वक्ता: प्रश्न है कि अगर ये स्पष्ट ही दिखने लग जाए कि दुनिया कैसी है, तो क्या इस दिखने के बाद दुनिया वैसी ही रह जाती है?
नहीं, बिलकुल भी नहीं, क्योंकि दुनिया रूप और आकर से ज़्यादा नाम और धारणा है। एक बार आपकी आँखें साफ़ हो गईं उसके बाद आप दीवार को, फूल को, जानवर को वैसा ही नहीं देख पाएँगे जैसा आपने पहले देखा था, दुनिया बदल गई। कोई पदार्थ नहीं बदला, दुनिया फिर भी बदल गई, और ये आप किसी को प्रमाणित नही कर पाएँगे पर दुनिया बदल गई।
श्रोता: सर, क्या दुनिया ख़त्म हो जाएगी या उसका परिवर्तन हो जाएगा।
वक्ता: परिवर्तन हमेशा पुराने के सन्दर्भ में होता है। परिवर्तन का अर्थ है कि पुराना गायब है और उसमें कोई थोड़ा सा बदलाव आ गया है। अगर मैं कह रहा हूँ कि दुनिया बदल गई तो मेरा अर्थ ये है कि पुराना पूर्णतया ख़त्म हो गया, परिवर्तन नहीं हो गया बल्कि ख़त्म हो गया, बदल गई। इसी कारण से हमें ये जान पाना करीब-करीब असंभव है कि खुली हुई आँखों से जब दुनिया को देखा जाता है तो वो कैसी दिखती है, क्योंकि वो एक परिवर्तित दुनिया नहीं होती है। परिवर्तित दुनिया की तो आप कल्पना कर लोगे। वो आपकी मान्यताओं के आस-पास की ही है तो आप उसकी कल्पना कर लोगे। खुली आँखों से जो दुनिया देखी जाती है वो बिलकुल ही अलग होती है।
श्रोता: अगर दुनिया की पुरानी तस्वीर हट गई तो क्या नई तस्वीर आएगी?
वक्ता: तुम जिस भी तस्वीर की बात करोगे वो पुरानी तस्वीर से सम्बंधित ही होगी। तुम जिसको नयी बोल रहे हो, वो भी तस्वीर ही है न, तो पुरानी से सम्बंधित होगी। जब आँख खुलती है तो कोई नई तस्वीर नहीं आती। बस, ये समझ लो कि पुराना बिल्कुल साफ़ हो जाता है। कोई नई तस्वीर नही आती है, पुराना साफ़ हो जाता है।
श्रोता: सर, आपने कहा था कि यकीन करना सच का एक पुख्ता विकल्प हो सकता है, तो जब सोचा तो ऐसा लग रहा है कि एक प्रक्रिया होती है- जैसे हम संसार में यकीन करते हैं और फिर हमें एहसास होता है कि कुछ गड़बड़ है और चीज़ें वैसी नहीं है जैसी दिखाई पड़ती हैं और फिर कहीं न कहीं मानने से जानने तक की पूरी प्रक्रिया होती है लेकिन, जैसे जिन चीज़ों की हम बात कर रहे हैं कि संसार से परे भी एक दुनिया है और इस चीज़ को हम जानते तो नहीं है पर हम इस पर यकीन कर रहे हैं क्यूँकी हम वहाँ तक नहीं पहुँच सकते हैं कि उसको जान जाएँ तो मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या वाकई यकीन करना सच का एक विकल्प मात्र है या फिर कहीं ना कहीं एक रास्ता है, सच तक पहुँचने के लिए क्यूँकी मानने से ही जानने तक का सफ़र तय किया जा सकता है और इसीलिए शायद श्रद्धा का भी महत्व है।
वक्ता: देखो, पहली बात तो ये कि इस दुनिया से हट के कोई दुनिया नहीं है। इस दुनिया की सीमाओं को जाना जा सकता है पर ये बिलकुल भी नहीं कहा जा रहा है कि उन सीमाओं से आगे एक दूसरी दुनिया है। क्या ये बात स्पष्ट हो पा रही है?
श्रोता: जी, सर।
वक्ता : जब ट्रान्सेंडैंटल की बात होती है तो उसका यह अर्थ नहीं है कि कोई और लोक भी है, कोई और दुनिया भी है। उसका अर्थ इतना ही होता है कि ये जो जगत है, इसकी सीमाएँ हैं साफ़-साफ़ और इसकी सीमा है- मेरा मन। समझ रहे हो?
श्रोता : जी, सर।
वक्ता: इस जगत की सीमाएँ जानने के लिए किसी दूसरी दुनिया में यकीन करने की ज़रूरत नहीं है सिर्फ इस जगत के प्रति आँखें खोलने की ज़रूरत है। मैं ये बिलकुल भी नहीं कह रहा हूँ कि तुम यकीन करो कि कोई दूसरी दुनिया है। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम जाँच पड़ताल करो कि ये दुनिया क्या है। किसी भी सिद्ध पुरुष ने ये कभी नहीं कहा कि कोई दूसरी दुनिया है। उसने यहाँ तक तो कहा होगा कि ‘’ये जिसको तुम दुनिया समझते हो, ये झूठी है।’’
तुमने श्रद्धा शब्द की बात की, श्रद्धा किसी दूसरी दुनिया में यकीन करने का नाम नहीं है। सच तो यह है कि तुम किसी भी चीज़ में यकीन कर रहे हो अभी तो तुम श्रद्धा के आस-पास भी नहीं हो पाओगे। श्रद्धा किसी प्रकार का कोई यकीन नहीं है। श्रद्धा और यकीन का अंतर समझना- याद रखना कि यकीन हमेशा किसी चीज़ में किया जाता है, कोई वस्तु होगी ज़रूर। यकीन की हमेशा कोई वस्तु होगी और वो मानसिक होगी और वो इसी दुनिया की होगी। मन माने यही दुनिया। तो यकीन का, विश्वास का हमेशा कोई केंद्र होगा, कोई विषय होगा और वो विषय भी जो है वो दुनिया में ही होगा।
श्रद्धा का कोई विषय नहीं होगा। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं किसी एक भगवन में श्रद्धा रखता हूँ। श्रद्धा का तो अर्थ ही है कि जितने भी केंद्र थे विश्वास के, मैं उनको पीछे छोड़ आया हूँ। विश्वास का हर केंद्र हमारा सहारा होता है।
श्रद्धा का अर्थ है पूरे तरीके से बेसहारा हो जाना। विश्वास का हर केंद्र हमारा अहंकार होता है। श्रद्धा का अर्थ है पूरे तरीके से निरअहंकार हो जाना। विश्वास का हर केंद्र हमारे संस्कारों से ही उपजता है। श्रद्धा का अर्थ है पूरे तरीके से निर्संस्कार हो जाना।
तो श्रद्धा किसी भी किस्म का विश्वास नहीं है। विश्वास विकार है। तुम दावा कर सकते हो कि तुम्हें विश्वास है तो पूछा जाएगा कि क्या विश्वास है? तो तुम उसको खोल के बता भी दोगे क्यूँकी वो सिर्फ़ विचार ही है और हर विचार की अभिव्यक्ति हो सकती है पर, श्रद्धा विचार नहीं है और इसी कारण श्रद्धा को अभिव्यक्त भी नहीं किया जा सकता।
आम तौर पर जो तुम अपने आस-पास देखते हो और जिसको श्रद्धा का नाम दिया जाता है वो श्रद्धा नहीं है, वो विश्वास भी नहीं है वो अंधविश्वास है। विश्वास टूटेगा क्यूँकी किसी और पर किया जा रहा है। उसका कोई केंद्र है और दुनिया का जो भी केंद्र हो, उसके खिसक जाने की संभावना हमेशा बनी रहती है इसलिए हर विश्वास का हश्र एक ही होता है कि विश्वास टूट गया।
श्रद्धा का चूँकि कोई केंद्र नहीं होता वो सारे केन्द्रों को पहले ही तोड़ चुकी होती है। वो पहले ही पूर्णतया बेसहारा हो चुकी होती है। वो एक दम निराश्रित होती है। इसीलिए उसका कोई कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता। जो किसी पर निर्भर ही नहीं करती, उसका कोई क्या बिगाड़ लेगा। इसलिए विश्वासी डरा रहता है कि कहीं मेरे विश्वास को चोट न लग जाए। वो अपने विश्वास को संभाले-फिरे घूमेगा। वो आपसे बात भी नहीं करना चाहेगा। अगर उसको ये शक है कि आप उसके विश्वास को चुनौती दोगे तो वो इधर-उधर छुपेगा या फिर वो आक्रामक हो जाएगा। या तो वो पलायन करेगा या आक्रमण करेगा। ये विश्वासी का काम है, क्यूँकी उसके विश्वास को संरक्षण की ज़रूरत है और विश्वास इतना छोटा होता है कि तुम्हारा विश्वास ही तुम्हीं से कहता है कि मुझे बचाओ, और तुम अपने विश्वास को बचाने के लिए उस पर दस तरीके के आवरण डालते हो। श्रद्धा नहीं कहती कि मुझे बचाओ बल्कि श्रद्धा तुम्हें बचाती है। अन्तर समझना।
विश्वास कहता है कि मुझे बचाओ और तुम्हें विश्वास को बचाना पड़ता है और श्रद्धा कहती है कि मुझे क्या बचाओगे तुम, मैं तुम्हें बचा रही हूँ।
श्रद्धालु न तो तर्क द्वारा अपना मत सिद्ध करने की कोशिश करेगा और न ही वो तर्क से भागेगा। उसे कोई डर नहीं है। उसके पास खोने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। बात समझ रहे हो?
श्रोता: जी, सर।
वक्ता: श्रद्धा और विश्वास- ये दोनों शब्द कभी एक ही साँस में मत बोल देना। ये दोनों बहुत दूर के शब्द हैं। विश्वास, तुम्हारे अहंकार से जनित है; वो तुमसे हमेशा छोटा होगा क्यूँकी तुम्हीं से निकला है और श्रद्धा है इस बात का स्पष्ट होकर जान लेना कि विश्वासों की सीमा है और हर सीमा के पार कुछ होता है। जो है वो इस दुनिया जैसा बिलकुल नहीं। तो इसीलिए उसको दूसरी दुनिया भी नहीं कह सकते। तो बड़ी पागल जैसी होती है, श्रद्धा। श्रद्धा कहती है कि मैं ऐसी बावली हूँ कि जो कुछ तुम मुझे दिखा रहे हो वो तो नहीं लूँगी क्यूँकी वो इसी दुनिया का है उसको तो मैं मानती नहीं। मुझे दिख गया है कि वो झूठा है। जो कुछ तुम मुझे दिखा रहे हो वो मैं लूँगी नहीं और तुम जो मुझे दिखा रहे हो उसके अतिरिक्त और भी मैं कुछ नहीं लूँगी। न तुम्हारी दुनिया, न कोई और दुनिया।
बहुत सारे लोग जो विश्वासों से दूर भागते हैं वो मात्र इतना ही करते हैं कि विश्वासों के एक सेट से हट करके विश्वासों के दूसरे सेट पर जाकर के बैठ जाते हैं और ये बड़ी आम घटना है। पहले मेरा विश्वास यह था कि इश्वर है और अब मेरा विश्वास यह है कि इश्वर नहीं है। आपने जाना कुछ नहीं है। ऐसा नहीं है कि आपके विश्वास खंडित हो गए हैं। विश्वासों को तोड़ करके जीना बड़ी बहादुरी का काम है इसीलिए हमारा जब एक विश्वास टूटता है तो हम दूसरे विश्वास की शरण में चले जाते हैं और कोशिश करते हैं कि उसको बचाएँ। पर समय तो उसको भी तोड़ेगा। हमने बात करी थी न कि विश्वास तो इतना कमज़ोर होता है कि उसको हमारे संरक्षण की ज़रूरत है, वो हमें क्या शरण देगा। दूसरा भी टूटेगा और जब दूसरा भी टूट जाता है तो हम तीसरे की शरण में चले जाते हैं। हमारी भाषा भी तो ऐसी ही हो गई है। तुम देखो न कि हम बात कैसे करते हैं, हम कहते है कि ‘’मेरा विश्वास है कि।’’ और इस बात को हम बड़ी ठसक के साथ कहते हैं। समझ रहे हो?
श्रद्धा का अर्थ है कि पुराने सब को तो तोड़ ही दूँगा और नया कुछ बनाऊँगा नहीं। हममें से ज़्यादातर लोग तो पुराना खंडित करने को तो एक बार को तैयार हो जाते हैं पर फिर जल्दी ही उन्हें कुछ नया निर्मित भी करना होता है, और फिर ये कुछ विशेष हुआ नहीं। पुराने को तो तुमने खंडित कर दिया पर तुमने नया कुछ निर्मित कर लिया। कोई बात बनी नहीं।
श्रद्धा का अर्थ है- पुराना तो खंडित कर ही दूँगा और नया कुछ निर्मित करूँगा नहीं।
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।