जब मन पर उदासी छाई रहे || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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जब मन पर उदासी छाई रहे || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले कुछ दिनों से उदासी रहती है, सब ठीक चल रहा है फिर भी पता नहीं क्यों रोना आ जाता है, समझ नहीं आ रहा क्या करूँ? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: तो जो हो रहा है, उसको होने दो, उसके साथ रहो, बुरा मत मानो इसका। उसकी याद ही तो दुख देती है न! उसकी याद का दुख अगर आ रहा है, तो शुभ है। उसमें कोई न घबराने वाली बात है न ये माँगने वाली बात है कि ये उदासी दूर हो जाए। ये उदासी मन को साफ़ करती है।

दुख और सुख वैसे तो एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं, लेकिन फिर भी मैं कहता हूँ कि दुख एक मामले में बेहतर है। किस मामले में बेहतर है? दुख मन को थोड़ा साफ़ कर जाता है। है एक ही चीज़ दुख-सुख, लेकिन दुख के साथ लाभ ये है कि दुख मन को थोड़ा साफ़ कर जाता है। जैसे कुछ धुल जाता हो आँसू से, थोड़ी सफ़ाई आ जाती है। और जो आदमी प्रसन्नता में और रस में ही जी रहा हो, उसके साथ अक्सर देखा जाता है कि वो और गन्दा हो जाता है। उदासी में अन्तर्गमन थोड़ा ज़्यादा आसान हो जाता है।

जानते हो हमने आजकल उदास शब्द को गन्दा बना दिया है। हमने अभी पिछले कुछ दशकों से या पिछली सदी में इस शब्द को अनिच्छा के रंग दे दिये हैं। हमने कह दिया है कि ये एक ऐसी स्थिति है जो हमें चाहिए नहीं। कौनसी स्थिति? उदासी की। तुम पुराने ग्रन्थों में जाओगे तो वहाँ पर उदास शब्द को बड़े सम्मान के साथ लिखा जाता है। उदासी को बड़ी बात कहा गया है। सन्तों ने कई बार कहा है कि उदास होना सीखो। और उदास माने ग़मगीन नहीं, उदास माने विरक्त। उदास माने आवश्यक रूप से दुखी नहीं, उदास माने विरक्त। उदासी से ही सम्बन्धित शब्द है उदासीनता, निरपेक्षता।

आत्मज्ञान ज़्यादा आसान हो जाता है जब तुम उदासीन हो। और जब तुम प्रसन्न हो और उत्तेजित हो तब आत्मज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं लगती। क्योंकि तब आत्मज्ञान अहंकार को ख़तरे की तरह लगता है। अहंकार प्रसन्न अनुभव कर रहा है। कहीं आत्मज्ञान में उस प्रसन्नता का परीक्षण करने लग गये, तो ये न पता चल जाए कि प्रसन्नता नक़ली है। कोई चीज़ है जिसके साथ बड़ा मज़ा आ रहा है, अब कौन उसका परीक्षण करे — आत्मज्ञान माने तो परीक्षण — अब कौन उसका परीक्षण करे! क्योंकि परीक्षण किया और चीज़ नक़ली निकल गयी तो खुशी छिन जाएगी।

तो खुशी में आत्मज्ञान मुश्किल हो जाता है। उदासीनता में आत्मज्ञान सुलभ हो जाता है। उदासीनता को लेकर ये रवैया मत रखो कि कुछ ग़लत हो रहा है, ठीक बात है।

आज के समय ने तो गम्भीरता को भी बड़ी गड़बड़ चीज़ बना दिया है। कोई गम्भीर हो तो तुरन्त उससे कहेंगे, 'अरे! कुछ ग़लत हो गया क्या? व्हाई आर यू सो सीरीअस (आप इतने गम्भीर क्यों हैं)?’ आज का समय तो माँग रखता है कि तुम हर समय दाँत दिखाते ही रहो। तुम कुछ हो इसका प्रमाण आज के युग में सिर्फ़ फटी बत्तीसी है।

देखो, अभी जितने यहाँ पर बैठे हुए हो, ठीक इस समय कोई समस्या है, कोई बोझ है, कोई तकलीफ़ है, शान्त हो न, दिख रहे हैं किसी के दाँत? पर जहाँ सेल्फ़ी खींचने लगोगे, दाँत दिखाना कितना ज़रूरी हो जाता है। क्योंकि दूसरों को दिखाना है न! सामाजिक मान्यता ही बत्तीसी को मिली हुई है। उसी सामाजिक मान्यता के कारण उदासीनता तुमको ख़तरे की बात लगने लगती है। क्योंकि जब तुम्हें हर जगह अपनी हँसती तस्वीर ही चिपकानी है, जब समाज स्वीकृति ही सिर्फ़ हैपीनेस (खुशी) को दे रहा है, तो वहाँ पर तुम्हें ये शक हो ही जाता है कि मैं तो अभी गम्भीर हूँ, मैं तो विरक्त हूँ, मैं तो उदासीन हूँ। ज़रूर मुझमें ही कोई खोट होगी, क्योंकि जिसको देखो वही खुश है। ये भी हैपी , ये भी हैपी , सब हैपी ही हैं। मैं ही बेचारा न जाने किस व्यथा में हूँ। तो मेरी ही कोई खोट होगी।

आपके साथ जो हो रहा है वो भला है, शुभ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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