जीत में जीते नहीं, न हार में हारे || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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जीत में जीते नहीं, न हार में हारे || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: सर, अगर हम किसी को कुछ समझा नहीं पा रहे तो इसमें हमारी तरफ से कहाँ चूक है?

वक्ता: न चूक है, न निशाना है; लीला है । उसमें चूकने का कोई सवाल नहीं है । तुम्हें नहीं पता कि तुम चूक-चूक कर कहाँ पहुँचे जा रहे हो । मन सीमित होता है और उसकी दृष्टि भी सीमित होती है । जिसको तुम अपनी असफलता कहते हो वो अस्तित्व के अनंत कैनवास पर क्या है ये तुम जान नहीं पाओगे । ऐसे तो कहते फिरते हो हमेशा वो कैटरपिलर-बटरफ्लाई वाली बात कि जो एक के लिए मौत है, दूसरे के लिए जीवन है । जिसको तुम अपनी चूक कहते हो वो चूक सिर्फ आज के सीमित संदर्म में है । और बड़े संदर्म में वो क्या है, तुम नहीं जानोगे ।

वो कहानी सुनी ही है ना- एक बूढ़ा आदमी था, गाँव में रहता था । एक दिन पाता है कि उसके घर के सामने एक घोड़ा आकर खड़ा हो गया । गाँव वालों ने कहा, “बधाई हो, बधाई हो, बहुत बढ़िया घटना घट गयी” । उसने कहा- “ठहरो, इतनी जल्दी निर्णय मत लो । हम नहीं जानते कि क्या घट रहा है । आज के सीमित संदर्म में देखोगे तो लगेगा कि बहुत बढ़िया घटना घट रही है पर जैसे-जैसे तुम अपनी दृष्टि को व्यापक करते जाओगे तो पता चलेगा कि कुछ और ही हो रहा है” ।

पर गाँव वाले तो बड़े खुश कि बहुत सुन्दर-सफ़ेद घोड़ा इस आदमी को मिल गया है । कुछ दिनों तक ऐसा ही चला और एक दिन वो सफ़ेद घोड़ा खो गया । गाँव वाले आये उसके पास और बोले, “बड़ा बुरा हुआ, बड़ा बुरा हुआ” ।

व्यक्ति ने फिर कहा, “ठहरो, आज की नज़र से देख रहे हो तो लग रहा है बड़ा बुरा हो गया । तुम नहीं जानते बात कहाँ तक जायेगी” । घोड़ा दोबारा जंगल चला गया था, वहाँ से अपने चार-पाँच साथी लेकर आ गया । कुछ दिनों बाद देखा जाता है तो उसके सामने एक नहीं, पाँच घोड़े खड़े हुए थे ।

गाँव वाले फिर आये और बोले, “बड़ा अच्छा हुआ, बड़ा अच्छा हुआ” । उसने कहा, “ठहरो, तुम नहीं जानते कि अच्छा हुआ कि बुरा हुआ । बात आगे तक जायेगी । बात दूर तक जायेगी” । अब जब पाँच घोड़े हो गये तो उनके लिए चारे का प्रबंध करना है, उनको नहलाना है, धुलाना है, घुमाना है ।

तो उसका एक लड़का था, वो यही करने लग गया । वो एक घोड़े पर बैठता, बाकी चारों को हाँकता, इधर-उधर ले जाता खिलाने के लिए । एक दिन घोड़ों ने उसे गिरा दिया, उसकी टांग टूट गयी । गाँव वाले आये और बोले, “बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ” । उसने फ़िर कहा, “ठहरो, तुम नहीं जानते कि अच्छा हो रहा है या बुरा हुआ है । क्यों जल्दी से निर्णय ले लेते हो?

अकेला लड़का, टांग टूट गई है । वो कह रहा है, “नहीं, बुरा नहीं हुआ है, न अच्छा हुआ है” । अचानक से राज्य में युद्ध छिड़ गया । राजा ने मुनादी पिटवा दी कि जितने भी हट्टे-कट्टे, स्वस्थ युवक हैं, वो सब लड़ाई पर जायेंगे । अब गाँव के जितने युवक थे उन सबको लड़ाई पर भेज दिया गया, पर इसको नहीं भेजा गया । गाँव वाले आये और कहा, “बड़ा अच्छा हुआ, बड़ा अच्छा हुआ, इसकी टांग टूटी हुई थी नहीं तो इसको भी मरने भेज दिया जाता” ।

बूढ़े ने फ़िर कहा, “ठहरो, तुम नहीं जानते कि अच्छा हुआ है कि बुरा हुआ है” ।

तो कहानी इस तरह आगे बढ़ती रहती है । जिसको तुम आज की चूक समझ रहे हो वो कल में क्या है तुम्हें नहीं पता । जिसको तुम आज का दुर्भाग्य समझ रहे हो, जिसको तुम आज की हार समझ रहे हो वो कल में क्या है तुम्हें नहीं पता । मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आज की हार कल की जीत है । मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ कि आज की जीत कल की हार है । मैं तुमसे कह रहा हूँ कि न जीत है, न हार है, सिर्फ लीला है । तो इन बातों को गंभीरता से नहीं लेते ।

तुम किसी से कुछ कह कर के आये और तुम कह रहे हो कि “हम किसी को समझाते हैं, नितनेम समझाते हैं, कोई बात कहते हैं, उसको समझ में क्यों नहीं आती?” तुम्हें कैसे पता कि क्या प्रभाव हो रहा है और क्या प्रभाव नहीं हो रहा और तुम्हें कैसे पता कि तुम जानते ही हो कि प्रभाव नहीं हो रहा । तुम सामने वाले व्यक्ति का मन पढ़ सकते हो?

तुम्हारा कोर्स पूरा हो जाता है और पिछले साल के विद्यार्थी जब तुमको मिलते हैं जो कक्षा में ऐसे रहते थे कि “हमें तो कुछ पसंद ही नहीं है, हम कुछ जानते नहीं” । वो अब बोलते हैं कि “सब ठीक था, सब अच्छा था, हम ही नालायक थे, हमने पढ़ा नहीं” । अगर इतना अहसास उनको हो गया है तो तुम सफल हो । तुम्हें कैसे पता कि तुम चूक गए । तुम चूक-चूक कर के भी जीत गये ।

जीत को जीत मत मानो, हार को हार मत मानो । जब कबीर कहते हैं: “*मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ”*, तो उनका यह अर्थ नहीं है कि सोच लो तो जीत गये और सोच लो तो हार । उनका अर्थ यह है कि हार-जीत सिर्फ़ मन की कल्पनाएँ हैं । इनमें पड़ो ही मत कि चूक हो गयी । तुम तो अपना काम करो ।

जो उचित है, वो करो । नतीज़ा क्या आता है, छोड़ो । क्योंकि कोई भी नतीजा आखिरी कब हुआ है? तो नतीजे को नतीजा कहना ही बड़ी बेवकूफ़ी है । कभी कहीं जाकर के कहानी रूकती हो तो तुम बोलो ‘द एंड’ । जब कहानी कहीं रूकती ही नहीं तुम क्यों कहते हो कि कहानी का नतीजा यह निकला । अनंत कहानी है, तो कैसे पता कि चूक गये?

इंटरवल के पहले हीरो मर रहा जाता है पर इंटरवल के बाद पता चलता है कि वो तो जिंदा है, पुनर्जन्म हो गया । तो क्यों आँसू बहा रहे थे इंटरवल में । ये देखो कि पिक्चर अभी बाकी है । पिक्चर सदा बाकी रहती है, कभी पूरी होती ही नहीं । तो यह सोचो ही मत कि हार गये और इतराओ भी मत कि जीत गये । खेलने में और प्रतिस्पर्धा करने में यही अंतर है । प्रतिस्पर्धा में तुम किसी भी रूप से अंत ले आ देते हो । कहते हो कि 70 मिनट के बाद खेल रुक जाएगा । यह पक्ष जीता और यह पक्ष हारा । क्रीड़ा में कभी कोई अंत नहीं होता, वो चलती रहती है । वो खेल है ।

रात-भर जली शमा और सुबह बुझ गयी । कहोगे कि मिट गयी, हार गयी, खत्म हो गयी और खिड़की से बाहर देखोगे तो क्या दिखाई देगा, सूरज । मिट गयी या सूरज बन गयी? तुम चूक सकते हो, अस्तित्व नहीं चूकता । इसीलिए अपने सीमित संदर्मों से हट कर के देखो ।

“*तेरी हार भी नहीं है तेरी हार, उदासी मन काहे को करे ”* और मैं इसमें यह जोड़ रहा हूँ कि तेरी जीत भी नहीं है तेरी जीत ।

जीत के बाद हार है और हार के बाद जीत है, तो तुम हार-जीत से परे खड़े रहो । फिलहाल तो उदास हो, फिलहाल तो यही लग रहा है कि “चूके जा रहे हैं । इतना बताते हैं, इतना सुनाते हैं, नालायकों को समझ में नहीं आता” ।

यह बात बिल्कुल मत सोचना कि समझ नहीं आता । सद्वचन जिस भी कान पर पड़ा है, वो वहाँ अपना काम करेगा । देखो, जन्मों की प्यासी मिट्टी होती है न जो, उस पर पानी की बूँद पड़ती है तो वो बूँद बहुत गहरी उतर जाती है । सतह पर दिखाई नहीं देती । सतह पर देखोगे तो यही लगेगा कि कुछ हुआ ही नहीं । बूँद डाली और बूँद का डालना निष्फ़ल चला गया । ऐसा ही लगेगा न? निष्फ़ल नहीं चला गया, वो बूँद गहरी उतर गयी है । और बूँदें पड़ेंगी, और बूँदें पड़ेंगी, और एक दिन पाओगे कि मिट्टी लहलहा उठी है । पहली बूँदों की नीयत ही ऐसी रहेगी कि वो गुमनाम जायेंगी । हम जो काम कर रहे हैं वो पहली बूँद जैसा ही है ।

पहली बूँदें हमेशा गुमनाम जाती हैं; पर वो गुमनाम भले हों, पर धरती के गर्भ तक जाती हैं । ऊँचे महल बनते हैं, वो उनकी बुनियाद पर बन जाते हैं । दिखाई नहीं देती पर असली काम वही करती है । उसको अपनी चूक मत मानना कि हम बहुत कुछ करते हैं, नतीजा नहीं दिखाई देता । नतीजे आयेंगे, समय बहुत लगेगा । हो सकता है कि तुम जिंदा न बचो । लगेगा ही इतना । लम्बी प्रक्रिया है, बहुत लम्बी ।

तुम आस्था रखो, बहुत गहरी और जो कर रहे हो उसे करते जाओ । ये पक्का जानो कि जो कर रहे हो अगर वो उचित है तो इतना काफी है । आगे की आगे पर छोड़ो । तुम तो बस अभी खेलो ।

और जो फलेगा वो भी समय के साथ मिट्टी बन जायेगा । तो इतना ही मत कहो कि बीज डाला है तो उसपर पौधा आयेगा, पेड़ बनेगा, फल आयेगा । बस यही मत कहो, बात और आगे जाती है । वो फ़िर बंजर बनेगा । जहाँ आज महासागर है, वहाँ कभी लहलहाते जंगल थे । सहारा का जो रेगिस्तान है वो कभी हरा-भरा हुआ करता था ।

तो इसमें बहुत विचार करने की ज़रूरत नहीं है । यह सब काम किसी उद्देश्य से नहीं करा जा रहा । और यदि कोई उद्देश्य है तो वो ‘महा-उद्देश्य’ है । वो इतना बड़ा उद्देश्य है कि मन में समायेगा नहीं; *पर्पसलेस*, उद्देश्यहीन है । दो ही बातें कह सकते हो कि उद्देश्यहीन है या ये कह दो कि उद्देश्य इतना बड़ा है, इतना बड़ा कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । जैसे कहना हो कह लो ।

~ ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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