श्रोता : सर, मैं संपादन करता हूँ तो अपना पूरा काम करने के बाद, मैं फ्री हो जाता हूँ। मैं ऐसा करता हूँ कि मैं एक मिनट फ्री हो गया, उसके बाद टाइम ऑफ ले लिया। उसके बाद जब थोड़े पैसे आ जाते हैं, फिर मेरा मन ही नहीं करता कि मैं काम करूँ। मन कहता है कि बस हो गया। अब मैंनें काम पर ही नहीं आना, तो उन दिनों लगता है कि चलो काम हो गया। काम नहीं करना पर अंदर से कभी-कभी लगता है कि आपको आत्मा-परमात्मा का तो पता ही नहीं है। उसको छोड़ो। पर हाँ, इतना पता है कि शरीर है, दिमाग है, कुछ तो कर लूँ? पर रुची ही पैदा नहीं होती। करना क्या है? अच्छा, जैसे आज मैं ये करता हूँ। मैं क्यों करूँ भाई? मैं क्यों करूँ इसको? समय वर्य्थ हो रहा है। तुम्हें जो चीज़ पता है कि तुम्हारे पास शरीर है, दिमाग है, तुम उसका भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हो?
वक्ता : गौतम (प्रश्न करता की ओर इशारा करते हुए), जब बीमार रहने की आदत पड़ जाती है न, तो स्वास्थ्य से अपरिचय हो जाता है। वो बड़ा अनजाना सा लगता है। तब उन क्षणों में तुम बैचैन हो जाओगे, जो क्षण तुम्हारे स्वास्थ्य के हैं। जो बात तुमने अभी बोली, वो परम स्वास्थ्य का द्योतक है कि हो गया। शरीर के पालन के लिए, रोटी-कपड़ा-मकान के लिए जितना पैसा चाहिये था, अभी है। तो क्यों करे और काम? और न कोई काम करना है, न ही कोई दूसरा काम करने का मन है। ये मुक्ति है और ये तुम्हें उपलब्ध है। और तुम शिकायत कर रहे हो कि ऐसा क्यों होता है?
जब असली शिकायतें हम दबा देते हैं, तब जो असली है वही शिकायत बन जाता है।
जीवन में बाकी सब नकली। उसके प्रति कोई शिकायत नहीं। और जो असली है वो शिकायत की तरह फूट रहा है। शिकायत नहीं, इसके प्रति तो धन्यवाद प्रकट करो। ये अवस्था तो अधिकाँश लोगों को नसीब ही नहीं होती कि न वो कुछ कर रहें हो, और न उनका कुछ करने का मन हो। कल मैं चर्चा कर रहा था। एक गीता उपलब्ध होती है-अजगर गीत के नाम से। अजगर जानते हैं ना? ‛अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।’ वो अजगर की गीता है। और उसमें जो प्रणेता है, वो अजगर धर्म का पालन करता है। आप में से कुछ लोग अगर अगले सप्ताह यहाँ मिले, और आपने मुझे अगर याद दिलाया तो मैं ले आऊंगा। लानी भी नहीं है, वो शायद मैंने कुछ लोगों को भेजी है, वो आपको दे सकते हैं। और अजगर धर्म यही है-कुछ नहीं कहेंगे। वो पूरी गीता समर्पित ही इसी को है कि कुछ नहीं करेंगे क्योंकि जिन्होंने करा है ,उन्होंने भुगता है। जो बोएगा सो काटेगा। ‛हमें काटने में कोई उत्सुकता नहीं है। हमें नहीं चाहिए तो हम बोने में क्यों श्रम लगाएं? हमें कोई नया कर्म शुरू करना ही नहीं अब। पूराने ही जल जाएं, उतना काफी है। तुममें करीब करीब अजगर भाव का उदय हो रहा है।
श्रोता : पर सर ये तो वहाँ लिखा है ना। मेरे अंदर तो ऐसी कोई भावना नहीं है?
वक्ता : तुम्हारे अंदर ऐसा कोई विचार नहीं है, पर हो वही रहा है। विचार तो तुम्हारे मन में ये आ रहा है कि ‛ऐसा क्यों हो रहा है?’
श्रोता : मुझे लगता है कि क्यों समय व्यर्थ करूँ? इतना कुछ है करने को। कुछ तो कर लूँ? कुछ तो कर लूँ मतलब?
वक्ता : और ये विचार तुममें आएगा ही क्योंकि तुम्हारे आस पास जितना कुछ है, वो तुम्हें लगातार ये ही शिक्षा दे रहा है कि ‛जीवन का सदुपयोग करो; लगातार आगे बढ़ो। कुछ न कुछ करते रहो, रुक मत जाना, थम मत जाना। प्रगति करो।
श्रोता : प्रगति की भी बात नहीं है सर। मतलब कुछ तो करो। कहीं तो शामिल जाओ।
वक्ता : हाँ तो ठीक है। अपनी आँख खोलते हो, इधर-उधर देखते हो; सबको कहीं न कहीं शामिल ही देखते हो न? तो तुम भी बेचैन हो जाते हो कि सब तो कुछ न कुछ कर ही रहे हैं, कहीं न कहीं रत हैं, ”मैं क्यों खाली बैठा हूँ?” बड़ा अजीब लगता है! जिसको देखो, वही किसी न किसी धन्दे में जा रहा है, कहीं न कहीं। वो उधर को चले और हम कहीं को नहीं चले? तो ऐसा लगता है कि हम ही बीमार होंगे शायद।
श्रोता: बिल्कुल लगता है।
वक्ता : हाँ। वही होता है न?
श्रोता : पर सर, विचार तो यहां किया ही जा रहा है? विचार तो यहाँ है ही।
वक्ता : हाँ बिलकुल है। और ये यदि विचार बहुत देर तक चलता रहा तो थोड़ी देर में उसको खो दोगे, जो तुमको अनुकम्पा से मिल गया है क्योंकि अगर बार-बार ये विचार आता ही रहा कि, ”क्यों खाली बैठा हूँ,” तो फिर कुछ न कुछ करने लग ही जाओगे और खत्म। जो पाया था, वो खो दिया।
श्रोता२: सर, तो खाली बैठना अच्छा है?
श्रोता३ :ये जो एक चर्चा चल रही है यहाँ शिव सूत्र ही मौजूद है- अद्योम भरवः। निसंदेह, यहां उस चेष्टा पर बात नहीं हो रही, जिससे हम चित्र-विचित्र हैं। ये बात कहीं और ही जा रही है।
वक्ता : वो बस इतना ही कह रहा है कि जो भी आप करें, उद्यम मतलब कर्म। आप जो भी करें, वो शिव से आए; वो ह्रदय से आए। और ह्रदय से यदि ये ही आ रहा है कि पाँव उठाने की ज़रूरत नहीं, तो वही फिर सम्यक उद्यम है। शिव का नृत्य है। वो उनकी भैरव मुद्रा है, तो नाचें तो शिव नाचें, आप न नाचें। जब कर्म हो, तो वो नृत्य जैसी मोहकता, सरलता, लयबद्धता लिए हुए हो और शिव से ही आए। शिव ह्रदय हैं; शिव आत्मा हैं। आपका कर्म, आपकी आत्मा से उठें और जब कर्म आत्मा से उठता है, जब कर्म भैरव से उठता है, जब उद्यम भैरव से उठता है, तो वो नृत्य समान होता है। फिर वो रूखा-सूखा, लयहीन नहीं होता। फिर आप चलते नहीं हो, फिर आप नाचते हो।
अब शिव तो हैं ह्रदय में, पर पसंद ही नहीं आ रहे। बात इतनी सी नहीं होती है कि मिले। मैंने तो ये देखा है कि मिलने से ज़्यादा आवश्यक ये होता है कि जब मिलें, तब आप उस मिले हुए की कद्र कर पाओ। यदा-कदा मिल भी जाता है। संयोगवश मिल जाता है। बिना आपके चाहे मिल जाता है। और जब मिल जाता है तो आप उसको यूँ उठा कर फैक देते हो। कि ‛ये तो वो है ही नहीं।’ इसको कीमत क्या देनी। छोड़ो ना इसको। तो मिलने से ज़्यादा ज़रूरी ये है कि जब मिले तब तुम उसको मूल्य दे पाओ।
परसों बैठा हुआ था कुछ यूरोपियन मित्रों के साथ। उनमें से कुछ ऐसे थे जो वर्षों से भारत का चक्कर लगा रहे थे। तो उनमें एक वृद्ध जन थे। कहने लग गए कि- सन् अस्सी से यहाँ आता रहता हूँ। ऋषिकेश घुमा, इधर गया, उधर गया। और खूब मिला। इस बार पहली बार हुआ है कि आपसे चर्चा के बाद कुछ खोया है। बोले पाया खूब था। पाता ही जा रहा था। और समझ ही नहीं पा रहा था कि अशांत क्यों रहता हूँ। भारत से पाया खूब था। पहली बार हुआ है कि कुछ खोया है। थोड़े भावुक हो गये।आँसू आ गये। बोले-अब समझ पा रहा हूँ शान्ति किसे कहते हैं। पहले जिसे शान्ति कहता था, वो शान्ति जैसा अनुभव था। इस बार बस खाली हूँ। ये भी नहीं कह पा रहा हूँ कि शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ। शायद इसी को शान्ति कहते होंगे। ये सब बोले गये। और फिर कहते हैं-चलता हूँ। कल आऊंगा।
मैंने कहा-ठहरो। एक ओर तो आप ये कह रहे हो की ३०-५० साल की साधना के बाद जो आपको नहीं मिला, वो आपको अचानक मिल गया है मेरे माध्यम से। ये कितनी बड़ी घटना है? बोले-इससे बड़ी घटना हो नहीं सकती। मैंने कहा-ठीक। मैंने कहा मिल गया है? बोले बिलकुल मिला है और मुझसे ज़्यादा आश्वस्ति से कोई कह नहीं सकता कि मिला है क्योंकि मैंने पूरी जान लगाके खोजा था। मैं अपना देश छोड़के यहाँ महीनों पड़ा रहता था खोजने के लिए। मैंने वो सब कुछ किया है जो एक खोजी कर सकता है। और मैंने खोया है। इसलिए मैं बता सकता हूँ कि मैंने पाया है। मैंने बोला-कि पक्का है कि तुमने पाया है? बोले कि- हैं। अब ये बात बड़ी विचित्र थी। मैंने कहा- अब जब पाया है तो अब जा क्यों रहे हो? वो अचकचा गए। बोले कि मैं एक आश्रम में रहता हूँ। वो बन्द हो जाता है। मैंने कहा उनसे कितनी तकलीफ होगी? बोले नहीं, ज़्यादा कोई तकलीफ नहीं पर हाँ, जाना होता है। आदत है। हमेशा का एक ढर्रा बना है कि इतने बजे जा करके आश्रम के द्वार से भीतर हो लिए। अपने कमरे में चले गए। १०-१०:३० बजते-बजते सो गए। सुबह 4 बजे उठ जाते हैं। मैंने कहा-तो ढर्रा है, आदत है न? ढर्रे और आदत की कितनी कीमत है? बोले कुछ विशेष नहीं।
मैंने कहा और जो तुम्हें मिला है, उसकी कितनी कीमत है? बोले कि फिर कह रहा हूँ, वो कीमत से आगे की बात है। अमूल्य है। मैंने कहा अमूल्य को फिर गवा क्यों देना चाहते हो? बैठे हो मेरे साथ। कुछ हुआ है। अब उठके चले क्यों जाना चाहते हो? वो निरुत्तर थे। कुछ कह नहीं पाए। ऐसा होता है हमारे साथ।
खोजते रहते हैं, खोजते रहते हैं मिलता नहीं। जब मिल जाता है तो हमें इतनी बुद्धि आती नहीं कि अब मिला है तो पकड़ लो बिलकुल। छोड़ मत देना।
श्रोता३ : सर, पकड़ कौन रहा है?
वक्ता: जो गवाए बैठा था।
श्रोता३ : सर वो भी तो मेरी पर्सनालिटी (व्यक्तित्व) है वो विचार आया कि इसको पकड़ना है।
वक्ता : तुम वही हो। तुम उसके अलावा किसी की बात करो मत। तुम क्या आत्मा को जानते हो?
श्रोता : नहीं। पर वही कह रहा हूँ..
वक्ता: तो बस व्यक्तित्व है न। हाँ, बस। तुम तो वही हो। उसी से पूरा ऐका है तुम्हारा। तो बस वही। जब पूछते हो कौन पकड़ रहा है, तो ऐसा प्रदर्शित करते हो जैसे कि कईं विकल्प हो पकड़ने वाले के। विकल्प कहाँ है? तुम तो बस एक को जानते हो। अहंकार को। व्यक्तित्व को। तो वही है और कौन हो सकता है।
श्रोता : तो बुद्धि, मन, शरीर, ये सब भी तो उससे ही जुड़े हुए हैं। उससे अलग थोड़ी हैं।
वक्ता : किससे जुड़े हुए हैं?
श्रोता : जिसको आप अहंकार बोल रहे हो।
वक्ता : वो तो सदा है। अहंकार सदा है। तो बुद्धि और मन भी उससे सदा जुड़े ही हुए हैं। तो?
श्रोता : जैसे आपने अभी जो घटना बताई है, ये मैं अपने अंदाज़े से ही बोल रहा हूँ कि उस व्यक्ति के अहंकार या व्यक्तित्व का खंडन हुआ होगा?
वक्ता: नहीं होता न।
श्रोता : नहीं होता। तो फिर वो भी जो कह रहा है वो यथार्थ नहीं था। वो भी कल्पना ही थी?
वक्ता : नहीं, कल्पना नहीं थी। आपको जो उपलब्ध होना है, वो सदा ही उपलब्ध है। तो यदि आप उसकी उपलब्धि की बात कर रहे हो तो ये कभी भी कल्पना नहीं हो सकती। कोई अगर सपने में भी बोल दे कि है। तो कल्पना नहीं कर रहा है। क्योंकि है। पर सपना भी है। कोई यदि सपने में भी कह दे कि सत्य है। तो गलत थोड़ी कह रहा है। क्योंकि सत्य के अतिरिक्त है क्या? पर चूँकि सपने में कह रहा है इसलिए सपना भी है। और यदि सपना तुमने जारी ही रखा, तो जो सत्य तुम्हें सपने में मिला था, वो सपने के ही साथ चला भी जाएगा। जब सत्य सामने आए, तो सपना छोड़ो, और सत्य को पकड़ो। और सत्य तो हमेशा किसी न किसी सपने से ही आएगा। ये मत सोचना सत्य, सत्य से आएगा। क्योंकि फिर तो तुम्हारे पास आएगा ही नहीं।
तुम निरंतर किस में जी रहे हो? सपनों में। सत्य यदि सत्य से आना हो, तो तुम्हें कब मिलेगा? तुम्हें तो मिल ही नहीं सकता।
अहंकार को भी सत्य मिल जाता है*,** इसी को तो अनुकंपा कहते हैं ।*
श्रोता: तो जब सत्य आया, तो अहंकार टुटा? या अहंकार ने सत्य को देख लिया?
वक्ता : अहंकार के रास्ते पर चलते हुए सत्य से मुलाकात हो गई।
श्रोता : तो सत्य से मुलाक़ात होने पर अहंकार का अस्तित्व रहा या अहंकार खत्म हो गया?
वक्ता : अहंकार की मुलाकात हुई है तो अहंकार का अस्तित्व तो है ही ना। अहंकार की मुलाकात हुई है तो अहंकार का अस्तित्व तो है ही।
श्रोता : तो सत्य कहीं अहंकार के अस्तित्व का खंडन नहीं करता।
वक्ता : अहंकार होता है या नहीं होता है? जिसके लिए अहंकार होता है, उसके लिए तो है ही। तुम क्या सोच रहे हो कि सत्य और अहंकार एक ही तल पर हैं? तुम अहंकारी हो। ठीक? हम सब जितने लोग हैं, वो सब एक माया में जी रहे हैं। हमारे माया में जीने से क्या सत्य का कुछ बिगड़ जाता है? तो दोनों हैं ना। पर दोनों अलग अलग तल पर हैं। एक साथ हैं क्या? अलग अलग तल पर हैं। माया है। कहाँ है? ये सब। सत्य है? वो भी तो है ही। और दोनों का व्यापक फैलाव है। दोनों अनादि हैं। दोनों विस्तृत।दोनों में कभी कभी, अचानक एक सीढ़ी जुड़ जाती है। वो दो आयाम जुड़ जाते हैं। उसको अनुग्रह कहते हैं। उसी को गुरु भी कहते हैं।
अपनी आँखों से जो तुम देख रहे हो, वो तो सब मिथ्या। पर इन्हीं आँखों से तुम्हारे सामने कभी कोई बैठा होता है जो तुम्हें मिथ्या के पार ले आता है। अब ये बड़ी अभूज पहेली है। कि आँखों से जो दिखा, वो तो सब भ्रम। पर इन्हीं आँखों से एक ऐसा दिखा जो भ्रम के पार ले गया। ऐसा कैसे हो गया? होता है।
एक सीढ़ी होती है जिसका एक सिरा संसार में और एक सिरा सत्य में होता है। जब ऐसी सीढ़ी मिल जाए और वो तुम्हें जब भी मिलेगी, सिर्फ संयोग से मिलेगी, अचानक से मिलेगी। तुम्हें नहीं चाहिए होगी। जब ऐसी सीढ़ी मिल जाए तो उसको छोड़ मत दो। उसका पूर्ण उपयोग करो।
श्रोता : हम लोग बात करते हैं कि इतना चालाक है हमारा अहंकार, मन। तो उस समय तो फिर वो ये चेष्ठा करता होगा कि इसको भी खींच के भ्रम बना दूँ?
वक्ता : पूरी। पूरी कोशिश करता है।
श्रोता : लेकिन पता कैसे चलेगा कि सत्य वही है?
वक्ता : जो कुछ तुम्हारे साथ हो रहा होता है, वो उसकी उपस्थिति में होना कम हो जाता है। बस यही निशान होता है। सिर्फ इसी से तुम अंदाज़ा लगा सकते हो कि शायद वही है। और अंदाज़े पर ही चलना होता है क्योंकि कोई सुवस्थित परिणाम तुम्हारे सामने आएगा नहीं।
श्रोता : सर तो खाली बैठने से अनुकंपा..? मतलब..
वक्ता : वो वहाँ खाली बैठने से बाहरी खालीपन की बात नहीं कर रहा है। खाली बैठने से अर्थ है उस भाव से मुक्ति जो भाव कहता है कि कुछ करते रहो ताकि तरक्की होती रहे। जो खाली बैठा है, वो हो सकता है खाली बैठने से इतना आनंदमग्न हो जो रोज़ ५० किलोमीटर दौड़ लगा दे। रोज़ ५० किलोमीटर थोडा ज़्यादा हो गया।
(श्रोतागण हँसते हुए)
श्रोता : ५ किलोमीटर।
वक्ता : वो थोडा कम हो गया।
हो सकता है कि बाहर बाहर अभी भी खूब कर्म होता रहे। मैं भीतरी निष्क्रियता की बात कर रहा हूँ। कि अंदर से निष्क्रिय हो गये क्योंकि अंदर से जब क्रिया होती है तो उसका एक ही प्रयोजन होता है। पूर्णता हासिल करना। और एक ही उसकी मान्यता होती है कि मैं अपूर्ण हूँ। मैं अपूर्ण हूँ, कुछ करो ताकि कुछ हासिल हो जाए। उससे यदि मुक्ति मिली है तो उस मुक्ति को पकड़े रहो। तुम्हें वो सेतु मिल गया है, सीढ़ी मिली है। ध्यान दो की सीढ़ी है। अब छोड़ मत देना। जिन्हें नहीं मिला, वो तो अभागी थे। और जिन्हें मिलकर भी नहीं मिला, उनसे बड़ा दुर्भाग्य किसका है?
श्रोता : ऐसा होता है लेकिन निरंतरता नहीं रहती है। जैसा आपने बोला कि इसको छोड मत देना, तो वो पकडे रेहने वाली स्थिति नहीं रहती है। कुछ न कुछ ऐसा होगा कि हमारा उधर से ध्यान चला जाएगा।
वक्ता : पकडे हो, पकडे हो, पकडे हो। जब तक पकडे हो, तब तक कैसा अनुभव हो रहा है?
श्रोता : तब तक मतलब जैसे होश नहीं है अपना..
वक्ता : मस्त हो न। तो अब मैं आगे की बात बताता हूँ उनसे क्या हुई।
मैंने उनसे पूछा कि ज़िन्दगी भर आपको क्या चाहिए था? बोले शांति। अंग्रेजी में उनसे बात हो रही थी। बोले- पीस (शांति)। मैंने कहा अभी कैसा है? बोले शांति। तो मैंने कहा अब जाना क्यों है? फिर निरुत्तर।
मैं आपसे पूछ रहा हूँ आपको अंततः क्या चाहिए?
श्रोता : शांति।
वक्ता : और आप जो कुछ भी कर रहे हैं, सिर्फ उसी के हेतु कर रहे हैं। और यदि वो है आपके पास अभी, तो जो आखरी और ऊँचे से ऊँचा, जो आप मांग सकते थे, वो मिल गया। अब और कुछ नहीं चाहिए।अब तो उठ के चले क्यों जाते हो?
श्रोता : क्योंकि आदत है।
वक्ता : आदत भारी पड जाती है न। देखो न उन्होंने क्या उत्तर दिया। बोले- कि अब सालों से आदत है की इतने बजे जा कर के, द्वार बन्द हो जाने से पहले बिस्तर पर पड़ जाना है। वो खुद ही अचकचा गए। कि ये तो मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। मैं अभी ये कर रहा था और ध्यान ही नहीं दे रहा था कि एक ज़रा सी आदत के कारण मैं क्या छोड़ रहा हूँ?
जब मिला हुआ है तब छोड़ते क्यों हो? और छोड़ने के बाद फिर भटकते हो की दुबारा मिल जाए।
श्रोता : क्या आदत को भी अहंकार की चालाकी ही बोलेंगे?
वक्ता: वो ही है। और क्या है।
श्रोता : उसे जंचता नहीं कि वो शांति में रहे?
वक्ता : ये देखिये आपने कितनी खतरनाक बात पकड़ी है। की आपके भीतर कुछ है जिसको पसंद नहीं है की आपको शान्ति मिले। आपके भीतर कोई बैठा है जिसे ये बिलकुल रुझता नहीं है कि आप शांत हो जाएं।
श्रोता : तो फिर शान्ति के लिए इतना परेशान क्यों करता है?
वक्ता : वो नहीं करता।
श्रोता : परेशान है तो परेशान नहीं करे?
वक्ता : वो परेशान है। वो किसलिए परेशान है? की शान्ति मिले।
श्रोता : हाँ।
वक्ता : उसकी पूरी पहचान क्या है? परेशानी। किस बात की परेशानी? की शान्ति नहीं मिली। उसकी ज़िन्दगी कब तक है? जब तक शान्ति..
श्रोता : जब तक शांति नहीं मिल रही है।
वक्ता : जिस दिन शांति मिल गई उसका क्या होगा? वो मर जाएगा। वो चिल्ला रहा है की शांति चाहिए। और ये चिल्लाना ही उसका जीवन है। जिस दिन मिल गई शांति, उस दिन चिल्ला पाएगा क्या? तो खत्म हो जाएगा। तो इसिलए कभी मिलने भी नहीं देगा। अब ये बड़ी अजीब बात है। ऊपर ऊपर से तो चिल्लाएगा की चाहिए। शांति चाहिए। पर जब मिल रही होगी, तब मिलने नहीं देगा।
श्रोता : मन के स्वभाव में तो शान्ति जैसी कोई बात ही नहीं है फिर?
वक्ता : स्वभाव मन का भी शांति ही है। पर मन की चाल शांति की नहीं है। स्वभाव तो है ही। मन का स्वभाव आत्मा है। आत्मा शांति है।
श्रोता : हम यहाँ जब बात कर रहे हैं तो मन और आत्मा भी कुछ अलग नहीं है?
वक्ता : अलग हैं। जब तक मन फैला हुआ है। और इधर उधर पदार्थों को, दस चीजों को आत्मा समझ रहा है तब तक तो मन और आत्मा अलग हैं ही। वस्तुतः अलग अलग नहीं है कुछ। वास्तव में अलग अलग नहीं हैं। पर आप मन से पूछो तो कहेगा अलग अलग हैं।
श्रोता : हमें, मतलब वही बात आ जाती है कि, हमें भी यही बताया गया है कि दोनों अलग अलग चीज़ हैं। आप ऊपर उठके देखो सिर्फ मन को। फिर साक्षी भाव की बात होती है। तो हमेशा यही बताया गया है की द्वैत है। मन अलग है। आत्मा अलग है।
वक्ता : मन और आत्मा अलग-अलग नहीं है क्योंकि आत्मा कुछ होती ही नहीं। दो चीजें अलग-अलग तब होंगी ना जब दोनों चीजें कुछ हों। मन और आत्मा को अलग अलग करके मन बड़ी गहरी चाल खेलता है। वो आत्मा को भी मन जैसा ही कोई पदार्थ बना देता है। ये मन है, ये आत्मा है। अब ये दोनों क्या हो गए? ये दोनों एक ही तल पर हो गए। तो मन ने आत्मा का खूब अपमान कर लिया। जिसके सामने सिर झुकाना था, उसको अपने ही तल पर ले आया। अब सिर कैसे झुकेगा?
मात्र मन है। या कह लीजिये की मात्र आत्मा है। पर ये न कहना कभी की दो हैं।
श्रोता : इसका स्थान कहाँ है सर?
वक्ता : किसका स्थान?
श्रोता : बॉडी (शरीर) में आत्मा का स्थान?
वक्ता : सारे स्थान मन में होते हैं। बॉडी (शरीर) में कोई स्थान नहीं होता। बॉडी (शरीर) का ही स्थान मन में हैं। स्थान माने आकाश। ये समस्त विस्तार क्या है? ये मन है।
श्रोता : इस बारे में मैंने एक लेक्चर (प्रवचन) में सुना था कि आत्मा बाल के नोंक के दस हजारवें वाले हिस्से के बराबर होती है और हार्ट (दिल) में होती है। ये क्या..?
वक्ता : ये समझाने का तरीका है।
श्रोता : गलत है?
वक्ता : नहीं। गलत नहीं है। बिलकुल ठीक है। ये वो अपनी ओर से नहीं बोल रहे हैं। ये शास्त्रोक्त है। बिलकुल ऐसे ही कहा गया है की आत्मा इतनी सूक्ष्म है, इतनी सूक्ष्म है कि जैसे बाल के सिरे का भी, शतांश, सहस्त्रांश । ये समझाने की बात है। की उतनी छोटी है, इतनी छोटी है। तो तुम अपनी इन्द्रियों से कैसे देख पाओगे? ये बस ये कहने की कोशिश की जा रही है कि तुम्हारी आँखें नहीं देख पाएंगी उसे। अर्थात आँखें जो भी देखें, उसमें मत खोजेने लग जाना। वो इतनी सूक्ष्म है कि आँखों से नहीं दिखेगी। बस इतना कहा जा रहा है। और कुछ भी नहीं।
श्रोता : लेकिन इंफाइनाइट (असीम) भी है?
वक्ता : हाँ। इंफाइनाइट से भी अर्थ यही है की फाइनाइट (सीमित) नहीं है। जो कुछ भी फाइनाइट है, उसे तो तुम्हारी आँखें देख ही लेंगी। फाइनाइट मतलब सीमित। जिसकी तुम दीवाल बना सको। जिसकी चार दिवारी निर्धारित कर सको। आत्मा की नहीं कर सकते। तो वो सूत्र समर्पण का सूत्र है। कि आँखों से मत खोजने लग जाना। आँखें खोजेंगी तो कहाँ खोजेंगी? संसार में। तो बस इतना ही कहा जा रहा है कि संसार की किसी भी वस्तु या व्यक्ति में मत खोजने लग जाना। वहाँ नहीं मिलेगा।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।