प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत बार ऐसा लगता है जैसे आनन्द में जी रहे हैं लेकिन उन पलों में भी भय होता है, ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: आनन्द की किसी कृत्रिम परिभाषा से उन क्षणों का मिलान हो जाता है। हमें किसी ने कह दिया कि आनन्द के ये गुण होते हैं, आनन्द की ऐसी शक्ल होती है। और उन क्षणों की शक्ल का उस शक्ल से मेल बैठ गया तो हम कहने लग जाते हैं कि ये क्षण आनन्द के हैं। आनन्द बात दूसरी है।
आनन्द तब है जब आनन्द की कोई लालसा न रहे। आनन्द तब जब सुख से कोई बैर न रहे और दुख से भी कोई बैर न रहे। और सुख से कोई मोह न रहे और दुख से भी कोई मोह न रहे। सुख आता है आप सुखी हो लो, दुख आता है आप दुखी हो लिये। कुल नतीजा ये निकला कि आप न दुखी हैं न सुखी हैं, आप आनन्दित हैं। जो सुख में निर्विरोध सुखी हो सकता है वो सुखी है ही नहीं, वो आनन्दित है। और जो दुख में निर्विरोध दुखी हो सकता है उसे दुखी कहना उचित नहीं, वो आनन्दित है। अब आनन्द के कुछ क्षण नहीं रह जाते, अब आनन्द में एक सातत्य होता है, निरन्तरता होती है।
जब तक आनन्द के कुछ क्षण हैं तब तक तो डर बना ही रहेगा न, कि कहीं ये क्षण बीत न जाएँ। और हम जानते हैं कि उन क्षणों के दुश्मन कौन हैं, कहाँ छुपे हुए हैं। जब आप आनन्दित भी हैं उन क्षणों में भी वो दुश्मन तो लुका-छिपी खेल ही रहे हैं। एक आँख उन पर बनी हुई है, अभी आएगा और आनन्द पर मिट्टी डाल देगा। आनन्द तब है जब मिट्टी नहीं पड़ी तो भी है और मिट्टी पड़ गयी तो भी है। बड़ा सुख अनुभव हो रहा था, आनन्द है। बड़ा दुख अनुभव हो रहा है, आनन्द है। सुख कभी है, कभी नहीं है, आनन्द है। और दुख कभी है कभी नहीं है, आनन्द है।
रेल कभी इस दिशा जाती है, कभी उस दिशा जाती है। पटरी लगातार है, और पटरी न आती है न जाती है, न इस दिशा न उस दिशा। रेल उस दिशा गयी, आप कह देते हैं सुख, अप। रेल इस दिशा गयी, आप कह देते हैं दुख, डाउन। आनन्द पटरी है, पटरी किस दिशा जाती है? किसी भी दिशा नहीं जाती। लेकिन पटरी के होने के कारण रेल कभी इस दिशा जाती है, कभी उस दिशा।
अगर आनन्द निरन्तर नहीं है तो उसको ‘नहीं’ जानिए कि फिर वो है ही नहीं। और जब आनन्द होता है निरन्तर तो सुख-दुख जितने भी नाना प्रकार के अनुभव हैं इनसे पसीने नहीं छूटते, अन्दर तक काँप नहीं जाते, भयाकुल होकर नहीं भागते। आप भय से भी भयाकुल नहीं होते, दुख से तो क्या ही होंगे!
जैसे कोई शान्त खिलाड़ी हो, अभी वो जीत रहा था, अभी वो हारने लगा। जीत हार में तब्दील हो गयी, बनी क्या रही? शान्ति। तो आनन्द ऐसा है। जब जीतता था तो आचरण उसका विजेता जैसा था, जब हार रहा है तो आचरण उसका विजित जैसा है। पर दोनों ही स्थितियों में शान्ति बनी हुई है। सब बदल गया, सुबह से शाम हो गयी, आचरण बदल गया, खेल बदल गया, लोगों की दृष्टि बदल गयी। कुछ है जो नहीं बदला, वो आनन्द है, वो शान्ति है।
ऊँचे-से-ऊँचा अनुभव ऊँचा आप तभी मानें जब वो आपको अनुभव से मुक्त ही कर दे, अन्यथा उसे ऊँचा न मानें, उसकी उड़ान व्यर्थ गयी। किसी विधि के द्वारा किसी ख़ास क्षण में आपको लगता है आप आनन्दित हो लिये। उस विधि को, उस क्षण को सार्थक तभी मानिएगा जब उसके बाद आनन्द की सारी प्यास, तृष्णा तिरोहित हो जाए। आनन्द की प्यास नहीं बचेगी तो फिर आप जी भरकर सुख-दुख से खेल सकेंगे।
किसी खिलाड़ी को प्यास लगी है तो खेलेगा क्या? खिलाड़ी खेले कैसे, उसे तो प्यास लगी हुई है। इसीलिए प्यासे खिलाड़ी अक्सर खेल रोककर बीच में पहले पानी पी लेते हैं, कहते हैं, ‘प्यास बुझे तो खेलें।’ हम जीवन से इसलिए नहीं खेल पाते क्योंकि हमारी तो आत्मिक प्यास ही नहीं बुझ रही। कोई भी खेल हो, कोई भी खेल, बता दीजिए कि वो प्यास बुझा देता हो तो। यहाँ तक कि तैराकी भी प्यास नहीं बुझा सकती, वो पानी आप पी नहीं सकते। प्यास तो खेल के बाहर किसी जादू से ही मिटती है।
खेल का हमेशा एक क्षेत्र होता है, होता है न? एक दायरा बना दिया जाता है, इसके भीतर खेलोगे, कोई भी खेल हो। किसी भी खेल में उस दायरे के भीतर जो कुछ है वो आपकी प्यास मिटा सकता है क्या? कुछ-कुछ बात समझ में आ रही है? खेल कैसा भी हो और आप कितने भी निपुण चाहे अनाड़ी खिलाड़ी हों, प्यास खेलने से नहीं मिटती है। हाँ, प्यास मिटी हुई है तो मस्त खेलोगे। प्यास मिटाओ, खेल बढ़ाओ।
ये थोड़े ही करोगे कि टेनिस खेलने उतरे हो और कोर्ट में कुआँ खोद रहे हो कि प्यास अब खेल में ही बुझेगी। रैकेट का फावड़ा बना दिया है। ‘क्या पता इसी से धार फूटती हो! बहुत ज़ोर से गेंद को पटका ज़मीन पर, सुना है कि अर्जुन ने भीष्म पितामह के लिए धरती पर तीर मारा था तो फ़व्वारा फूटा था, हम 'ऐस' मारेंगे तो क्या पता फ़व्वारा फूटे!’ ऐसे होगा नहीं।
खेल के भीतर तो जो कुछ है सब क्षणिक है। कोई खेल देखा है जिसमें मामला कहीं जम जाता हो, स्थायी हो जाता हो। जो हाल अभी है अगले पल बदल जाता है, जैसे साँप-सीढ़ी का खेल। कभी कोई जीत रहा है, कभी कोई जीत रहा है। पिछली गेन्द पर छक्का, अब अगली गेन्द पर! ये क्या हो गया? अभी-अभी तो छाती चौड़ी थी कि एक-सौ-दस मीटर वाला मारा है! अगली गेन्द पर?
आपको स्थायित्व की प्यास है क्योंकि वहाँ सुरक्षा है। जहाँ सुरक्षा है वहाँ डर से मुक्ति है। आपको निश्चिन्तता की प्यास है। जो क्षणिक है उसको लेकर आप निश्चिन्त कैसे हो सकते हैं? 'आनन्द के क्षण’ आपने कहा, क्षणिक आनन्द कैसे निश्चिन्त कर जाएगा? बल्कि क्षणिक है यदि आनन्द तो और चिन्ता दे जाएगा। चीज़ क्षणिक है, न जाने किस क्षण छिन जाए!
आपकी हर स्थिति के होते हुए भी, आपकी तमाम बदलती हुई स्थितियों के बावजूद, आनन्द है मौजूद। उसे किसी क्षण में न तलाशें। कोई क्षण उसे ला नहीं सकता, कोई क्षण उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। क्षण ऊपर-ऊपर है, आनन्द बहुत नीचे है, वो है। जानने वालों ने कहा है वो तभ भी है जब आप सो गये हैं। बल्कि जब आप सो गये हैं और गहरी नींद में हैं तब मात्र आनन्द है। वो तब आपकी हालत को नाम देते हैं 'आनन्दमयकोश’।
ये अजीब बात है, आप जग रहे हो तो दूसरी स्थितियाँ हैं, दूसरे कोष हैं और आप गहरी नींद में चले गये हो तो नाम क्या दिया? आनन्दमयकोश। आपने कभी विचारा नहीं कि ये कैसी बात है? इसका अर्थ है कि आपकी तमाम बदलती स्थितियों के नीचे आनन्द मौजूद था, आप सो गये वो सारी स्थितियाँ विदा हो गयीं, बचा तो निरा-आनन्द। तो आप कहाँ स्थापित हुए? आनन्दमयकोश में। बढ़िया बात है।
हालत हमारी ऐसी है कि कोई मेज़ पर रखी हुई चीज़ों में मेज़ को तलाशता हो। अब मेज़ पर कपड़े पड़े हैं, किताबें पड़ी हैं, ढोलक पड़ी है, चादर पड़ी है, फ़ोन, घड़ियाँ, चश्में, फ़ाइलें ये सब पड़े हैं और आप उनमें क्या ढूँढ रहे हैं? मेज़। और मेज़ कहीं मिल नहीं रही। क्यों नहीं मिल रही मेज़? क्योंकि मेज़ उन्हीं चीज़ों के नीचे दबी पड़ी है जिनमें आप मेज़ को तलाश रहे हैं। अब दो बातें हैं। पहली बात, जहाँ तलाश रहे हैं वहाँ मिलेगी नहीं। दूसरी बात, जिन चीज़ों में तलाश रहे हैं उन चीज़ों का होना प्रमाण है मेज़ का। मेज़ न होती तो कपड़ा रखा किस चीज़ पर होता? तो कपड़ा यदि रखा है किसी चीज़ पर तो प्रमाणित हो जाता है कि मेज़ है, दिख भले नहीं रही है, कपड़े ने ही ढॉंक रखी है।
आनन्द की झूठी तलाश का नाम है सुख, और आनन्द छिन जाने के झूठे भय का नाम है दुख। तो सुख की उपस्थिति भी बताती तो यही है कि आनन्द होगा ज़रूर अन्यथा सुख कहाँ से आता! और बहुत बड़ी बात होगी, ऐसी बड़ी बात कि जिसकी अपेक्षा भर से सुख आ जाता है। सुख प्यारा है और सुख फिर जिसकी छाया है, सोचो वो कितना प्यारा होगा! और दुख क्या बोल रहा है? आनन्द छिन जाएगा। सोचो वो कितना बड़ा होगा जिसके छिनने के ख़याल भर से तुम दुखी हो जाते हो, वो कितना प्यारा होगा तुमको! तो सुख और दुख दोनों की उपस्थिति प्रमाण है आनन्द का, ठीक वैसे जैसे मेज़ पर रखी चीज़ें प्रमाण हैं मेज़ का। वो चीज़ें मेज़ नहीं हैं लेकिन। इसी तरह से सुख और दुख आनन्द नहीं हैं। हम सुख के अनुभवों को आनन्द का नाम दे देते हैं, ये गड़बड़ हो जाती है।
भाषा में ये पर्यायवाची है सुख और आनन्द, वास्तव में इनमें अयामगत अन्तर है। बहुत भूल हो जाएगी अगर सुख को आनन्द समझना शुरू कर दिया। फिर गुरु से आनन्द मिल रहा होगा, आप कहेंगे मिल नहीं रहा, क्यों? क्योंकि आप क्या तलाश रहे थे? आनन्द के नाम पर सुख। और सुख मिल नहीं रहा, तो आप कहेंगे, ‘ये तो गुरु झूठा निकला! ये आनन्द नहीं दे पा रहा!’ ये ऐसी सी बात है कि जैसे आप जलेबी को लड्डू समझते हों और आप जलेबी ख़रीदने जाएँ, हलवाई आपको जलेबी दे-दे। आप कहें, ‘बड़ा झूठा है। ये देखो क्या चीज़ दे दी घुमावदार, गोल-गोल, फँसाने वाली, चक्रव्यूह जैसी है। जलेबी दे ही नहीं रहा। जलेबी तो होती है गेन्द की तरह।’ सुख और आनन्द को एक मत मान लीजिएगा।
दूसरी भी भूल हो जाएगी कि जहाँ सुख पाएँगे वहाँ ये सोचकर फँस जाएँगे कि यही तो सच्ची जगह है। जो ही आपको हँसा देगा वही आपको फँसा लेगा, क्योंकि आपने सुख को क्या मान रखा है? आनन्द। तो आप कहेंगे, ‘देखो, ये तो सच्ची जगह मिल गयी।’ हुआ कुछ नहीं है, वहाँ बस आपको थोड़ा उत्तेजित कर दिया गया है। वहाँ ज़रा आपके राग की दो-चार वस्तुएँ आपको दे दी गयी हैं। देखा नहीं है, स्वादिष्ट खाना खाने के बाद लोग पेट पर हाथ फेर कर बोलते हैं, 'बड़ा आनन्द आया।'
तीन लोगों ने मिल कर एक को पीट दिया, एक पाँचवाँ दूर से देखता था। वो बाद में गया तीनों को गले लगा लिया, बोला, ‘आनन्दित कर दिया तुमने।’ (श्रोतागण हँसते हैं) ये कुछ नहीं है, ये आपको मज़ा आ रहा है।
शास्त्र कहते हैं, ‘प्रेय और श्रेय का अन्तर सीखो।’ क्या तुम्हें प्रिय है और क्या तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है, दोनों का अन्तर सीखो। ज़रूरी नहीं है कि जो तुम्हें प्रिय है उसी में श्री हो। श्री समझते हो? शुभता। शुभता को कहते हैं श्री। अध्यात्म के नाम पर खुशी का बड़ा बोल-बाला है। लोग दुखी हैं, उनको किसी तरीक़े से खुश कर दो। उनको लगता है, ‘देखो, अध्यात्म बड़ी मीठी चीज़ है।’ किया कुछ नहीं गया, उनको उनके रोज़ के झंझटों से थोड़ी देर के लिए आज़ाद कर दिया गया है। और ये चारों तरफ़ हो रहा है। हर धर्म के नाम पर हो रहा है, ग्रन्थ के नाम पर हो रहा है, गुरुओं के नाम पर हो रहा है।
धर्म के नाम पर, विधियों के नाम पर विलास का, उत्तेजना का माहौल पैदा कर दो, लोग खुश हो जाएँगे। अब प्रसन्नता और आनन्द में भेद तो सीखा नहीं, प्रसन्न हो गये तो कहा, ‘देखो, आत्मा मिल गयी!' क्योंकि आनन्द तो आत्मा है। तो कोई भी आपको खुश करके आपको ये भ्रम दिला देगा कि हम आत्मा के वाहक हैं, हम तुम्हारे लिए आत्मा लेकर आये। और लेकर क्या आये हैं वो? पूड़ी-कचौड़ी। अनुष्ठान होते हैं, सभाएँ, गोष्ठियाँ, वहाँ धार्मिक कृत्य चल रहे हैं। अब उसमें कामिनियाँ, कमसिन, कोमलांगी कन्याएँ सबकी चदरिया झीनी-झीनी और देखने वालों के आनन्द का ठिकाना नहीं! (श्रोतागण हँसते हैं) आप जाँच लो। ‘आनन्द का अप्सराओं से ज़रूर कोई सम्बन्ध है!’
बहुत कम होते हैं आनन्द के ग्राहक। लोगों को बस किसी तरह थोड़ी देर के लिए दुख से निजात चाहिए ताकि वो पुनः दुख के सागर में डूब सकें, कूद सकें। बात पर ग़ौर करिएगा, लोगों को थोड़ी देर के लिए दुख से निजात चाहिए ताकि वो तरो-ताज़ा होकर पुनः दुख में कूद सकें। जैसे कि चटपटा मसालेदार खाना खाने का अनुरक्त कोई एक निवाला खाता है फिर 'सी-सी' चिल्लाता है, पानी पीता है, ताकि? ताकि? ताकि अगला निवाला खा सके। हमें इस तरह चाहिए दुख से मुक्ति। एक निवाला खाया, 'सी-सी' चिल्लाया, पानी के लिए हाथ बढ़ाया और फिर अगला निवाला उठाया। धर्म-गुरुओं ने, सम्प्रदायों ने ये बात पकड़ ली है, वो जान गये हैं कि हमारी नज़र किधर है। हमें मिर्च से मुक्ति नहीं चाहिए, हमें पानी चाहिए ताकि हम और मिर्च चबा सकें।
हमने ग्रन्थों का बड़ा शोषण किया है, हम उन्हें इसीलिए तो इस्तेमाल करते हैं। परेशान हो गये तो गीता पढ़ ली, ताकि अपनी परेशानी में दोबारा वापस जा सकें। और इसको फिर हम बोलेंगे कि देखो हम तो कर्मयोगी हैं। दुकान पर बैठे हैं और दुकान में झंझट-ही-झंझट। एक दिन जब झंझट सिर चढ़कर बोला, लगा कि आज दिल बैठ ही जाएगा तो फिर खूब गीता का पाठ किया, ताकि दोबारा दुकान पर जाकर बैठ सकें।
लोग मेरे पास आएँगे, बातचीत करेंगे, कुछ लोग कुछ रोज़ रहेंगे भी, फिर वो विदा लेंगे। बोलेंगे, ‘गुरुदेव, बड़ा उपकार आपका!’ मैं उनसे बस यही बात पूछता हूँ, ‘अब जा कहाँ को रहे हो?' उससे मैं समझ जाता हूँ तुम मेरे पास क्यों आये थे। अगर मेरे पास आये हो वापस लौट जाने को उसी जगह को जहाँ से तुम आये थे तो छोड़ो ये सब कृतज्ञता की बातें। तुम मेरा इस्तेमाल करने आये थे, तुमने कर लिया। अब फिर जा रहे हो अपनी उसी दुनिया में वापिस, और दम-खम के साथ, जैसे कि कोई ग़ुलाम सेहत बनाकर के लौटा हो मालिक की सेवा में। ‘अब और डटकर सेवा करूँगा अपने शोषक की, अपने मालिक की। आई विल नाउ बी ए बैटर एम्प्लोयी, आई नाउ हैव मोर मेडिटेटिव एंड स्टेबल माइंड’ (' मैं एक बेहतर कर्मचारी बनूँगा, अब मेरा मन अधिक ध्यानमग्न और स्थिर हो गया है।’)
ये क्षण हमें बता रहा है कि हम पैदा क्यों हुए। शरीर को न मुक्ति चाहिए न सत्य चाहिए, शरीर को भोजन चाहिए। भोजन यदि उसे मिल गया है तो वो सोने को तैयार है। कल से भोजन सत्र के बाद ही लगवाना (श्रोता से कहते हुए)। ठीक इसी क्षण को आप पकड़ लीजिए, शरीर को यदि भोजन मिल गया है तो वो सोने को तैयार है। शरीर भूखा होता तो भोजन की उम्मीद में जगा रहता। इससे हमें पता चलता है कि ये शरीर पैदा क्यों होता है। क्यों पैदा होता है, ज्ञान के लिए? मुक्ति के लिए? किसलिए पैदा होता है? भोजन भर के लिए पैदा होता है ये तो। भोजन मिलता रहे, काम चलता रहे।
तुम मुक्ति के लिए नहीं पैदा हुए हो, तुम चबाने-खाने, सन्तान बढ़ाने और फिर मर जाने के लिए पैदा हुए हो। मुक्ति चमत्कार होती है, मुक्ति अनुकम्पा होती है, आशीर्वाद होती है। मुक्ति ऐसा नहीं है कि सस्ती चीज़ है, कि पैदा हुए हो तो मिल ही जाएगी। पैदा हुए हो तो वही मिलेगा जिसका अभी अनुभव हो रहा है — नींद। देखो न शरीर को! शरीर को क्या मूल्य है किसी भी अवसर का, माहौल का? शरीर को तो ये पता है कि अब खा लिया तो सोने दो। शरीर को जगाना हो तो उसे मुक्ति नहीं, भूख दो, वो जगा रहेगा।
मुक्ति के लिए भी अगर शरीर को जगाना हो तो अब सूत्र पकड़ लो — भूख दो उसे। जिन्हें मुक्त होना हो और वो जानते हों कि शरीर की सहायता चाहिए मुक्ति में तो वो शरीर को भूखा रखें। नहीं तो शरीर का काम तो सिद्ध हो गया, वो कहेगा चलो सोने।
यदि दुख मिले तो अफ़सोस मत करना, न अचरज मनाना। दुख तो तय ही है, पैदा हुए हो तो दुख तो तय ही है। अद्भुत बात तो ये होती है कि कुछ लोग कैसे दुख से आज़ाद हो जाते हैं! वो चमत्कार है!
YouTube Link: https://youtu.be/ihzwOzsv5ZQ?si=7PooQl66wxZCU4bY