (पूर्ववत) कर दो।
इस सवाल का दिमाग में आना ही समझिए जैसे कि हो गई गड़बड़। वरना ये, वरना ये विचार ही क्यों आता दिमाग में। कुछ विचार ऐसे होते हैं जिनका दिमाग में; हम कहते हैं ना कि विचार यदि कर्म बन गया तब गड़बड़ हुई, तब पाप हुआ, अपराध हुआ। आवश्यक नहीं है। विचार कर्म बन जाए तभी अपराध नहीं होता। ज़्यादातर विचार ऐसे हैं जिनका दिमाग में आना ही अपराध होता है।
‘मेरा कल क्या होगा? मेरा कल क्या होगा?ʼ बात ये नहीं है कि इसका उत्तर सही मिला कि नहीं। बात ये है कि ये प्रश्न ही गड़बड़ हो गया। मेरा कल क्या होगा? ये प्रश्न ही गड़बड़ हो गया। ये प्रश्न दिमाग में आ रहा है माने कहीं आज इधर-उधर चोरी करके बैठे हो। और, और मेरे पास कोई जवाब नहीं है।
आप पूछें कि हाँ, बताओ मैं आज इतना नहीं कर रही हूँ। अब पचहत्तर की उम्र में अगर मुझे काम करना पड़ा, तो मेरा क्या होगा? और कोई आकर बोले कि आज मैं दिन-रात खट रहा हूँ और इसकी वजह से मेरा बुढ़ापा बहुत सुखद होगा। ये दोनों ही बातों का कोई जवाब नहीं है मेरे पास।
हाँ, क्योंकि ये दोनों ही बातें बहुत गलत जगह से आ रही हैं। जो बोल रहा है मैं आज इसीलिए काम कर रहा हूंँ कि बुढ़ापा मेरा सुख भरा होगा, वो भी आज वाले काम में डूबा हुआ नहीं है। वो भी सकाम मेहनत कर रहा है। वो कह रहा है आज इसीलिए काम कर रहा हूँ कि कल कुछ मजा आ जाएगा, तो आज कोई घटिया काम भी करना है, तो कर लूँगा। उससे पैसे मिल रहे हैं। कल काम आएँगे पैसे। और जो कह रहा है कि आज मैं डर रहा हूँ कल क्या होगा, वो भी यही कर रहा है। उसको भी आज के काम से कोई मतलब नहीं है। वो भी कल की ही सोच रहा है।
भला बस वो है जिसको ये सवाल कभी कौंधे ही नहीं। भला बस वो है जिसको ये सवाल कभी कौंधे नहीं। कुछ सवाल ऐसे हैं ना, कुछ विचार ऐसे हैं, दिमाग में आए नहीं कि आप बर्बाद हो गए।
एक लड़की थी। वो रस्सी पर चला करती थी। बहुत मौज में चला करती थी। लोग उसको बोलते थे कि ये तो आँखें बंदकर के भी चल जाए। ये तो नींद में भी चल जाए। वो इतनी पारंगत हो गई थी रस्सी पर चलने में, ऐसे अपना लेती थी (हाथों से बताते हुए)। वो इतनी पारंगत हो गई थी कि उसने अपनी जो डंडों की ऊँचाई थी, कि जिस ऊँचाई पर रस्सी पर वो चलती थी, उसने खूब बढ़ा दी थी। आम आदमी जितना ऊँचा होता है, उससे वो चार गुनी ऊँचाई पर चल रही है। समझ लो बीस फीट, पच्चीस फीट ऊँची वो चल रही है। इतना ऊँचा तो कोई चलता भी नहीं है रोप वॉकर (रस्सी पर चलने वाला)। मस्ती में चला करे।
तो कई लोगों को उससे बड़ी ईर्ष्या हो गई। लड़कियों को ही, पता नहीं क्यों पर उनमें थोड़ी ज़्यादा देखी जाती है। बड़ी ईर्ष्या हो गई। बोल रही हैं, ‘इसको तो बड़ी शाबाशी मिलती है और सबका ध्यान खींच लेती है अपनी ओर। बिल्कुल एकदम हीरोइन बनी जा रही है। वहाँ एकदम आकाश में टँगकर चलती है और ऐसे मस्त दनादन ऐसे मटकते हुए चलती है।ʼ
तो लड़कियों ने कहा हम मन जानते हैं। हमसे ज़्यादा मन कोई नहीं जानता। अगली बार जब वो वहाँ चल रही थी, तो एक लड़की इधर से और एक लड़की उधर से, उसको पता है, क्या बोलती हैं? पच्चीस फीट। एक बोलती है-पच्चीस फीट इधर से, एक बोलती है-पच्चीस फीट उधर से। वो पच्चीस फीट की ऊँचाई पर चल रही थी। वो गिर गई।
इन्होंने उसके मन में भविष्य डाल दिया। इन्होंने वही कर दिया जो अभी आप कर रही हैं कि कल मेरा क्या होगा? अगर मैं गिरी, तो मेरा क्या होगा? बताओ, मुझे बचाने वाला कौन है? वो गिर गई। वरना वो हँसते-खेलते आँखें बंदकर के पार कर जाती थी। मौज करती थी। ये सवाल दिमाग में आया नहीं कि वो गिर गई। समझ में आ रही बात ये?
चमत्कारों की भाषा में इसको ऐसे कहा जाता है कि एक आदमी था, वो गया किसी; अब ये कहानी भर है। मैं इसको लेना नहीं चाहता कि चमत्कार आ जाते हैं। लोगों की फिर बुद्धि जग जाती है, अच्छा ऐसा होता है क्या!! तो गया बाबा जी के पास। बाबा जी, ‘मेक्स अ रिटर्नʼ ( बाबा जी का खिलौना रखते हुए) अनरीलेंटिंग बाबा जी। बाबा जी के पास गया।
बोला, ‘बाबा जी, क्या सिद्धियाँ होती हैं?ʼ बाबाजी बोले, ‘बिल्कुल होती हैं, क्यों नहीं होती।ʼ बोले, ‘बाबा जी ये नदी है, क्या मैं इसको चलकर पार कर सकता हूंँ?ʼ बाबाजी बोले, ‘बिल्कुल पार कर सकते हो।ʼ बोले, ‘बाबा जी करा के दिखाओ।ʼ बाबाजी बोले, ‘क्यों नहीं बच्चा।ʼ बाबाजी थोड़ा-सा पीछे को मुड़े। एक कागज़ निकाला। उसको ऐसे मोड़ा और बोले, ‘ये लो बच्चा अपने हाथ में और कागज़ अपने हाथ में ले लो और नदी पर चलते हुए निकल जाओ।ʼ वो बोला, ‘अच्छा बाबा जी, बिल्कुल हो जाएगा?ʼ बाबाजी बोले, ‘हो जाएगा बच्चा।ʼ बोला, ‘मुझे भरोसा है आप पर तभी आपके पास आया हूंँ।ʼ
अब वो अपना दनादन, दनादन नदी पर चलने लगने गया। हाथ में कागज़ है। उसको बड़ा मजा आ रहा है नदी पर चलते हुए निकल ही जाऊँगा। एकदम मौज है। चलता भी जा रहा है। बोले, बाबाजी की सिद्धि, बाबा जी बोल दे ना, कैसे ना होगा। बाबा जी ने क्या बोला था उसको?
बाबा जी ने उसको बोला था कि इसमें मैं तुम्हें खास मंत्र दे रहा हूंँ। खास मंत्र। और ये जो मंत्र है, यही तुमको पार करा रहा है। वो अपना मौज में चला जा रहा है। बिल्कुल बीच में पहुँचा, तो उसको विचार आ गया। बोले मंत्र है क्या? क्या मंत्र है? तो उसने मुट्ठी खोल ली और कागज़ ऐसे गुड़ी-मुड़ी कर रखा था बाबा जी ने, उसने खोल दिया। बाबा जी तारीफ़ हो रही है, खुश हो जाओ आज (बाबा जी के खिलौने को संबोधित करते हुए) उसने खोल दिया।
वो कागज़ खोला, उसमें कुछ नहीं लिखा हुआ था। बाबा जी ने ऐसे ही कागज़ पकड़कर ऐसे करके दे दिया था। और जहाँ उसने देखा कुछ नहीं लिखा है, वहाँ वो डूब गया। कुछ बातें ऐसी होती हैं दिमाग में आनी ही नहीं चाहिए। वो दिमाग में आई नहीं कि गिरे, कि डूबे।
अध्यात्म का यही फ़ायदा है। ये नहीं कि आपको सब सवालों के जवाब मिल जाते हैं। फ़ायदा ये है कि व्यर्थ के सवाल दिमाग में आने बंद हो जाते हैं। कोई आकर आपसे पूछे, ‘अच्छा तुम ये सब कर रहे हो, बताओ इससे आगे क्या होगा?ʼ तो आप बहुत अचकचाकर के बस इतना कह पाते हो, ऐसा तो मैंने कभी सोचा नहीं। ये एक आध्यात्मिक आदमी का जवाब होता है, ऐसा तो मैंने कभी सोचा नहीं।
कृष्णमूर्ति थे, एक बार पकड़े गए एकदम। बैठे थे और जितने बाबा जी लोग हैं, सबको एकदम दनदना रहे थे। बोल रहे, ‘ये है, वो है, तुम मास्टर को अथॉरिटी बना लेते हो और ये गुरु-चेला का तुम ने रिश्ता बना रखा है और नो बडी शुड बी लर्निंग फ्रॉम द अदर। देअर इज नथिंग टू लर्न।सारा जो प्रकाश है ज्ञान से, वो अपने भीतर से आने होता है। बी योर ओन टीचर (अपने शिक्षक स्वयं बनें)। खुद को ही करो। किसी दूसरे की सुनने की ज़रूरत नहीं है। क्या जानता है कोई दूसरा?ʼ
तो एक खड़ा हो गया। वो बोला, ‘पर सर, किसी दूसरे की सुनने की ज़रूरत नहीं है, तो आप हमें पूरी ज़िंदगी क्यों सुना रहे हैं।’ तो एकदम घबरा गए। मालूम है क्या बोलते हैं? वही जो बोला अचकचाकर, ‘बट आई डोंट डू इट ऑन पर्पस’ (लेकिन मैं इसे जान-बूझकर नहीं करता)। सोचकर नहीं करता, हो जाता है। और सोचकर करूँगा तो ना जाने कितनी गड़बड़े हो जाएँगी। जो मैं बोल रहा हूँ, वही बदल जाएगा। सोचकर नहीं करता, तो हो जाता है।
फिर आगे बोले, जाने उसी मौके पर या कहीं और। बोले, ‘फूल खिलता है, तो खुशबू अपने आप फैल जाती है। फूल दौड़ा-दौड़ाकर खुशबू थोड़े ही बिखेरता है। आई डोंट डू इट ऑन पर्पज। मैं हूँ इसीलिए बोल रहा हूँ। मेरे होने से मेरी बात आ रही है। मुझे बोलना नहीं है, मुझे होना है। मेरे होने के कारण, मैं क्या करूँ, मैं मजबूर हूँ, मैं बोल जाता हूँ। मुझे पता ही नहीं चलता, मैं बोल जाता हूँ। मैं रोकूँ कैसे, मैं बोल जाता हूँ। जैसे गुलाब का फूल अपनी खुशबू नहीं रोक सकता, वैसे ही मैं अपने वचन नहीं रोक सकता। मैं बोल जाता हूँ। मैं सोचकर नहीं बोलता।ʼ
और सोचकर बोलोगे, तो गड़बड़ हो जाएगी। सोचना माने भविष्य आ गया। विचार हो और कामना ना हो, विचार हो और भविष्य ना हो, ये संभव नहीं हो सकता। समझ में आ रही है बात?
और लोग चाहते हैं कि ज़िंदगी में जो कुछ हो, वो सोचकर किया जाए। रिटायरमेंट (सेवा निवृत्ति) के बाद क्या होगा, सोचकर करना है। मैं कैंपस (परिसर) में था, तो वहाँ पर प्लेसमेंट (नौकरी दिलाना) आईआईएम में, वहाँ प्लेसमेंट ऐसे होता है कि तीन दिन में सबको निपटा दिया जाता है। कहते हैं एकेडमिक कैलेंडर (शैक्षणिक कैलेंडर) खराब नहीं होना चाहिए। जो भी पूरी हायरिंग (नियुक्तियाँ) होंगी, वो बस तीन दिन में होंगी। चार दिन होते हैं, डे ज़ीरो (दिन शून्य) भी उसमें मानते हैं, तो डे जीरो, डे वन (पहला दिन), डे टू (दूसरा दिन), डे थ्री (तीसरा दिन)। आमतौर पर डे थ्री तक कोई पहुँचते ही नहीं। तीन दिन में सब निपट जाता है, ज़ीरो,वन, टू में।
तो बहुत नतीजा ये होता है कि बहुत सारी जो कंपनियाँ होती हैं, वो एक ही दिन आ जाती हैं और आप एक ही दिन में कई बार दस-दस, पंद्रह-पंद्रह इंटरव्यू (साक्षात्कार) भी दे रहे होते हो। ठीक है। तो उसका क्या नतीजा होता है? उसका नतीजा होता है कि एक ही दिन में आपके पास कई सारे ऑफर्स (प्रस्ताव) होते हैं। ये भी यहाँ से भी मिल गया। अब आपने दिए थे पंद्रह इंटरव्यू, बारह इंटरव्यू या आठ इंटरव्यू। उसमें से आपके चार या पाँच आपके ऑफर्स आ गए हैं। वो ऑफर्स रखे हुए हैं और आपको चुनना है।
ये भी नियम है। आज शाम तक ही चुन भी लो या आज रात तक इसमें से चुन लो। क्यों चुन लो? ताकि कंपनी को पता चल जाए कि पोजीशन अभी खाली है। क्यों पता चल जाए? ताकि वो ऑफर किसी और को दिया जा सके। तो मेरे पास भी आ गए थे ऑफर्स। वो रखे हुए हैं। उसमें से एक भारत की एक शीर्ष पीएसयू का था। ठीक है। तो और बाकी प्राइवेट बैंक्स और दूसरी कंपनियाँ, उनके थे। तो वो एक जगह थी, वहीं पर एक-एक बगल में कमरे थे। एक-एक करके ऐसे-ऐसे एडजेसेंट रूम्स (निकटवर्ती कमरे), उनमें ही अपने इंटरव्यू चल रहे थे। वहीं पर सब पूरे सब क्राउड (भीड़) था। हायरर, हायरिंग करने वाले भी लोग थे एचआर के और ये सब स्टूडेंट क्राउड भी था सब। तो वहाँ सबको सब पता था, क्या चल रहा है। सबका खुला था।
तो एक बैंक के एचआर के लोग जिन्होंने मुझे ऑफर किया था, वही मेरे पास आते हैं। उनको पता चल गया था कि एक पीएसयू का भी मेरे पास ऑफर है। तो वो आकर बोलते हैं कि तुम उसका ही ऑफर ले लो। मैंने कहा क्यों? मैंने उनकी ओर देखा, क्योंकि आमतौर पर जो प्राइवेट बैंक्स हैं अच्छे, बढ़िया वाले, तो उनकी जॉब बेहतर मानी जाती है। पीएसयू तो माने सरकारी जैसे लगभग।
मैंने कहा कैसी बात कर रहा है? मैं क्यों ले लूँ पीएसयू वाली? तो पता है क्या बोलता है? वो खुद बैंक में काम कर रहा है। मुझसे क्या बोलता है?
श्रोतागण:** पेंशन।
आचार्य प्रशांत: हाँ? क्या? हाँ। बोलते हैं, ‘उसमें रिटायरमेंट बेनिफिट्स (सेवानिवृत्ति लाभ) मिलेंगे।ʼ मैं उसका मुँह देख रहा हूँ। मैंने कहा, ‘मैं अभी पच्चीस का भी नहीं हूँ। मैं सोचूँ कि पैंसठ में क्या होगा?ʼ और तू कैसा आदमी है, तू सोच रहा है? क्योंकि वो भी पैंतीस-चालीस का ही रहा होगा पर वो खुद मुझसे आकर बोल रहा है, ‘थिंक ऑफ रिटायरमेंट (सेवा निवृत्ति की सोचो)।ʼ मैं उसका मुँह देख रहा हूँ।
मैं पीएसयू में तो नहीं ही गया, इस बैंक में भी नहीं गया। मैंने कहा, ‘बेटा, तुम्हारा कल्चर कुछ ठीक नहीं लग रहा है।ʼ और छोड़ने में तो माहिर हूँ ही। थोड़ी-सी भी मुझे अगर शंका हो जाए, तो खट से। ये तो रहने दो, गड़बड़ है मामला। समझ में आ रही है बात? कुछ बातें ऐसी हैं दिमाग में आनी नहीं चाहिए अगर कोई आगे का काम करना है।
एक बहुत कौन-से प्रोडक्ट का है, पता नहीं, आपकी कम्युनिटी एक्टिविटी हो जाएगी। जब मैं एमबीए स्टूडेंट्स को पढ़ाता था, तब मैं उनको उदाहरण देता था। आँतप्रेन्योरशिप (उद्यमशीलता) के संदर्भ में देता था। तो मैं उनको कहता था कि जब तुम अपना काम शुरू करो, तो तुम ये सोचकर नहीं कर सकते कि तुम्हारे पास बैकअप (पूर्तिकर) होना चाहिए, तुम्हारे पास प्लान बी होना चाहिए।
तो बहुत अच्छा उदाहरण है। बीस साल हो गए, याद नहीं आ रहा किसका तो है। बोइंग का है। बोइंग का है। अब बोइंग कौन-सा उसमें जेट लाइनर बना रहा था, ये भी ठीक से याद नहीं आ रहा। आप खोजेंगे, मिल जाएगा। तो वो बहुत बड़ा उन्होंने बनाया। उतना बड़ा कभी देखा नहीं था और बोइंग ने अपनी अपना पूरा फॉर्च्यून उसको डेवलप करने में लगा दिया।
उसने अपनी पहली फ्लाइट भरी और वो सक्सेसफुल (सफल) हो गया। ठीक है। पता नहीं उसमें कितनी सीटें थी। आठ सौ सीट थी या क्या था? वो सफल हो गया। चेक कर लीजिएगा, हो सकता है कहीं पर मैं गलत बोल रहा हूँ डेटा। तो उसके सीईओ से फिर पूछा गया। उसकी सफलता के बाद सीईओ से पूछा गया कि व्हाट इफ़ दिस प्रोजेक्ट हैड फेल्ड (क्या होता यदि ये परियोजना विफल हो गई होती)?
ध्यान से सुनना। व्हाट इफ़ दिस प्रोजेक्ट हैड फेल्ड? वो ये जानना चाहता था कि आपका प्लान बी क्या है? उसने जवाब दिया, ‘आय वुड रादर थिंक ऑफ समथिंग मोर प्लेज़ेन्ट, लाइक अ न्यूक्लियर वॉर (मैं परमाणु युद्ध जैसी किसी और सुखद चीज़ के बारे में सोचना पसंद करूँगा)। आय वुड रादर थिंक ऑफ समथिंग मोर प्लेज़ेन्ट, लाइक अ न्यूक्लियर वॉर। मतलब समझ रहे हो?
मैंने सोचा ही नहीं। आय डिंट थिंक अबाउट इट। और अगर मैं सोचता तो, ये जहाज कभी बन नहीं सकता था क्योंकि ये खयाल इतना डरावना है कि अगर ये फेल हो गया तो मेरा क्या होगा? ये इतना डरावना है कि न्यूक्लियर वॉर से भी ज़्यादा डरावना खयाल है। इसीलिए न्यूक्लियर वॉर इज मोर प्लेज़ेन्ट इन कंपेरिजन टू दैट थॉट। आय वुड रादर थिंक ऑफ समथिंग मोर प्लेज़ेन्ट, लाइक अ न्यूक्लियर वॉर। मेरे पास कोई प्लान बी नहीं है इसीलिए मेरा प्लान ए हमेशा सफल रहता है।
और जो प्लान बी लेकर के चलते हैं, उन्हें फिर सी, डी, ई, एफ सबकी ज़रूरत पड़ती है और वो जेड पर भी नहीं रुकते। ले-देकर उनके हाथ असफलता ही आती है। अच्छा, ये नहीं हुआ तो ये कर लेंगे। अब ये नहीं हुआ, तो ये। ‘यू नो आय हैव सो मेनी बैकअप ऑप्शंसʼ (आप जानते हैं कि मेरे पास बहुत सारे बैकअप विकल्प हैं)।
ज़िंदगी उनकी होती है जिनके पास कोई बैकअप नहीं होता है। जिनके पास बैकअप होता है, उनके पास कोई बैकअप नहीं होता। उनके पास ज़िंदगी तो नहीं ही होती, बैकअप भी नहीं होता। बैकअप मात्र एक कल्पना है। सिक्योरिटी इज जस्ट एन एंटरटेनिंग थॉट। कोई सिक्योरिटी नहीं है कहीं पर। जब है ही नहीं, तो लर्न टू लिव इन एब्सलूट इनसिक्योरिटी (पूर्ण असुरक्षा में जीना सीखें)। रेलिश इट (इसका आनंद उठाओ)। या सोचना कि अस्सी के हो जाएँगे तो क्या होगा? क्या होगा? क्या होगा? बुड्ढा मस्त है। मस्त है बुड्ढा और क्या?
अब ये भी जो बात है, ये खतरनाक भी हो सकती है समझकर। कैसे बोलूँ? क्योंकि एक-से-एक धुरंधर हैं। ऐसे भी हो सकते हैं जो बिना टिकट लिए ट्रेन में चढ़ जाएँ। वो भी गलत ट्रेन में। वो भी इंजन में। बड़ा मैं हिचककर चलता हूँ कि किससे बोल रहा हूँ? जैसा मैंने बोला, आज तो ना जाने कितने लोगों का पहला सत्र होगा। कल ना जाने कौन से इंजन का नंबर लग जाए। आचार्य जी ने बोला था-सोचना मत। उतार दिया इंजन से, तो इंजन के आगे लेट गए। सोचना मत।
मैंने नहीं कहा मत सोचना। मैंने कहा, ‘जो अभी है, उसके इतने करीब आ जाओ, उसे इतनी पूरी तरह जान लो कि सोचने की, आगे की ज़रूरत ना पड़े।ʼ जैसा वो, जब वहाँ पर लल्लनटॉप में हुआ था ना। उन्होंने पूछा था, ‘निष्काम कर्म क्या?ʼ मैंने कहा था, ‘निष्काम कर्म का सिद्धांत ये होता है कि अगर सही काम करोगे तो फल की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। वैसे ही अगर सही ज़िंदगी जिओगे, तो भविष्य की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।ʼ उसी को और आगे बढ़ा दीजिए। वर्तमान यदि सही है तो भविष्य का विचार मन में आएगा ही नहीं। भविष्य अगर बहुत सता रहा है, तो वो वर्तमान की बीमारी का संकेत है।
प्रश्नकर्ता: सर, तो ये बात सही है कि आंतरिक तल पर ये देखते चलें कि मिला क्या और बाहरी तल पर पूछना ही नहीं है कि क्या मिला।
आचार्य प्रशांत: हाँ। हाँ। आंतरिक तल पर ये देखते चलें कि अभी जो चल रहा है, क्या वो मेरे, क्या वो मेरे प्रेम से चल रहा है या मेरे डर, असुरक्षा वगैरह से चल रहा है? अभी जो चल रहा है अगर उसमें प्रेम है, तो बस बात वहीं खत्म हो गई फिर।
जो अभी चल रहा है, उस पर पूरा-पूरा ध्यान दीजिए। इसी क्षण में ज़िंदगी पूरी हो जाती है। वो है ना “ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है।” प्रेम में जी रहे हो ना, पता ही नहीं चलता कि आगे कुछ है भी क्या? क्योंकि अभी ही इतना कुछ है कि वो आपको खा जाता है। आगे का कैसे सोचें?
आज फिर मुझे धमकी दी गई थी कि नहीं, डेढ़ घंटे में रुक जाना। अभी आज सत्र ही चला है, जो भूमिका वाली बात होती है, वही डेढ़ घंटे चली है और ज़्यादा चली है डेढ़ घंटे से। अभी ये बातचीत चल रही है दो घंटे से ऊपर हो गया है, कैसे रुक जाएँ? ये घड़ी, नामाकूल चीज़! उठाकर बाहर फेंको इसको। “घड़ियाली दियो निकाल नी।” समझ में आ रही है अब बात?
ये क्षण ही इतना मधुर है, घड़ी की ओर देखे कौन? नहीं देखा जाता। बेवफाई हो जाएगी घड़ी की ओर देखेंगे तो। कैसे भविष्य का खयाल करें?
प्रश्नकर्ता: सर, पर बेवफाई तो हमारी तरफ़ से भी हो रही है कि आपसे क्वेश्चन पूछ रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: नहीं। नहीं। वो आपको करना है। सबका अपना-अपना फ़र्ज है, अपना धर्म है। आप पूछिए। आप करिए। क्योंकि आप नहीं भी पूछोगे, तो मुझे तो बकना है। मैं किसी और बहाने से बकूँगा। इससे अच्छा आप पूछ ही लो।
वो जो, वो जो होता है ना कि बहुत सारे गीत भी हैं ऐसे। वो अपनी हालत से जब बिल्कुल रेज़ोनेट (गूंजना) करते हैं, तो सुरूर छा जाता है। कैसे फ़िक्र करें कल की। “ऐ इश्क ये सब दुनिया वाले बेकार की बातें करते हैं।” तुम क्या बेकार की बातें करने आ गए यार! फिर से पूछने। ‘सो यू नो, व्ट्स, व्ट्स योर प्लान फॉर द नेक्स्ट ईयर?ʼ (अगले वर्ष के लिए आपकी क्या योजना है?)? “पायल के गमों का इल्म नहीं, झनकार की बातें करते हैं। ऐ इश्क ये सब दुनिया वाले बेकार की बातें करते हैं।” ये चाहिए, वो चाहिए।
आप हो गए हो छब्बीस-अट्ठाइस साल की, कोई फूफी आकर बस आपसे इतना पूछ ले, ‘सो बेटा, व्हाट आर यू थिंकिंग नॉव?ʼ (आप क्या सोच रहे हैं)? उसका एक ही मतलब होता है। बोल दो ना, ‘आय एम थिंकिंग अबाउट द नेक्स्ट रेव पार्टी।ʼ (मैं अगली रेव पार्टी के बारे में सोच रहा हूँ)। और ये ऐसी चीज़ है जो सुरूर में ही जी जा सकती है।
फिर बता रहा हूँ, वो जैसे लड़की चल रही थी रस्सी पर, मेरे साथ चलने लगिएगा, तो बीच में मत रुक जाइएगा। नहीं तो मैंने तो चढ़ा दिया रस्सी पर और फिर गिरने की ज़िम्मेदारी आपकी होगी। बहुत बुरा गिरोगे। मेरा काम है डंडा लेकर कहना-रस्सी पर चलो और बहुत मौज में चलोगे। बस बीच में रुककर शंका मत करने लग जाना। ‘मुझे तो चला दिया, ये खुद किधर हैं?ʼ
मैं नहीं चढ़ता। मैं दूसरों को चढ़ा देता हूँ। बीच में अगर आपको संदेह वगैरह आ गया, बहुत पटखनी खाओगे। और मेरी ज़िम्मेदारी कुछ नहीं होगी। क्या पता जब आप उतर जाओ रस्सी से, तो पता चले कि डंडों को किसने थाम रखा था। वो खुद कैसे चढ़े बेचारा।
और ये जो आपका सवाल है, ये सवाल लेकर बहुत लोग आ सकते हैं। बहुत लोग आ सकते हैं। क्योंकि मेरी तो पूरी सीख ही नकार की है। ये छोड़ो, वो छोड़ो, ऐसा छोड़ो, वैसा छोड़ो। बिल्कुल यही लेकर आते हैं। छोड़ तो देंगे, व्हॉट नेक्स्ट (आगे क्या)? फिर क्या होगा? मिलेगा क्या? नहीं, मिले, ये तो छोड़ा, आगे क्या आएगा? वन बर्ड इन हैंड इज बेटर देन टू इन बुश (हाथ में एक पक्षी झाड़ी में दो से बेहतर हैं)। हाथ वाली चिड़िया तो उड़ गई। अब झुन्नू घूम रहा है। धनिया चली गई, पुदीना का पता नहीं। मरवा दिया आचार्य ने।
एक, एक सुरूर है। उसमें ही ज़िंदगी कट जाए तो मुक्ति है। बहुत अभागे हैं वो जिन पर कभी वो सुरूर चढ़ता नहीं और उनसे बड़े अभागे वो हैं कि जिन पर चढ़ा और उतर गया। उतरता है इसी से, जब आप बन जाते हो संशय आत्मा। ये संशय दिमाग में मत आने देना। वो आएगा तभी जब पहले वर्तमान से बेवफाई कर रहे होगे। वो करना मत।
कोई बोले, ‘आय लिव रिस्क फ्री लाइफ़ʼ (मैं जोखिम मुक्त जीवन जीता हूँ)। बोलिए, ‘आय लिव फ्यूचर फ्री लाइफ़ʼ (मैं भविष्य मुक्त जीवन जीता हूँ)। तू फ्यूचर के रिस्क मिटिगेट (भविष्य के जोखिम का शमन) करता है, मैंने फ्यूचर ही एनहिलेट (भविष्य का विनाश) कर दिया। अब कौन-सा रिस्क? सारे रिस्क तब होंगे ना, जब पहले फ्यूचर होगा। हमने फ्यूचरवा ही उड़ा दिया। ना रहेगा फ्यूचर, ना बचेगा रिस्क। अब कौन-सी सिक्योरिटी, बताओ?