इतनी जल्दी उत्साहित क्यूँ हो जाते हैं?

Acharya Prashant

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इतनी जल्दी उत्साहित क्यूँ हो जाते हैं?
उत्साह और निरुत्साह एक दूसरे की छाया है। बेईमानी हमारी ये होती है कि अचानक किसी दिन आएँगे 'आज मैं ये कर दूँगा, वो कर दूँगा।' ऊँचे-ऊँचे दावे, बड़ी-बड़ी बातें और वो बड़ी बातें हम कर ही इसीलिए रहे हैं ताकि कल से फिर कुछ न करना पड़े। जो असली आदमी होता है उसके पास एक शान्त, स्थिर, शीतल उत्साह होता है। जब उत्साह सहज बन जाए, उत्साह में जब एक सहजता हो, आपको उत्साह चाहिए ही नहीं, आपका सहज काम ही ऊर्जावान हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न है कि आपने कहा था कि उत्साह में हम अधिकतर ऐसे कार्य करते हैं जो हमें बेचैनी देता है और मुक्ति से दूर ले जाता है, परन्तु अगर मैं अपने जीवन को देखती हूँ तो मैं पाती हूँ कि ज़्यादातर मैं उदासीन नहीं रह पाती हूँ। या तो मैं अति उत्साहित रहती हूँ या फिर निरुत्साहित रहती हूँ और मुझे पता होता है कि हाँ, मैं बहुत अधिक उत्साहित हूँ चीज़ों को लेकर के लेकिन मैं उसको रोक नहीं पाती हूँ और दैनिक जीवन में तो बिलकुल भी इसका अनुसरण नहीं कर पाती हूँ। तो आपके शिक्षाओं को कैसे दैनिक जीवन में, विशेष रूप से इस चीज़ का कैसे अनुकरण करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये देखकर के कि उत्साह और निरुत्साह एक दूसरे की छाया है। उत्साहित होते ही कुछ करोगे, जो करोगे उससे वो तो मिल सकता ही नहीं है जिसके लिए करा था। तो फिर हतोत्साहित हो जाओगे। फिर हतोत्साहित होना पसन्द नहीं आएगा, तो फिर कहीं से उत्साह जुगाड़ लाओगे, फिर किसी दिशा में थोड़ा भागोगे, फिर भागकर के फिर निढाल पड़ जाओगे।

वास्तव में जो एकदम, आपसे नहीं कह रहा हूँ व्यक्तिगत तौर पर मत ले लीजिएगा कि बुरा मान जाएँ, पर बहुत सारे ऐसे बदनीयत लोग होते हैं जो क्षणिक आवेग बहुत दिखाते हैं, उनकी पहचान ही यही होती है मोमेंट्री बर्स्ट्स ऑफ़ ग्रेट एनर्जी , उत्साह का क्षणिक विस्फोट उनमें ख़ूब देखने को मिलेगा और वो विस्फोट देखने को मिलेगा तीन महीने में एक दिन। वो विस्फोट उनकी मजबूरी होता है क्योंकि तीन महीने में कुछ करा ही नहीं होता। तो फिर एक दिन जब बिलकुल पाप का घड़ा भर जाता है तो कहते हैं 'मैं ये कर दूँगा, मैं वो कर दूँगा।’ बड़ा उत्साह दिखाते हैं।

जो असली आदमी होता है उसके पास एक शान्त, स्थिर, शीतल उत्साह होता है। शीतल उत्साह जो बहुत ज़ोर-ज़ोर से नाच-गाना नहीं करता, घोषणाएँ नहीं करता, शोर नहीं मचाता। चुपचाप काम करता रहता है बिना रुके। जैसे फ्रिज होता है न, फ्रिज, शीतल! लगातार चलता रहता है, आवाज आती है कभी उसकी? लगातार काम करता रहता है बारहों महीने।

ऐसा चाहिए आदमी लगातार काम करता रहे। शीतल उत्साह! बेईमानी हमारी ये होती है कि अचानक किसी दिन आएँगे 'आज मैं ये कर दूँगा, वो कर दूँगा।' ऊँचे-ऊँचे दावे, बड़ी-बड़ी बातें और वो बड़ी बातें हम कर ही इसीलिए रहे हैं ताकि कल से फिर कुछ न करना पड़े। उन बड़ी बातों में बदनीयती भी है और मजबूरी भी। क्योंकि कोई पूछ सकता है न पकड़कर ये बताओ पिछले दो महीने क्या किया है। जब कुछ नहीं होता, जवाब देने को तो आप कहते हैं, ‘कुछ किया नहीं पर आज मैं कुछ करके दिखा दूँगा।’ और हो सकता है उस दिन आप कुछ थोड़ा-बहुत करके भी दिखा दे और वो करके भी आप क्यों दिखा रहे हैं? ताकि आगे के लिए आपको अधिकार मिल जाए, एक आन्तरिक लाइसेंस , अनुज्ञा मिल जाए कि देखो महीने की पहली तारीख़ को इस आदमी ने कितनी ज़ोर से उछलकर क्या करके दिखाया था! तो अब महीने के बाक़ी उनतीस दिन इसको सोने का हक़ मिल गया है अब ये मस्त सोएगा! और कोई पूछने आएगा कि भई! तुम इतना सो क्यों रहे हो? तो याद दिलाएगा, ‘एक तारीख़ याद है न, जानते हो मैं कौन हूँ? जो एक तारीख़ को ऐसा उछला था कि छत पर डेंट (सेंध) मार दिया।’ कैसा उत्साह चाहिए हमको? हमको चिरंजीवी उत्साह चाहिए, हमको अमर उत्साह चाहिए।

उत्साह चाहिए जो पता ही न चले। पता ही नहीं चल रहा उत्साह है पता नहीं चल रहा। सूरज जैसा उत्साह चाहिए! जब दिख रहा है तब भी है जब नहीं दिख रहा है तब भी है ऐसा उत्साह चाहिए। वो तभी मिल सकता है जब उत्साह हो ही न। जब उत्साह सहज बन जाए, उत्साह में जब एक सहजता हो, आपको उत्साह चाहिए ही नहीं, आपका सहज काम ही ऊर्जावान हैं। उत्साह तब चाहिए होता है जब सहजता नहीं होती जीवन में, तब धक्का लगाना पड़ता है, उसे उत्साह कहते हैं।

जीवन ऐसा होना चाहिए कि उत्साह की कोई ज़रूरत ही नहीं है। या तो ऐसे कह लो या ऐसे कह लो कि सदा एक उत्साह है, शीतल उत्साह बना हुआ है। आप कभी विशिष्ट उत्साह तलाशोगे तो मिलेगा ही नहीं। आप पूछोगे, 'क्या ये व्यक्ति आज उत्साहित है?’ आज मोटिवेटेड है? तो पता नहीं चलेगा क्योंकि वो तो हमेशा वैसा ही रहता है। कोई खास दिन आता ही नहीं, जब वो दिखाई दे कि आज वो कूद-कूदकर कह रहा है कि दुनिया फोड़ दूँगा, ये उखाड़ दूँगा, यहाँ तोड़ दूँगा।' ऐसा कोई दिन मिलता ही नहीं और इसीलिए कभी ऐसा कोई दिन मिलेगा ही नहीं जब व्यक्ति आपको हतोत्साहित मिले कि बिस्तर पर मुँह डाल रखा है, तकिये में छुपे हुए हैं। अरे! मैं कुछ करूँगा नहीं, मैं बर्बाद हो गया हूँ, मैं क्या करूँ? या मैं सो रहा हूँ।मैं आलस में हूँ। ये दोनों ही ध्रुव आपको उसके जीवन में नहीं मिलेंगे। उसके जीवन में तो आपको क्या मिलेगा? जैसे आप बुद्ध का मध्यम मार्ग कह सकते हैं, जैसे गंगा लगातार बह रही है, और लगातार बह रहा है। लगातार बह रहा है, लगातार बह रहा है, गंगा बह रही है, किसी का ध्यान भी नहीं जाता कि बह रही है।'

कभी ऐसा होता है कि तुम जाओ कहीं पर, गंगा बह रही है; बोलो, 'अरे! गंगा बह रही है।' बह रही है तो बह तो रही ही है; और सदा से बह रही है। जब तक है तब तक बहेगी। उत्साह ऐसा होना चाहिए कि जब तक हो तो वो बहेगा, गंगा अगर बहनी बन्द हो जाए तो क्या गंगा बचेगी? गंगा बह नहीं रही तो मानो अब गंगा रही नहीं। ऐसा होना चाहिए उत्साह को कि अगर हम है तो उत्साह बहेगा। और अगर बहना बन्द हो गया तो जान लेना कि अब हम हैं ही नहीं।

उत्साह ऐसा नहीं होना चाहिए कि जैसे 'ऊपर से इनटैक्स की टंकी में किसी ने छेद कर दिया। तो फुर्र से बह निकला और जैसे वो बह निकल रहा है, थोड़ी देर में टंकी हो जाएगी खाली और वो बन्द है। उसमें ऊँगली डाल लो, नाक डाल लो, कुछ डाल लो अन्दर कुछ है ही नहीं, सूखा पड़ा हुआ है।' फिर कोई आएगा बाहर से मोटिवेटर उसको भर देगा या कोई लालच वगैरह आ गया, डर गये तो भर दिया जाएगा, फिर भर दोगे फिर उसमें से वो तुर्रा बह निकलेगा। कहेंगे, ‘उत्साह में है, देखो, अभी आज सब गीला कर दिया चारों ओर।' ऐसा नहीं होना चाहिए।

आत्मा का उत्साह कब आता है जीवन में, जब जो तुम कर रहे होते हो उसमें 'अनात्मा' नहीं होती। अनात्मा माने झूठ! जितना झूठ से आज़ाद जीवन जिओगे, उतना एक सहज बहाव पाओगे शक्ति का जीवन में, सहज बहाव! उसके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है। एफर्टलेस (सरल) होता है वो।

ऊर्जा है, और अप्रयास से उठी है वो, एक एफर्टलेस एनर्जी। (निष्क्रिय ऊर्जा) ये नहीं कि अपनेआप को धक्का दे रहे हैं, रिमाइंडर्स (अनुस्मारक) लगा रहे हैं, चारों ओर। ‘करना है, तुझको करना होगा, तू फोड़कर दिखाएगी।’ तो ये तो कुछ नहीं। हम हैं, तो हम बह रहे हैं। सहज उत्साह! सही चीज़ के साथ जुड़ो ज़िन्दगी में कभी किसी तरह के उत्साह की मोटिवेशन की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक प्रश्न और था। बहुत दिन से आपको सुन रही हूँ, लगभग डेढ़ साल से और दिसम्बर के शिविर में भी आयी थी। आपसे बहुत सारे प्रश्न भी करने थे मतलब मन में थे, चल रहे थे लेकिन हिम्मत नहीं होती थी आपसे कुछ भी पूछने की। अभी पहली बार आपसे कुछ पूछ रही हूँ तो मतलब मैं काँपने लग गयी थी, ऐसा होने लग गया था तो ऐसा क्यों होता है?

आचार्य प्रशांत: वहाँ पर ये था न, मंच पर ही ये, तो कहीं उतरकर, दौड़कर आ गया पकड़ कर मारने लग गया तो क्या होगा? अब यहाँ पर स्क्रीन है बीच में, तो थोड़ा साहस ज़्यादा है, अभी सुरक्षा है। और इसके अलावा कोई कारण नहीं होता। हमारे डर भी और किससे सम्बन्धित होते हैं? तन से और मन से। एक डर ये होता है कि कोई उधर से कूदकर के आएगा, मार-वार देगा। दूसरा ये होता है कि ऊपर से कुछ बोल देगा जिससे अहंकार को चोट लग जाएगी। तन को चोट लगेगी या मन को चोट लगेगी, यही डर होते हैं। अब प्रश्न तो अभी पूछ ही लिया तो माने मन की चोट से तो नहीं घबराते तो तन की ही चोट से घबरा रहे होंगे।

कहीं से सूचना मिल गयी होगी या कल्पना कर ली होगी कि ये ऐसा भी करते हैं कुर्सी से उछलकर यकायक नीचे आते हैं और गला पकड़ लेते हैं बिलकुल! 'कुछ नहीं है, यही सब है, मन की चाल है! बात करा करो! कुछ इसमें हानि नहीं हो जाएगी और हो भी रही है तो होने दो। सब झूठी चीज़ों की ही हानि होती है। एक दिन ऐसा आएगा न जब तन बचेगा, न मन। तो कितना बचाकर क्या कर लोगी? चीज़ अगर झूठी है तो उसकी पोल खुलने दो, निर्भीक होकर। ठीक है? डरना नहीं है!

अरे! जब मैं नहीं डरता, ऐसी बातें बोलते हुए जिसपर मुझे मार पड़ सकती है तो आप लोग तो बस सहज सवाल पूछते हो, आपका क्या डर है? डर तो मुझे लगना चाहिए कुछ भी उल्टा-पुल्टा बोल रहा हूँ कोई मार ही दे तो? कोई नहीं है, कुछ नहीं डरना! चलो।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद! आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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