प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जीवन में क्या लक्ष्य बनाने योग्य है? क्या है जो मन, शरीर दोनों को सुकून दे सकता है?
आचार्य प्रशांत: वह तो आप पर निर्भर करता है न। अगर बिलकुल खरी बात पूछेंगे तो जीवन को किसी लक्ष्य कि ज़रूरत ही नहीं है। पर वह इतनी खरी बात है, इतनी खरी बात है कि बिलकुल बकवास बात है। वह बात इतनी सच्ची है, इतनी सच्ची है कि आपकी किसी काम की नहीं है।
वास्तव में जीवन की आदर्श स्थिति, उच्चतम स्थिति तो वो है जिसमें किसी लक्ष्य की कोई ज़रूरत ही न हो, आप मुक्त हो गए सब लक्ष्यों से। पर वह भाई, इतनी ऊँची स्थिति है, इतनी ऊँची स्थिति है कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
तो हमें तो लक्ष्य चाहिए। पूछ रहे हैं कि मेरे लिए क्या लक्ष्य होना चाहिए। वो निर्भर करता है इस पर कि आपके वर्तमान दुख और बन्धन क्या हैं। न दुख हो, न बन्धन हो तो किसी लक्ष्य की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर पूछोगे कि अध्यात्म का उच्चतम लक्ष्य क्या है, तो उत्तर होगा, लक्ष्यहीन हो जाना। वो बिलकुल आगे की बात है। जो भी सार्थक लक्ष्य थे, वो हासिल हो गये — अब करने को कुछ बचा नहीं, अब बिलकुल हम बादल हैं, आसमान में तैर रहे हैं। कुछ पाना नहीं है, पूरा आसमान हमारा है। बस तैरे जा रहे हैं, तैरे जा रहे हैं। न बनना है, न बिगड़ना है, न बरसना है, बस तैर रहे हैं। तैरते-तैरते एक दिन मिट जाएँगे। वो आखिरी चीज़ है।
हम तो जैसे हैं, बड़े बेचैन हैं। अन्दर का मौसम कुछ घिरा-घिरा सा रहता है। जीवन सुहाना नहीं है। नहीं है न? तो लक्ष्य क्या होना चाहिए?
तुम्हें क्या पता है यह सुहानापन होता क्या है? कैसे सुहाना कर लोगे? मत कहो कि जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, मौसम सुहाना करना। तुम जानते ही नहीं उस सुहानेपन को। अगर लक्ष्य यह बनाओगे कि जीवन सुहाना करना है तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।
देखो, बारीक़ बात है, गौर से सोचो। एक चीज़ है यह कहना कि जीवन में ये जो कुछ भरा-भरा, घिरा-घिरा है, इसको हटाना है। इसी ने मौसम खराब कर रखा है। एक ये बात हुई और दूसरी बात हुई कि मुझे तो भीतर का मौसम सुहाना करना है। ये दोनों बातें सुनने में एक जैसी लगती हैं न? सुनने में एक जैसी हो, दोनों में बहुत अंतर है।
अध्यात्म, भूलना नहीं कि नकार का विज्ञान है। अध्यात्म की भाषा अनिवार्य रूप से नकारात्मक होनी चाहिए। आप अगर यह कहो कि भीतर जो कुछ भी खराब कर रहा है मौसम को, मुझे उसे हटाना है तो आपने ठीक कहा। लेकिन अगर आप ये कहो कि मुझे अच्छा, सुन्दर, सुहाना मौसम हासिल करना है तो आपने बहुत गलत कह दिया। हासिल कुछ नहीं करना है। हासिल क्या करना है?
सूरज बादलों के पीछे छिपा हुआ हो, सबकुछ बिलकुल ठंडा-ठंडा, उदास-उदास, तो क्या करोगे? कहीं से कोई सूरज ढूंढ कर लाओगे? सूरज की कमी पड़ गयी है? बादल छँटने चाहिए। लेकिन दुनिया के ज़्यादातर लोग बादलों के छँटने पर ज़रा भी श्रम नहीं करते। उनकी ज़िन्दगी भर का श्रम, सारी ऊर्जा लगी होती है सूरज को हासिल करने में। वो कहते हैं, ‘दिक़्क़त यह है न, ज़िन्दगी में सूरज नहीं है।‘ और उनकी बात उनकी जगह सही है क्योंकि जहाँ से वो देख रहे हैं, वहाँ से सूरज दिखाई दे नहीं रहा है।
उन्हें क्या दिखाई दे रहा है? सब घिरा हुआ आसमान। सबकुछ विचित्र सा हुआ पड़ा है। सुनहरी धूप नहीं है, एक अज़ीब सी कालिमा है। ग्रे , अच्छा ही नहीं लग रहा है। वो बार-बार कहते हैं, ‘सूरज कहाँ है? सूरज कहाँ है?’
तो अपने हिसाब से उन्होंने सही ही निष्कर्ष निकला है कि सूरज खो गया है। क्या निष्कर्ष है उनका? सूरज खो गया है। तो वो जीवन भर मेहनत करते हैं सूरज को हासिल करने की। उनकी सारी बातचीत, उनका सारा शब्दकोष, सारी भाषा इसी लहज़े की होती है- फलानी चीज़ मुझे हासिल करनी है। मुझे फलानी चीज़ हासिल करनी है।
वो जो कुछ भी हासिल करने की बात कर रहे हों, वो वास्तव में सूरज को ही हासिल करने की बात कर रहे हैं। वो यही कह रहे हैं कि जाकर के किसी तरीक़े से सूरज ले आये कोई। अध्यात्म ऐसा नहीं करता। अध्यात्म कहता है, ‘वो जो तुम्हें वास्तव में चाहिए वो दूर नहीं है। दूर होना तो उसका छोड़ दो, वो भीतर ही है, तुम्हारे पास ही है। दिक्कत बस यह है, वो ढँका हुआ है। तो उसे पाने कि कोशिश मत करो, जिस चीज़ ने उसे ढँक रखा है, उसे हटाओ। और उसे हटाना तुम्हारे बस की बात है। उसे हटाना तुम्हारे बस की बात क्यों है? क्योंकि वो जो घिरी हुई घटा है उसको लाने में थोड़ा बहुत योगदान तो तुम्हारा भी रहा है। तुम्हारी सहमती से ही आई है। तुम्हारी ज़िन्दगी में जितने भी ये उपद्रव हैं, मुसीबतें हैं, उन सब में कुछ न कुछ तो कार-गुज़ारी तुम्हारी भी रही है।‘
अध्यात्म कहता है, ‘तुम वो करो, जो तुम्हारे बूते कि बात है। सूरज को अपने कन्धों पर ढो कर लाना तुम्हारे बूते की बात नहीं है। लेकिन तुमने ये अपनी ज़िन्दगी में जो कचरा फैला रखा है, उसकी सफाई कर देना निश्चित रूप से तुम्हारे बूते की बात है। तो तुम वो करो।‘
यही तय कर देगा कि जीवन में फिर एक सार्थक लक्ष्य क्या होना चाहिए।
देखो कि क्या है जो जकड़े है, पकड़े है। उसको आवश्यक या अनिवार्य मत मानो। यकीन करो, कोई किसी पाबंदी को झेलने के लिए पैदा नहीं हुआ है, कोई भी नहीं। इस तरह की बातें तो करो ही मत कि देखो ये दुख तो झेलना ही पड़ेगा, ये सीमा तो बर्दाश्त करनी ही पड़ेगी और इतने तरीक़े के बन्धनों के बीच रह कर ही कुछ काम करना है। इस तरह कि बातें मत करो। तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे कि ये सब बन्धन किसी तरह का अनिवार्य सत्य हो। नहीं है भाई।
पूर्ण मुक्ति हम सबका अधिकार है। अधिकार ही नहीं है, वो हमारी, हमारे प्रति ज़िम्मेदारी भी है, बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। उसी का नाम स्वधर्म है। स्वधर्म और क्या है? तुम खुद बहुत दिक्कत में हो, अपनी दिक्कतें दूर करने का नाम स्वधर्म है। तुम फँसे हुए हो, तुम बिलबिला रहे हो। और बिलबिला इसलिए रहे हो क्योंकि तुमने अपनी बहुत सारी दिक्कतों को अनिवार्य मान लिया है। उनको क़रीब-क़रीब सत्य का दर्ज़ा दे दिया है। कह दिया है कि नहीं ये सब तो बड़ी पूज्यनीय चीज़ें हैं, ये भले ही दिक्कत देतीं हैं पर इनको तो झेलना पड़ेगा देखो। जीवन तो दुख सहने का ही नाम है।
जीवन दुख है। जीवन इसीलिए दुख है क्योंकि हम दुख देने वाले को, आनन्द देने वाले का स्थान दे देते हैं। आनन्द मिल जाएगा, जीवन का जो भी ऊँचे-से-ऊँचा शिखर हो सकता है सब मिल जाएगा। उसको इज़्ज़त तो दो। और उसको इज़्ज़त देने का मतलब ये होगा कि उसकी जो इज़्ज़त दी जा रही है, वो झूठी चीज़ों को, दुखों को और बन्धनों को नहीं देनी है भाई। यही, यही लक्ष्य है।
जहाँ-जहाँ गलत मूल्य रख दिये हैं, वहाँ से मूल्य वापस खींचो। और जो चीज़ें जीवन में अधिकारी हैं, मूल्यवान हैं, उनको मूल्य दो। इस तरह की कल्पना तो कर ही मत लेना कि वैसे तो मैं पूरा ही मुक्त हूँ आचार्य जी, लेकिन वो न, (ऊँगली का इशारा करते हुए) बस ये जो ऊँगली हैं न, ये ऊँगली, ये फँसी हुई है। ये ऊँगली फँसी हुई है।
वैसे तो मैं निन्यानवे प्रतिशत मुक्त ही हूँ, और ये जो ऊँगली फँसी हुई है, इसका फँसा होना अनिवार्य है। क्यों फँसी हुई है? इसमें न, अंगूठी है न, अंगूठी। ये ऊँगली फँसी हुई है। तुम्हारी ऊँगली, एक ज़ंज़ीर के माध्यम से एक दीवार से बँधी हुई है, तुम कहाँ की उड़ान भर लोगे भाई? भर लोगे? तुमको रोकने के लिए, तुमको बन्धक बनाने के लिए तुम्हारी एक ऊँगली ही बाँध देना काफ़ी है या नहीं है, बोलो? बोलो। पर हम इन बातों को हलके में ले लेते हैं, हम अपने ही ख़िलाफ़ साज़िश कर लेते हैं।
हम कहते हैं, ‘नहीं, मुझे देखो न। मैं बाकी तो पूरा ही मुक्त हूँ, बस ये (ऊँगली) एक बन्धन है।‘
वो जो ये एक बन्धन है न, वो तुम्हारी पूरी हस्ती के ऊपर बन्धन है। माया बड़े ज़ोर से खिलखिलाती है। वो कहती है, ‘ये देखो, ये सोच रहा है कि सिर्फ़ ऊँगली भर तो बँधी हुई है, बाकी तो मैं पूरा आज़ाद हूँ। ये ऊँगली भर नहीं बँधी हुई है।‘
बिलकुल निर्दय हो जाओ बन्धनों के प्रति। श्रीकृष्ण कहते हैं निर्मम हो जाओ, निर्मम। ये दुश्मन ऐसा है, जिस पर ज़रा भी दया नहीं करनी है, ज़रा भी सहृदयता नहीं दिखानी है, ज़रा भी ये नहीं कहना है कि चलो इसको थोड़ी सी गुंजाइश छोड़ देते हैं। नहीं, उसको बिलकुल मिटा देना है। उसको अगर पूर्ण-अंत नहीं दोगे तुम, तो तुम्हें भी पूर्ण-मुक्ति नहीं मिलेगी।
तुम कहोगे, ‘क्या हो गया? कम में गुज़ारा करना चाहिए। संतोषं परमं सुखं। ज़्यादा नहीं माँगना चाहिए। बहुत बड़े लोगों ने बोला है कि मुक्ति भी थोड़ी बहुत ही। मुक्ति थोड़ी बहुत है, वो अगर पूर्ण से ज़रा भी तुमको कम मिली तो समझ लो मिली ही नहीं। अपूर्ण मुक्ति को ही तो बन्धन कहते हैं। जो बन्धक है, वो भी थोड़ा बहुत तो मुक्त है ही। फिर उसे बन्धक क्यों कह रहे हो? वो वास्तव में अपूर्ण-मुक्त है।
अंत तक जाओ — यही लक्ष्य है। रुको मत। अपने ऊपर जो भी बन्धन, पहरें, सीमाएँ बाँध रखी हैं, उनको आख़िर तक समाप्त कर दो। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी बैठा हुआ है, जो क्षुद्रताओं का, सीमाओं का पक्षधर है, उसको जब तक तुमननें मिटा नहीं दिया, मानो कि लक्ष्य पाया नहीं। उसको मिटाना ही लक्ष्य है।