जब हाथ फैलाओगे तो स्वतंत्र कैसे रह पाओगे? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2012)

Acharya Prashant

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जब हाथ फैलाओगे तो स्वतंत्र कैसे रह पाओगे? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2012)

प्रश्न: आचार्य जी, हम क्यों अपने माता-पिता के निर्णयों के आगे हथियार डाल देते हैं?

आचार्य प्रशांत: तुम बताओ, तुमने डाले हैं।

प्रश्नकर्ता: बहुत कम लोग होते हैं जो अपने निर्णय ख़ुद लेते हैं, तक़रीबन १०-५ प्रतिशत।

आचार्य प्रशांत: देखो तुम हथियार नहीं डालते हो, तुम व्यापार करते हो।

तुम हथियार-वथियार कुछ नहीं डालते। ये युद्ध की भाषा है, इसका इस्तेमाल करना बंद करो। क्योंकि तुम व्यापार कर रहे हो, तो व्यापार की भाषा का इस्तेमाल करो।

तो तुम मापते हो कि उनकी बात अगर मान लें तो कितना फायदा है, और तुम मापते हो न मानने पर कितना नुक़सान है। और तुम पाते हो कि नुक़सान हो जाता है।

मुझसे बहुत लोग कह चुके हैं कि आएँगे, बात करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। और फिर कुछ समय बाद कहेंगे, “रहना तो उसी घर में है न।” तुमने क्या किया है, तुम देख नहीं रहे हो? तुमने कैलकुलेटर निकाला है, और मापा है कि कितना नुक़सान हो जाएगा अगर लड़ लिए। यहाँ इसमें प्रेम की कोई बात नहीं है। इसमें आदर की कोई बात नहीं है, इसमें भावनाओं की भी कोई बात नहीं है। सीधे-सीधे लाभ-हानि का कैलकुलेटर चल रहा है। तुम कोई समझौता नहीं कर रहे।

ये वैसी-सी बात है कि कोई ऐसा लेन-देन जिसमें १० रुपए देकर ५ रुपए मिलते हों, तो आदमी नहीं करता न। तो तुम वही करते हो। तुम कहते हो, “अगर ये नहीं करूँगा तो १० रुपए का नुक़सान हो जाना है।” देखो न, इस वाक्य को ध्यान से समझो कि – “रहना तो हमें उसी घर में है न।” क्यों रहना है भाई उसी घर में?

कहते हैं न कि आज़ादी एक कठिन चीज़ है, हर किसी को नहीं मिलती। आज़ादी की कीमत है – ज़िम्मेदारी।

ज़िम्मेदारी आप लेना नहीं चाहते, तो फिर कहते हो, “ठीक है, मुझपर बड़ा दबाव है, इसलिए मैं मान गया।”

क्यों नहीं लेते तुम ‘*एजुकेशन लोन*‘ (शिक्षा ऋण)? जब तुम किसी पर लाखों खर्च कराओगे अपनी एजुकेशन (शिक्षा) पर, तो तुमने कैसे सोच लिया कि तुम स्वतंत्र रह जाओगे? हममें से कई लोग बहुत ज़्यादा अमीर खानदानों से नहीं होंगे। हमने लाखों रुपए जिस व्यक्ति से निकलवाए हैं, उसने बड़ी मुश्किलों से लाकर दिए हैं वो लाखों रूपए।

ठीक है न?

जिससे तुमने लाखों निकलवा लिए, उसको अदा तो करने ही पड़ेंगे। तुम्हें ये क़र्ज़ उतारना तो पड़ेगा ही।कैश (नकद) में नहीं उतरेगा तो काइंड (आभार) में उतरेगा। कैश में ऐसे उतरता है कि – “मैंने कमा लिया, लो अब मैं ये पैसे वापस करता हूँ।” पर वो होगा नहीं, क्योंकि अगर वो होगा, तो स्पष्ट हो जाएगा कि ये व्यापार था, प्रेम नहीं था।

तो व्यापर में प्रेम का नक़ाब पड़ा रहे, इसलिए कैश (नकद) में तो आप लेन देन करोगे नहीं। आप लेनदेन करोगे, कैसे? अब आपकी ज़िन्दगी ग़ुलाम हो जानी है। अब आप कर लो आगे के जीवन के फैसले। जिसकी पढ़ाई का खर्चा किसी और ने उठाया है, वो ये कहके दिखा दे, “मुझे नौकरी नहीं करनी है। अब मैं दो साल देश घूमूँगा बी-टेक के बाद! मैं दुनिया समझना चाहता हूँ।”

जिस किसी ने पैसा दिया था, वो कहेगा, “पाँच लाख इसलिए खर्च किए थे जिससे तू देश घूमें? कमाना शुरू कर और लौटाना शुरू कर।” और ये बड़े मज़े की बात है। आई.आई.टी. चले जाइए, आई.आई.एम्. चले जाइए, मेरे साथ आधे से ज़्यादा ऐसे लोग थे जो एजुकेशन लोन पर पढ़ रहे थे। और उन्हें कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी एजुकेशन लोन की। और मैं देखता हूँ कि आप लोग होते हैं जो अक्सर ऐसी जगहों से होते हैं जहाँ पर आर्थिक तंगी भी होती है, लेकिन आप एजुकेशन लोन नहीं लेते। मिल रहा हो, तो भी नहीं लेते, नहीं मिल रहा हो, तो एक स्थिति है। और फिर आप कहते हैं कि हमपर बड़ा दबाव है।

अब दबाव है, कि तुमने ‘चुना’ है?

(व्यंगात्मक तौर पर) हम सब अच्छे से जानते हैं कि आपकी यूनिवर्सिटी का जो सिलेबस (पाठ्यक्रम) है, वो कितना भारी है। तुम्हें किसने रोका है कि तुम छोटे-मोटे ट्यूशन देकर न कमाओ? नहीं, तुम मोबाइल पर खर्च करते रहो, “पिताजी थोड़े और पैसे डलवा दीजिएगा!” फिर तुम कहते हो कि माँ-बाप के सामने समझौता करना पड़ता है।

जब हाथ फैलाओगे तो समझौता करना ही पड़ेगा।

हमें अपने युवा होने का कोई बोध है कि नहीं है? १८-२० साल के हो गए हो और हाथ फैला कर खड़े हो। ये जवानी की निशानी है? फिर कहते हो, “समझौता क्यों करना पड़ता है?”

तुमने ‘चुना’ है समझौता करना।

तुमने चुना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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